Pooran Murshid Ka Darr -sachi shiksha hindi

जिंदगी वही जिंदगी है, जो तेरे साए में कट गई – पूर्ण मुर्शिद का दर – 122

बचपन की भक्ति के साथ-साथ ही जवानी की उम्र में की गई बंदगी को भी मालिक पहले दर्जे के आधार पर मंजूर करता है, ये वचन हम सबने ही सच्चे पातशाह जी के पवित्र मुखारबिंद से कई बार सुने हैं। बचपन की उम्र में की गई भक्ति का कारण जो उसे उत्तम दर्जे में लेकर जाता है, के बारे पिछले अंक में लिखा गया था, पर जवानी की उम्र की भक्ति भी अहम् क्यों है? जैसे सख्त गर्मी के दिनों में दिन के समय अगर प्रकाश (धूप के कारण) होता है, तो तपती दोपहर की धूप भी तो लगती है, रात को अगर धूप नहीं लगती पर अंधेरे के कारण दिन जैसा प्रकाश भी तो नहीं होता।

इसी तरह बचपन की अवस्था में अगर मन एक-दो बातें (खाने, खेलने, सोने) के अलावा और किसी तरह तंग नहीं करता, तो इस उम्र में समझ कम होने के कारण मालिक संबंधी ज्ञान भी तो नहीं होता। वह बात अलग है कि अगर किसी कारण सुमिरन की तरफ ध्यान जाने लग जाए, तो सचमुच ही वह उत्तम दर्जे की भक्ति बन जाती है। पर ऐसा इस कलियुगी समय में बहुत कम होता है। इसी तरह जवानी की उम्र में इन्सान बौधिक तौर पर पूरी तरह चेतन अवस्था में होता है, तो इसी अवस्था में मन भी पूरी ऊंचाई पर होता है। बंदगी करने में सबसे बड़ी रुकावट विषय-विकारों और इससे संबंधित ख्यालों को माना जाता है और इन्हीं बुरे ख्यालों को मन इस उम्र में देसी खुद्दो (बॉल) की तरह मनुष्य पर मढ़ देता है।

ऊपर के पैरे का केन्द्रीय भाव यही है कि जब (बचपन में) मन कोई खास तंग नहीं करता, तब मालिक वाले रास्ते का पता या ज्ञान भी नहीं होता और जब ज्ञान होता है या बहुत जल्दी हो सकता है, तब मन पट्टी नहीं बंधने देता। यही कारण है कि दोनों अवस्थाओं में ही की गई बंदगी उत्तम मानी गई है। बेपरवाह मस्ताना जी महाराज फरमाया करते कि ‘तू (इन्सान) बस मन के साथ लड़ाई कर ले, तेरी सारी गुरु-भक्तियां मंजूर हैं।’ यह तो वो ही बात हो गई जो आजकल पूज्य हजूर पिता जी अपने अंदाज में फरमाते हैं कि ‘बस हमारी एक बात मान लो कि जहां मालिक हो वहां कोई बुरा काम नहीं करेंगे।’ फकीरों की बात कहने के अपने ही अंदाज होते हैं, जो एक ही नुक्ते में सारी बात निबेड़ देते हैं।

मन के साथ लड़ाई करना, सुमिरन करने के पक्के होना या जहां मालिक हो वहां कोई बुरा कर्म नहीं करना, इन तीनों बातों का मतलब तो एक ही है। जवानी की उम्र असल में नशा ढूंढती है और वो नशा फिर किसी भी चीज का हो सकता है। ऐसा नशा राजनीति का हो, चाहे विषय-विकारों का, चाहे दुनियावी गंदे नशे (शराब, अफीम, स्मैक इत्यादि) का हो या फिर सतगुरु वाली आशिकी का नशा हो। मन कोई न कोई नशे की इच्छा जरूर करता है। मालिक के नाम या सतगुरु वाली आशिकी के नशे की तरफ मन जल्दी कहीं जाने नहीं देता, क्योंकि ये बाहरीपन से संबंधित नशों के चंगुल में मनुष्य को बुरी तरह से फांस लेता है और शिकंजा अच्छी तरह से कस के रखता है। फिर भी कसे हुए हाथ के शिकंजे की उंगलियों के बीच से कोई-कोई विरला निकल गया तो निकल गया, वरना दुनियावी तरह-तरह के रिश्तों, पदार्थों, ओहदों या और नशों को ही मनुष्य अपनी मंजिल मान बैठता है।

