अपने बेटे को बनायें सफल पति
प्रत्येक रिश्ते की अपनी एक हद, सीमा होती है चाहे वह रिश्ता मां-बेटे का ही क्यों न हो। मां को अपने बेटे के जीवन में अनावश्यक दखल नहीं देना चाहिये। मां का दायित्व केवल बेटे को वैवाहिक बंधन में बांधने का नहीं होता। बेटे को परिवार व घरेलू जिम्मेदारी निभाने की कला सिखाना उसी का कर्तव्य बन जाता है।
यह सच है कि मां अपने बेटे से बचपन से ही इस कदर जुड़ी होती है कि उसके वयस्क होने पर अथवा विवाहित होने पर बेटे से वही भावनात्मक संबंध बनाये रखती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बेटे के साथ मां का भावनात्मक रिश्ता उसके जन्म से पहले से ही जुड़ा होता है। मां अपने गर्भ में ही अपने बच्चे की हरकतें महसूस कर उससे प्यार भरा रिश्ता कायम कर लेती है। बेटा जब जन्म लेता है तो मां का सारा समय उसके लालन-पालन में ही व्यतीत होने लगता है।
बच्चा भी सबसे ज्यादा माता को ही अपने करीब पाता है। अपनी हर बात वह नि:स्संकोच होकर मां से कहता है। बच्चे के बड़े होने पर भी मां बेटे पर उतना ही अधिकार समझती है। मां चाहती है कि उसका पुत्र अपना सारा समय उसे ही दे, उसकी ही बात माने तथा अपनी सारी की सारी कमाई उसे ही लाकर दे। पुत्र जब तक अविवाहित रहता है, तब तक तो ये बातें ठीक हैं पर असली समस्या बेटे के विवाहित होने के बाद ही आती है।
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successful husband शादी के बाद लड़के का फर्ज अपनी पत्नी के प्रति भी होता है जो अपने घर-परिवार को छोड़कर इस नये घर में प्रवेश करती है। उसका भी अपने पति पर संपूर्ण अधिकार बनता है। मां बेटे की शादी के बाद भी यही चाहती है कि उसका पुत्र अपनी पत्नी से ज्यादा उसे महत्त्व दे। इसके लिये अधिकांश मातायें पुत्र को अपने भावनात्मक रिश्तों का वास्ता देने से भी नहीं चूकती।
इससे उनका लाडला न तो आदर्श बेटा ही बन पाता है और न ही आदर्श पति। एक पति और पुत्र दोनों की सफल जिम्मेदारी समझने में उसकी स्थिति काफी नाजुक हो जाती है। यदि वह मां को अधिक समय देता है तो पत्नी को लगता है कि चौबीसों घंटे मां के साथ ही लगा रहना था तो मुझसे शादी क्यों की और यदि पत्नी को अधिक समय देता है तो मां को लगता है कि बेटा जोरू का गुलाम हो गया, बेटा हाथ से चला गया।
यह सच है कि कुछ बेटे अपनी मां को इतनी ज्यादा तरजीह दे डालते है कि उसकी अपनी गृहस्थी बर्बाद हो हो जाती है। कुछ मनोवैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि जो बेटे अपनी मां के साथ रहते हैं वे ज्यादा सफल पति माने जाते हैं पर जिन बेटों की गृहस्थी में उनकी मां की दखलअंदाजी ज्यादा होती है, वे सफल पति बिलकुल भी नहीं बन पाते।
नि:स्संदेह पति की भूमिका काफी नाजुक होती है लेकिन वह चाहे तो स्थिति को बिगड़ने से बचाया जा सकता है। उसके लिये मां को भी समय देना जरूरी है परन्तु साथ ही साथ उसे यह अहसास रहना चाहिये कि पति होने के नाते उसकी पत्नी का भी उस पर पूरा-पूरा हक है। पति को गृहस्थी पत्नी के साथ चलानी है न कि मां के साथ।
