तमाम उम्र तो कटी इश्क-ए-बुतां में मोमिन अब आखरी उम्र में क्या खाक मुस्लमां होंगे।
– पूर्ण मुर्शिद का दर – 122
बचपन और जवानी गुजरने के बाद मनुष्य पर बुढ़ापे की ऐसी अवस्था आती है, जिसमें मौत के बिना और कोई भी तब्दीली नहीं आती। सतगुरु-मालिक की याद जिन्होंने बचपन या जवानी पहर से ही शुरू कर दी और उम्र के आखिरी पड़ाव (बुढ़ापे) तक भी जारी रखी तो उन सिरड़ी इन्सानों के क्या कहने!
कलियुग के बुरे समय में अगर बुढ़ापे में पहुंचकर भी अपने बच्चों पर कबीलदारी का भार डालकर (सौंप कर) खुद मालिक की बंदगी में लग जाए तो भी डुले बेरों का कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ा होता। दुनियावी और सामाजिक कार्य व्यवहारों का अनुभव जो यहां आकर अहंकार का रूप धारण कर लेता है, वही मालिक की बंदगी की तरफ पैर नहीं लगने देता। उसे लगता है कि मेरे बाल ऐसे धूप में ही सफेद नहीं हुए, बल्कि काफी कामों में मुझे उमर भर का तजुर्बा है, इसलिए जो कुछ मुझे पता है वह आजकल की मुंडीर (नौजवान पीढ़ी) को कहां पता।
असल में बुढ़ापे की अवस्था में तजुर्बा तो ही दिखाया या बताया जाए अगर कोई जानना चाहे, परंतु ऐसे ही घर के हर काम में जान-बूझ कर अपनी टीका-टिप्पणी (किंतु-परंतु) करते रहना आज के समय में अपना व बच्चों का दिल व समय खराब (बर्बाद) करने वाली बात है। ज्यादातर परिवारों में नौजवानों और बुजुर्गों के बीच के मतभेदों का कारण यही है। समय के अनुसार खुद को ढालना और एक-दूसरे की कद्र करना ही समझदारी की निशानी है।
समाज में ऐसे लोग (बुजुर्ग) आम ही मिल जाते हैं जो पौत्र-पौत्रियों के मोह में जरूरत से ज्यादा उलझे हुए हैं और भिन्न-भिन्न तरह के तजुर्बों को सियानप (सियानेपन) की गठरी में बांध कर एक अदृश्य व अजीबो-गरीब भ्रम-भुलेखे में खुद को कैद किए रखते हैं। आध्यात्म के अनुसार, तो पचास साल की उमर के बाद इन्सान को काम-कार्यों से फारिग होकर सुमिरन में लग जाना चाहिए, क्योंकि सदा ही चलने वाले जो काम पचास वर्षों (आधी सदी) की आयु तक करके भी संतुष्ट नहीं हो सका है, वह आगे की रहती आयु में और कर-कर के कौन सा तीर मार लेगा।
मुझे याद आते हैं वो दिन जब सरसा (डेरे) में हमारी सेवा वाली समिति में कुछ बुजुर्ग सेवादार, जो सरकारी नौकरी की रिटायरमेंट के बाद कि आपां घर पर रहकर क्या करना है, डेरे में ही सेवा की ड्यूटि दिया करेंगे, घर पर तो बस महीने में पांच-चार दिन मिलने-मिलाने ही जाया करेंगे। बहुत ढो ली काल की वगार। परंतु ऐसी बातें करने वालों में से दो-तीन को छोड़कर बाकी सबने रिटायमेंट के बाद और दुनियावी कार्यों में खुद को ऐसा फंसाया कि नौकरी करते समय (सर्विस के दौरान) जो छुट्टी लेकर महीने में दो-तीन दिन सेवा पर आते थे, वो भी आना बंद कर गए या फिर सुबह आकर शाम को वापिस जाने वाला राह पकड़ लिया। कुछ लोग आने वाले समय (भाव 50-55 वर्ष के बाद वाली आयु) की आध्यात्मिक योजना पहले ही बना कर उसे अमली रूप देने की जो कोशिशों में लगे होते हैं, वो उस आयु का असली आनंद लेते हैं।