जवानी की अवस्था सीधे तीर की तरह होती है, जो जिस तरफ चल पड़ा, तो बस चल पड़ा। अक्सर कहा जाता है कि जवानी की उम्र में तो बंदे को रब्ब याद नहीं होता, परंतु अगर सचमुच याद (हकीकी इश्क) आ जाए, तो इस जैसा नशा आज तक कोई और नहीं बना है। जवानी के पड़ाव में केवल शरीर ही जवान नहीं होता, बल्कि मन भी जवान हो जाता है, पर कुछ वर्षों बाद शरीर तो बुढ़ापे की तरफ ढल जाता है, जबकि हैरानी वाली बात है कि मन फिर भी (भाव बुढ़ापे में भी) जवान ही बना रहता है। उर्दू के एक शायर ने कहा है-

इससे बढ़कर वक्त क्या ढाहेगा सितम,
जिस्म बूढ़ा कर दिया
और दिल जवां रहने दिया।

केवल जवान ही नहीं, बल्कि आयु के अनुभवों के कारण यहां (अधेड़ उम्र या बुढ़ापा) आकर इन्सान को फन्ने खां लगने ला देता है और यह फन्नेखाही ही उसे एक जबरदस्त भुलेखे के दायरे में ले जाकर आखिरी पड़ाव में कख्खों हौले करके रख देती है। भाव मनुष्य जैसा यहां आया, वैसा ना आया, एक समान हो जाता है। मालिक के नाम के बगैर सारी उम्र दही के भुलेखे नरमे के फुट खाता रहता है।

नौजवान उम्र के इन्सान के लिए सतगुरु द्वारा बताए परहेजों पर सख्ती से पहरा देते हुए सुमिरन का रूटीन बनाए रखना बड़ा ही मुश्किल एवं चुनौती भरा काम है। इसे विरले लोग भाव मन की चंगुल से निकले कुछ लोग ही करते हैं। पूरी दुनिया के हिसाब से तो कुछ लोग ही कहा जाएगा, जो एक प्रतिशत से भी कम गिनती के हैं। इन्सान का ध्यान मालिक की तरफ न जाए, इसके लिए मन हर हथकंडा अपनाता है। चुंबक का लोहे को खींचने की तरह मन बाहरी रसों की तरफ इन्सानी ख्यालों को खींचता है। मन इतना शातिर है कि बाहरी रसों से जो भी नौजवान (नर या मादा) बच निकलते हैं, उन्हें यह काल द्वारा (सच की नकल करके) बनाए गए अपने चक्रव्यूह में फंसा देता है।

काल द्वारा रचा ऐसा सच जिसमें काल की अनेकों शक्तियां (जिन्हें दुनिया का ज्यादातर हिस्सा रब्ब मानता है) को रब्ब समझकर भक्ति करवाना, पुण्यदान, कर्म-कांड, केवल योग-साधनों के द्वारा मालिक की प्राप्ति की राह पर चलाना, धार्मिक पुस्तकों को बार-बार पढ़ने का मतलब परमात्मा की भक्ति ही समझना, पर उनमें लिखी बातों पर अमल न करना। धार्मिक पुस्तकों के केवल बाहरी सत्कार या रख-रखाव पर ही जोर लगाते रहना। धार्मिक कटरता में फंसे रहना, ताकि परमात्मा के प्रति वफादारी दिखाई जा सके, जोकि एक बहुत बड़ा भुलेखा है। सिरे की बात कि काल ने असली सच (जो दो जहानों का मालिक है) से मिलती-जुलती ही अपनी एक अजीब सी रचना रच रखी हे, जिसे उसने दुनिया के आगे असल सच दर्शा कर महा-भुलेखे में डाल रखा है।

