सुपर महिला बनने का चक्कर
बचपन से ही लड़की को यह सिखाया जाता है कि उसे सभी काम आने चाहिएं जिससे उससे जुड़े सभी लोग खुश रहें। यदि कोई भी, कहीं भी उससे नाखुश हुआ तो इसका मतलब है कि उसके काम में कहीं न कहीं कोई गड़बड़ी हुई है। उसे सिखाया जाता है कि वह हर काम में परफेक्ट रहे। वह जीवन अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी बहू, अच्छी पत्नी और अच्छी मां बनने में ही गुजार देती है।
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इन सब जद्दोजहद में वह एक औरत के अस्तित्व को ही भूल जाती है। वह भूल जाती है कि वह भी कुछ है। खुद को परफेक्ट वूमन साबित करने के चक्कर में वह कुंठित होती चली जाती है। वह अपने आस-पास के दबाव से अपना व्यक्तित्व निखारना ही भूल जाती है।
दरअसल बात यह है कि उसके आस-पास के लोग तो उससे बेहतरीन होने की उम्मीदें रखते ही हैं किन्तु महिला स्वयं भी यह अपेक्षा रखती है कि उसे परफेक्ट वूमन होना चाहिए। उसे घर-बाहर का सब काम आना चाहिए। एक महिला को यह लगता है कि उसे रसोई के हर काम में निपुण होना चाहिए। उसे ऐसा खाना बनाना आये जिसकी सब तारीफें करें एवं उससे बढ़िया खाना कोई बना भी न सके।
घर में कोई मेहमान आये तो उसकी मेजबानी में उसकी तरफ से कोई कमी न हो ताकि चार जगह बाहर जाकर उसकी वह तारीफें करें कि उससे अच्छा मेजबान कहां? इसी तरह घर की साफ-सफाई में वह सबसे आगे हो। बच्चों की पढ़ाई में पूरी तरह मददगार हो। उन्हें अनुशासन सिखाये। उनकी दोस्त बने एवं जीवन में उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे।
पति के हर काम को तैयार रखे। उससे कुछ टोके बिना उसके हर फैसले को माने, सारी रिश्तेदारियों को निभाये, राशन-बिजली-पानी का बिल चुकाये, यदि कामकाजी हो तो दफ्तर में भी अपना बेहतरीन काम करके दिखाये, इसके अलावा दिखे भी एकदम हीरोइनों की तरह टिप-टॉप, ऐसी होती है सुपर वूमन।
कुछ तो हमारा समाज ही शुरू से महिलाओं को अत्यधिक काम के बोझ के नीचे दबाता आया है। उस पर अब यह परफेक्शनिस्ट का बोझ। परिवार में सबसे ज्यादा जिम्मेदारियां उन्हीं के पास हैं। घर में कोई काम बिगड़ा नहीं कि दूसरों से पहले वे स्वयं को ही इसका दोषी मानने लगती हैं। वे हमेशा इस डर से भयभीत रहती हैं कि कहीं कोई काम ढंग से न हुआ तो परिवार में उनकी वह जगह छिन जाएगी जिसे पाने के लिए वह प्रयास कर रही हैं। जरा सी गड़बड़ी से वे हीन भावना से ग्रस्त हो जाती हैं।
कुछ समय पहले महिलाओं को हमारे देश में परिवार तक ही सीमित माना जाता था। बाहर के सारे काम पुरुष ही देखते थे। महिलाओं का जीवन सिर्फ घर की चारदीवारी तक ही सीमित था। इसी चारदीवारी के अन्दर उन्हें अपनी कुशलता, रचनात्मकता एवं निपुणता का परिचय देना होता था। चारदीवारी में भी बेहद मुश्किलें थीं।
अपने गुणों व प्रतिभा को साबित करने के लिए महिलाओं ने धीरे-धीरे बाहर की दुनिया में कदम रखा। बाहर निकलकर उन्होंने यह साबित कर दिखाया है कि वे भी दुनिया में काफी कुछ कर सकती हैं। उनकी दिनचर्या में काफी बदलाव आया किन्तु गृहस्थी से जुड़ी उनकी जिम्मेदारियों में कोई बदलाव नहीं आया।
परिवार उनसे यह उम्मीद करता है कि आठ घंटे की ड्यूटी आॅेफिस में निभाने के बाद वह घर पर एक घरेलू महिला की तरह अपने सारे काम निपटाये। आॅफिस में भी उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे अपना बेहतरीन करके दिखाये और घर पर तो उससे सभी की अपेक्षाएं जुड़ी ही रहती हैं। ऐसे में वे अपना व्यक्तित्व भूल जाती हैं।
ऐसा लगता है कि मानो आज महिलाओं का जीवन संघर्ष बन गया है। घर पर परिवार की जिम्मेदारियां और बाहर आॅफिस की जिम्मेदारियां। वे अपनी पसंद-नापसंद भूल गई हैं। उन्हें दूसरों की पसंद को अपने ऊपर थोपना पड़ रहा है। वे अपने सुख-दु:ख का एहसास ही नहीं कर पाती।
जरूरत है अपने विषय में अपने आसपास एवं परिवार के लोगों को जागरूक बनाने की। अपनी प्राथमिकताओं का ख्याल रखें। घर के प्रत्येक सदस्य को यह बतायें कि आप उनके लिए बहुत कुछ कर रही हैं किन्तु कुछ अपने लिए भी करना चाहती हैं। घर के हर सदस्य से घर के किसी न किसी काम में मदद अवश्य लें। इससे आपका काम भी आसान होगा और आपको भी यह एहसास होगा कि परिवार भी आपके लिए कुछ सोचता है।
-शिखा चौधरी