समय से पहले कुछ नहीं
हर कार्य अपने समय पर ही होता है। हम कितना भी जोर लगा लें, कितनी ही मन्नतें मान लें, इस सार्वभौमिक सत्य को कदापि नहीं बदल सकते। यह सम्पूर्ण सृष्टि भी एक ही दिन में नहीं बन गई थी।

उसका भी विकास क्र मश: हुआ था। हम अपने इस भौतिक जीवन में देखते हैं कि किसान जमीन खोदकर तैयार करता है फिर उसमें बीज डालता है। कुछ समय बाद बीज अंकुरित होता है और तब वह एक नन्हें पौधे का रूप लेता है। तत्पश्चात समय बीतते वह नन्हा पौधा एक विशाल वृक्ष बन जाता है। बीज से बना यह विशाल वृक्ष किसी किसान के दिन-रात के अथक परिश्रम, देखरेख और खाद-पानी देने का परिणाम होता है। ये वृक्ष अपने समय पर ही फल देते हैं।

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इसी भाव को प्रकट करता हुआ सभारञ्जनशतक का यह श्लोक है-

दोहदैरालबालैश्च कियद् वृक्षानुपास्महे।
ते तु कालं प्रतीयन्ते फलपुष्पसमागमे

अर्थात् वृक्ष का सींचन करना, मेड़ बनाना आदि कितना भी प्रयास करें, वृक्ष समय आने पर ही फल देते हैं। बच्चा पैदा होते ही युवा नहीं होता। वर्षों माता-पिता उसकी देखरेख करते हैं, उसे पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाते हैं। इस प्रक्रि या से गुजरता हुआ एक बच्चा बीस-पच्चीस साल का युवा बनता है। इसी प्रकार जब बच्चा नर्सरी कक्षा में स्कूल में प्रवेश करता है तो एक ही वर्ष में बारहवीं कक्षा पास नहीं करता बल्कि चौदह साल तक अथक परिश्रम करने के बाद ही स्कूल पास करता है और फिर कालेज में प्रवेश पाता है।

यह सर्वथा सत्य है कि जो रात बीत जाती है वह वापिस नहीं आती। इसी प्रकार उचित समय पर यदि कार्य सम्पन्न न किया जाए तो वह फलदायक नहीं हो पाता। इसीलिए कहा गया है-

‘काले खलु समारब्धा: फलं बध्नन्ति नीतय:।’

अर्थात् समय पर यदि अपनी नीतियों को लागू किया जाये तो वे फलदायी होती हैं। जो मनुष्य समय का महत्त्व समझते हुए उसके अनुसार अपनी योजनाएँ बनाता है, वह जीवन में सदा सफलता का मुख देखता है। असफलता उसके पास तक फटकती नहीं है। समय कभी भी किसी का पक्षपात नहीं करता। सबके साथ समान व्यवहार करता है।

समय जीवन में बड़ी ही उठा-पटक करता है। वह राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा। दूसरे शब्दों में कहें तो समय शक्तिशाली को निर्बल व निर्बल को पलक झपकते ही शक्तिशाली बना देता है। यह बड़े-बड़े साम्राज्यों के धाराशाही होने का गवाह है। कितनी ही सभ्यताओं को इसने नष्ट होते हुए देखा है। फिर मनुष्य क्या चीज है इसके सामने?

इस सत्य से मुँह नहीं मोड़ सकते कि समय हमारा मित्र नहीं है। उसे मित्र बनाना पड़ता है। वह कभी भी हमारी प्रतीक्षा में पलक पाँवड़े बिछाकर नहीं बैठता है बल्कि हमें ही उसके साथ कदम मिलाकर चलना होता है। वह तो अपनी अबाध गति से दिन-रात बिना विश्राम किए चलता ही जा रहा है। यह हमारी समझदारी है कि हम उसके सहारे से जीवन में वह सब कुछ प्राप्त कर सकें जिसकी हम कामना करते हैं।

यदि मनुष्य समय का मूल्य पहचान ले तो सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ने से उसे कोई नहीं रोक सकता अन्यथा उसे जीवन में हर कदम पर असफलता का ही स्वाद चखना पड़ता है। यदि हम में इतनी सामर्थ्य है कि हम समय की रेत पर अपने निशान छोड़कर इस दुनिया से विदा ले सकते हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए उदाहरण बन सकते हैं।
-चन्द्र प्रभा सूद

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