सास को भी चाहिये कि अपने लाडले को पाल-पोस दिया है तथा लाडले के प्रति अपनी जिम्मेदारी प्राय: पूरी कर ली है। अब अपने लाडले को भी अपनी जिम्मेदारी निभाने दें। यहां आकर मां की जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ जाती है। अब उसे अपने लाडले की मां बनकर नहीं, सहायिका बनकर एक सफल पति बनने में उसका साथ देना चाहिये ताकि आपका लाडला किसी का प्यारा पति भी बन सके।
प्रत्येक रिश्ते की अपनी एक हद, सीमा होती है चाहे वह रिश्ता मां-बेटे का ही क्यों न हो। मां को अपने बेटे के जीवन में अनावश्यक दखल नहीं देना चाहिये। मां का दायित्व केवल बेटे को वैवाहिक बंधन में बांधने का नहीं होता। बेटे के परिवार व घरेलू जिम्मेदारी निभाने की कला सिखाना उसी का कर्तव्य बन जाता है। बहू तो अपने मायके से घरेलू जीवन के कर्तव्य सीख कर आती है लेकिन बेटे को कौन सिखायेगा।
successful husband बेटा दोस्तों से तो केवल वैवाहिक जीवन के तौर-तरीके ही सीखता है पर पारिवारिक और पतिधर्म को सिखाना तो मां का ही काम है। एक पति होने के जो कर्तव्य उसके पति ने उसके प्रति निभाये थे, जो कमियां उसने अपने पति में देखी वे कमियां उसके बेटे में न आयें और वह भी अपने पिता की ही तरह पति धर्म को अच्छी तरह निभा सके ताकि आपका लाडला वैसा ही पति साबित हो जैसी हर स्त्री की कामना होती है।
प्रत्येक मां को यह समझना चाहिये कि उसके बेटे-बहू का भी अपना अलग संसार है, उनके भी अपने अरमान हैं। वे भी अपनी गृहस्थी कुछ अपने अलग तरीके से चलाना चाहते हैं अत: उन्हें हर छोटे-छोटे निर्णय लेने के लिए अपना मोहताज न बनायें। अपने दांपत्य संबंधी जीवन के फैसले लेने का उन्हें पूरा अधिकार प्रदान करें। हमेशा पुत्र को अपने आंचल से बांधकर न रखें, नहीं तो वह कभी भी एक सफल व आदर्श पति नहीं बन पायेगा।
बेटे को सफल पति बनाने के लिए कई तरीके हैं यथा-अपने बेटे की जिन्दगी में अनावश्यक दखलअंदाजी न करें। उन्हें अपना निर्णय स्वतंत्र होकर लेने दें। जब आपसे राय मांगी जाय, तभी अपनी राय दें अन्यथा चुप रहें। समय-समय पर बेटों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास करायें। विवाह अथवा सालगिरह पर बेटे-बहू को मिलने वाले उपहारों पर अपना हक न जतायें।
बेटे-बहू को एक दूसरे को समझने का पर्याप्त अवसर दें। रिश्ता चाहे सास-बहू का हो या मां-बेटे का, आपको एक सीमा बना लेनी चाहिये तथा उसका कड़ाई से पालन करना चाहिए। अनावश्यक संवाद रिश्तों को बिगाड़ देते हैं अत: अपने विचार प्रकट तो कीजिये पर उन्हें दूसरों पर जबरन मत थोपिये।
बहू के साथ प्रेमपूर्वक एवं सम्मान पूर्वक व्यवहार करें। तभी वह मन से आपका सम्मान करेगी। बहू को भी प्यार से उसके कर्तव्यों के बारे में समझायें। यदि इन बातों को ध्यान में रखकर एक मां बेटा-बहू के प्रति अपना आचरण रखे तो उसकी अपनी गरिमा भी बनी रहेगी। साथ ही उसका बेटा भी उसका अपना बना रहेगा। बहू के रूप में उसे एक स्रेहिल पुत्री भी मिल जायेगी तथा उसका बेटा एक सफल पति भी बन सकेगा।
-मीना जैन छाबड़ा