वीरांगनाएं जिन्होंने आजादी के लिए दी आहूति
happy independence day आजादी हर इन्सान का जन्मसिद्ध अधिकार है। हमें यह अधिकार दो सौ वर्षों से भी ज्यादा गुलामी सहने के बाद 15 अगस्त 1947 को हासिल हुआ। गुलामी की जंजीरों को तोड़ हम इस दिन आजाद हो गए। यह आजादी हमारी आन-बान और शान है। पूरा देश इस आजादी की खुशियों में तल्लीन है।
आज हमारा अपना संविधान है और अपना ही शासन (लोकतंत्र) है और अपनी संप्रभुता का वैभव है। यह हमारे लिए गौरवशाली है। हमें आजाद होने की अत्यंत प्रसन्नता है, लेकिन इसके साथ ही हमें अपने उस इतिहास को विस्मृत नहीं करना चाहिए, जो इस आजादी के लिए संघर्ष से भरा हुआ है। उन वीरों, शहीदों, वीरांगनाओं के हम सदा ऋणी रहेंगे, जिन्होंने हमारी देश की आजादी के लिए अपने-आपको न्यौछावर कर दिया।
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जंग-ए-आजादी में जां-निसार कर देने वाले उन शहीदों के प्रति हमारा कर्त्तव्य बनता है कि उन्हें अपने आदर्श मानकर देश-प्रेम की लौ को हम कभी धीमी न होने दें। उनकी कुर्बानियों को सदैव अपने दिलो-दिमाग में जगाकर रखें। आने वाली पीढ़ियों को भी उनके जीवन चरित्र से अवगत करवाते हुए देश-प्रेम के जज्Þबातों को बुलंद करें।
उनकी कुर्बानियों से भरा हमारा इतिहास एक सुनहरी आभा लिए हमें प्रेरित करता है। क्योंकि दो सौ वर्षों से अधिक की इस गुलामी को चीरने के लिए हमारे वीर-सपूतों ने जो लड़ाईयां लड़ी हैं, वो भी केवल दो-चार वर्ष की ही बात नहीं है। इसके लिए उन्होंने भी लगभग डेढ़-दो सौ वर्षों तक संघर्ष किया है।
चूंकि हम 15 अगस्त 1947 Happy Independence Day को आजाद हुए, इसके लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 को माना जाता है, लेकिन इतिहास को जांचें तो पता चलता है कि हमारे वीर-सपूत अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए इससे भी सौ साल पहले जंग-ए-आजादी के लिए मैदान में कूद पड़े थे। इसके लिए पहला युद्ध ‘प्लासी का युद्ध’ है, जो स्वाधीनता की शुरुआत था। यह युद्ध जून 1757 में अंग्रेजों व बंगाल के नवाब सिराजुदौला के बीच लड़ा गया। इस प्रकार 1757 से 1857 और फिर 1857 से 1947 तक जंग-ए-आजादी का संग्राम अनवरत जारी रहा। और आखिर हम सैकड़ों वर्षों तक पराधीन रहने के बाद 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गए।
इस जंग-ए-आजादी में जहां वीर-सपूतों ने अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया, वहीं महान नायिकाओं ने भी कुर्बानियों देकर वीरगति प्राप्त की है। रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगना को तो हर कोई जानता है, लेकिन ऐसी ही न जाने कितनी ही दृढ़ निश्चयी, बलशाली व शूरवीर महिलाओं ने अंग्रेजों से लोहा लेते हुए उन्हें देश से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दिया था। उन्हीं वीरांगनाओं में बेगम हजरत महल, रानी द्रोपदी बाई, रानी ईश्वरी कुमारी, चौहान रानी, महारानी तपस्विनी, ऊदा देवी, बालिका मैना, वीरांगना झलकारी देवी, रानी तेजबाई, नर्तकी अजीजन, ईश्वर पाण्डेय इत्यादि के अलावा बहुत सी महिला क्रांतिकारियों ने आजादी की लड़ाई में अहम् भूमिका अदा की थी।
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महारानी तपस्विनी-
