समस्या का मूल देखें
समस्याएँ मनुष्य के नित्य प्रति के जीवन का एक अभिन्न अंग है। यदि जीवन में कोई समस्या न हो तो वह नीरस हो जाता है परन्तु समस्याएँ आने पर वह परेशान होने लगता है। उससे बाहर निकलने का उपाय सोचकर वह हलकान होता रहता है। कभी तो उसका हल निकल आता है पर कभी उसके लिए माथापच्ची करनी पड़ती है पर समस्या है कि अंगद की तरह पैर जमाकर वहीं की वहीं रह जाती है।
प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है यानी उनसे जूझना पड़ता है। इस संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जिसके जीवन में समस्या की पदचाप सुनाई नहीं देती। यह समस्या ऐसी है कि सुलझने का नाम ही नहीं लेती। इसे बहुत ही धैर्य से और समय देकर सुलझाना पड़ता है नहीं तो यह और उलझकर जीना मुश्किल कर देती है। तब उनसे छुटकारा पाना बहुत ही कठिन हो जाता है।
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जिस प्रकार ऊन या रेशम के धागे अनायास ही उलझ जाते हैं तो बहुत ही धैर्य से धीरे-धीरे उन्हें सुलझाया जाता है नहीं तो ये धागे और अधिक उलझकर दुख का कारण बन जाते हैं। फिर उन्हें फेंकना पड़ता है या फिर तोड़ना पड़ता है। तब उनमें गाँठ पड़ जाती है। उसी प्रकार इन समस्याओं को भी बहुत ही सूझबूझ और धैर्य के साथ सुलझाना पड़ता है नहीं तो ये समस्याएँ और उलझकर मनुष्य के दुख का कारण बनती हैं।
समस्याओं को समझने के लिए उनके मूल में जाना पड़ता है। शान्ति से बैठकर विचार करना होता है कि आखिर यह समस्या जीवन में आई कैसे? यदि इस समस्या का मूल या इसकी जड़ पकड़ में आ जाए तो उसे सुलझाना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है। हो सकता है कि मनुष्य की अपनी मूर्खता से वह समस्या में घिर गया हो। जब कारण समझ में आ जाए, तब उसका निदान करना अधिक सरल हो जाता है।
कुछ समस्याएँ हमारी लापरवाही या मूर्खता से जीवन में आती हैं। कुछ समस्याएँ अपने बन्धु-बान्धवों के कारण खड़ी की जाती हैं। कुछ हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के फलस्वरूप हमारे दुख का कारण बनती हैं। पहली दोनों प्रकार की समस्याओं का मूल कारण जान लेने पर सुलझाई जा सकती हैं परन्तु कर्मानुसार मिली समस्याएँ समय रहते सुलझ जाती हैं। ये इतनी जल्दी पिण्ड नहीं छोड़तीं।
कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य जानता है कि भविष्य में कोई समस्या आड़े आने वाली है। तब वह सोचता है कि जब कुछ होगा या फिर जब समय आएगा, तब देख लिया जाएगा। उसकी यह अहं की भावना समय आने पर उसे लाचार बना देती है। तब समस्या इतनी गम्भीर हो जाती है कि उसे सम्भालना कठिन हो जाता है। चाहकर भी उसका ओर छोर हाथ में नहीं आ पाता।
उस समय उसे पश्चाताप होता है कि यदि वह समय पर चेत गया होता तो इतनी उसे कठिनाई का सामना न करना पड़ता। तब तक समय हाथ से निकल चुका होता है। उसके पास पछताने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता। इस तरह मनुष्य अपने पैर पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मार लेता है। फिर रोता है और दुखी होता है। अपनी गलती होने पर भी दूसरों को तथा ईश्वर को दोष देता है।
समस्या तो समस्या होती है, चाहे वह छोटी हो अथवा बड़ी हो। मनुष्य को दुख और परेशानी दोनों ही स्थितियों में उठानी पड़ती है। छोटी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिल जाती है और मनुष्य चैन की साँस लेता है। बड़ी समस्या से मनुष्य को छुटकारा बहुत कठिनाई से मिल पाता है। कई बार वह मनुष्य को तोड़कर रख देती है। उससे उभरने का कोई मार्ग भी तो उसे नहीं दिखाई देता।
इस चर्चा का सार यही है कि मनुष्य को अपने जीवन में सदा ही सावधान रहना चाहिए। यदि उसे यह लगता है कि निकट भविष्य में उसके समक्ष कोई मुसीबत या समस्या आने वाली है तो उसका निदान या हल पहले ही खोज लेना चाहिए। समस्या के मूल तक जाने का प्रयास करना चाहिए। उससे समस्या को सुलझाने में सहायता मिलती है। जितनी जल्दी समस्या से मनुष्य को मुक्ति मिल जाएगी, उतना ही वह सुखी रह सकेगा।