अक्ल में जो घिर गया,ला-इंतहा क्यों कर हुआ। जो समझ में आ गया,फिर वो खुदा क्यों कर हुआ।। – पूर्ण मुर्शिद का दर – 124
रूहानियत में शिष्य/मुरीद का मतलब ही ऐसे इन्सान से है, जो अभी सीखता है या सीख रहा है। गुरु सिखलाने वाला है, शिष्य अपने गुरु-मुर्शिद से हमेशा सीखता ही रहता है। यही उसका करम है। परमात्मा, शब्द का स्वरूप है और जब वो देह धारण करता है तो इससे उसकी ताकत में कोई अंतर नहीं आता। इतना ही नहीं, बल्कि काल को दिए हुए वचनों के कारण जिन कार्यों को वो सीधे रूप में नहीं करता, उन्हें वो गुरु (पूर्ण सतगुरु) की देही धार कर सम्पूर्ण करता है।
यही प्रमाण है जो पूर्ण गुरु की देही और शब्द-स्वरूप बीच के किसी तरह के अलग भाव से इन्कारी बनाता है। बेशक बाहरी तौर पर समस्त शिष्यों/मुरीदों में से किसी एक मुरीद को सतगुरु अपना रूहानी वारिस बनाता है परंतु वास्तव में गुप्त सच यह होता है कि गुरु के द्वारा रूहानी वारिस बनाया गया वह शिष्य शुरु से (भाव जन्म से) ही सतगुरु-स्वरूप होता है, जिसके बारे बेशक दोनों (गुरु और शिष्य) को आरम्भ से ही पता होता है, परंतु रूहानी कानून के अनुसार दुनिया के आगे पर्दा समय आने पर ही उठाया जाता है।
फिर भी ज्यादातर लोगों के अंदर यह एक तरह का भुलेखा होता है कि सतगुरु ने चोला बदलने से पहले किसी न किसी को अपना रूहानी वारिस चुनना ही था। भुलेखा इसलिए लिखा है क्योंकि जब सबकुछ पहले से ही तैयार हो चुका होता है, फिर ‘किसी न किसी को’ वाली बात का तो मतलब ही नहीं रह जाता। पूर्ण सच वाले आध्यात्मिक क्षेत्र में शिष्य रूहानी अभ्यास द्वारा बेशक कितना भी ऊपर उठ जाए, फिर भी वह अंडर ट्रेनिंग रहता है, क्योंकि रूहानियत का कोई सिरा (आखिरी छोर) नहीं। पूर्ण सतगुरु शब्द का ही रूप होने के कारण रूहानियत का रचनहार होता है, इसलिए उस जैसा और कोई नहीं हो सकता। इसी कारण ही पूर्ण सतगुरु का भी कोई पारावार या सिरा (अंत) नहीं हो सकता। वो सर्वव्यापक जो हुआ।
एक शिष्य के लिए रहमत का अर्थ, उसकी सोच, आत्मिक शुद्धता, सब्र और अनुभवता ही तय करती है। अलग-अलग कैटेगरियां (श्रेणियां) हैं, जिनमें कोई भी अपनी रूहानी मेहनत के द्वारा तरक्की करके रूहानियत के अलग-अलग अर्थों को महसूस कर सकता है। यह बात है भी बिल्कुल सच। कोई शक नहीं कि जिस बेचारे का पेट कई दिनों से दर्द कर रहा हो, दवा लेने के बावजूद भी दर्द बंद न हो रहा हो और नाम जपकर अरदास करने के बाद पेट दर्द बंद हो जाए, तो उसके लिए तो उस पर सतगुरु की रहमत हो गई। इसी तरह जिसकी गरीबी अमीरी में बदल गई, गुम वस्तु मिल गई, रोग ठीक हो गए, इज्जत-सत्कार बरकरार रह गया, बच्चा नहीं था तो बच्चा हो गया इत्यादि जैसी बातों का सार्थक होना रहमत ही है। हां, है परंतु अपने-अपने बर्तन और सोच के मुताबिक।
