Teej Indian festival -sachi shiksha hindi

दे दे री मेरी माँ पीढी अर रस्सा, झूलण जांगी हरियल बाग मै

भारत त्यौहारों व पर्वों का देश है। कृषि प्रधान देश होने के कारण हमारे अधिकांश त्यौहारों का संबंध भी ऋतुओं से जुड़ा हुआ है। देश के अलग-अलग भागों में विविधता में एकता (अनेकता में एकता) के चलते त्यौहार मनाने का ढंग भी भिन्न-भिन्न है। उत्तर-भारत तथा दक्षिण-भारत में भी कुछ त्यौहारों के नाम भिन्न हैं और कुछ को मनाने का तरीका भिन्न है, परन्तु फिर भी कार्य व्यवसायवश एक स्थान से दूसरे स्थान पर बस जाने से तथा मीडिया के प्रचार से अधिकांश त्यौहार सभी स्थानों पर मनाये जाने लगे हैं।

इन्ही पर्वों में एक पर्व है, ‘हरियाली तीज’ जो उत्तर-भारत के कुछ भागों, उत्तर पर्वतीय स्थानों, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब के कुछ भागों में वर्षा ऋतु काल के दौरान श्रावण माह में मनाया जाता है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कुछ भागों में तीज, हरियाली तीज से लगभग एक माह बाद आती है। परन्तु उसको मनाने का ढंग भिन्न है।

सावन के आते ही लड़कियों, महिलाओं द्वारा तीज की प्रतीक्षा उत्कंठा से करना, तीज पर मायके में लड़कियों को बुलाया जाना शुभ माना जाता रहा है। श्रावण माह से पूर्व लड़कियों को ससम्मान बुलाया जाता है। दूर-दराज ब्याही हुई सखियां-सहेलियां तीज पर इकट्ठी होती हैं। वे मिल-बैठकर एक-दूसरे से अपने दु:ख-सुख सांझे करती है। मायके आने का चाव उनके चेहरों से साफ झलकता है। ये ही ऐसा त्यौहार है, जो बिछुड़ी हुई सहेलियों को फिर से मिलाता है।

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तीज, रक्षाबंधन आदि पर्वों के पश्चात ही उपहारों, घेवर, शृंगार का सामान, अन्य पकवान तथा वस्त्रों के साथ विदा किया जाता है। रिमझिम वर्षा की फुहारें हरी-लाल चूड़ियां पहने, मेहंदी से सजे हाथ, घेवर (उत्तर भारत का एक विशेष मिष्ठान्न), झूले आदि यही सब मनोरम दृश्य सावन का होता है। सावन के गीत गाती महिलाएं, जिनमें या तो प्यार के मीठे-प्यारे बोल प्रमुख होते हैं या फिर माता-पिता का आंगन याद करते हुए मायके में बुलाय जाने का आग्रह किया जाता है। तद्पश्चात घेवर, चाट का आनंद लेकर सब अपने घरों को वापस चले जाते हैं। गांव आदि में लगभग पूरे माह पींगा झूलने का कार्यक्रम चलता है। हां, शहरों में कुछ स्थानों पर बस तीज के दिन ही कहीं-कहीं झूले दिखते हैं। जबकि पहले यह त्यौहार हफ्ता-हफ्ता भर चला करता था।

सावन का नाम सुनते ही पींग, पीढ़ी और मौज-मस्ती आंखों के सामने आने लगती है। इतना ही नहीं, बरसात के मौसम में मीठा खाने का अपना ही एक महत्व है, इसलिए तीज को मीठा त्यौहार भी कहा जाता है। तीज का त्यौहार श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। तीज के दिनों मे मिठाई के दुकानदारों की चांदी हो जाती है,

क्योंकि तीज के दिनों में भाई अपनी बहन के घर कोथली जिसमें घेवर, फिरनी, बतासे, बिस्कुट, मिठी मट्ठी व अन्य मिठाई लेकर जाता है। परन्तु आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी ने तीज का रस कुछ कम कर दिया है। हालांकि यह त्यौहार अपने वजूद को अभी भी बचाए हुए है। सावन के महीने में घरों व बाग-बगीचोंं में झूला-झूलती दिखाई देने वाली युवक-युवतियों की इठलाती-गाती अलमस्त टोलियां बेशक आजकल नजर नहीं आती किंतु तीज के दिन यह टोलियां अवश्य नजर आती हैं।

