‘यहां आला डेरा बनाएंगे, दूर-दूर से संगत आया करेगी…’ डेरा सचखंड धाम, फेफाना
2 प्रदेशों की सीमाओं को जोड़ने वाला फेफाना गांव लोगों में भाईचारे एवं सौहार्द का संदेश भी बखूबी संचारित कर रहा है। रंग रंगीले राजस्थान प्रांत में बसे इस गांव के 7 दशक पुराने इतिहास की बात करें तो कई रूहानी फलस्फे जुड़े नजर आते हैं।
यह ऐसा दौर था जब पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज बागड़ का बादशाह बनकर क्षेत्र का उद्धार कर रहे थे। सन् 1954 के आस-पास का समय था, पूज्य सार्इं जी इस एरिया पर भरपूर रहमोकरम लुटा रहे थे।
सन् 1955 का वक्त था, उन्हीं दिनों पूज्य शहनशाह जी डाबड़ा गांव (हिसार) में सत्संग करने पहुंचे हुए थे। फेफाना गांव के श्री पतराम, बनवारी लाल, मुखराम, केसुराम, रामचन्द आदि भी दिल में सत्संग की अभिलाषा लेकर वहां जा पहुंचे। पूज्य सार्इं जी ने साध-संगत की दिली इच्छा का मान रखते हुए फेफाना गांव में सत्संग मंजूर कर दिया। पूज्य सार्इं जी सत्संग के निश्चित दिन गांव में आ पधारे। उस दिन शाही उतारा प्रेमी मुखराम गिंटाला के घर पर था। रात को जबरदस्त सत्संग फरमाया और अभिलाषी जीवों को नाम-दान की भी बख्शिश की। 88 वर्षीय लिखमा राम बिजारणियां बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी उस समय गांव में दो दिन ही रुके।
देर सायं गांव में पधारे तो रात्रि विश्राम मुखराम गिंटाला के घर पर ही था, जहां रात को बड़ा जबरदस्त सत्संग किया। इस सत्संग में गांव से काफी लोग शामिल हुए थे। उनमें से कइयों ने गुरुमंत्र भी लिया था। अगली सुबह पूज्य सार्इं जी ने भंडारा मनाया, इस दौरान साध-संगत बड़ी संख्या में दर्शन करने के लिए पहुंची। तभी कुछ सेवादारों ने गांव में डेरा बनाने की प्रार्थना की। बताते हैं कि गांव में डेरा बनाने की बात पर पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया था कि, ‘पुटटर! वक्त आने दो। डेरा जरूर बनाएंगे।’ इस प्रकार अपनी रहमतों का भंडार लुटाते हुए पूज्य सार्इं जी दूसरे दिन ही लालपुरा गांव के लिए रवाना हो गए। पूज्य सार्इं जी अपनी जीवोद्धार यात्रा के दौरान नोहर से लालपुरा गांव होते हुए किकरांवाली गांव जा पधारे। इस एरिया में कई दिनों तक सत्संगें लगाई, और लोगों को राम नाम से जोड़ा।
वापसी में पूज्य सार्इं जी नोहर में सेठ दुलीचंद के घर आ पधारे। सेठ दुलीचंद पूज्य सार्इं जी का बड़ा भक्त था और पूज्य सार्इं जी भी उस पर बड़ी दया-दृष्टि लुटाते रहते। इसी दरमियान फेफाणा से प्रेमी बनवारी राम भी वहां पहुंच गया और शाही चरणकमलों में फिर से फेफाणा में पधारने व सत्संग लगाने के लिए अर्ज की। सच्चे दातार जी ने फरमाया, ‘भाई! बॉडी को कुछ तकलीफ है। जुकाम लगा है। हमने यहां से सीधे नेजिया में जाना है। वहां पर सत्संग लगाना है। बहुत भारी इकट्ठ होगा। बहुत संगत आएगी।’ बनवारी राम ने अर्ज की, बाबा जी! समुद्र में कमी आती है क्या? एक रात वहां ठहर जाना जी, संगत दर्शन कर लेगी।
मुरीद से ऐसी बातें सुनकर मेहरबान, दया और रहमतों के सागर पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया, ‘सत्संग नहीं करेंगे तो तुम्हारे पाप कौन चुकेगा?’ इस तरह बनवारी राम के बार-बार अर्ज करने पर पूज्य सार्इं जी ने हंसते हुए अपनी रजामंदी जाहिर कर दी।
Table of Contents
यह हराम का माल नहीं है, पैसा रूआं फाड़कर आता है!
फेफाना दरबार में ढलती सायं को शहनशाही दरबार सजा हुआ था। एक बुजुर्ग मोमन राम ढाका ने कहा कि सार्इं जी, आपने अपने कौतुक से सरोरपुर गांव में एक कमरा नोटों से भर दिया था। यहां हरपत राम का कमरा भी नोटों से भरकर दिखाओ जी। पूज्य सार्इं जी ने जानबूझकर अनसुना करते हुए फरमाया-‘अरे बुड्ढा क्या बोलता है वरी!’ उसने फिर वही बात दोहराई।
पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘सारा गांव घरों से बाहर निकलकर सुमिरन करो, सुबह गलियों में नोटों की थेहियां लगी मिलेंगी।’ तो वह बोलने लगा कि बाबा जी भजन तो कोणी होवे। ‘यह हराम का माल नहीं है, ये जो पैसा आता है, रूआं फाड़ कर आता है। यह जादूगर का माल नहीं है, यह गेबी खजाना है। एक रात लगाओ, भजन-सुमिरन करो, अगर सुबह नोट की गट्टियां ना मिलें तो हमारी मुंडी काट देना।’ लेकिन उन लोगों के मन में काल ने ऐसा घेरा डाला कि कोई भजन-सुमिरन को तैयार ही नहीं हुआ।
तुम्हारा डेरा सतगुरु ने मंजूर कर दिया