इनके बिना कोई शिष्य बाहरी किसी वस्तुओं की चाह नहीं रखते, तो केवल सेवा की बरकरारता चाहते हैं। इससे अगले सेवा के बिना सुमिरन का अटूट रूटीन, सतगुरु पर विश्वास सदा बना रहना आदि के लिए अरदास करते रहते हैं, भाव उनके लिए यह चीज रहमत है। कुछ लोग आखिर तक ओड़ निभ जाने की प्रार्थना करते हैं तथा और किसी भी तरह की बाहरी वस्तुओं के बारे ख्याल नहीं करते। कुछ शिष्य सतगुरु के देह स्वरूप की नजदीकी को रहमत मानते हैं जो बिल्कुल सही बात है। केवल यह ही नहीं, बल्कि उपरोक्त में आई सभी बातों का वापरना (पूरा होना) या मांगों का पूरा होना रहमत की ही निशानी है। परंतु कुछेक लोगों के लिए रहमत के अर्थ सबसे ही अलग होते हैं।
उन्होंने बाहरी और अंदरूनी तौर पर ऐसे अहसास कर लिए होते हैं कि उनके लिए जिंदगी का एकरस चलना ही सबसे बड़ी रहमत होती है। ऐसी रहमत को प्राप्त करने वाले शिष्य निजी पलों में जीभा से बोलकर अरदास नहीं करते। असल में एक रस होकर जीवन जीने वाली अवस्था बहुत ही गहरी है, जिसमें सतगुरु की रजा ही एकमात्र पूर्ण तत्व है। दुनियावी खुशी चाहे कितनी भी बड़ी हो, वो ज्यादा खुश नहीं होते और दु:ख, मुसीबत चाहे कैसी भी हो वो ज्यादा दु:ख का अनुभव नहीं करते। एक-रस होकर जीवन जीना और निरंतर रूहानी कमाई करना आपस में समानांतर चलती क्रियाएं हैं।
इस अवस्था में पहुंचे शिष्य का अपने मुर्शिद पर यकीन ही इतना ज्यादा होता है कि वह सोचता है कि सतगुरु तो मेरा अपना है, मेरा सच्चा यार, मां-बाप, बहन-भाई सब कुछ वो ही है। हर स्वास लेते समय उसके प्यार की निरंतर लहरें चलती रहती हैं। वो तो हर मिनट, सैकेंड, सैमी-सैकेंड भाव हर समय ही मेरे साथ-साथ है।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि वो मेरी प्रीत ओड़ निभाएगा ही निभाएगा। जैसे एक छोटा बच्चा अपने पिता के साथ बाजार गया हो, तो अपने पिता के प्राप्त हुए और अब भी प्राप्त हो रहे प्यार के आधार पर उसे उन पर यकीन ही इतना होता है कि वह बच्चा सोचता ही नहीं कि बाजार से मुझे मेरे पिता चॉकलेट लेकर दे देंगे या नहीं। बच्चे को पक्का विश्वास होता है कि पिता मुझे चॉकलेट लेकर देंगे ही देंगे, इसके लिए मुझे उन्हें कहने या अभी से सोचने की जरूरत नहीं, उन्हें अपने आप ही पता है कि मुझे चॉकलेट खाना पसंद है।
बिल्कुल इसी तरह ही जिस शिष्य का अपने मुर्शिद पर यकीन ही हद से पार हो चुका हो, तो उसके लिए रहमत के अर्थ रजायुक्त आनन्द की एकसारता (एकरस) बने रहना हो जाते हैं। जैसे हाथी की पैड़ में सब पैड़ें आ जाती हैं, इसी तरह ही जब शिष्य की जिंदगी एकरस वाली पटरी पर पड़ गई तो और किसी भी तरह की बाहरी मांगों या इच्छाओं की तरफ ख्याल अपने-आप ही कम हो जाता है। यही कारण होता है कि उसकी जिंदगी में कोई भी अच्छी वस्तु आ गई, तो कोई बात नहीं और अगर वह वस्तु चली गई, तो उसका भी कोई अफसोस नहीं।
तेरा इश्क इस मोड़ पे ले आया है यारा,
यहां आग और बर्फ का अहसास नहीं होता।
जैसे एक साधु जंगल में किसी वृक्ष के नीचे बैठा भक्ति करता हुआ खुद को मालिक वाली राह पर चलने के लिए साध (साधना कर) रहा था। एक चोर लोगों से डरता, बचता वहां पर ही किसी और वृक्ष की ओट में आकर छुप गया। वह उस साधु की ओर देखने लगा।
