वह सीधी सचखंड गई! -सत्संगियों के अनुभव पूजनीय बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज की अपार रहमत
श्री हरनाम दास पुत्र श्री दौलत राम गांव करीवाला जिला सरसा से शहनशाह मस्ताना जी महाराज की अपनी सचखंडवासी चाची प्रकाश देवी पत्नी सचखंडवासी सूबा राम पर हुई रहमत का वर्णन इस प्रकार करता है:-
मेरी चाची प्रकाश देवी तथा चाचा सूबा राम दोनों का शहनशाह मस्ताना जी महाराज पर दृढ़ विश्वास था। दोनों डेरा सच्चा सौदा में सेवा करते थे। जब प्रकाश देवी दरबार में सेवा के लिए जाया करती थी तो वह अकसर अपनी चुनरी के पल्लू में कागज में लपेटकर पीसा हुआ काला नमक व काली मिर्च बांध कर अपने साथ रखा करती थी। जब शहनशाह जी मूली वगैरह खाते तो वह अपने पल्लू में बंधा नमक-मिर्च शहनशाह जी के आगे कर देती तथा अर्ज करती- सार्इं जी, यह नमक-मिर्च ले लो। इस तरह की सेवा से वह खुशियां प्राप्त करती।
करीब 1956 में कुल मालिक के विधान अनुसार उसका अंतिम समय नजदीक आ गया। उसके कोई संतान नहीं थी। कुछ दिन उसे थोड़ा-थोड़ा बुखार रहा। वह हर समय मालिक सतगुरु की ही बातें किया करती थी। किसी गैर सत्संगी से उसका मन नहीं मिलता था। कोई भी सत्संगी या दरबार का सेवादार उनके घर जाता तो वह उसे मालिक की बात सुनाए बिना जाने न देती। चाय, रोटी, पानी की भी खूब सेवा करती। एक रात उसने अपने पति सूबा राम को कहा कि मुझे बुखार है, मुझे दरबार से पानी लाकर दो। सूबा राम ने कहा कि रात का समय है, दरबार में दरवाजे बंद हैं।
मैं कहां से पानी लाकर दूं। वह जिद्द करने लगी कि मुझे अभी दरबार से पानी लाकर दो। सूबा राम ने अपने पड़ोस में रहने वाले प्रेमी शम्बूराम को अपने साथ लिया और उसे प्रकाश देवी की इच्छा बताई। दोनों ने आपस में विचार किया कि अपने नजदीक बने मंदिर से पानी ले आते हैं और उसे कह देंगे कि यह दरबार का पानी है। वह मंदिर से पानी लेकर घर पहुंचे तो प्रकाश देवी बोली कि यह दरबार का पानी नहीं है। मैं नहीं पीती। तुम मेरे साथ ठग्गी करते हो। तुम तो दरबार गए ही नहीं। दरबार जाओ, वहां से पानी लेकर आओ। उन्होंने प्रकाश देवी को कहा कि दरबार के गेट बंद हैं, हम क्या कर सकते हैं। वह बोली, सार्इं जी (पूज्य मस्ताना जी) नीमों के पास खड़े हैं, जाओ तुम्हें पानी मिल जाएगा।
फिर वह दोनों शाह मस्ताना जी धाम में चले गए। उस समय शहनशाह जी नीमों के पास खड़े थे। सूबा राम ने शहनशाह जी को नमन् करते हुए नारा बोला और कहा, सार्इं जी! एक अर्ज है। तो घट-घट की जानने वाले अंतर्यामी सर्व समर्थ दातार जी बोले- तेरी अर्ज-वर्ज कबूल नहीं होती। तेरी औरत को हमने ले जाना है! तो सूबा राम ने बाहर टैंकी से पानी भर लिया और घर ले आया। प्रकाश देवी ने वह पानी पिया। उस रोज सुबह के तीन बजे उसने सूबा राम को कहा, दरवाजा खोलो, सार्इं जी आए हैं। सूबा राम ने क्रोध में कहा कि सार्इं जी वहां सच्चा सौदा में तो दर्शन नहीं देते।
यहां टिब्बे पर तेरे घर कहां से आ गए। इतने में दरवाजे से अचानक आवाज आई और दरवाजा अपने-आप खुल गया। दरवाजा खुला तो सूबा राम ने भी देखा, परंतु उसे शहनशाह जी के दर्शन नहीं हुए। जबकि प्रकाश देवी को शहनशाह जी के दर्शन हुए। शहनशाह जी ने उसे वचन किए, पुत्तर! तुझे आठ बजे ले जाएंगे। उसने उसी वक्त सूबा राम को बता दिया। परंतु सूबा राम ने यह सच नहीं माना, क्योंकि उसे न तो कोई बीमारी थी और न ही कोई तकलीफ थी।
उस दिन सुबह सूबा राम ने दरबार की सेवादार माता रक्खी को प्रकाश देवी के पास बिठा दिया, क्योंकि वह किसी गैर सत्संगी से, यहां तक कि अपने पारिवारिक गैर सत्संगियों से भी बात नहीं करती थी। उसने माता रक्खी को बताया कि मेरा हिसाब-किताब हो रहा है। मैं तुलदी पई आं। मैंने आठ बजे चले जाना है। उसने बातें करते-करते ठीक आठ बजे नारा ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ बोलकर चोला छोड़ दिया।
उस दिन जब माता प्रकाश देवी का मृतक शरीर शमशान घाट में ले जाया गया तो सरसा शहर की संगत तथा रिश्तेदार, संबंधी सभी ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ के नारे लगाते हुए शमशान घाट तक गए। फिर पांचवें दिन उस प्रथाए धूमधाम से नामचर्चा हुई। शहनशाह जी से आज्ञा लेकर प्रेमी सूबा राम ने उसके फूल (अस्थियां) ब्यास दरिया में डाल दिए।
सूबा राम अपनी पत्नी के फूल दरिया में डालने के बाद जब सरसा दरबार में आया तो उस समय शहनशाह जी सेवादारों से सचखंड हाल की बिल्डिंग के पीछे मिट्टी कुटवा रहे थे। तो सूबा राम ने शहनशाह जी को नमन् करते हुए नारा बोला।
शहनशाह जी ने फरमाया, सूबा! तेरी औरत का इतना प्रेम था, वो सीधी सचखंड गई। फिर शहनशाह जी ने सभी प्रेमियों को हिदायत देते हुए फरमाया, जब भी कोई सत्संगी चोला छोड़े तो उसके रिश्तेदारों को रोना-धोना नहीं चाहिए। सतगुरु के नारे लगाने चाहिएं, खुशी मनानी चाहिए कि वह जीव शरीर के बंधनों से मुक्त होकर अपने निजघर गया।