जिन महानतम विभूतियों ने जीवन पर्यंत ब्रिटिश सरकार का विरोध किया, महारानी तपस्विनी भी उनमें से एक थी। उन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जनसाधारण तक को भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनके आदेशानुसार देशभक्त साधु के वेश में, क्रांति का गुप्त रूप से प्रचार करते रहे। उनके भक्त छावनियों में भी संदेश पहुंचाते थे। संदेश के शब्द इस प्रकार थे- ‘बहादुरो, जब भारत मां बंदी हो, तुम्हें चैन से सोने का हक नहीं। नौजवानो, उठो! भारत भूमि को फिरंगियों से मुक्त कराओ।’ यह दुर्भाग्य की बात है कि पता नहीं किस कारण से महारानी तपस्विनी को इतिहास के पन्नों में उचित स्थान प्राप्त नहीं हुआ है।
महारानी तपस्विनी बाई का झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से निकट का संबंध था। इतिहासकार आशा रानी बोहरा ने इस संबंध में लिखा है-महारानी तपस्विनी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी और उनके एक सरदार पेशवा नारायण राव की पुत्री थी। वह एक बाल विधवा थी। उनके बचपन का नाम सुनन्दा था। उनके अंदर बचपन से ही राष्ट्र प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। वह विधवा होने पर भी निराशापूर्ण तरीके से जीवन व्यतीत नहीं करती थी। वह हमेशा ईश्वर का पूजा-पाठ करती और शस्त्रों का अभ्यास करती थी। वह धैर्य तथा साहस की प्रतिमूर्ति थी।
धीरे-धीरे उनमें शक्ति का संचार होता गया। वह घुड़सवारी करती थी। उनका शरीर सुडौल, सुंदर एवं स्वस्थ था तथा चेहरा क्रांति का प्रतीक था। उनके हृदय में देश की आजादी की ललक थी। किशोरी सुनन्दा अपने को शेरनी तथा गोरी सरकार को हाथी समझती थी। वह उन्हें समाप्त करने पर तुली हुई थी। जैसे शेर हाथियों से नहीं डरता, वैसे ही सुनन्दा भी अंग्रेजी सरकार से नहीं डरती थी।
नारायण राव की मृत्यु के बाद सुनन्दा ने स्वयं जागीर की देखभाल करना प्रारंभ कर दिया। उन्होने कुछ नए सिपाही भर्ती किए। सुनन्दा लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काती थी और उन्हें क्रांति की प्रेरणा देती थी। जब सरकार को सुनन्दा की गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई, तो उसने सुनन्दा को एक किले में नजरबंद कर दिया। सरकार का यह मानना था कि इस कार्यवाही से यह महिला शांत हो जाएगी। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ।
ब्रिटिश सरकार ने सुनन्दा को नजरबंदी से रिहा कर दिया। यहां से वह घर लौटने के स्थान पर नैमिषारण्य चली गई और वहां रह कर संत गौरीशंकर के निर्देशन में जीवन-यापन करने लगी। सरकार ने समझा कि सुनन्दा संन्यासिन बन गई है, अत: उससे अब कोई भय नहीं है।
सुनन्दा को यहां के लोग ‘माता तपस्विनी’ के नाम से संबोधित करने लगे। रानी तपस्विनी अपने प्रवचनों के माध्यम से अध्यात्मिक ज्ञान देती थी। सभी वर्गों के लोग उनके शिष्य थे। रानी तपस्विनी अपने प्रवचनों के माध्यम से जनता में क्रांति का संदेश फैलाती थी। रानी के शिष्य साधु के रूप में जनता में निम्नलिखित संदेश का प्रचार करते थे। “अंग्रेज तुम्हारा देश हड़पकर ही संतुष्ट नहीं हो रहे। वे तुम्हारा धर्म भी भ्रष्ट करना चाहते हैं। तुम्हें गंगा मैया की सौगंध! जागो, उठो और अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के लिए तैयार हो जाओ।”
जब 1857 ई. में क्रांति का बिगुल बजा, तब रानी तपस्विनी ने भी इस क्रांति में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके प्रभाव के कारण अनेक लोगों ने इस क्रांति में अहम् भूमिका निभाई। रानी ने स्वयं घोड़े पर चढ़कर युद्ध में भाग लिया, परंतु उनकी छोटी-सी सेना अंग्रेजों की विशाल तथा सुसंगठित सेना के समक्ष अधिक समय तक नहीं टिक सकी। इसके अतिरिक्त कुछ भारतीय गद्दारों ने भी उनके साथ विश्वासघात किया। सरकार ने रानी को पकड़ने के लिए कई बार प्रयत्न किया, क्योंकि गांव वाले उनकी मदद करते थे, अत: सरकार को अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई।