हजूर सच्चे पातशाह जी बताते हैं कि नाम के अभ्यास द्वारा जब पैर के अंगूठे से सिमट कर रूह ऊपर की तरफ चलती है, तो नाभी के पास काल ने ऐसी जबरदस्त व अद्भुत रचना रची हुई है, जिसके अंदर तरह-तरह के बाजे और सुरीले संगीत बज रहे हैं। पूर्ण गुरु के बिना किसी भी और विधि के द्वारा जो इन्सान अपनी आत्मा को समेटकर दसवें द्वार की तरफ लेकर जाता है, तो यहां (नाभी के पास) आकर रूह उन साजो-आवाजों में अटक कर रह जाती है। उसी को रब्ब मानकर बैठ जाती है और खुद को मंजिल पर पहुंच गई मान लेती है।

उपरोक्त सब काल का बनाया हुआ सुनहरी जाल है, ताकि रूह इनमें ही फंसी रहे और आगे न जा सके। असल में जो लोग यहां (नाभि के पास) आकर अटक जाते हैं और इसी को ही अपनी मंजिल मान बैठते हैं, तो ऐसा उनके भी वश की बात नहीं होती। क्योंकि उनका मार्ग-दर्शक ही अगले राहों का भेदी नहीं होता, फिर वह किसी और को आगे कैसे ले जाता है।

हजूर दाता जी बताते हैं कि पूर्ण गुरु के चिताए शिष्य की रूह जब नाभी के पास पहुंचती है, तो नाम (दोनों जहानों के मालिक के पास ले जाने वाला नाम-शब्द) में इतनी ताकत है कि वह रूह काल के बजते उन बाजों के पास एक पल के लिए भी ठहरती नहीं, बल्कि उन संगीतों को चीरती हुई सतगुरु के इशारे से तुरंत आगे चली जाती है। काल के साज-संगीत बजते ही रह जाते हैं, भाव उस (काल) की फिर ऐसी रूह (पूर्ण सतगुरु के शिष्य की रूह) के आगे कोई दाल नहीं गलती।

काल ने असली सच की इतनी जबरदस्त नकल की है कि सदियों से अनगिनत अभ्यासी रूहें उसके बनाए नकल-युक्त जाल में अटकती रही हैं, पर आगे उनका क्या बनता है सतगुर ही जाने। असल में काल ने इन्सानी जिस्म में आई रूह को मंजिल की तरफ जाने से भटकाने के लिए अलग-अलग स्तर की स्टेजों का निर्माण कर रखा है। सतगुरु जी द्वारा उपरोक्त पैरे में बताई गई स्थिति (नाभि के पास बजते साज) अंदरूनी हैं, जबकि बाहरी स्तर की स्टेजों की गिनती का कोई ठिकाना नहीं। आज के युग में जहां पैसा और विषय-विकार ही प्रधान बने हुए हैं, वहीं इन्सान को इन दोनों के बिना और कुछ दिखाई नहीं देता। कोई पता नहीं, पैसे के लिए, कब और कहां इन्सान डगमगा जाए।

यह भी पता नहीं कि मन किस हालत और हालातों में किसके बारे बुरा (विषय-विकारों से युक्त) ख्याल लाकर उसे अमली रूप भी दे दे। नौजवान आयु में मनुष्य के ऊपर काल के द्वारा चलाया जाने वाला सबसे बड़ा हथियार यह है। ऐसे ख्यालों ने मनुष्य के ऊपर इतना ज्यादा घातक व जबरदस्त प्रभाव डाला है कि इस संबंधी इन्सानी सुचेत और अचेत अवस्था में अंतर दिनों-दिन घटता जा रहा है। भाव दिन समय भी और रात को सोते हुए सपनों में भी विषय-विकारों से युक्त ख्यालों का ही बोलबाला है। यह सौ फीसदी अटल सच्चाई है।

इसलिए मन के द्वारा दिए जाने वाले ऐसे ख्यालों के विरोध में लाठी उठाके खड़ना ही बंदगी है। मन के ख्यालों का पूर्ण तौर पर विरोध नाम के बिना नहीं हो सकता और नाम-शब्द पूर्ण सतगुरु से परमात्मा की रहमत अथवा पिछले संस्कारों की वजह से ही मिल सकता है। नाम लेकर परहेजों की बारीकी से पालना करके सुमिरन करते रहना नौजवानों के लिए एक सख्त मश्क्कत भरा काम इसलिए बन जाता है, क्योंकि मन की चंचलता यहां बिल्कुल शिखर पर होती है।

