सार्इं जी ने अपने शिष्य की मनोकामना पूर्ण की -सत्संगियों के अनुभव
पूजनीय बेपरवाह सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम
प्रेमी ईश्वर दास इन्सां पुत्र श्री लछमन दास, गांव कुक्कड़थाना, जिला सरसा हाल आबाद कीर्ती नगर, सरसा। प्रेमी जी परम पूजनीय बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज की अपार रहमत का वर्णन इस तरह करता है:
सन् 1954 की बात है। मैं सरसा शहर के आर्य स्कूल में पढ़ता था और अपनी बहन के पास रंगड़ी खेड़ा गांव में रहता था। उस समय तक मेरे बड़े भाई अर्जुन दास इन्सां को शहनशाह मस्ताना जी महाराज से नाम की बख्शिश हो गई थी। पूज्य सतगुरु शाह मस्ताना जी ने मुझे भी नाम बख्श दिया और वचन किए, ‘तुम्हारा नाम सचखंड में लिखा गया। तुम्हारा एक पैर इत्थे और एक पैर उत्थे। आज तुम्हारे को वहां पहुंचा दिया, जहां बड़े-बड़े हार जाते हैं, रास्ते में रह जाते हैं।’
सन् 1957 का जिक्र है। सर्दी का मौसम था। मेरी बड़ी बहन को अधरंग हो गया था। वह रंगड़ी खेड़ा में विवाहित थी। उसका शहर सरसा के सांगवान अस्पताल में ईलाज करवाया, परंतु वह ठीक न हुई। वह बहुत तकलीफ में थी। जब मैंने उसकी हालत देखी, तो मैंने अंदर ही अंदर सोचा तो एक आह निकली, दर्द भरी पुकार कि या तो प्रभु इसको ठीक कर दे या अपने चरणों में बुला ले, अर्थात् मृत्यु दे दो। मैंने उस संबंध में शहनशाह मस्ताना जी महाराज के चरणों में अर्ज करने के लिए अपने छोटे जीजा देस राज से सलाह-मशवरा किया। वह मुझसे सहमत हो गया।
पूज्य मस्ताना जी महाराज के चरणों में अर्ज करने के लिए हम दोनों डेरा सच्चा सौदा की तरफ चल पड़े। रास्ते में प्रसाद के लिए कुछ केले तथा संतरे ले लिए। हम डेरे के आगे पहुंच गए। उस समय गांव जण्डवाला के प्रेमी हाथी राम की ड्यूटी मुख्य दरवाजे पर थी। उसने हमें फल अंदर ले जाने से मना कर दिया। फिर हम प्रकाश चंद बजाज को मिले, जिसकी वहां चाय-पानी की दुकान थी। प्रकाश ने हमें बताया कि पूज्य मस्ताना जी का मौन रखा हुआ है।
इसलिए वह बाहर नहीं आएंगे। परंतु हमें अपने पूर्ण मुर्शिद पर विश्वास था कि सतगुरु सार्इं जी घट-घट व पट-पट की जानने वाले हमारी पुकार जरूर सुनेंगे। उस समय डेरे के गेट के सामने मिट्टी और र्इंटें इकट्ठी की जा रही थी। हम भी वहां सेवा में लग गए। इतने में हमें शहनशाह मस्ताना जी की ऊंची तथा प्यारी आवाज सुनाई दी। पता चला कि शहनशाह जी बाहर आ रहे हैं।
सारी साध-संगत ने धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा का नारा लगाया और खुशी में झूम उठी। कुछ सेवादारों के साथ पूज्य मस्ताना जी बाहर आ गए। शहनशाह जी ने सभी सेवादारों का हाल-चाल पूछा और मेरी तरफ इशारा करके बोले, ‘मास्टर, कैसे आए?’ पहले तो मेरी हिम्मत नहीं पड़ी कुछ बोलने की, परंतु सतगुरु द्वारा बार-बार इशारा करने पर मैंने डरते-डरते अर्ज की कि सार्इं जी, मेरी बहन बीमार है, बहुत तकलीफ में है, दया करो। शहनशाह जी बोले, ‘उसने नाम लिया है?’ मेरे हां कहने पर उन्होंने फरमाया, ‘नाम उसकी माऊ (मां) जपेगी? हम आत्मा को कर्मों की मैल उतार कर शुद्ध करके ले जाते हैं उसके कर्म कौन उठाएगा? आगे रूहें अटक जाती हैं, रास्ते में हजारों साल लग जाते हैं।’ मैंने कहा कि सार्इं जी, मेहर करो जी।
