Sukhbir Singh martyr - sachi shiksha hindi

1999 के कारगिल युद्ध के पहले शहीद थे डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले, वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा। ऐसे ही उन वीर सैनिकों को हम याद कर रहे हैं, जिन्होंने वर्ष 1999 में कारगिल के युद्ध में जांबाजी से पाकिस्तान के साथ जंग लड़ी। इन्हीं में एक थे बीएसएफ में 171वीं बटालियन के डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह।

रेवाड़ी जिला के गांव धामलावास में 12 दिसंबर 1961 को जन्मे सुखबीर सिंह में वीरता के गुण अपने पिता रिटायर्ड कैप्टन रघुवीर सिंह से आए थे। उनकी प्राथमिक शिक्षा पैतृक गांव धामलावास में ही हुई। कालेज की पढ़ाई उन्होंने हिसार के कालेज से की। बेटे सुखबीर में देश के प्रति भावना को देखते हुए उनके पिता रघुवीर सिंह ने उन्हें सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया। पिता के आशीर्वाद और प्रेरणा से सुखबीर सिंह ने बीएसएफ में भर्ती होने के लिए कड़ी मेहनत की।

Also Read :- नमन शहीदी दिवस 23 मार्च

सैनिकों की खान कहे जाने वाले अहीरवाल की धरती से एक और युवा देश की सेना में शामिल होने को लालायित था। आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और अगस्त 1986 में उन्हें कमीशन प्राप्त हुआ। एक साल के कड़े प्रशिक्षण के बाद वे बीएसएफ में डिप्टी कमांडेंट बनें। साल 1987 में उनकी पहली पोस्टिंग जम्मू-कश्मीर में हुई। इस क्षेत्र में नियमित तौर पर पाकिस्तानी दुश्मनों से उनकी बटालियन की भिड़ंत होती रही। डिप्टी कमांडेंट ने बहादुरी, जांबाजी का परिचय देते हुए अनेक आतंकवादियों को मौत की नींद सुलाया। उनकी बहादुरी से उन्हेंं सेवा मेडल भी प्रदान किया गया।

26 मई 1999 को वीरगति को दी शहादत

कारगिल युद्ध में जब भारतीय सेना पाकिस्तान के साथ जांबाजी से लड़ रही थी। इसमें डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह की वीरता भी अहम थी। गोले और गोलियों की बौछार पाकिस्तान की तरफ से होती रही। जवाब में जांबाज सुखबीर सिंह भी लगातार दुश्मन पर हमलावर थे। 26 मई 1999 की रात को पौने आठ बजे सुखबीर अपने साथियों सहित कारगिल के छेनीगुंढ इलाके में तैनात थे। खून को जमा देने वाली बफीर्ली हवाओं के बीच वे दुश्मन पर नजर रख रहे थे। देशभक्ति और देश की रक्षा का जज्बा इन बफीर्ली हवाओं पर भारी पड़ रहा था।

रात को जब डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह भारतीय सीमा की चौकसी के लिए लगाई गई चेक पोस्ट का निरीक्षण करने जा रहे थे। इसी दौरान वहां घाटी के बीच घात लगाकर बैठे पाकिस्तानी आतंकियों ने उन पर हमला कर दिया। उन पर अंधाधुंध गोलियों की बौछार कर दी गई। गोलियों की बौछारों के बीच सुखबीर सिंह का हौंसला कम नहीं हुआ। जांबाजी से वे दुश्मनों पर जवाबी फायरिंग करते रहे। फायरिंग करते हुए वे उनकी और दौड़े। फिल्मों में जो एक्टिंग से जांबाजी दिखाई जाती है, डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह ने इसे हकीकत में किया और दुश्मनों के दांत खट्टे करते रहे।

जैसे ही वे दुश्मनों की तरफ फायरिंग करते हुए दौड़ रहे थे तो आतंकियों ने उनकी तरफ गोलियां रोककर एक गोला दाग दिया। गोला लगने से वे बुरी तरह से घायल हो गए। घायल होकर भी उन्होंने दुश्मनों से मुकाबला करने का आदेश दिया। इसके बाद डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह को श्रीनगर के आर्मी बेस अस्पताल में भर्ती कराने के लिए ले जाया गया। अस्पताल पहुंचने से पहले ही अहीरवाल का वह जांबाज हीरा शहीद होकर मां भारती की गोद में सो चुका था। बताया जाता है कि डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह ने कारगिल के युद्ध में पहली शहादत दी थी।

1988 में आतंकवाद ग्रस्त पंजाब में हुई थी तैनाती

वर्ष 1988 में आतंकवाद ग्रस्त पंजाब में सुखबीर सिंह की तैनाती की गई। वहां अपनी बहादुरी से वे सेना में उच्चाधिकारियों द्वारा बेहतर आॅफिसर की सूची में गिने जाने लगे। पंजाब के तैनाती के दो साल बाद वर्ष 1990 में सुखबीर सिंह को फिर से आतंक प्रभावित जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में भेज दिया गया। वर्ष 1992 में सुखबीर सिंह का चयन एनएसजी मानेसर के लिए हुआ। यहां से 7 साल बाद वर्ष 1999 में उन्हें फिर से जम्मू-कश्मीर में तैनात किया गया। जम्मू-कश्मीर में तैनाती का उनका यह आखिरी सफर था। 26 मई 2003 को तत्कालीन राज्यपाल बाबू परमानंद ने डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह के गांव धामलावास में उनकी प्रतिमा का अनावरण किया था।

कारगिल युद्ध के बाद सांसद बनीं शहीद की वीरांगना

कारगिल शहीद डिप्टी कमांडेंट सुखबीर सिंह के वीरगति को प्राप्त होने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने शहीद की वीरांगना डा. सुधा यादव (34) को 13वीं लोकसभा के लिए चुनावी मैदान में उतारा। वे आईआईटी रुड़की से कैमिस्ट्री से पीएचडी में गोल्ड मेडलिस्ट हैं। वे उस समय कैमिस्ट्री की शिक्षिका थीं।

अहीरवाल के इन सैनिकों ने भी जांबाजी से लड़ी जंग

गुरुग्राम से रेवाड़ी तक को अहीरवाल क्षेत्र कहा जाता है। अहीरवाल मतलब सैनिकों की खान। आजादी से पहले प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर अब तक यहां के सैनिक देश की सेना में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं। वर्ष 1999 में हुए कारगिल युद्ध में भी अहीरवाल के अन्य कई सैनिकों ने जांबाजी दिखाई।

इसमें गुरुग्राम के गांव दौलताबाद कूणी निवासी सिपाही बिजेंद्र सिंह, मुमताजपुर गांव निवासी लांस नायक आजाद सिंह और गांव गुड्डी निवासी अहमद अली शामिल हैं। इसके अलावा रेवाड़ी के गांव रतनथल बास से सूबेदार रामनिवास भी कारगिल में शहीद हुए थे। वे 23-ग्रेनेडियर में सैनिक भर्ती हुए थे। वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध में दुश्मनों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे। कारगिल हीरो सूबेदार रामनिवास की याद में पत्नी फूलवती ने ही उनकी याद में गांव में एक स्मारक बनवाया हुआ है।

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here
Captcha verification failed!
CAPTCHA user score failed. Please contact us!