अगले दिन फेफाना गांव के जिम्मेवार सत्संगी बस के द्वारा पूज्य सार्इं जी को गांव में लेकर आए। प्रेमी रूघा राम के घर पर शाही उतारा था। बताते हैं कि रात्रि का करीब एक बजा था। प्रेमी बनवारी राम उस समय बाहर ड्यूटी पर खड़ा था। सच्चे पातशाह जी ने आवाज देकर पूछा, ‘भाई! कौन खड़ा है?’ बाबा जी! मैं बनवारी हूं। शाही मुखारबिंद से वचन निकला, ‘भाई! अभी दरगाह से हुक्म हुआ है तुम्हारा डेरा सतगुरु ने मन्जूर कर दिया है। तुम लोग डेरे के लिए जगह तैयार करो, अब डेरा बनाकर ही जाएंगे।’ 77 वर्षीय पंडित वेद प्रकाश बताते हैं कि अगले दिन पूज्य सार्इं जी ने गांव वालों को डेरा बनाने के लिए जमीन दिखाने को कहा।
इस पर बनवारी पंडित ने अपनी 5 बीघा जमीन देने की बात कही। ‘चलो! देखते हैं, अगर जगह ठीक हुई तो आज का सत्संग भी वहीं पर लगाएंगे।’ यह फरमाते हुए पूज्य सार्इं जी सेवादारों को साथ लेकर जमीन का जायजा लेने चल दिए। पूज्य सार्इं जी ने सत्संग का सारा सामान टैंट, कनातें, छायावान, स्पीकर आदि भी वहीं पर ले चलने का हुक्म फरमाया। गांव की उत्तर दिशा में नहर की पटरी से चलते हुए पूज्य सार्इं जी माधोसिंघाना गांव की साइड में जैलदार के खेत में जा पहुंचे, वहां कुछ समय तक ठहरे। इसके उपरांत पंडित बनवारी राम व एक अन्य सेवादार की ज़मीन देखी, लेकिन गांव से ज्यादा दूरी होने के कारण इस भूमि पर डेरा बनाने से मना कर दिया। पूज्य सार्इं जी उधर से घूमते हुए वापिस लौट ही रहे थे कि गांव के निकट सेठ राम कुमार सामने से हाथ जोड़कर प्रार्थना के अंदाज में खड़ा हो गया। बोला, बाबा जी! मेरे कुछ प्लॉट गांव के साथ लगते हैं। इस पर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘ठीक है भाई! अगर वो जगह गांव के नजदीक है, तो फिर ले लेंगे।’ फेफाणा में जिस जगह पर अब डेरा बना हुआ है, यह उसी प्रेमी राम कुमार के ही प्लाटों वाली जमीन थी।
हुक्मानुसार सेवादार भी सत्संग का सारा सामान लेकर उन प्लाटों में पहुंच गए। सच्चे पातशाह जी ने उस जगह पर पावन दृष्टि डालते हुए वचन फरमाया, ‘हम तो सत्संग लगाते हैं और तुम लोग साध-संगत में से कुछ सेवादारों को साथ लेकर प्लॉट के चारों ओर कांटेदार झाड़ियों की बाड़ (चारदीवारी) कर दो।’ उधर सत्संग चलती रही, इधर सेवादार झाड़िया काट-काटकर बाड़ लगाने के काम में जुटे रहे। सत्संग के बाद पूज्य शहनशाह जी ने सेठ राम कुमार को उतारे वाले घर में बुलवाया और उससे जगह की कीमत पूछी। सच्चे दातार जी ने फरमाया, ‘भाई! अगर तेरी जगह के गांव में कोई 500 रुपये देता है तो हमारे से 550 रुपये ले जा और अगर कोई 1000 रुपये देता है तो हमारे से 1100 रुपये ले जा।’ यहां पर किसी चीज की कमी नहीं है। सतगुरु के खजाने में कोई कमी नहीं है।
रामकुमार ने प्रार्थना की कि -बाबा जी! सब कुछ आपजी का ही दिया हुआ है जी। इस पर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘मानस मजदूरी देत है क्या राखे भगवान। अगर अब नहीं लेगा तो आगे नूरी दौलत मिलेगी, मगर मिलेगी जरूर। यहां जितनी संगत सुमिरन करेगी उसमें आपका भी हिस्सा होगा।’ लिखमा राम बताते हैं कि उसी समय पूज्य सार्इं जी ने सेवादारों को वचन फरमाया कि ‘लाओ भई, कस्सी लेकर आओ।’ डेरा की नींव रखते हुए वचन फरमाया ‘यहां आला डेरा बनाएंगे। दूर-दूर से संगत आया करेगी।’ इस दौरान नामकरण करते हुए ‘सचखंड धाम’ का खिताब भी बख्शिश किया। साथ ही सेवादारों को यह भी वचन फरमाया- ‘दरबार (सरसा दरबार) में आओ, अपना प्रेम दिखाओ। तुम्हें गैबी खजाने से पैसा देंगे, यहां आला डेरा बनाएंगे।’ पूज्य सार्इं जी उस दौरान फेफाना में दो रात रुके और तीसरे दिन यहां से नेजियाखेड़ा के लिए रवाना हो गए।
रात भर चलती डेरा बनाने की सेवा
समय बीता तो रूहानियत के रंग और गहरे होते चले गए। गांव के लोगों में डेरा सच्चा सौदा के प्रति तड़प और लगाव में बड़ा इजाफा हुआ। उन्हीं दिनों पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज कंवरपुरा गांव (सरसा) में सत्संग करने के लिए पधारे थे। इधर फेफाणा गांव से पतराम घणघस, रामचंद्र, कृष्ण गिंटाला, हेतराम, बनवारी लाल, सुलतान, हेतराम, मोहन लाल, लिखमा राम आदि कंवरपुरा में पहुंच गए।
उन्होंने पूजनीय शहनशाह जी की पावन हजूरी में डेरे का निर्माण कार्य शुरु करने के लिए प्रार्थना की। शाही हुक्म हुआ कि, ‘साध-संगत के पास पैसे कम हैं। इसलिए साध-संगत खुद अपने हाथों से काम करे। पानी वाला टेंकर भी नहरी महकमे वालों से मांग लेना, वो मिल जाएगा।’ यह शाही संदेश ज्यों ही गांव में पहुंचा तो सारी संगत इकट्ठी हो गई और अपने प्यारे मुर्शिद के हुक्मानुसार डेरे की सेवा का काम आरम्भ कर दिया। सेवादार रात को र्इंटें निकालने की सेवा करते। माता-बहनें उन्हें पहले मिट्टी लाकर देती और बाद में सूखी र्इंटों को ऊसारी वाली जगह के आस-पास इक्ट्ठा करती रहती। वर्तमान में दरबार में बनी पानी की डिग्गी की जगह पर सबसे पहले एक छोटी कच्ची डिग्गी बनाई गई थी, जिसमें बारिश का पानी एकत्रित किया जाता था।