हरियाली रहित जंगलों और भाग-दौड़ भरे मौजूदा जीवन में पींग का स्वरूप बदल गया है।

तीज पर कोथली का विशेष महत्व

तीज के पर्व पर कोथली का विशेष महत्व माना जाता है। बच्चे तो पहले तीज पर्व को ही कोथली तुहार कहते थे। कोथली (बड़ा झोला) कपड़े की बनी होती थी, जिसमें भाई अपनी बहनों के घर सुहाली, गुलगुले, घेवर, बताशे आदि खाने का सामान लेकर जाते थे। उस समय में जब परिवहन के साधन नहीं होते थे तो आते-जाते लोगों को राम-राम करते थे। सुहाली उस वक्त खाने की ऐसी चीज थी जोकि काफी दिन खाने के लिए चल जाती थी।

सुहाली को पकाते वक्त सुहाली पर छटांक, आधसर आदि बाटों के निशान छाप कर पकाया जाता था जिससे पकने के बाद बाटों के निशान ज्यों के त्यों दिखाई देते थे। इसके बाद बच्चे पहले से भी ज्यादा मजे के साथ सुहाली का स्वाद चखते थे। कई स्थानों पर सुहाली को सुहाल भी कहा जाता है। आजकल सुहाली व गुलगुले का स्थान मिठाईयों ने ले लिया है। वहीं कोथली अब आधुनिक बैग का रूप ले चुकी है।

बदला है तीज पर्व का स्वरूप

आधुनिकता के साथ तीज उत्सव का स्वरूप भी धीरे धीरे बदल रहा है। पहले जहां महिलाएं पुरातन गीतों के साथ झूला झूलती थीं, वहीं आज हरियाणवी गीतों, डीजे व ढोल के साथ महिलाएं एवं लोक कलाकारों पंझाली डालने का काम करते हैं। देखा जाता है कि आज भी अनेकों स्थानों पर तीज उत्सव मनाया जाता है। ‘नान्ही-नान्ही बुंदियां सामण बरसे हे, मां मेरी बाग मै री, पी पी पपीहा बोल्या बाग मै.., मत बोल्लै गजबी पिया के बोल, सामण की रूत आ रही ऐ री आया तीजां का त्योहार, मीठी तो कर दे कोथली.. जावैं बाक्त कै देण पपीहा बोल्या बाग मै, चोगरदे तै बाग हर्या घणघोर घटा सामण की, छोरी गावैं गीत सुरीले झूल घली सामण की’ आदि सामण के गीतों से संपूर्ण वातावरण संगीत की स्वर लहरियों से गूंजता सुनाई पड़ता है। सावन के महीने में मेहंदी भी एक अहम रस्म होती है।

पहले इस दिन महिलाएं बड़े शौक से मेहंदी लगाती थी। मेहंदी के बारे में एक कहावत प्रचलित रही है कि बिना रची की सास अर दप्यारी का मेहन्दा। यानि की जिस बहु की मेहंदी कम रचेगी वह सास की प्यारी होगी और जिसकी मेहंदी ज्यादा रचेगी वह अपने पति और सास दोनों की प्यारी होगी। इसलिए मेहंदी का भी तीज के साथ बहुत महत्व है, परन्तु आजकल स्टीकर मेहंदी बहुत प्रचलन में है।

प्रेम व भाईचारे को दर्शाती है तीज

यूं तो सभी भारतीय त्यौहार भाईचारे की मिशाल माने जाते हैं, लेकिन तीज पर्व से परिवारों व रिश्तेदारों में प्रेम भाव पनपता है। तीज के दिन या तीज के आस पास के दिनों में भाई अपनी बहनों के पास जाते हैं तो आपस में मिलना-जुलना काफी ज्यादा बढ़ जाता है।

जब अपने समय में खो गई बुजुर्ग महिलाएं

तीज को लेकर जब एक नोहरे में बैठी बुजुर्ग महिला 88 वर्षीय कौशल्या देवी के मन को कुरेदा गया तो वह पुरानी यादों मे इस कद्र खो गई कि अपने समय की सावन की सारी बातें सुना दी और झूम कर ‘सामण आया ए माँ मेरी झूमता री, ऐ री आई रंगीली तीज झूलण जांगी बाग मै…’ गाने लगी और कहने लगी कि तीज तो म्हारे टैम मै मनाई जावै थी, इब कित वा पहलां आली तीज रैहगी। पहलां जिब हम पींग्या करते तो आस-पास के लोग देखण लग ज्या करते। अर सारा सामण गीत गाया करती पर इबो सामण के आए का अर गऐ का पता ही ना लागता।

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