कुछ देर के बाद वहां एक अमीर सेठ आया और हीरे-जवाहरातों से भरा थाल साधु के आगे रखकर माथा टेका। कुछ देर बैठा और फिर चला गया। साधु आंखें बंद किए बैठा भक्ति में लीन था। उसने आंखें खोलकर न तो सेठ की तरफ देखा और न ही हीरे-जवाहरातों की तरफ और न ही सेठ को आशीर्वाद दिया। कुछ देर बाद वहां पर एक डाकू-लुटेरा आया, उसने हीरे-जवाहरातों से भरा थाल उठाया और चला गया। साधु ने उसकी तरफ भी आंखें खोल कर नहीं देखा।
वृक्ष की ओट में छुपे चोर ने ये सब देखा तो उससे रहा न गया और उसने उस साधु के पास जाकर पूछ ही लिया कि बाबा जी, सेठ तुम्हारे पास हीरों का भरा थाल रख गया, परंतु आपने उसे आशीर्वाद तो क्या देना था, उसकी तरफ आंख खोलकर देखा भी नहीं। इसी तरह चोर उस थाल को उठाकर ले गया तो उसे भी ऐसा करने से नहीं रोका, क्यों?
साधु ने कहा कि मैं अपने-आपको रूहानियत के रास्ते पर सही ढंग से चलने के लिए साध (साधना कर) रहा हूं। मनुष्य के द्वारा खुद को साधने के अलग-अलग पड़ावों के अधीन कई तरह की इच्छाएं केवल मन से संबंधित होती हैं, को अनदेखा करना पड़ता है। हीरे-जवाहरातों के आने की खुशी और चोर-डाकू द्वारा उन्हें चुरा लेने के कारण दु:खी होने वाला पड़ाव काफी पीछे रह गया है। मैं तो अभी खुद को साध रहा हूं। इसलिए किसी को आशीर्वाद देने का तो मतलब ही नहीं और इस साधना (भक्ति) का कोई अंत नहीं। आशीर्वाद तो केवल कामिल सतगुरु ही दे सकता है। उसी के पास ही यह अधिकार होता है, क्योंकि उसी का दिया हुआ आशीर्वाद ही काम करता है।
उपरोक्त उदाहरण का मतलब यह नहीं कि बिना सुमिरन किए एकदम से, धक्के से ही इच्छाएं या मिल रहे सुखों से किनारा कर लो। इच्छाओं की चाह रखना और इच्छाओं की तरफ ध्यान न जाना, परंतु मौजूदा समयानुसार मिल रही सुविधाओं का प्रयोग तो करना, फिर भी उनका गुलाम न होना ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। असल में मुर्शिद पर दृढ़ यकीन, निरंतर सुमिरन और वचनों को बारीकी से लेने वाले शिष्य के अंदर पदार्थवादी सोच अपने-आप कम होने लगती है।
कहने का मतलब यह नहीं कि वह गरीब हो जाता है या घर-बार त्याग देता है। नहीं, इस बात का यह अर्थ है कि मन लज्जत का आशिक होने करके पहले वह जितना बाहरी इच्छाओं की तरफ आकर्षित होता था, अब उसे (मन को) सुमिरन और सृष्टि की नि:स्वार्थ सेवा करने से उस (बाहरी स्वाद) से भी सैकड़े गुणा ज्यादा लज्जत आने लगती है। फिर कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली।
भाव कहां भौतिक इच्छाएं पूरी होने का बाहरी आनन्द (जो सदैवी नहीं होता) और कहां आत्मिक आनन्द जो सदा एकरस बनाए रखता है। मन चंचल और दुश्मन तो है परंतु सतगुरु की रहमत से अगर इसे नाम जपने की चाट पर लगाया जाए, तो यह दोस्त भी बन जाता है, परंतु यह बड़ी सख्त साधना साध कर (कठिन तपस्या से) प्राप्त होती है और बहुत आगे की अवस्था है।
मेरे एक पहचान वाले किसी सज्जन ने एक बार मुझसे पूछा कि तुम्हारे सरसे वाले संत रूह की चढ़ाई के दौरान आते अलग-अलग पड़ाओं के बारे बार-बार चर्चा नहीं करते, ऐसा क्यों?