सतगुरु के प्यार और दर्शनों की छत्रछाया से बाहर जाकर पता चलता है कि जीवन बेरस सा क्यों हो गया। पर जवानी की उम्र की हवाई तरंगें मनुष्य को उस छत्रछाया से दूर ले जाने का कारण इसलिए बन जाती हैं कि वह (मनुष्य) सतगुरु के प्यार और बाहरीपन का तुलनात्मक अध्ययन करने लग जाता है, जबकि इन दोनों – मुर्शिद का प्यार और दुनियावी पदार्थ की आपस में कोई तुलना नहीं की जा सकती। मेरे एक आदरणीय प्रोफेसर साहिब बताया करते थे कि स्थितियां अनुकूल होने के बावजूद भी अच्छे काम करने के लिए यह कहना कि ‘सोचेंगे, विचार करके बताएंगे अथवा परमात्मा ने चाहा तो करवा लेगा’ आदि कहकर आधी ढेरी तो मन ने गिरवा दी।

कोई पूछने वाला हो कि तू (मनुष्य) खुदमुखत्यार है, विचार किससे करनी है? इसके (अच्छे काम) लिए तू खुद तिनका तोड़कर दोहरा न करना, सारा कुछ परमात्मा के आसरे छोड़ दे। क्यों? परमात्मा तेरा गोला (नौकर) रखा है बड़े भक्त का? अगर परमात्मा ने चाहा है तो ही तो तेरे पास उसने किसी को जरिया बनाकर भेजा है। इसलिए नेक और भले कर्म, बिना किसी स्वार्थ के करने के लिए अगर स्थितियां आधी, अधूरी भी अनुकूल हों, तो कभी किनारा न करो। जितना हो सकता है, जरूर हिस्सा डालो या कर्म करो। क्योंकि प्रत्येक के हिस्से नेक कर्म करने की परमात्मा ने लिखित नहीं की होती।

प्रोफेसर साहिब की कही बातें आज भी मुझे याद आती हैं। उनकी बातों को मैं रूहानियत से जोड़कर देखता हूं, तो महसूस होता है कि उपरोक्त घटनाक्रम एक अजीब घटनाक्रम है, जो समझा या जाना नहीं जा सकता। बस केवल अनुभव किया जा सकता है। पर काल शिकारी ने मनुष्य के लिए ऐसे बारीक धागों वाले जाल बुने हुए हैं कि कई बार न चाहता हुआ भी इन्सान इनमें फंस जाता है।

इनसे बचने की राह बेशक पूर्ण मुर्शिद द्वारा दिए गए जादू के वो शब्द (नाम) हैं, जिनका प्रयोग और सतगुरु के प्यार की छत्रछाया कारण इन्सान इन जालों में फंसने से बचा रह सकता है। मैंने एक बात और अनुभव की है कि चाहे नाम का सुमिरन कम हो रहा हो, सेवा के लिए समय न निकल रहा हो, परंतु वचनों पर पक्का और सतगुरु की छत्रछाया को ही सबसे ऊंचा समझने वाला इन्सान उन लोगों से कहीं आगे है, जो बातो-बातों में रब्ब को नीचे उतार लेते हैं और कहते हैं कि हमारी तो जी सच्चे पातशाह जी से बिल्कुल ही सीधी बातचीत है।

सभी तो नहीं, पर ऐसा कहने वालों में से ज्यादातर के चेहरे वह कुछ नहीं बता रहे होते, जो बातें कर-करके दूसरों पर प्रभाव डालने की कोशिश करते हैं। ऐसे आशिकों की बातें और चेहरे की गुप्त बोली का आपसी तालमेल बिल्कुल ही बिगड़ा होता है। असल में जिनकी मुर्शिद से (अंदर से) बिल्कुल सीधी होती है, वो तो अक्सर चुप ही रहते हैं। पंजाबी की एक कहावत है कि ‘पत्थर कहता है मैं पानी में पड़ा-पड़ा खुरता रहता हूं, नमक कहता है जो खुरते हैं वो तो बोलते ही नहीं।’ सच्चे पातशाह जी फरमाते हैं कि कथनी से करनी भली, अगर कोई कर सके।