मैं ऐसे दो सत्संगी प्रेमियों को जानता हूं, जिन्होंने उस समय (20-22 वर्ष पहले जब उनकी आयु 40-45 वर्ष के करीब थी) ही अपने आने वाले समय (भाव अपनी रिटायरमेंट के बाद) के लिए भविष्य की आध्यात्मिक योजना केवल बनाई ही नहीं थी, बल्कि उस आने वाले समय के लिए तैयारियां शुरू कर दी थी। यहां बताई जा रही उदाहरण रोचक है, बल्कि शिक्षादायक (प्रेरणादायक) भी है। अगर कोई उनसे प्रेरणा लेकर भविष्य में रूहानी लज्जतें और सेवा से प्राप्त नशे को लूटना (आनन्द मानना) चाहे।
राजस्थान और हरियाणा राज्य के रहने वाले दो सेवादार उस समय हमारी सेवा वाली समिति में सेवा किया करते थे। दोनों की आयु अंदाजन कोई 40-41 और 44-45 वर्ष के करीब थी। मैं उस समय एक-डेढ़ वर्ष पहले ही समिति में आया था और अपने शहर में रहते नया-नया कॉलेज ज्वार्इंन किया था। वो दोनों सेवादार भाई अपने-अपने गांव/शहर में परिवार सहित रहते और अलग-अलग सरकारी विभागों में सर्विस करते थे। पुरानी कहावत है कि इन्सान जैसा खुद होता है, तो उसे उस जैसा ही कोई कहीं न कहीं जरूर मिल ही जाता है।
इसी के अनुसार, उन दोनों का आपस में बहुत नि:स्वार्थ प्रेमभाव है। हर पंद्रह दिनों के बाद शुक्रवार शाम तक लगभग सभी सेवादार डेरा (सरसा) पहुंच जाते और रविवार शाम या सोमवार को सुबह की मजलिस के बाद अपने-अपने घरों को लौट जाते। इसके बिना हर अढ़ाई महीनों के बाद पूरे हफ्ते (एक सप्ताह) की सेवा वाली ड्यूटि भी समिति में देनी होती थी, जिसे ज्यादातर सेवादार उड़ीकते रहते। हमारी समिति के जिम्मेवार तो हद से ज्यादा नरम और सोच-समझ कर धीमी आवाज व प्यार से बात करने वाले थे। हम सब सेवादार उनका बहुत इज्जत-सत्कार करते थे।
मुझे याद है, हमारे में से एक सेवादार (जो उस समय सरकारी हाई स्कूल में हैडमास्टर थे) डेरे में आई संगत में से किसी सत्संगी भाई को कोई बात समझाते समय कुछ गर्म (रूखा) बोल बैठा, बेशक बात तुरंत निबड़ गई थी, परंतु वह सेवादार भाई जहां खुद को कोस तो रहा था (कि मैं गर्म क्यों बोला) परंतु साथ हमारे प्रबंधक भाई जी से भी डरे कि कहीं इस बात का उन्हें पता न चल जाए। आखिर जब बात जिम्मेवार को पता चली तो उन्होंने उस सेवादार (हैडमास्टर साहिब) के पास संदेश भेजा कि आप जब सेवा से फारिंग हो जाएं तो मुझे मिलना। परंतु तब डर ही इतना होता था
कि शनिवार सारा दिन और रात को काफी देर तक और रविवार का सारा दिन घर वापसी के समय तक उसने खुद को जानबूझ कर सेवा में इसलिए व्यस्त रखा कि मैं जिम्मेवार के माथे (साहमने) किस मुंह से लगूंगा। जिम्मेवार भी समझते थे, इसलिए वह भी इसलिए उसके पास नहीं गए कि कहीं वह शर्मसार न हो जाए। आखिर रविवार को घर जाते समय उस सेवादार ने एक कागज पर लिखकर अपनी गलती के बारे शर्मिंदगी जाहिर की और आगे से ऐसी गलती न करने का भी विश्वास दिलाया। हालांकि उस सेवादार को ऐसा करने (लिख कर देने) के लिए न किसी ने कहा था और न ही ऐसा समिति का कोई नियम था, परंतु फिर भी उसने लिखकर जिम्मेवार के पास कागज भेजा था।
उपरोक्त बात लिखने का मतलब कि उस समय इतना डर, भय होता था और जिम्मेवार या प्रबंधक भी अपने आपको अंदरूनी तौर पर नब्बे डिग्री (90) के कोन पर रखता था, भाव हमेशा सतगुरु के डर-भय में रहता अंदर से झुककर (निर अहंकार) चलता और मीठा बोलते हुए पूरी जिम्मेवारी से सेवा को निभाता था। बाकी प्रबंधक-प्रबंधक का भी अंतर होता है। चलो! इस बात को छोड़ो…!