इस डिग्गी में टेंकर से पानी डलवाते और उसी पानी से र्इंटें तैयार की जाती। असल में गांव के अधिकतर लोग खेतीहर थे। वे दिन में खेती कार्य करते और सायं ढलते ही दरबार में सेवा करने पहुंच जाते। इस प्र्रकार सेवा कार्य देर रात तक चलता रहता। सेवादार नेकी राम व धन्नाराम जी ने साध-संगत के सहयोग से इस धाम में निर्माण कार्य चलाया। बताते हैंं कि सबसे पहले पूज्य शहनशाह जी के लिए गुफा तैयार की गई। यह गुफा जमीन में 12 फीट गहरी खुदाई कर बनाई गई, जो अन्दर से कच्ची और बाहर से पक्की थी। गुफा के साथ दो कमरे, एक सत्संग घर (कच्ची र्इंटों का) तथा गुफा के ऊपर एक पक्का चौबारा बनाया गया। सभी मकानों के ऊपर जंगला भी बनाया गया। इन मकानों की छत बल्ली आदि से लगाई गई थी। खास बात यह भी थी कि यह सारे मकान गलेफीदार बनाए गए थे, जो अंदर वाली साइड से कच्चे और बाहर से पक्के थे। तब र्इंटें ऊंटों के बोरे में आया करती थी। मेलाग्राउंड के पास र्इंट भट्ठा हुआ करता था, वहां से र्इंटें आया करती थी।
इस प्रकार अपने मुर्शिद प्यारे के हुक्म द्वारा गांव की साध-संगत ने लगभग डेरा बना दिया। जैसे ही डेरा तैयार हुआ, साध-संगत में उत्सकुता और बढ़ गई कि अब पूज्य सार्इं जी से आशीर्वाद लेकर यहां फिर से सत्संग का आनन्द लिया जाए। गांव के जिम्मेवार सत्संगी भाई यह अर्ज लेकर डेरा सच्चा सौदा सरसा पहुंचे। प्रार्थना की कि- सच्चे सार्इं जी! डेरे में सत्संग लगाकर उसका शुभ उद्घाटन करो जी। पूज्य सार्इं जी ने सत्संग मन्जूर करते हुए वचन फरमाया, ‘भाई! अब तुम्हारे को पता चलेगा। बहुत संगत आएगी। बहुत भारी इकट्ठ होगा। पच्चीस मन आटे का प्रबन्ध कर लेना। तुम्हारा प्रेम देखेंगे।’
उस दिन घोड़ों व ऊंटों परसवार होकर आई थी संगत
पूज्य सार्इं जी ने फेफाना में सन् 1957 में कार्तिक की पूर्णिमा का सत्संग मन्जूर करते हुए फरमाया कि जन्मदिन का भण्डारा वहां पर ही फरमाएंगे। पूज्य सार्इं जी जब तीसरी बार गांव में पधारे तो पूरा माहौल ही रूहानियत से रंग गया। पूज्य सार्इं जी का दरबार के रूप में लगाया पौधा अब अपनी खुश्बू से हर तरफ रूहानी ताजगी बिखेर रहा था। साध-संगत ने अपने प्यारे मुर्शिद का बैंड-बाजों के साथ भरपूर स्वागत किया। पटाखे चलाए गए।
पूरे गांव में दीपमाला की गई और आतिशबाजी भी छोड़ी गई। मिठाईयां बांटी गई और अपने प्यारे खुद-खुदा जी के शुभ आगमन की खुशी में दिवाली मनाई गई। अगले दिन गांव में सत्संग का कार्यक्रम था। शाही स्टेज डेरे के सामने खुले मैदान में लगाई गई और साध-संगत के बैठने के लिए काफी खुला सत्संग पण्डाल तैयार किया गया। उस दिन आस-पड़ोस के गांवों में से भी बड़ी संख्या में लोग सत्संग सुनने पहुंचे। संगत घोड़ों और ऊंटों पर सवार होकर आई थी। बताते हैं कि उस दिन ऊंटों की तो कतारें लग गई थीं।
सत्संग का कार्यक्रम लगभग दो घंटे तक चला। रब्बी मौज जी ने सत्संग में उमड़ी श्रद्धा से गद्गद् होते हुए वचन फरमाया, ‘भाई! इस गांव (फेफाणा) का कुत्ता भी नर्कों में नहीं जाएगा।’ परन्तु गांव के लोग इस इलाही वचन के महत्व को समझ न सके। पूज्य दाताजी ने डेरे का नाम ‘डेरा सच्चा सौदा सचखण्ड धाम’ लिखवाया। बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी ने डेरा सच्चा सौदा सरसा (शाह मस्ताना जी धाम) में कुछ समय पहले ही एक बहुत ही खूबसूरत विशाल बिल्डिंग बनवा कर उसका नाम सचखण्ड रखा था, परन्तु बाद में मौज ने उस बिल्डिंग को गिरवा दिया। उस दिन सत्संग में पूज्य सार्इं जी ने बड़ी रहमतें लुटाई, बहुत कपड़ा बांटा। लोगों को नए-नए नोटों के हार पहनाए, बेहिसाब सामान लुटाया।
पूज्य सार्इं जी उस दौरान फेफाणा दरबार में करीब 20 दिन लगातार रहे। इन दिनों में बड़े कौतुक दिखाए, लोगों को हैरत में डाल देते ताकि वे किसी बहाने दरबार आएं और सत्संग सुनकर राम नाम से जुड़ जाएं। सर्दी का समय था, तन पर कपड़ा नहीं रखते थे, बस चारों ओर धूणा लगाते।
बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी दिन ढलते ही तेरा वास में चले जाते और रात को 10-11 बजे बाहर आते। फिर खूब मजलिस लगाते। रूहानियत की मस्ती खूब बरसती। संगत भी अपने मुर्शिद की हजूरी में खूब मस्ती में मुुजरा करती। पूज्य सार्इं जी के चोज बड़े निराले होते। हमेशा साथ रहने वाले सेवादार भी उन बातों को समझ नहीं पाते थे। उस समय पूरे गांव पर डेरा सच्चा सौदा की रंगत दिखने लगी थी। पूज्य सार्इं जी ने फेफाना गांव पर बेशुमार रहमतें लुटाई और लोगों को प्रभु-परमात्मा से मिलने का सीधा एवं सुगम मार्ग दिखाया।
गांव में मुनादी करवाओ, मुफ्त की दुकान लगाएंगे