इतने में सामने सड़क पर बेगू गांव की तरफ से आ रही कुछ ऊंटों की गाड़ियों की एक लंबी लाईन दिखाई दी, जिन पर औरतें और बच्चे बैठे हुए थे और साथ-साथ कई आदमी पैदल चलते आ रहे थे। त्रिकालदर्शी सतगुरु जी ने उनकी तरफ दाएं हाथ से आशीर्वाद देते हुए, हाथ में अपनी पवित्र डंगोरी पकड़े हुए पास खड़े सेवादारों को मुखातिब करते हुए फरमाया, ‘तुम्हारे को एक बात बताते हैं, मानोगे?’ सेवादारों ने हां में सिर हिलाया तो शहनशाह जी ने फरमाया, ‘मानना तो मुश्किल है।’ फिर ऊंटों वालों की तरफ ईशारा करके बोले, ‘देखो भई, नसीब इनके।
ये सतगुरु की मौज को नहीं जानते। मगर गरीब सेवाधारी जोड़े झाड़ने वाला सावनशाही मौज की दया से इनके बारे में सब कुछ जानता है। इनको पता नहीं कब का मेल है। आप ये देखना, जब ये यहां से गुजरेंगे तो परे को मुंह कर लेंगे। पर सावनशाही मौज के हुक्म से जो डेरे के आगे से निकलेगा, उसको भी वहीं छोड़ेंगे। जिसने मस्ताना सेवाधारी से नाम लिया है, उसको कैसे छोड़ेंगे। तुम फैसला करो।’ फिर मेरे तथा मेरे जीजा जी की तरफ इशारा करते हुए बोले, ‘बोलो भई, ठीक है?’ इतने वचन करके शहनशाह जी आश्रम में चले गए।
वहां सेवादार सेवा कर रहे थे। हमारा मन सेवा में नहीं लग रहा था। हम अपने मन में पश्चाताप कर रहे थे कि हम मरीज के लिए प्रसाद भी नहीं ले सके और जो हमारे पास फल थे, उन्हें शहनशाह जी के आगे पेश भी न कर सके। शहनशाह जी दरबार में चक्कर लगाते हुए फिर हमारे पास आ गए। अंतर्यामी दातार सतगुरु जी हमसे मुखातिब होते हुए बोले, ‘कैसे आए भई?’ मैंने हिम्मत करके अपनी बीमार बहन के बारे में अर्ज की तो शहनशाह जी ने वहां सेवादारों में जीव के कर्मों, भजन और संभाल के बारे में विस्तार से चर्चा की और फरमाया, ‘सतगुरु की रजा में ही राजी रहना चाहिए।
इसी में जीव की भलाई है।’ जब शहनशाह जी सेवादारों को सेवा करने का आदेश देते हुए वापिस जाने लगे तो सार्इं जी ने मेरे जीजा जी के पास जो छुपाए हुए फल थे, उन पर डंगोरी लगाते हुए पूछा, ‘इसमें क्या है?’ हमने कहा कि सार्इं जी, यह प्रसाद के लिए लाए हैं। शहनशाह जी कुछ न बोले और खिड़की खुलवाकर दरबार में चले गए। कुछ ड्यूटी वाले सेवादार भी अंदर चले गए। हम भी अपने मन की चालाकी से उन लोगों के साथ अंदर चले गए। शहनशाह जी ने एक सत् ब्रह्मचारी सेवादार (जीएसएम भाई) को मूहड़ा लाने का आदेश देते हुए फरमाया, ‘धूप में बैठेंगे।’ शहनशाह जी मूहड़े पर विराजमान हो गए। शहनशाह जी परमार्थी वचन फरमाने लगे। इसी दौरान कहने लगे, ‘अच्छा भई, रंगड़ी वाला (देस राज) कहां है?’ वह डरता हुआ खड़ा हुआ।
शहनशाह जी ने फरमाया ‘बल्ले, भई बल्ले। वो प्रसाद कहा हैं?’ देस राज ने वह केलों तथा संतरों का प्रसाद जो परने में बांधा हुआ था, हाथ जोड़ते हुए पूज्य मस्ताना जी महाराज के आगे रख दिया। उन्होंने जब प्रसाद पकड़ा तो हमें हौसला हो गया कि हमारा काम हो जाएगा। अर्थात् बीमार मरीज के लिए प्रसाद मिल जाएगा। पर होना तो वही था जो सतगुरु को मंजूर था। पूजनीय शहनशाह जी ने संगत को मुखातिब होते हुए फरमाया, ‘बल्ले भई बल्ले, केले, संतरे कौन-कौन खाएगा?’ सभी ने हां भरी और कहा कि सार्इं जी, आप जी की मर्जी है। शहनशाह जी ने हमारे देखते ही देखते वो केले तथा संतरे सामने बैठे कुछ सत्संगियों में बांट दिए।