अंदरूनी पड़ाव:-
मनुष्य शरीर के अंदर के सिस्टम के बारह पड़ाव हैं। दोनों आंखों के नीचे छ: चक्कर पड़ाव आते हैं, जबकि बाकी पड़ाव आंखों के ऊपर वाले भाग में उच्च रूहानी मंडल जैसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड, गंगाएं, सहंसदल कंवल, त्रिकुटी, ब्रह्म आदि और भी अनेकों पड़ाव हैं। महापरलै आने पर सचखंड से नीचे की सब स्टेजें फनाह हो जाती हैं। सचखंड, सतलोक, अनामी ही मालिक का सच्चा घर है, जो हमेशा था, है, और रहेगा।
मैंने उस भाई से कहा कि मुझे इस बात के बारे ज्यादा पता नहीं, परंतु मैं एक बात पूछना चाहता हूं कि सारी स्टेजें पार करके (भाव जीवित-मरना) क्या प्राप्त होता है? उसने कहा कि मोक्ष-मुक्ति। मैंने फिर पूछा कि क्या जीते-जी सचखंड देखे बिना मुक्ति संभव नहीं? उसने कहा कि बिल्कुल नहीं। मैंने कहा कि जी बात यहीं पर ही खत्म होती है। क्योंकि हमारे सतगुरु जी के वचन हैं कि जिसने नाम ले लिया उसका एक पैर यहां और दूसरा सचखंड में है। भाव उस रूह को जन्म-मरण से मोक्ष-मुक्ति पक्का ही मिलेगी, चाहे उसने नाम जपा है चाहे नहीं जपा। हां, ये बात अलग है कि सतगुरु रूहानी मण्डलों पर आत्मा से कितना समय भक्ती करवाता है, ये उसकी मर्जी है।
फकीर को परमात्मा द्वारा बख्शी अपनी-अपनी रहमत पर निर्भर है सबकुछ। फिर भी हमारे गुरु जी नाम जपने पर जोर देते हैं, क्योंकि जो पैर यहां (मातलोक में) है, वो सुरक्षित रहे। भाव आप यहां रहते हुए भी रूहानी आनन्द को ले सको। रही बात अंदरूनी चक्करों की, तो सतगुरु अपनी रहमत के दम पर रूह को चक्करों में जाने ही नहीं देता, बल्कि सीधा तीसरे तिल (दोनों आंखों के बीच) में ले जाता है। अब जो ट्रेन छोटे-छोटे स्टेशनों पर रुकती ही नहीं, तो उस बारे गाइड यात्रियों को ऐसे बार-बार बताता फिरे कि अब यह स्टेशन आएगा, फिर वह और फिर फलां इत्यादि।
वह भाई मेरी बात सुनकर कहता कि अच्छा, तुम्हारे ऐसे होता है! मैने कहा कि जी बिल्कुल। सीढ़ियों वाली राह और लिफ्ट वाली राह की मंजिल बेशक एक है, परंतु ऊपर ले जाने वाला खसम भी तो बिल्कुल सिरे वाला हो। लिफ्ट का गेट जिसके ईशारे से खुलता हो, अंदरूनी मंजिलों के मालिक केवल रास्ता ही न छोड़ें, बल्कि झुक-झुक सजदे भी करें, तो अंदरूनी मंजिलें (सचखंड से नीचे वाले पड़ाव) फिर खेल से लगते हैं। बाकी तुमने शुरु में कहा था कि ‘तुम्हारे सरसे वाले संत’, इस पर मैं इस बात से सहमत नहीं, क्योंकि संत सारी दुनिया के लिए सांझे होते हैं।
किसी एक धर्म, जात, फिरके या देश का ही उन्हें अधिकार नहीं होता। वो सबका भला मांगते और करते हैं, फिर चाहे उन्हें कोई अच्छा कहे या बुरा। हमारा (सच्चा सौदा से जुड़ी साध-संगत) गुरु जी पर कोई कब्जा नहीं किया हुआ कि ये तो केवल हमारे हैं। नहीं, वो तो सभी के हैं। बातचीत के दौरान ‘मेरा सतगुर’ या ‘मेरा प्रीतम’ आदि शब्द कोई शिष्य जब प्रयोग करता है तो उसका ऐसे कहने का संबंध किसी तरह के बाहरीपन से नहीं होता, बल्कि निरोल अंदरूनी भाव होता है ये सब। असल में रूहानियत प्रत्येक के लिए निजी रास्ता है। रूह का मालिक उसका सतगुरु होने करके शिष्य द्वारा बातचीत करते समय रूह की भावना ही बोली जाती है, जिस अधीन ‘मेरा सतगुर’ शब्द अपने-आप मुंह से निकलता है।