रानी ने यह महसूस कर लिया था कि युद्ध के माध्यम से अंग्रेजों को पराजित करना आसान कार्य नहीं है और अंग्रेजों ने भी 1858 तक इस क्रांति का दमन कर दिया था। अत: रानी नाना साहब के साथ नेपाल चली गई। पर वहां जाकर भी वह शांति से नहीं बैठ सकी। रानी ने वहां अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। वहां से छिपे रूप में भारतीयों को क्रांति का संदेश भिजवाती और उन्हें विश्वास दिलाती थी कि ‘घबराएं नहीं, एक दिन अंग्रेजी शासन पूर्ण रूप से नष्ट हो जाएगा।’
आगे चलकर कुछ भारतीयों ने विदेशों में आंदोलन प्रारंभ कर दिया था। जैसे रास बिहारी बोस ने जापान में तथा श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इंग्लैंड तथा अन्य स्थानों पर भारतीयों के पक्ष में एक मजबूत आंदोलन प्रारंभ कर दिया था। महारानी तपस्विनी ने अंग्रेजों द्वारा भारत पर किए जा रहे अत्याचारों से नेपाल की जनता को अवगत करवाया। रानी वहां पर राष्ट्रीय भावना का प्रसार कर रही थी, पर नेपाल के राणा अंग्रेजों के मित्र थे, अत: उन्हें इच्छित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी।
अंतत:
रानी नेपाल छोड़कर कोलकाता आ गई और वहां पर उन्होंने ‘महा-भक्ति पाठशाला’ की स्थापना की। वहां पर भी रानी ने गुप्त रूप से जनता को जन क्रांति करने के लिए प्रोत्साहित किया। तिलक से उसका संपर्क हुआ। एक शिष्य खांडिकर ने जमीन फर्म क्रुप्स के सहयोग से नेपाल में टाईल बनाने का एक कारखाना स्थापित किया, परंतु यहां पर टाईल के स्थान पर बंगाली क्रांतिकारियों को देने के लिए शस्त्रों का निर्माण होता था।
खांडेकर के एक मित्र ने धन के प्रलोभन में आकर अंग्रेजों को सारा भेद बता दिया था, जब रानी को इस बात की सूचना मिली, तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ। इस समय खांडेकर कृपाराप के नाम से नेपाल में रह रहे थे, उन्हें बंदी बनाकर अंग्रेजों के हवाले कर दिया गया। ब्रिटिश़ सरकार ने उनको अनेक यातनाएं दीं, परंतु उनकी जुबान पर रानी तपस्विनी का नाम तक नहीं आया। रानी निराश हो गई। चिंता से उनका शरीर दिन प्रतिदिन कमजोर होता गया। धोखेबाज एवं देशद्रोही भारतीयों से वह घबरा गई। अंत में 1907 ईं. में भारत की यह महान विदुषी एवं देशभक्त नारी कोलकाता में ही इस संसार से चल बसी।
बालिका मैना-
नाना साहेब पेशवा की पुत्री मैना के बलिदान ने 1857 के महासमर में घृत आहुति का कार्य किया था। अंग्रेजों ने बिठूर के महल को तोपों से ध्वस्त करना शुरू कर दिया। मैना ने उन्हें बहुत समझाया पर वे नहीं माने। मैना तहखाने में चली गई। रात्रि में अंग्रेजों को गया हुआ समझकर जब वह बाहर आई, तो फिरंगियों ने उसे पकड़ लिया। ब्रिटिश अधिकारियों ने मैना से क्रांतिकारियों की जानकारी लेनी चाही। उन्हें बहुत से प्रलोभन भी दिए गए, पर उस छोटी सी बालिका ने किसी भी प्रकार की जानकारी देने से मना कर दिया।
तब उस नन्हीं सी जान को कई तरह से डराया-धमकाया गया, लेकिन वह पेशवा की पुत्री थी। उन्होंने अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया। क्रूर अंग्रेजों ने उस छोटी-सी बालिका को जिंदा ही आग में जला दिया। देश के लिए अपने-आपको कुर्बान कर देने वाली नन्हीं कली का नाम शहीदों में दर्ज हो गया और यह नन्हीं वीरांगना स्वतंत्रता संग्राम की एक मिसाल बन गई।