पा माये लोहड़ी, तेरा पुत चढ़े घोड़ी… लोहड़ी, मकर संक्राति विशेष
पा माये लोहड़ी, तेरा पुत चढेÞ घोड़ी।
माये नी माये पा पाथी, तेरा पुत चढ़े हाथी।।
कुछ ऐसे ही मनभावन लोकगीतों से लोहड़ी के पर्व की अपनी एक अलग ही पहचान रही है। खुशियां बांटने का यह पर्व लोगों के दिलों में रेवड़ी-गच्चक और मुंगफली के रूप में ऐसी मिठास भरता है कि पूरा वातावरण ही बदल जाता है। बेशक समय की रफ्तार के मुताबिक लोहड़ी मनाने के रिवाजों में बदलाव आया है, लेकिन इसकी सार्थकता कहीं न कहीं आज भी बरकरार है। पहले के समय में लोहड़ी वाले दिन सभी के दिलों में एक अजब सी उमंग देखने को मिलती थी, खासकर गांवों में। हर कोई इस त्यौहार को यादगार बनाने के लिए पूरा दिन खुशी भरे माहौल में ही गुजारता था।
ज्यों-ज्यों सूरज अपने शिखर पर पहुंचता तो युवा लोहड़ी मांगने के लिए जुंडलियों में इकट्ठे हो जाते। सूरज की ढलती लालिमा के साथ ही शुरू हो जाती लोहड़ी बनाने की तैयारी। घर-घर जाकर माता-बहनों से लोहड़ी के लिए पाथियां (उपले) एकत्रित की जातीं। थेपड़ियों का बड़ा-सा ढेर बनाकर उसे इस तरीके से सजाया जाता कि वह पूरी रात जलता रहे। पूरे हार-शृंगार से सजी लड़कियां माहौल को पूरी तरह खुशनुमा बना देतीं। वर्तमान में भी लोहड़ी पर्व पर ऐसा ही माहौल बनता है, परंतु समय के साथ कुछ-कुछ बदलाव होना संभव है।
पा नी माये पा लोहड़ी,
सलामत रहे तेरे पुत दी जोड़ी।
आज के बुजुर्गों की मानें तो लोहड़ी के दिन वाली संध्या बड़ी ही मनमोहक होती थी, क्योंकि इस दौरान लोहड़ी के लिए महिलाओं का जमघट लग जाता था। सभी सज-धज कर जहां गीतों से माहौल में खुशियों का संचार करती थी, वहीं खुद भी इस पर्व का खूब आनन्द उठाती थी। हर महिला के हाथों में थाल होता था जिसमें तिल भरे होते थे। इन तिलों को लोहड़ी में डालकर वे सुख-समृद्धि की कामना करती थी।
यह दिन खासकर उन घरों के लिए विशेष होता था, जिनके परिवार में किसी लड़के की ताजा-ताजा शादी हुई हो। या फिर किसी के घर बेटा पैदा हुआ हो। शादी वाले घर की ओर से लोहड़ी पर आकर बकायदा सभी को रेवड़ी-मुंगफली, गुड़, शक्कर बांटी जाती थी। इस दौरान लड़कियां गीत गाती थी ‘पा नी माये पा लोहड़ी, सलामत रहे तेरे पुत दी जोड़ी’। ऐसे ही अनेक गीत गाकर लोहड़ी मांगी जाती थी। देर रात तक ढोलक के फड़कते ताल, गिद्दों-भंगड़ों की धमक तथा गीतों की आवाज गूंजती रहती है। पंजाब की कई जगहों पर परंपरागत वेशभूषा पहनकर महिलाएं व पुरुष नृत्य करते हैं।
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लोहड़ी की शादी को लेकर होता था मुकाबला:
करीब 4 दशक पूर्व की गर बात करें तो त्यौहारों के दौरान प्रतिस्पर्धा का होना आकर्षण का केंद्र माना जाता था। लोहड़ी की रात भी कुछ ऐसे ही मुकाबले देखने को मिलते थे, जो आपसी सांझ को बढ़ाते थे, न कि आज के दौर के मुताबिक विवाद को जन्म देते थे। बुजुर्ग बताते हैं कि उस समय लोहड़ी की शादी को लेकर मुकाबला होता था। हर मुहल्ले में अपनी एक लोहड़ी तैयार होती थी। जैसे ही लोहड़ी को अग्नि दी जाती थी तो दूसरे मुहल्ले के लड़के-लड़कियां अपनी लोहड़ी को जगमगाने के लिए उसकी अग्नि लाने का प्रयास करते थे।