‘मेरा सतगुरु’ या ‘हमारे’ (कई जनों के) सतगुरु जी कहना एक निजी अहसास अधीन कहे जाते भावनात्मक अल्फाज हैं, जबकि ‘संत’ शब्द के आगे हमारे, तुम्हारे या मेरे इत्यादि शब्द लगाना ‘संत’ शब्द के सत्कार को कम करने वाली बात है। जैसे इतिहास में हुए रूहानी संत कबीर साहिब जी, नामदेव जी, गुरु रविदास जी तथा और भी कई पूर्ण संत किसी एक धर्म-जात के लोगों को ही शिक्षा नहीं देते थे, वो भी हमारे सब के हैं और सारी दुनिया के लिए सत्कार योग्य हस्तियां हैं, परंतु फिर भी कोई कहे कि हमारे नामदेव जी, हमारे गुरु रविदास जी, हमारे कबीर जी तो ये बातें किसी भले पुरुष के मुंह से शोभा नहीं देती हैं।
मैंने उस भाई से फिर कहा कि मेरे सतगुरु पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां पूर्ण संत हैं, जो सब दुनिया के लिए सांझे हैं, न कि साढेÞ छ: करोड़ लोगों का ही उनपे अधिकार है। उनके (संतों के) लिए भी सब लोग परमात्मा की अंश होने करके बराबर हैं। हां, अगर कोई इन्सान वैसे ही चार लोगों में बड़ाई लेने के लिए कहता रहे कि मैं तो संतों के सबसे नजदीक हूं, लगभग उनके साथ ही कहने वाले के ये निजी विचार हो सकते हैं। क्योंकि पूर्ण संत किसी एक-दो विशेष बंदों से ही जुड़े नहीं होते। कोई पता नहीं कौन, कब और कहां बैठा अपनी आशिकी के दम पर सतगुरु को अपने घर, खेत, जहाज के सफर दौरान या पहाड़ की चोटी पर आने के लिए मजबूर कर देता है। बेशक ये सब निजी अहसास हैं, परंतु हैं सौ फीसदी सच, चाहे कोई माने या न माने।
उस भाई से मेरी बातचीत यहीं पर ही खत्म हो गई। मैं नहीं जानता कि वह मेरे जवाब से संतुष्ट हुआ या नहीं, परंतु उसने कोई और प्रश्न नहीं किया। बाकी यह बात भी सच है कि केवल गूढ़ ज्ञानी इन्सान जल्दी कहीं संतुष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि केवल गूढ़-ज्ञान ही छांटना परंतु अमल न करना एक ऐसी उलझी हुई डोर को सुलझाने की कोशिश करना है, जिसका कोई सिरा नजर नहीं आता। कहने का मतलब कि ‘नाम’ (गुरुमंत्र) जो सबसे शिरोमणी वस्तु है, उसका कोई पता नहीं और केवल जुबानी-कलामी अंदर के रहस्यों से पर्दा नहीं उठता, जबकि सिर्फ ज्ञान में ही उलझ कर अहंकार के बगैर कुछ पल्ले नहीं पड़ता। पंजाबी के एक गीत की लाईन है:
नाग छेड़ लिया कौडियां वाला ते मंत्र याद नहीं।