पूज्य सार्इं जी अकसर नए चोज करते। लोगों को मुफ्त में कुछ ना कुछ बांटते रहते। एक बार पूज्य सार्इं जी ने फेफाना दरबार का सारा सामान बेचना शुरू कर दिया। दरबार की हर एक वस्तु लोगों को आधे-अधूरे दामों में बेच दी। यहां तक कि पानी के मटके भी बेच दिए। इस वाक्या के प्रत्यक्षदर्शी लिखमा राम बताते हैं कि यह सब देखकर गांव में एक चर्चा होने लगी कि बाबा कंगाल हो गया है, इसके पास कुछ बचा नहीं है इसलिए अब डेरे का सामान बेच रहा है। जब यह बात पूज्य सार्इं जी के पास पहुंची तो वे बहुत खुश हुए।
अगले दिन सुबह ही सेवादारों को हुक्म फरमाया- गांव में मुनादी करवाओ, आज दुकान लगाएंगे। बताते हैं कि पूरा दिन लोगों को सोना, चांदी, नोट, कंबल, जर्सी आदि सामान बांटा गया। वहीं कुश्ती का आयोजन भी करवाया, जो जीते उसे एक रुपया और हार जाए उसे दो रुपये ईनाम में देते। कई लोग वैसे ही हारने लगे तो पूज्य साईं जी ने फरमाया- ‘नहीं वरी! जोर लगाओ, यह हराम की माया नहीं है। सही खेलोगे तो ही ईनाम मिलेगा।’ उस दिन बड़ी भीड़ लगी। सबको कुछ ना कुछ बांटा गया। यह देखकर उन आलोचकों के मुंह बंद हो गए जो डेरे के बारे में तरह-तरह की बातें बना रहे थे।
उस दिन का एक और दिलचस्प वाक्या सुनाते हुए लिखमा राम बताते हैं कि उनके पिता केसू राम व चाचा हरजी राम ने इस बात पर शाही दात लेने से मना कर दिया कि उन्हें लोगों के बीच में जाकर ऐसे सामान लेते हुए शर्म आती है। हम तभी जाएंगे जब वहां कोई ना हो। जिस दौरान खुली दुकान से माल लुटाया जा रहा था तभी सेवादारों ने पूज्य सार्इं जी से कहा कि केसूराम व हरजी राम भी आ रहे हैं जी। सार्इं जी ने कहा-बुलाओ वरी, उनको। बकौल केसूराम, जब हम दरबार में उस दुकान के पास पहुंचे जहां साई जी लोगों को दातें बांट रहे थे, तो हमें वहां सिर्फ बाबा जी ही दिखाई दिए। आस-पास कोई नजर नहीं आ रहा था। सेवादार खेमचंद ने हमको जर्सी पहना दी। जैसे ही हम जर्सी पहनकर वापिस मुड़े तो लोगों की भीड़ दिखाई दी। बताते हैं कि केसू राम जब तक जीवित रहे, उस स्वेटर को हमेशा उन्होंने अपने पास संभाल कर रखा।
पूज्य सार्इं जी के इस चोज की उस दिन गांव में खूब चर्चा हुई। सेवादारों ने बताया कि पूज्य सार्इं जी आज तो बड़ी वाह-वाह हो गई। सब लोग खूब गुÞणगान गा रहे हैं। ‘अच्छा वरी, कोई निंदा नहीं कर रहा। बिना निंदा के संतों का गुजारा कैसे होगा? तुम लोग तो हमारे को चूसते हो, कोई पानी लगाने वाला तो चाहिए।’ इसी दरमियान गांव की ओर से नानू राम नाम का एक व्यक्ति आता दिखाई दिया। उसे देखते ही पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘हमारा मित्र तो वो आ रहा। उसको 5 रुपये की मिठाई खिलानी है, वह चाहे कुछ भी बोले आप लोगों ने जवाब नहीं देना है।’ बताते हैं कि वह व्यक्ति अपने पूरे जीवन में डेरा सच्चा सौदा का निंदक बनकर ही रहा। यहां तक कि अपनी आखिरी सांस तक वह ऐसे कर्मों से बंधा रहा।
शहनशाही हुक्म से बना फेफाना दरबार का मुख्यद्वार
फरवरी 1960 की बात है। पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने फेफाणा से प्रेमी बनवारी राम को सच्चा सौदा दरबार में बुलवाया और हुक्म फरमाया, ‘भाई! तू ट्रैक्टर ट्राली ले आ। ये दरवाजे वाले किवाड़ फेफाणा दरबार में ले चलेंगे। वहां पर बड़ा गेट बनाएंगे।’ दरअसल गेट के लिए र्इंटें तो पहले से ही मंगवा रखी थी। वो किवाड़ उस सुन्दर बिल्डिंग (सचखण्ड) के थे जो सच्चे पातशाह जी ने कुछ समय पहले गिरवा दी थी।
प्रेमी ने विनती की कि-सच्चे पातशाह जी! आषाढ़ी की फसल जोर पकड़ गयी है। सभी लोग काम में लगे हुए हैं। संगत सेवा कैसे कर सकेगी जी! जैसे ही रात्रि का समय हुआ, पूज्य बेपरवाह जी फिर बाहर आए तो दोबारा प्रेमी बनवारी को बुलाकर हुक्म दिया, ‘भाई! ला ट्रैक्टर। वहां दरवाजा बना कर आएंगे।’ प्रेमी ने हाथ जोड़कर फिर वही विनती की कि-बाबा जी! अब तो संगत नहीं है जी। सब लोग काम(खेतीबाड़ी) में लगे हैं। वहां पर कौन बनाएगा, कौन सेवा करेगा? कुछ दिन ठहर कर फिर ले चलेंगे जी।
इस पर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘अच्छा! फिर तुम जानों और तुम्हारा दरवाजा जाने। हम तो चाहते थे कि अपने हाथों से ही बनवा देते।’ परन्तु प्रेमी बनवारी राम रूहानी वचनों को समझ न सका। गौरतलब है कि डेरा सच्चा सौदा सचखण्ड धाम फेफाणा का मेन गेट पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज के हुक्म से ही बना है, लेकिन गेट का दरवाजा पूज्य सार्इं जी के ज्योतिजोत समाने के बाद ही लगाया गया। बाद में गेट के बार्इं ओर एक कमरा व दाहिनी ओर दो कमरे साध-संगत की सुविधा के लिए बनवाए गए।
पुट्टर, कभी वक्त आएगा तो फिर बताएंगे…