उपरोक्त पैरे में लिखी बात का मतलब है कि सतगुरु के देह-स्वरूप की नजदीकियां प्राप्त होने के बाद उनके साथ होते वार्तालापों को बताना फिर ही ज्यादातर ढुकता है, अगर गुरमुखता भी उसी हद तक बनी रहे। पर फिर वही बात आ जाती है कि जो ऐसे स्तर की गुरमुखता वाले होते हैं, वह तो ज्यादा बातें करते ही नहीं।

पहले वाली बात पर आते हैं कि नौजवान उम्र में बंदगी में से आनन्द लेना जल्दी असरदायक और उत्तम दर्जे में इसलिए आ जाता है, क्योंकि मन के द्वारा दिए जाते विकारों से भरे ख्यालों का मुकाबला करना हर एक के वश की बात नहीं। ऐसा सब मुर्शिद के ऊपर पूरे यकीन, डर-भय और उनकी छत्रछाया के बगैर संभव नहीं। सतगुरु की याद का निरंतर चलते रहना, दर्शनों के द्वारा आत्मिक चार्जिंग, वचनों का कवच भाव सामूहिक रूप से कहा जाए, तो इन तीनों का मतलब सतगुरु की गुप्त छत्रछाया में रहना है। ऐसी छत्रछाया एक बिल्कुल अदृश्य और निजी अहसास है और इससे बाहर जाने के अनेकों तरीके भी मन ऐसा मित्र बनकर बताता है कि इन्सान को इस तरह लगता है कि मैं बिल्कुल ठीक कर रहा हूं।

छत्रछाया का अर्थ किसी बाहरीपन मुर्शिद को देह-स्वरूप की नजदीकी से नहीं, बल्कि यह एक विशेष आत्मिक अनुभव है। इसके आने या बने रहने का अनुभव तो शायद कम लोगों को होता होगा, पर जो इससे दूर चला जाता है, वह जरूर अपने बारे पूरी की पूरी किताब लिख सकता है कि मैं पहले क्या और बाद के आकर्षण ने मुझे क्या बना दिया।

कई बार जवान उम्र में चंचलपन की लहरों में बहकर इन्सान सतगुरु-प्यार की छत्रछाया को मामूली समझ लेता है और जब होश आती है तो फिर से टूटी हुई को जोड़ने का फैसला लेना भी मुश्किल लगता है।
चार-कु सालों की बात है। मेरा एक क्लासफैलो (प्रेमी सज्जन) जो एक अच्छे और आर्थिक तौर पर सम्पन्न घर से संबंध रखता है और उस समय (चार साल पहले) बैंक में कैशियर लगा हुआ था। उसकी पत्नी भी किसी सरकारी विभाग में नौकरी करती थी। 22-23 एकड़ जमीन का वह अकेला मालिक है। माता-पिता की इकलौती संतान और दो प्यारे से बच्चों का पापा है वह। हम इकट्ठे पढेÞ, खेले, सत्संगों और सेवा पर इकट्ठे जाते।

रूचियों और समय के अनुसार हम अलग-अलग प्रोफेशन (कारोबार) में एडजस्ट हो गए। पर कुछ साल पहले एक दिन वह कहने लगा कि बाहर (विदेश) सैटल होना चाहता हूं। मैंने उसे कहा कि यार, एक लाख से ज्यादा तुम दोनों की (महीने की) सैलरी है। 10-11 लाख के लगभग साल का जमीनी ठेका आ जाता है। अंकल जी (उसके पापा रिटायर्ड एसडीओ हैं) की पेंशन भी 35-36 हजार रुपए मासिक है, फिर तूने बाहर जाकर अम्ब लेने हैं? अगर तो कोई आर्थिक मजबूरी है, फिर तो तू बाहर जा। पर जब तेरा यहीं अच्छा-भला सरता है, तो क्यों घर-बार छोड़ता है? अंकल-आंटी को बुढ़ापे में रुलाने पर क्यों तुला हुआ है? वह कहता कि नहीं यार, इंडिया में कुछ नहीं पड़ा। मैं तो कहता कि तू भी चल।

