Darkness has its own charm

सांवलेपन में अपना ही आकर्षण है
भारतीय सौंदर्य के मापदंड के रूप में शरीर के रंग को कभी भी महत्व नहीं दिया गया परन्तु पाश्चात्य सभ्यता और फैशन के नित बढ़ते नये-नये प्रयोगों के कारण अब भारत में भी ‘गोरी त्वचा‘ के प्रति काफी ललक बढ़ती जा रही है। सौंदर्य प्रसाधनों का अंधाधुंध प्रयोग करते हुए त्वचा को गोरी बनाने की प्रतिस्पर्धा आज के समय में काफी बढ़ गई है।

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भारत जलवायु के हिसाब से एक गर्म देश है जिसका प्रभाव शरीर की त्वचा पर पड़ता है। रंग का सांवला या काला होना स्वाभाविक है। छरहरी काया, उन्नत नैन-नक्श एवं सहज प्राकृतिक शील गुणों को ही सौंदर्य शास्त्र के अनुसार सौंदर्य का आधार माना गया है।

इतिहास के पन्नों को पलटकर देखने से यह प्रतीत होता है कि जो अपने युग की अप्रतिम सौंदर्य की मलिका कहलाती थी, प्राय: वे सांवली ही थी। मध्यकाल की मृगनयनी हो या अरब की लैला, वे सभी अपने आन्तरिक गुणों के कारण ही सुंदर कहलायी।
कुदरती रंग को बदलने के चक्कर में आज की नारियां अनेक चर्म रोगों के शिकंजे में फंसकर अपने शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को समाप्त कर डालती हैं जबकि अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि गोरी त्वचा से कहीं अधिक श्रेष्ठ सांवली त्वचा हुआ करती है।

सांवले रंग का अपना एक अलग आकर्षण होता है। साथ ही इस रंग की लड़कियां आत्मविश्वासी एवं सम्पूर्ण स्वस्थ हुआ करती हैं। पढ़ाई में होशियार, समझदार, सरल स्वभाव वाली तथा घमंड से दूर हुआ करती हैं।
स्टेण्डफोर्ड यूनिवर्सिटी में किये गये एक शोध के अनुसार यह ज्ञात हुआ है कि गोरी त्वचा की अपेक्षा सांवली त्वचा वाली औरतें अपने पति की अधिक वफादार हुआ करती हैं। साथ ही सांवली त्वचा की औरतें अनेक महिला रोगों से सहज रूप से ही मुक्त रहा करती हैं।

‘सांवली हूं‘ की भावना आत्मबल को नष्ट कर देती है और उन्हें स्वयं ही अपने सौंदर्य की अनुभूति से वंचित कर देती है जबकि अच्छे नाक-नक्श से युक्त सांवली लड़कियां अन्य गोरी लड़कियों से सुन्दरता में कहीं आगे होती हैं जिन्होंने सिर्फ गोरा रंग ही पाया है और उनके नाक-नक्श आकर्षक नहीं हैं और व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं है।

सांवली त्वचा को अपने आन्तरिक गुणों से भरपूर बनाकर तथा नियमित दिनचर्या, आहार-विहार के नियमों को अपना कर और भी निखारा जा सकता है। अपनी हीन भावना से ऊपर उठकर, अपने व्यवहार में मृदुलता लाकर तथा नृत्य, गीत, संगीत, खेलकूद, पेंटिंग आदि के गुणों का विकास करके सर्वश्रेष्ठ बना जा सकता है। रूप की नहीं बल्कि गुणों की पूजा होती है। अगर रंग-रूप की ही पूजा होती तो अफ्रीका की काली लड़कियां कभी भी विश्व सुंदरी प्रतियोगिता में दिखाई नहीं पड़ती। क्या अफ्रीका की सुंदरियों को कभी कोई खिताब नहीं मिला है? ‘सुर कोकिला‘ लता मंगेशकर, ऊषा मंगेशकर की पहचान उनके सुरों के कारण ही न सिर्फ भारत में ही बल्कि विश्व में बनी हुई है। उनका चेहरा भी तो सांवला ही है।

क्या उन्हें सम्मान नहीं मिलता? अगर रूप-रंग ही सब कुछ होता तो शायद इन्हें कभी सम्मान मिल पाता।
मिस यूनिवर्स सुष्मिता सेन हो या मिस वर्ल्ड ऐश्वर्य राय, इन्हें मिले खिताब के पीछे सिर्फ इनकी सुंदरता ही नहीं थी बल्कि उनकी क्षमता, विवेचन शक्ति एवं तर्कपूर्ण उत्तर देने की क्षमता के कारणों ने ही उन्हें इस शिखर तक पहुंचाया। दूसरी भारतीय मिस यूनिवर्स लारा दत्ता के आत्मविश्वास ने ही उसे सफलता दिलायी थी। देहयष्टि से कहीं अधिक बुद्धि-कौशल जीवन में कामयाबी दिलाता है।

अगर किसी में कोई योग्यता है, क्षमता है या किसी को भी सहज ही अपनी ओर आकर्षित करने का गुण है तो रंग अपने आप ही गौण हो जाता है। राजनीति का क्षेत्र हो या आर्थिक-धार्मिक क्षेत्र, सभी क्षेत्रों में रूप नहीं, गुण के आधार पर ही चुनाव होता है। अगर सच पूछा जाये तो आज के युग में बदलते माहौल में जहां हर तरफ प्रतियोगिता ही प्रतियोगिता है, वहीं सुंदर, आकर्षक, प्रतिभावान प्रतियोगियों की ही पूछ है।

रंग की चिंता से चिन्तित रहकर अपनी प्रतिभा पर जंग लगा डालना उचित नहीं है। रंग की हीन भावना से मुक्त होकर, गुणों से परिपूर्ण होकर अन्य लोगों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलने में सांवलापन कहीं भी बाधक नहीं बनता।
-पूनम दिनकर

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