बात चल रही थी उन दो सेवादारों के बारे जो अलग-अलग गांवों/शहरों से सेवा के लिए हर पंद्रह दिनों बाद (दो-तीन दिनों के लिए) सत्संग पर आया करते थे। खाली समय में वे आपस में सतगुरु-मालिक की बातें (चर्चा) करते रहते। हम भी कई जने (लोग) कोशिश करते कि उनकी बातों को सुनें और उनके एक सत्संगी के रूप में विचरते (रहते) पैदा हुए अनुभवों को जानकर कोई शिक्षा लें। उनके अंदर सहनशीलता, नम्रता, मिठास, कम बोलना, सेवा में ज्यादा समय लगाना, आराम व जरूरत से ज्यादा खाने-पीने की तरफ कम ध्यान देना, रात को एक बजे से सुबह चार बजे वाला पहरा (जो सख्त माना जाता था) देकर भी यह सोच कर न सोना कि चलो पांच बजने ही वाले हैं, अब सोकर क्या करना है इत्यादि को जब हम देखते तो सोचते कि ऐसे गुण इनमें किन कारणों से आए हैं?
उन दोनों में से एक सेवादार के घर दो बेटियां ही थी, जबकि दूसरे के दो बेटे और एक बेटी थी। घरेलू (आर्थिक) स्थिति मिडिल श्रेणी वाली ही थी। आजकल तो सरकारी नौकरी में सैलरीज काफी बढ़ी हुई है, परंतु तब ठीक-ठाक ही होती थी। बेशक तब महंगाई भी इतनी नहीं होती थी। हमें उनकी रूहानियत के बारे चलती बातों को सुनकर बड़ा आनन्द-सा आता। सतगुर के वचनों, प्यार, रहमत व सेवा के बारे चल रहे उनके उस वार्तालाप में अगर कोई आकर दुनियावी या राजनीतिक बात छेड़ देता तो ऐसा लगता जैसे किसी ने सर्दी की ऋतु में निघड़ी (गर्म हुई) रजाई में से बाजू को खींच कर बाहर निकाल दिया हो। हम तब बच्चे होते थे, इसलिए ऐसी कोई बात (दुनियावी या राजनीतिक) करने वाले को कुछ कह तो नहीं सकते थे, परंतु अंदर ही अंदर (अपने मन में) सोचते कि मालिक, इसे कोई बुलाने ही आ जाए या फिर इसे कोई जरूरी काम याद आ जाए ताकि यह यहां से चला जाए, क्योंकि इसने तो और ही रील चढ़ाई हुई है। सतगुरु की बात या याद एक नशे की तरह थी(है)।
हर घड़ी तब हमें यही काम था, तेरी याद थी या तेरा नाम था।
उन दोनों सेवादारों की भविष्य की स्कीम यह थी कि बच्चों को पढ़ा-लिखाकर पांवों पर खड़ा करने के बाद समय रहते शादी करवाकर जितना जल्दी हो सका मालिक की तरफ (शरीर) लगा देना है। उनकी योजनाएं दिलचस्त थी। हो सकता है किसी को अजीब लगे, परंतु सतगुरु की याद के प्रति गंभीर किसी भी इन्सान को वह जरूर दिलचस्प लगेंगी।
उनकी योजना थी कि जरूरी नहीं कि दुनियावी फर्ज निभाने के बाद भी अठावन साल तक नौकरी जरूरी ही करनी है। अगर दुनियावी फर्ज पहले निपट गए तो अठावन साल से पहले ही रिटायरमेंट ले लेंगे। उन दिनों में डेरे के अंदर (जहां अब लंगर घर है) सिंगल रूम (कमरों) वाले क्वाटर होते थे। उनकी सोच थी कि एक-एक क्वाटर ले लिया जाए और अपनी-अपनी पत्नी को कह देंगे कि अगर वो मालिक वाले राह (सेवा-सुमिरन) में हमारी तरह बाकी रहता समय (बाकी रहती जिंदगी) लंघाना चाहती हैं तो हमारे साथ आकर डेरे में रहें और अगर घर पर रहकर ज्यादा खुश है तो उनकी मर्जी। हम तो महीने में एक-दो दिन उन्हें मिलने ही आ सकते हैं। सरकार की तरफ से मिलने वाली पेंशन से हमारा और घर (विशेषकर पत्नी) का खर्चा बढ़िया चल जाया करेगा। मालिक से दुआ है कि वो दिन (रिटायरमेंट से अगला दिन) जल्दी आये और फिर बगैर किसी दुनियावी डिस्टरबेंस (दखलांदाजी) के मालिक की याद में डटकर समय लगाएं।