अब एक केला और एक संतरा बाकी बचा था। हम सोच रहे थे कि हमें मिलेगा, परंतु उसकी बात तो वो ही जाने। फिर शहनशाह जी ने फरमाया, ‘भई उस हाथी (सेवादार हाथी राम) को बुलाओ।’ हाथी राम ने शहनशाह जी की हजूरी में ऊंची छलांग लगाई और अपने दोनों हाथ जोड़कर शहनशाह जी के आगे कर दिए। शहनशाह जी ने वो केला और संतरा उसकी झोली में डाल दिया। शहनशाह जी हमें मुखातिब करके बोले, ‘अब ठीक है भई।’ परंतु प्रसाद न मिलने के कारण हम उदास तथा निराश हो गए।
अब शहनशाह जी ने सेवादार बुल्ले को अपने पास बुलाया और उसे चार-पांच रंग-बिरंगे फूल लाने का आदेश फरमाया। बुल्ला सामने लगी फूलों की क्यारी में से फूल तोड़ लाया। शहनशाह जी ने फूलों को अपने पवित्र कर-कमलों में लेते हुए मुझे अपने पास बुलाया और मुखातिब करके बोले, ‘वरी, यह क्या है?’ मैंने उत्तर दिया कि सार्इं जी, यह गुलाब के फूल हैं। फिर शहनशाह जी ने फरमाया, ‘तू तो सब जानता है। जब सतगुरु ने फूलों में रंग भरा है, तो बीमार किसने किया है?’ और साध-संगत को मुखातिब होते हुए बोले, ‘देखा भाई, ये गुलाब के फूल तो बाद में लगे हैं, मगर कांटें पहले ही थे। इसलिए आप सभी को भी फूल-कांटों का और सुख-दु:ख का ज्ञान होना चाहिए। अच्छा भई, अब जाओ, मास्टर ठीक है।’ परंतु मैं कुछ भी बोल न सका और प्रसाद लेने वाला ख्याल अड़ा ही रहा।
शहनशाह जी ने कुर्सी से उठते हुए फरमाया, ‘अच्छा भई, ये फूल किसको देवें!’ हमें आशा की किरण दिखाई दी, परंतु शहनशाह जी का खेल तो वो ही जानते हैं। शहनशाह जी ने एक फूल बुल्ले को, एक तुलसी को, एक किसी और सेवादार को तथा एक हाथी राम को दिया। शहनशाह जी ने सभी के हाथों में अपना पवित्र हाथ ऊंचा करते हुए फूल दिया। आखिर में एक फूल बचा। हम दोनों को पास बुला लिया। हम बहुत खुश थे कि हमें प्रसाद मिल ही जाएगा। जब शहनशाह जी मुझे फूल का प्रसाद देने लगे तो बिल्कुल हाथ के पास से फूल मेरे हाथों में डाल दिया, परंतु वो फूल मेरे हाथों में आने की बजाए हवा के झोंके से नीचे पत्तियां बन कर बिखर गया। मेरे हाथ में कुछ न आया।
पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘पुट्टर, अब तो ठीक है, जाओ घर।’ इतने वचन करते हुए शहनशाह जी गुफा (तेरावास) में चले गए। हमने फूल की पत्तियां इकट्ठी की। दरबार में से खाली बोतल लेकर उस में दरबार के नलके का पानी लिया और उसमें फूल की पत्तियां डाल ली कि मरीज को प्रसाद वाला पानी पिलाएंगे, तो वह ठीक हो जाएगी। परंतु हम दुनियादार इस बात को समझ नहीं सके कि शहनशाह जी ने फूल हमारे हाथ में क्यों नहीं दिया। एक सेवादार ने तो उसी समय कह दिया था कि तुम्हारी बहन चोला छोड़ जाएगी। जब हम अपने घर के पास पहुंचे तो रोने की आवाज आ रही थी। घर पहुंचकर हमने सभी संबंधियों को दिलासा दिया और शहनशाह जी के वचन सुनाए तो सभी खुशी में मस्त हो गए। पवित्र जल को प्रसाद के रूप में प्रयोग किया गया। सभी ने सतगुरु का नारा लगाया और शहनशाह मस्ताना जी का धन्य-धन्य किया, जिन्होंने इतने दु:खी जीव पर रहमत करके उसकी अंतिम समय संभाल की।