पूज्य सार्इं जी के निराले चोज दूर-दूर तक चर्चा का विषय बने हुए थे। बातें होती कि फेफाना गांव में एक ऐसा बाबा आया हुआ है जो लोगों को पैसा, सोना, चांदी बांटता है। कोई कहता कि पाकिस्तान से कोई जासूस आया हुआ है। जो भी इन बातों को सुनता उनमें दर्शन करने की इच्छा पैदा हो जाती। फेफाना मेें सचखंड धाम करीब-करीब तैयार हो चुका था। पूज्य सार्इं जी तीसरी बार यहां पधारे हुए थे। उन दिनों सब डिवीजन नोहर के एस.डी.एम. साहिब श्री के.जी. राज अचानक गाड़ी लेकर दरबार में आ पहुंचे। बताते हैं कि वह असूलों का बड़ा सख्त आदमी था। उसने जब तरह-तरह की बातें सुनी तो ख्याल आया कि ऐसा भला कैसे हो सकता है।
शंकावश वह भी सब देखने आ पहुंचे। जब वह अफसर दरबार में आया, उस समय पूज्य सार्इं जी चनों के खेत में बैठे हुए थे। वह पूज्य सार्इं जी से मिलने के लिए सीधा ही जाने लगा तो सेवादार न्यामतराम ने उन्हें टोकते हुए कहा कि बाबू जी, संत-महात्मा से इस तरह सीधा मिलना ठीक नहीं होता, पता नहीं वे किस ख्याल में हों। कई बार नुकसान उठाना पड़ जाता है। आप कहो तो मैं एक बार पूछ लेता हूं। अफसर ने हामी भर दी। बाद में पूूज्य सार्इं जी ने फरमाया-‘बुलाओ भई।’ उस अफसर ने जब लोगों को मुफ्त में सोना-चांदी, रुपया-पैसा बांटने के बारे में जिज्ञासावश पूछा तो पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘हाँ भई, हम लोगों को यह सब बांटते हैं, पर यह धन-दौलत हराम की कमाई की नहीं है। आओ तुम्हें दिखाते हैं, यह सब कहां से आता है।’ बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी उस अफसर को जमीन में खुदाई कर बनाई गई गुफा में ले गए और वहां थैले खोलकर दिखाए, जिनमें बड़े-बड़े कंकर, रोड़े भरे हुए थे।
फरमाने लगे कि ‘हम ही नहीं, हमारे सेवादार भी इन थैलों का सिरहाना लगाकर सोते हैं और जमीन पर बोरी बिछाते हैं। ताकि रात को नींद ना आए और भक्ति मार्ग में खलल पैदा ना हो।’ पूज्य सार्इं जी ने उस अफसर को ऐसी कई हैरतंगेज बातें सुनाई कि उस अफसर को यह यकीन हो गया कि लोग जैसी चर्चाएं कर रहे हैं वैसी कोई बात नहीं है। फिर उस अफसर को दो कंधारी अनार देते हुए वचन फरमाया-‘ये एक अनार अपनी औरत को देना और दूसरा तुम खाना।’ साथ आए पुलिसवालों को भी प्रसाद दिया गया।
इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी वेद प्रकाश बताते हैं कि जब वह अफसर प्रसाद लेकर घर गया तो उसके दिलोदिमाग में एक अजीब सी खलबली मच गई कि ऐसा संत तो कभी देखा ही नहीं, जो खुद कष्ट सहता है और लोगों को सोना-चांदी बांटता है। ऐसे विचार उनके दिमाग में तेजी से दौड़ने लगे। दो दिन बाद रविवार था, उस दिन वह अफसर अपनी पत्नी को साथ लेकर फिर दरबार में आ पहुंचा। पूज्य सार्इं जी उस समय नहा रहे थे। वे बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी जब नहाते तो एक बड़ा सा टब पानी से भर दिया जाता, जिसमें सार्इं जी बैठकर नहाते और सारा पानी इधर-उधर बिखेर देते। खास बात यह भी थी कि पूज्य सार्इं जी कभी साबुन या अन्य किसी तरह की कोई वस्तु नहाने के दौरान नहीं लगाते थे, लेकिन फिर भी पानी में खुशबू इस कदर समा जाती कि पूरा वातावरण ही सुगंधित हो जाता। बाद में चौबारे में दरी पर विराजमान होते हुए अफसर को बुलाने का हुक्म फरमाया।
उस अफसर दंपति ने दोनों हाथ जोड़कर पावन चरणकमलों में अर्ज की कि बाबा जी, हमें भी कोई सेवा बख्शो जी। ‘बेटा क्या सेवा दें आपको, यहां जो सेवादार हैं ये आठ पहर की सेवा के बाद लंगर खाते हैं। पुट्टर कभी वक्त आएगा तो फिर बताएंगे।’ इसके बाद वे दोनों वहां से वापिस घर चले गए। बताते हैं कि कुछ समय बाद किकरांवाली गांव में दरबार पर कुछ दबंग लोगों ने कब्जा करने का प्रयास किया। जब यह मामला उस मजिस्ट्रेट के पास गया तो उन्होंने स्वत: संज्ञान लेते हुए उन दबंगों को वहां से खदेड़ते हुए डेरा सच्चा सौदा की चमक को और निखार दिया। शायद इसी सेवा के लिए पूज्य सार्इं जी ने उन्हें ‘वक्त आने दो’ के वचन फरमाए थे।
भई, सरपंच को प्रसाद दो!
एक दिन पूज्य सार्इं जी सचखंड धाम के बाहर वाली साइड में खड़े हुए थे। इस समय खेमचंद बानिया, निहाल सिंह करीवाला, हरनेक भी पास में खड़े थे। तभी बहादुर सिंह सहारण बाहर से आता हुआ दिखाई दिया। वह पूज्य सार्इं जी के पास पहुंचा तो अपनी मौज में आकर आप जी ने सेवादारों को वचन फरमाया- ‘भाई! बहादुर सहारण को प्रसाद दे दो।’ जब सेवादार प्रसाद लाने के लिए अन्दर गया तभी दोबारा आवाज दी, ‘भाई! बहादुर सरपंच को प्रसाद लाकर दो।’ गांव वाले बताते हैं कि जब यह वाक्या हुआ तब वह ना सरपंच था और ना ही कभी पहले सरपंच के चुनाव में खड़ा हुआ था। परन्तु पूर्ण रूहानी फकीरों का वचन कभी व्यर्थ नहीं जाता। सतगुरु की ऐसी रहमत हुई कि बहादुर सिंह अगले प्लान में सचमुच ही अपने गांव का सरपंच चुन लिया गया।
7 जन्मों तक मछली की तरह तलें तो भी इनके कर्म ना कटें!