क्या पड़ा है यहां? मैंने उसे समझाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा कि माना कि यहां काफी कमियां हैं, पर कीचड़ भरे पानी में कमल का फूल (सतगुरु के दर्श-दीदार, सेवा और प्यार भरी छत्रछाया) भी खिला हुआ है। पर उसने बाहरीपन की ऐसी दलीलें दी कि जिनका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। आखिर करीब 6 महीनों के बाद वह इंडिया से ही पीआर होकर पत्नी व बच्चों सहित कनाडा चला गया। आंटी-अंकल जी इधर ही रहे। बीच में दो-एक बार उसके पास 6-6 महीनों के लिए गए भी, पर एक बार तो करीब दो महीनों के बाद वापिस इंडिया आ गए, उनका वहां दिल नहीं लगा था।

कभी-कभी उसका मेरे पास फोन आता या मैं भी कर लेता। अब से करीब दो महीने पहले वह लगभग बीस दिन के लिए इंडिया आया था। मेरे उसके साथ बचपन से ही प्रगाढ़ संबंध रहे हैं, जिस कारण मुझे वह ऐसा कुछ बता गया, जिससे मेरा मन उदास हो गया। उसने बताया कि कोई शक नहीं, वहां कानून, सुविधाएं आदि अधिकतर व बहुत जबरदस्त हैं और रिश्वतखोरी ना-मात्र है या बिल्कुल भी नहीं। कई दिन तो जब हम इकट्ठे होते, वह उस समय मुझे बाहर के सुख-आराम, सुविधाएं तथा और भी हर प्रकार के प्लस और माइनस प्वार्इंट बताता रहा, पता नहीं तो उसके साथ मेरी दिली सांझ थी या क्या बात थी कि मुझे लगा कि उसके अंदर कुछ अटका सा पड़ा है, पर बाहर नहीं आ रहा। क्योंकि उसकी बातें और चेहरा आपस में अलग-अलग रास्ते चलते महसूस हो रहे थे। मैं उसे पूछता भी तो वह इसके बारे कहता कि कभी फिर बात करेंगे, और बात को आगे डाल देता। एक दिन मैंने हंसते हुए कह दिया-

गल्ल दिल दी दस सज्जणा,
झूठे लारेयां ’च की रखेया।

वह कुछ देर चुप रहा, फिर ना-वाचक संकेत में सिर हिला कर कहता कि मुझे तो यार मेरे मन ने ही ठग लिया। अपने आपसे मैं खुद ही धक्का-सा कर बैठा। कभी-कभी लगता है कि काफी कुछ यहीं पर ही रह गया। पहले तो मुझे लगा कि कहीं मम्मी-पापा के मोह कारण उनसे दूर जाकर ऐसा लगता है, परंतु जब वो पहली बार वहां मेरे पास मिलने के लिए आए, तो वह अदृश्य कमी फिर भी महसूस होती रही। मैंने उन्हें अपने पास पक्के तौर पर बुलाने के लिए कानूनी कार्यवाही शुरु कर दी। फिर भी मेरी अंदर वाली रड़क-सी दूर न हुई।

जमीन-जायदाद वाली बात भी नहीं। वह तो जब मर्जी बेच-बाच कर उधर ले जाऊं। बच्चे तो बच्चे हैं, बेचारे इधर भी खुश थे और अब उधर भी खुश हैं। पर ना मैं खुश हूं, न ही मेरी पत्नी और न ही इधर मम्मी-पापा ज्यादा खुश है। मैंने उधर अपने एक रिश्तेदार के साथ बिजनेस में आधा हिस्सा लगाया है, अच्छी कमाई है। शारीरिक व आर्थिक तौर पर कोई मुश्किल नहीं, पर मुझे लगता है कि मैंने अपनी रूह से धक्का कर दिया। मशीन बन गए हम पति-पत्नी। इंडिया से जाने के समय कोई मजबूत निशाना भी नहीं था मेरे पास। वैसे ही अंधी दौड़ में मुंह उठाकर भाग लिया।