लेकिन हर कोई अपनी लोहड़ी को बचाकर रखने के लिए बकायदा पहरेदारी करता था। यदि एक लोहड़ी की आग उठाकर कोई दूसरी लोहड़ी जगा (सुलगा) लेता था तो इसे पहले वाली लोहड़ी को बयाह(शादी) कर लाने की प्रथा मानी जाती थी। यह प्रतिस्पर्धा बड़ी रोचक होती थी, इसमें भी प्रेमभाव छुपा रहता था। लोहड़ी से जुड़ी एक और प्रथा का जिक्र करते हुए दिलीप कौर बताती हैं कि यह भी एक परम्परा रही है कि जो भी व्यक्ति लोहड़ी को अग्नि देकर इसको जगाता था, उसको अगली अलसुबह ही उस स्थान पर आकर स्नान करना होता था। वहीं लोहड़ी की आग को सभी अपने घर भी लेकर जाते थे, जिसे शुभ माना जाता रहा है।
बेटियों के नाम पर भी बांटें लोहड़ी:
महिलाओं को समाज का दर्जा हासिल करने के लिए खुद आगे आना होगा। लोहड़ी जैसे त्यौहार पर भी बेटियों को पूरा मान-सम्मान मिलना चाहिए। अकसर बेटों के नाम पर लोहड़ी बांटी जाती है, लेकिन अब बेटियों को भी तरजीह देनी चाहिए। हालांकि बहुत से परिवार ऐसा करने लगे हैं जो बेटी को भी अपना बेटा ही समझते हैं।
टाहली नूं लगा मेवा,
करो गुरुआं दी सेवा।
तोरी दे विच दाणा,
असां लोहड़ी लै के ही जाणा।।
लोहड़ी को उत्तरी भारत अर्थात् पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश एवं दिल्ली आदि राज्यों में बड़े धूमधाम एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह मूलत: किसानों का पर्व है। लोहड़ी पंजाब में मनाया जाने वाला विशेष त्यौहार है और प्राय: 13 जनवरी को मनाया जाता है। पर्व के दिन देर रात तक घरों के आंगन, गलियों, मोहल्लों, बाजारों और संस्थाओं में लकड़ियों और उपलों का अलाव जलाकर हर कोई एकत्रित होकर लोकगीत गाते हुए एक-दूसरे के साथ खुशियां बांटते हैं।
पर्व भारतीय संस्कृति और सभ्यता के शाश्वत प्रतीक हैं। ऐसा ही पारस्परिक सौहार्द और रिश्तों की मिठास सहेजने का पर्व है-‘संक्रांति पर्व’। पौष मास की ठंड और आसमान में रूई की भांति फैली धुंध में आग सेकने और उसके चारों ओर नाचने-गाने का अपना ही आनन्द होता है। किसानों की खुशहाली से जुड़े लोहड़ी पर्व की बुनियाद मौसम बदलाव तथा फसलों के बढ़ने से जुड़ी है। लोकोक्ति के अनुसार, ‘लोही’ से बना लोहड़ी पर्व, जिसका अर्थ है ‘वर्षा होना, फसलों का फूटना’।
पंजाब की लोककथाओं में मुगल शासनकाल के दौरान एक मुसलमान डाकू था, दुल्ला भट्टी। उसका काम था राहगीरों को लूटना, लेकिन उसने एक निर्धन ब्राह्मण की दो बेटियों सुंदरी और मुंदरी को जालिमों से छुड़ाकर उनकी शादी की तथा उनकी झोली में शक्कर डाली। एक डाकू होकर भी निर्धन लड़कियों के लिए पिता का फर्ज निभाना, यह संदेश देता है कि हम सभी को अमीरी-गरीबी व जातिवाद को भुलाकर एक-दूसरे के प्रति आपसी प्रेम, भाईचारे व सद्भावना की भावना रखना चाहिए, ताकि देश में खुशहाली का माहौल बना रहे।
सुंदर मुंदरिये हो,
तेरा कौन बचारा हो
दुल्ला भट्टी वाला हो,
दुल्ले धी व्याही हो।
सेर शक्कर पायी हो,
कुड़ी दा सालू पाटा हो,
कुड़ी दा जीवे चाचा हो,
चाचा चूरी कुट्टी हो
नंबरदारां लुट्टी हो,
गिन गिन माल्ले लाए हो,
इक माल्ला रह गया,
सिपाही फड़ के ले गया।