पूज्य सार्इं जी फेफाना से सीधे नोहर में सेठ दुलीचंद के घर जा पधारे। उस दौरान पूज्य सार्इं जी के साथ धन्नाराम, दादू रामपुरिया, हजारा सिंह सहित कुल 7 आदमी थे। सेठ दुलीचंद ने बड़ी आव-भगत की। दरअसल सेठ दुलीचंद ने दो दिन पूर्व ही शहर के कई लोगों खासकर सेठ मूलचंद खत्री को इस बात के लिए राजी कर लिया कि जब पूज्य सार्इं जी यहां पधारेंगे तो आप सबको मिलवाऊंगा। इसी के चलते सेठ दुलीचंद ने पूरी तैयारी की हुई थी। घर-द्वार को खासकर इसलिए खूब अच्छे से सजाया कि बाबा जी आएंगे, साथ ही शहर के बड़े लोग भी यहां मिलने के लिए आएंगे। उस दिन पूज्य सार्इं जी घर पधारे तो सेठ जी को बहुत खुशी हुई।
जैसे ही सुबह हुई सेठ दुलीचंद शहर में उन लोगों को लेने चला गया। रास्ते में सेठ मूलचंद खत्री ने सेठ दुलीचंद से पूज्य सार्इं जी को अपने घर लाने की इच्छा जताई। लेकिन जैसे ही वे पूज्य सार्इं जी के उतारे वाली जगह पहुंचे तो उनको यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि बाबा जी, तो सुबह ही लालपुरा गांव की ओर निकल गए थे। मन में कई तरह के मलाल लिए सेठ दुलीचंद उन लोगों को साथ लेकर लालपुरा गांव में धन्नाराम जी के घर जा पहुंचे। पता चला कि बाबा जी तो बाहर घूमने गए हुए हैं। ढूंढते-ढूंढते उन्होंने देखा कि बाबा जी, तो एक भोंपे के बाड़े में बकरियों के झुंड में बोरी बिछाकर बैठे हुए थे। पूज्य सार्इं जी उन बकरियों के मुंह में अपनी उंगली देकर उनको प्यार लुटा रहे थे, और साथ ही उस ग्वाले से पूछ रहे थे कि यह बकरी कितने की है, कितना दूध दे देती है इत्यादि।
यह देखकर सेठ मूलचंद खत्री ने दूलीचंद को कहा कि ये कैसा बाबा है, नोहर में इनसे मिलने के लिए कितने बड़े-बड़े लोग आए थे, जो पूरा आदर-सत्कार करते। ये तो यहां बकरियों में बैठे हैं! उन दोनों की मनोस्थिति को पढ़ते हुए पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘दुलीचंद तेरा खत्रिया क्या बोलता है? अगर 7 जन्म तक जैसे मछली को कसाई भूनता है, ऐसे भून दिया जाए तो भी इसके कर्म ना उतरें। इसके घर कौन जाए?’ यह सुनकर दोनों ने क्षमा याचिका के हक में हाथ जोड़ दिया।
लाओ रोटी हमेें दो! और सार्इं जी टुकर-टुकर खाने लगे
बात उन दिनों की है जब डेरा सच्चा सौदा में पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज को गुरगद्दी का वारिस घोषित कर दिया था। फेफाना के जिम्मेवार भाई भी यह ख्याल लेकर सरसा दरबार आए थे कि इस पवित्र समय का साक्षी बना जाए। लेकिन जब वे सरसा दरबार पहुंचे तो पूजनीय परमपिता जी शहर में जुलूस लेकर रवाना हो चुके थे। पूज्य सार्इं जी धाम के मुख्य गेट पर खड़े थे। फेफाना के सेवादारों को देखकर फरमाया ‘वरी! तुम तो लेट हो गए।’ बाद में पूज्य सार्इं जी उन सेवादारों को अपने साथ दरबार में ले आए और कहने लगे- ‘आओ तुम्हें कुछ दिखाते हैं।’ पंडित वेद प्रकाश बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी इस दौरान दरबार में इधर-उधर घूमते रहे।
दरबार के पिछवाड़े की साइड में एक बुजुर्ग बहन चूल्हे पर खाना पका रही थी। तभी पूज्य सार्इं जी उस औरत के पास जाकर खड़े हो गए और उसको सख्त आवाज में फरमाया- ‘क्या कर रही है वरी! ये क्या पका रही हो?’ उसने कहा-बाबा जी, बच्चे भूखे हैं, इनके लिए रोटी बना रही हूं। ‘कहां से लेकर आई हो, कहीं डाका तो नहीं डाला।’ नहीं-नहीं बाबा जी, दिन में जंगल एरिया से लकड़ियां चुगकर उसे बेच कर कुछ पैसे कमाए थे, उन्हीं पैसे से सस्ता काट वाला आटा (आटा चक्की पर पिसाई के दौरान काट के रूप में रखा जाने वाला हिस्सा) लेकर आई हूं। ‘लाओ रोटी मुझे दो!’ यह फरमाते हुए एक हाथ में डंगोरी थामे पूज्य सार्इं जी ने दूसरे हाथ से उससे रोटी पकड़ ली और टुकर-टुकर खाने लगे।
फिर पूज्य सार्इं जी ने बताया कि यह किसी समय में धर्मी सेठानी थी। अब सतगुरु इसको लेकर जाएंगे। अब इसको विश्वास आया है, अब यह डांवाडोल नहीं होगी। पूज्य सार्इं जी कई बार फरमाते कि कई जीव 7-7 जन्मों के पाप कर्म उठाए घूम रहे हैं, लेकिन उनका छुटकारा नहीं होता। बताते हैं कि फेफाना गांव में एक बेहद सादगीपूर्ण इन्सान माना सिंह ने अपनी ठेठ भाषा में सेवादारों से चर्चा करते हुए कहा कि महाराज तो ठीक है, पर है भोलो। लोगां न पीसा बांटअ, पीसा के बांटन गी चीज होवे, लोग पीसा खा ज्यागा। जब यह बात पूज्य सार्इं जी तक पहुंची तो बड़े प्रसन्न होते हुए फरमाया, वरी! बुलाओ उसको, वह तो हमारा धर्मभाई हुआ, जो हमें शिक्षा दे रहा है। इसको पगड़ी बंधाओ। यह देखकर वहां बैठी संगत खूब हंसी और मुर्शिद की रहमत से सराबोर होती रही।
‘घबराओ मत! तेरा ऊंट खुद मस्ताना बांधेगा।’
गांव के 96 वर्षीय वरिष्ठ सत्संगी मोहन लाल बताते हैं कि ‘हर घट में हरजी बसे, संतों ने करी पुकार’, पूज्य सार्इं जी हमेशा सच की आवाज बुलंद करते थे। जिन्होंने विश्वास किया उनपर बड़ी रहमतें लुटाई। एक दिन मौज में आकर पूज्य सार्इं जी फरमाने लगे कि ‘अब हम यहां नहीं रहेंगे।’ सभी सेवादार हाथ जोड़कर कहने लगे कि बाबा जी, हमसे ऐसी क्या गुस्ताखी हो गई। फरमाने लगे- ‘तुम सारा दिन यहां बैठे रहते हो, घर-खेत नहीं संभालते। तुम्हारे सारे काम हमें करने पड़ते हैं।’ मोहन लाल बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी एक दिन गांव में सत्संग लगा रहे थे, मैं भी सत्संग में जाने की जल्दी के बीच अपने ऊंट की मुहार खूंटे से बांधने की बजाय वैसे ही पेड़ की टहनियों में थोड़ा अटका कर चलता बना।