सतगुरु के वचनों पर पक्का हूं, पर वैसे शुद्धता नहीं रही जैसे यहां पर होती थी। सुमिरन का बना हुआ रूटीन टूट गया। इंटरनेट पर सत्संग सुनने व दर्शन करने का सिस्टम भी मन ने समय की कमी और दिन-रात का बहाना लगाने में खराब कर दिया। कभी-कभी अगर ज्यादा हंस लूं तो साथ में रोने को दिल कर आता है। कई बार रो भी पड़ता हूं। इसे मैं सतगुरु की जुदाई कहने का भी हकदार नहीं, क्योंकि यह तो मैंने जान-बूझकर, बिना किसी मजबूरी के खुद सहेड़ी है। दिल करता है वापिस आ जाऊं। बच्चों ने रहना है तो रहते रहें, अपना घर व रिश्तेदार वहीं हैं। सब कुछ होते हुए भी ऐसे लगता है मैं अपनी रूह का गुनाही हूं। जैसे दूध पीते बच्चे को उसकी मां से तोड़ दिया जाए, उसी तरह ही मैंने अपनी आत्मा को सतगुरु के दर्शनों और प्यार से तोड़ दिया, इस तरह लगता है मुझे। इतनी बात कहते हुए वह ऊंची-ऊंची रो पड़ा।

उसने फिर कहा, ‘मुझे लगता है कि मैं सतगुरु की छत्रछाया से खुद ही बाहर आ गया हूं। मैंने उसके प्यार की कदर नहीं की। अंदर एक हल्की-हल्की टीस सी हर समय बजती रहती है। बाई, तू ही बता भला मुझे ही इस तरह क्यों लगता है? ’ मैंने उसे कहा, ‘यार… जिन्हां ने खाई लप्प गड़प्पीं… उसे क्या आखे उंगल चट्टी।’

वह कहता, ‘हां, असल में यही बात है, अपने तो सच्चे पातशाह जी का प्यार मानते रहे हैं, उस प्रगाढ़ प्यार को नजदीक से अनुभव किया है, उसकी याद भरे वैराग्य ने अनेकों बार अपने में डुबोया है, शायद इसीलिए ही…? अब तो डर सा लगता रहता है कि पता नहीं, किस समय मन कहां से और कौन सी बात से गिरा दे। अगर इसने (मन ने) कुछ ऐसा-वैसा करवा दिया तो मैं जीते-जी मर जाऊंगा बाई।’ मैंने उसे हौंसला देते हुए कहा, ‘यार तूं पिता जी के वचनानुसार डटकर सुमिरन किया कर, फिर तूं आत्मिक तौर पर सहज की अवस्था की तरफ बढ़ता महसूस करेगा।’

वह कहता कि इस तरह भी करके देख लिया, खुशी तो मिलती है पर आंख में पड़े बाल की तरह सतगुरु के प्यार वाली वह टीस अच्छी तरह से जाती नहीं। फिर बाई तूं ही बता कि वह भला कैसे जाएगी? मैंने उत्तर दिया, ‘मित्रा, आंख से अच्छी तरह बाल तो फिर उसी तरह ही निकलेगा, जैसे निकलता होता है, तू कौन सा बच्चा है बई, तुझे पता नहीं।’ वह मेरी बात सुन कर कहता, बात तेरी ठीक है, चलो इसके बारे भी सोचना ही पड़ेगा। करते हैं विचार अगर मालिक ने चाहा तो…।

जब उसने यह बात कही तो मुझे हमारे प्रोफेसर साहिब वाली बात याद आ गई कि ‘आधी हार तो आपने मन के आगे तभी मान ली जब स्पष्ट सच दिखते हुए और स्थितियां अनुकूल होने के बावजूद भी विचार करने (भाव दो चित्ती) के चक्करों में पड़ गए।’ पर उसके (मेरा क्लासफैलो) तो सौ प्रसेंट ही स्थितियां अनुकूल थी। आत्मा तो मन के पिंजरे में कैद है। वह जोर तो डालती है पर सुमिरन की कमी और इन्सान द्वारा सतगुरु के प्यार वाली छत्रछाया से धक्के से खुद ही दूर जा कर कम हो चुके आत्मबल कारण उस (रूह) की कोई पेश नहीं जाती। बस फिर तो वही बात हो जाती है कि :-
‘चिड़ी विचारी की करे, ठंडा पानी पी मरे।’ (पंजाबी कहावत) …गतांक

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