वो दोनों सेवादार आपस में और बीच-बीच में हमारी (दो-तीन जनों (व्यक्ति) जो बैठे उनकी बातें सुना करते) तरफ देख कर बातें करते कि किए जाते जिन कर्मों से सुमिरन व मालिक वाले प्यार, वैराग्य या हमेशा एकरस रहने वाले जीवन में रूकावटें आती हैं, उन कार्यों को करना अभी से बंद कर दिया जाए, वरना ये आने वाले समय में तंग-परेशान करेेंगे और सुमिरन करते समय एकाग्रता बनने में रूकावट पैदा करेेंगे।
उन्होंने अपने आने वाले समय को मालिक की तरफ लगाने के लिए पहले अपने दुनियावी फर्ज (जिम्मेदारी) को निभाया, उसके बाद एक भाई ने समय से तीन साल पहले और दूसरे ने अढ़ाई साल पहले ही रिटायरमेंट ले ली। एक ने शाह मस्ताना जी धाम के नजदीक बसी एक कॉलोनी में एक छोटा सा मकान ले लिया और वह अपनी पत्नी के साथ वहां रहता है। दूसरा सेवादार भाई डेरे में बने फ्लैटों में से किसी एक में रहता है। उसका परिवार (पत्नी, बेटा और उसका परिवार) उसे मिलने के लिए आता रहता है और कभी वह अपने गांव (घर) चक्कर लगा आता है।
दोनों सेवादारों ने अपने-अपने दुनियावी अनुभवों के अनुसार, दरबार में नि:स्वार्थ सेवा की ड्यूटि ली हुई है। बताने वालों के अनुसार, वो किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करते, किसी भी प्रबंधक या प्रबंधों पर कोई टीका-टिप्पणी (किंतु-परंतु) नहीं करते। सादगी की जिंदगी जीते हैं और सेवा को पहल के आधार पर तरजीह (महत्व) देते हैं। डेरे के किसी भी जिम्मेदारों के साथ बगैर सेवा संबंधी कार्य से कोई नजदीकी नहीं बनाते। वैरागी (सतगुरु के वैराग्य) शिष्य का चेहरा ही बता देता है कि इसकी जिंदगी कितनी कु एकरस है, वह बेशक कितना भी अपने आप को छुपाए। ऐसी ही कुछ और बाहरी तौर पर दिखाई देती निशानियां देखकर महसूस होता है कि सचमुच ही अब तक की जिंदगी को ये रूहानी तौर पर खूब इंज्वाय कर रहे हैं।
यकीं के नूर से रौशन है रस्ते अपने, ये वो चिराग है, तुफां जिसे बुझा ना सके।
उपरोक्त विचार लड़ी में दी गई उदाहरण का भाव यह नहीं कि दुनियावी फर्ज निभाने के बाद बाकी आयु जरूर डेरे में आकर ही रहना है, यह तो अपना-अपना ख्याल है। हाँ, डेरे के दायरे में रहते हुए रूहानी माहौल का लाभ मिलने के साथ-साथ दुनियावी राग-रंग से काफी हद तक दूरी बननी स्वाभाविक है। परंतु… अगर इन्हें (रूहानी माहौल या रूहानी गतिविधियों को) गंभीरता से लिया जाये तो…! बगैर गंभीरता के डेरे में रहते हुए भी उतना फायदा नहीं उठाया जा सकता, जितना असल में उठाना चाहिए। फकीरों के वचनानुसार मुख्य बात यही है कि जो बीत गई सो बीत गई, परंतु बाकी रहती आयु तो मालिक की याद, सेवा और सतगुरु के वचनानुसार बिताई जाए।