लेख के शुरु में बात चल रही थी, सतगुरु के ऐसे शिष्य बारे जो रहमत का अर्थ जिंदगी के एकरस बने रहने से लेता है, सतगुरु की याद में सदा एकरस जिंदगी से मतलब यह नहीं कि बाहरी तौर पर अक्सर ही सतगुरु के दर्श-दीदार करते रहने से अथवा ज्यादा सत्संगें सुनने से ही आनन्द के स्त्रोत जल्दी और ज्यादा फूटते हैं। गंभीरता से अमली रूप में ऐसे अहसासों को लेने वालों के लिए यह संभव भी है, परंतु हर एक के साथ ही ऐसा होगा, यह बात जल्दी जंचती नहीं। क्योंकि सदा एकरस रहने वाले शिष्य का चेहरा काफी कुछ ब्यान कर देता है। उसका स्वभाव, बोल-वाणी और किए जाते कर्म सब खोल के रख देते हैं। इसी आधार पर देखा जाए, तो ऐसे आशिक कम ही नजर आते हैं। पूज्य हजूर पिता जी का वचन है कि सतगुरु के दीदार का एक पल भी किसी शिष्य की जिंदगी भर के लिए खुशी प्राप्त करते रहने का कारण बन सकता है। ऐसा शिष्य उसी एक पल को बार-बार याद करके उस (पल) के सहारे ही जिंदगी गुजार देता है।
इसी वचन के साथ जुड़ती बात मुझे बिहार प्रांत के रहने वाले और मुस्लिम भाईचारे से संबंधित एक प्रेमी ने सुनाई। उस भाई ने बताया कि मैंने सन् 1994 में नाम-शब्द लिया था। मुझे आज तक केवल एक बार ही पीर जी (पूज्य हजूर पिता जी) के बिल्कुल नजदीक से दर्शन करने का मौका नसीब हुआ है। यह बात शायद 1995-96 की होगी। परमपिता शाह सतनाम जी धाम के पिछली तरफ बने लड़कों के (शाह सतनाम जी बॉयज स्कूल) स्कूल के निर्माण के समय से संबंधित है यह घटना है (अब यहां पर शाह सतनाम जी गर्ल्ज शिक्षण संस्थान है)। मैं डेरे सेवा करने आया था।
स्कूल की बिल्डिंग की नींव भरी जा रही थी। मैं बिल्कुल आखिरी नींव के पास खड़ा मिस्त्री भाई को र्इंटें पकड़ा रहा था। गरीब-नवाज (पूज्य गुरु जी) के हाथ में एक छोटा-सा डंडा था, जिसे संकेत रूप में हिलाकर आप जी निर्देश दे रहे थे। पीर साहिब हमारे पास 40-50 कदम के लगभग दूर थे और कुछ देर वहां पर खड़े रहकर वापिस चले गए। मैंने अपने अंदर ही अंदर सोचा कि पीरो-मुर्शिद जी, आपको क्या फर्क पड़ता था, अगर थोड़ा-सा और आगे आ जाते! मुझे तो आपके नजदीक किसी ने लगने नहीं देना, पर आप जी तो आ जाते, फिर पता नहीं जिंदगी में कभी ऐसा मौका आए या न आए, परंतु चलो, जैसे आप जी की रजा! घंटे भर बाद पीर साहिब जी हमारे वाली लाईन में पहुंच गए। इतना ही नहीं, बिल्कुल हमारे पास आकर कई मिनट खड़े रहे।
लगभग तीन फुट ऊंची दीवार होगी, जिस पर हम काम कर रहे थे। दाता जी दीवार के दूसरी तरफ और हम (मैं, मिस्त्री और एक और भाई) इस तरफ थे। आप जी ने अपने हाथ में पकड़े डंडे से दीवार के ऊपर से थोड़ा-सा झुककर किसी जिम्मेवार प्रबंधक को दीवार के बारे कोई बात समझाई। बस, मेरी जिंदगी का वोही एक पल था, जब मैंने इतने नजदीक से दर्शन किए कि आपजी के रोमों (चेहरे के बाल) की जड़ों तक भी स्पष्ट नजर आ रहीं थी।
मैं उस नजारे को नहीं भूल सकता। आज उस बात को कोई 25-26 वर्ष हो गए हैं। मुझे सचमुच ही उसके बाद आज तक कभी मौका नहीं मिला कि मैं इतनी नजदीक से दर्शन कर सकूं। परंतु मेरे लिए तो वो ही एक पल जिंदगी-भर चलने वाली दवाई के समान बन गया, हड्डियों में रच चुका नशा बन गया।
तेरा इश्क महरमा रूह विच अम्बरां तक वस गया है,