पंडाल में जाकर सत्संग में बैठ गया। कुछ समय के बाद घर से समाचार गया कि ऊंट रस्सा खुलवाकर कहीं चला गया है, काफी ढूंढने के बाद भी मिल नहीं रहा। मेरे मन में भी इस बात का ख्याल घर कर गया। लेकिन पूज्य सार्इं जी ने मेरी मनोदशा को पढ़ते हुए फरमाया- ‘घबराओ मत! तेरा ऊंट खुद मस्ताना बांधेगा।’ घरवाले सारा दिन ऊंट को तलाशते रहे लेकिन कोई पता नहीं चला। देर सायं एक बुजुर्ग उस ऊंट को लेकर घर आया और मेरी घरवाली से गेट खुलवाकर कहने लगा कि ‘बेटा यह पकड़ो मुहार, इसको खूंटे पर बांध दो।
साथ ही यह भी पूछा कि यह ऊंट तुम्हें खाता तो नहीं है।’ उसने कहा कि नहीं जी। ‘अच्छा, और अब कभी खाएगा भी नहीं।’ ऐसा ही एक और वाक्या सुनाते हुए मोहन लाल के पुत्र बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी उन दिनों अकसर शाम के वक्त दरबार के बाहर वाली साइड में खड़े हो जाते और आते-जाते लोगों पर रहमतें लुटाते रहते। उस दिन मेरी माता जी एक अन्य औरत के साथ खेत से घर की ओर आ रही थी, उनके साथ मेरी बहन भी थी, जिसकी उम्र तब 6 साल के करीब थी। जैसे ही वे दरबार के नजदीक आई तो पूज्य सार्इं जी हाथ में डंगोरी लिए गेट पर खड़े थे। मेरी बहन ने दौड़कर पूज्य सार्इं जी के चरण कमल छू कर आशीर्वाद लिया।
इस पर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- बड़ी प्यारी बिटिया है, बाबा-बाबा कहती है, लेकिन क्या करें? यह बात उस दूसरी औरत के कान में पड़ गई। उसने घर आकर वह बात बताई तो मेरे पिता जी कहने लगे कि यह लड़की तो अब मरेगी। यह सुनते ही घरवाले पूज्य सार्इं जी की ओर दौड़ पड़े। पूज्य सार्इं जी के चरणों में उसे बचाने के लिए बहुत अर्ज की, लेकिन पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘वरी! नियति को यही मंजूर है।’ उसी रात मोहन लाल की 6 वर्षीय बेटी की मौत हो गई।
तेरा मुजरा मन्नेया…!
एक दिन पूज्य सार्इं जी गेट के बाहर खडेÞ थे। तभी सामने से भादू परिवार का एक सदस्य अपनी घोड़ी को लेकर आ रहा था। जब वह घोड़ी नजदीक आई तो स्वयं ही नाचने लगी। काफी देर तक नाचती रही, यह देखकर पूज्य सार्इं जी मुस्कुराते रहे। फिर फरमाया- ‘तेरा मुजरा मन्नेया रने, मन जा हुण।’ मुखाराम गिंटाला ने पूछा कि बाबा जी, यह कौन है? बताया-‘यह पहले सेठानी थी, जो दान-पुण्य बहुत करती थी। कोई कारणवश इसको घोड़ी का जन्म मिला है। लाओ भई, नोटों की माला, पाओ इस दे गल ’च, कडो इस नूं बाहर।’ इसके बाद उस घोड़ी को नोटों की माला पहनाई गई, जिसके बाद उसने नाचना बंद कर दिया। सार्इं जी ने फिर वचन फरमाया- ‘अब ये बादाम खाएगी वरी!’ बताते हैं कि उसके बाद जिस परिवार में भी वह घोड़ी रही, वहां उसको बादाम ही खिलाए गए।
सारी रात बजती थी रबाब
पूज्य सार्इं जी हमेशा भजन और भक्ति के रस में डूबे रहते थे। यहां दरबार में जितना भी समय ठहरे, दिन में भजन कीर्तन होता रहता, वहीं देर रात्रि को रूहानी मजलिस सजती जो अलसुबह तक चलती रहती। बताते हैं कि पूरी-पूरी रात सेवादारों से भजन गवाते रहते। बकौल लिखमा राम, बहुत बार ऐसा भी हुआ कि रात 12 बजे से एक बजे के बाद पूज्य सार्इं जी देह रूप में सामने होकर भी वहां नहीं होते थे। तीन बजे अचानक उठते, और सेवादार न्यामतराम को कहते- ‘ओये न्यामत, तुझे काल ना खाये, किधर मर गया।’ जैसे ही सार्इं जी उठते तो सेवादार अर्धचेतन अवस्था में ही रबाब बजाने लगते। इस प्रकार सार्इं जी अपने भक्तों से खुद भक्ति करवाते और उन्हें अपार खुशियां लुटाते।
जब तीसरी पातशाही ने फरमाया सत्संग, मानो ठहर सा गया पूरा गांव
करीब 37 वर्ष के रूहानी सूखे के बाद फेफाना गांव फिर से चहकने को आतुर था। सन् 1994 में पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां का गांव में शाही पदार्पण होने वाला था। उस दिन सत्संग का कार्यक्रम था, जो गांव की मंडी में तय हुआ था। स्थान बेशक बहुत खुला था, दूर-दूर तक शामियाने लगाए गए, लेकिन क्षेत्र की संगत में मुर्शिद के प्रति तड़प इस कदर थी कि सब प्रबंध बौने पड़ गए। उस दिन पूज्य हजूर पिता जी निठाना गांव से सीधे फेफाना के सत्संग पंडाल में पधारे। ज्यों ही शाही स्टेज पर विराजमान हुए तो आसमां में धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा के नारे गुंजायमान हो उठे। पंडाल ही नहीं, गांव की हर गली, चौक-चौराहे पर संगत ही संगत नजर आ रही थी।
मानो पूरा गांव ही ठहर सा गया हो। हर तरफ श्रद्धा उमड़ रही थी। बताते हैं कि 20 जनवरी 1994 के दिन हुए इस विशाल रूहानी सत्संग में संगत के प्रेम ने ऐसा रिकार्ड कायम कर दिया था, जो आज तक नहीं टूट पाया है। हालांकि डेरा सच्चा सौदा की तीसरी पातशाही के रूप में पूज्य हजूर पिता जी की जीवोंद्धार यात्रा का यह पहला चरण था, इसके बावजूद फेफाना गांव में उस दिन 2079 लोगों ने एक साथ गुरूमंत्र लिया जो ग्रामीण क्षेत्र के लिए अपने आप में गर्व की बात थी। सत्संग के बाद पूज्य हजूर पिता जी गांव में सत्संगी वेदप्रकाश पुत्र श्री बीरबल राम के घर चरण टिकाने भी पहुंचे। दिनभर गांव पर रहमतों की बरसात करते हुए पूज्य गुरु जी सायं को फेफाना दरबार में पधारे और यहीं पर रात्रि विश्राम किया।