हर रोज दे नशेआं वांगूं मेरी हड्डीं रच गया है।
मैं उसी पल को याद कर-करके आज तक भी जिंदगी में आनन्द ले रहा हूं। शायद ही कोई दिन हो जिस दिन मैंने उस पल को याद न किया हो। दिन में कई-कई बार वो पल याद करके नशा-सा आ जाता है। मैं एक मजदूर आदमी हूं, जैसे काम करते समय कंडे वाली, करड़ी सी चाय पीकर शरीर तरो-ताजा सा हो जाता है, इसी तरह ही उस पल को आंखों के सामने लाकर आत्मा नशई हो जाती है। ऐसे लगता है जैसे वो पल अभी कल की ही बात हो।
इधर से जब मैं अपने गांव (बिहार प्रांत में) जाता हूं, तो अपने शरीके-कबीले वालों को कई तरह के नशे करते देखता हूं। वो मुझे भी नशा करने के लिए कहते हैं। बेशक अब कुछ सालों से कहने से हट गए, परंतु पहले हर बार जोर देते और मैं उनके पास से उठकर चला जाता। मैं उन्हें कहता हूं कि शराब शरीर को गालती है, पैसे लगते हैं और गलियों, कुरड़ियों पर गिरते-फिरते हो, तो इज्जत खराब करती है। जबकि मुझे नशे का ऐसा चलता-फिरता खजाना मिला है, जो न कभी खत्म होए, न ही नशा कम होए और दुआनी (पैसा) लगती भी नहीं। मेरी बात उनके समझ में नहीं आती कि ऐसा नशा पहले तो कभी सुना नहीं।
मैं जब बात विस्तार से उस चलते-फिरते नशे के बारे (सतगुरु वाला नशा) बताता हूं, तो वो मेरी बात सुनकर कभी-कभी हंसते हैं और कई बिल्कुल चुप हो जाते हैं। उनके हिसाब में मेरी बात आती नहीं। उन्हें मेरी अनसुलझी बुझारत सी लगती है। मैं उन्हें कहता हूं कि मेरे साथ चलो एक बार, तुम्हारी शराब तो कुछ भी नहीं उसके आगे, क्योंकि तुम्हारी शराब तो पीने के बाद नशा देती है और वह भी कुछ समय के लिए, परंतु जो शराब मैं पीता हूं, उसे तो देखकर ही नशा हो जाता है और कई बार तो देखने के बिना बल्कि पहले पी हुई को याद करके ही नशा चढ़ जाता है और यह भी अपने हाथ में है कि चढ़ा हुआ नशा बेशक कितने ही दिन तक न उतरने दो।
उस प्रेमी भाई ने कुछ देर रुककर फिर कहा कि कौन क्या करता है मुझे इससे कोई मतलब नहीं, परंतु मैंने तो उस एक-दो पलों के नजारे को अपने अंदर फोटो की तरह लैमिनेशन करके रखा हुआ है। उस (पल) में से हमेशा रस टपकता रहता है और जब दिल चाहा घूंट भर ली। मेरा तो हर घूंट भरने से ही हज हो जाता है। उसी एक पल ने ही जिंदगी में हमेशा के लिए रस भर दिया है।
उस भाई का बात सुनाते हुए गला भर आया, आंखों से प्यार बह चला। गला साफ-सा करते हुए उसने कहा कि मुझे पता है कि मेरा खुदा उस दिन एक घंटे बाद फिर से मेरे लिए ही हमारे सबके पास आया था। मैं सब समझता हूं कि उसने दीवार के ऊपर से झुककर डंडे के संकेत से प्रबंधकों को क्यों समझाया था। मैं शुक्रगुजार हूं उस करीम (मालिक) का जिसने उस एक पल में ही मेरी ईद करवा दी। मेरे अल्लाह, तेरा शुक्र-शुक्र-शुक्र है और मेरे पास तेरी सिफ्त के लिए कोई लफ्ज नहीं है। उस बात पर ढुकता एक शेयर है:
तुझे तक्केआ तो लगा मुझे ऐसे,
जैसे मेरी ईद हो गई।
इक पल में हजारों हज हो गए, जब तेरी दीद हो गई।।