जब चलती बस की छत से टपकने लगा देशी घी
पूज्य सार्इं जी जब पहली बार गांव में पधारे तो अगले दिन मुखराम गिंटाला के घर भंडारा मनाया गया। इस दौरान दो पीपे देशी घी का हलवा तैयार किया जा रहा था। इसी दरमियान पतराम घनघस भी अर्ज करने लगा कि बाबा जी, मैं भी भंडारा करना चाहता हूं। पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘ऐसा करो इस हलवे में एक पीपा घी का और डाल दो, यह त्रिवेणी सीरा बन जाएगा।’ सेवादारों ने ऐसा ही किया। तैयार हलवे में घी का एक और पीपा डाल दिया गया, जिससे हलवे पर घी ही घी तैरने लगा। उस दिन महमदपुर रोही से भी संगत आई हुई थी। बताते हैं कि उस समय गांव में बस का एक ही टाइम हुआ करता था।
भंडारे का प्रसाद तैयार हो चुका था। संगत को प्रसाद दिया जाने लगा। तब लिफाफे नहीं होते थे, इसलिए सेवादारों ने कपड़े का एक थान लाकर उसके छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर उसमें हलवे का प्रसाद बांध दिया, ताकि दूर-दराज से आई साध-संगत अपने साथ प्रसाद ले जा सके। महमदपुर रोही की संगत भी अपना प्रसाद लेकर बस अड्डे पर आ गई। बस में भीड़ ज्यादा होने के कारण संगत बस की छत पर बैठ गई। बस अभी फेफाना गांव से चलकर मोडिया गांव ही पहुंची थी कि अंदर बैठी सारी सवारियों ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि छत से घी टपक रहा है। सभी यात्रियों के कपड़े घी से तरबतर हो गए। दरअसल संगत के हाथों में कपड़े में बंधे प्रसाद से घी इस कदर निकलने लगा कि बस की छत से होता हुआ सवारियों तक जा पहुंचा। जब सवारियों को असल बात का पता चला तो वे बहुत खुश हुए। बाद में सबने प्रसाद का आनन्द लिया और खूब गुरु महिमा गाई।
दुखियारी को बख्शी डबल दात
पूज्य सार्इं जी फेफाना गांव में दरबार बनाने के वास्ते जमीन देखने के लिए खेतों की ओर जा रहे थे। अभी गांव से थोड़ा ही बाहर वाली साइड में आए थे कि पीछे-पीछे चल रही एक औरत ने अचानक रास्ते से पावन चरणकमलों की धूड़ उठाकर अपने माथे पर लगाने का प्रयास किया। तभी पूज्य सार्इं जी की दृष्टि उस औरत पर जा पड़ी, तुरंत फरमाया- ‘क्या करती हो, हटाओ वरी इसको।’ जब सेवादार उसे रोकने लगे तो वह महिला हाथ जोड़कर पूज्य सार्इं जी से अर्ज करने लगी कि मैं दुखियारी हूं बाबा जी, आपजी के चरणों की धूड़ी माथे पर लगानी है, मैं बेऔलादी इस दुनिया से जाऊंगी। दुखियारी की यह बात सुनने के बाद पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘मांग तेरे सामने खड़े हैं, तुझे एक के बदले में दो देंगे।’ कहते हैं कि बाद में उस औरत के बच्चे भी हुए और उसके परिवार में कभी किसी वस्तु की कमी नहीं रही।
परमपिता जी ने फरमाया था बेटा आपके घर जरूर आएंगे,हजूर पिता जी अचानक पधारे तो आंखें भर आई
रूहानी ताकत अपने वचनों को कभी मुनकर नहीं होने देती, इसकी मिसाल फेफाना गांव में भी देखने को मिलती है। पंडित वेद प्रकाश बताते हैँ कि पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज से उनके परिवार का बड़ा लगाव था। डेरा सच्चा सौदा में बहुत बार पूजनीय परमपिता जी से मुलाकात का अवसर मिल जाता, बड़ी प्यारी बातें होती। एक दिन माता रक्खी देवी ने अर्ज की कि पिता जी घर कब आओगे।
बेटा जरूर आएंगे, गांव में सबसे पहले आपके घर ही आएंगे। वक्त में ऐसा बदलाव आया कि तीसरी पातशाही के रूप में पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां विराजमान हुए और हम भी उन बातों को भूल चुके थे। जब फेफाना में सन् 1994 में सत्संग हुआ। मेरा परिवार पहले सत्संग पंडाल और बाद में दरबार में ही सेवा में लगा हुआ था। सुबह सेवादार मेजर सिंह कहने लगा कि पूज्य गुरु जी का आपके घर जाने का कार्यक्रम है। यह बात मैंने हंसी में टालते हुए कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है। मैंने तो घर पधारने की अर्ज ही नहीं की। थोड़ी देर बाद सेवादार की वह बात सच साबित हुई, और मुझे कहा गया कि जल्दी घर पहुंचो।
मैं वहां से दौड़ता हुआ घर पहुंचा, क्योंकि पिछले दो दिन से घर बंद था। जैसे-तैसे मैं वहां पहुंचा और थोड़ी बहुती व्यवस्था बनाई। इतने में पूज्य हजूर पिता जी अपने शाही काफिले से गांव के मेन बाजार से होते हुए आ पधारे। अपने मुर्शिद को घरद्वार पर पाकर मैं सचमुच ही होशोहवाश खो बैठा। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। उस दिन पूज्य गुरु जी ने बड़ा प्यार लुटाया। परिवार को एक साथ बैठाकर छोटे बच्चों के नए नाम रखे। फिर वचन फरमाया- चंगा भई, हुण सानू इजाजत देओ। जब यह वचन सुना तो मेरी आंखें छलक आई कि यह बात तो पूजनीय परमपिता जी ने एक बार कही थी। धन्य है मेरा मुर्शिद जो मुरीद के लिए इतना कुछ करता है।
‘भाई! हमने तो केवल फिल्टर डालने के लिए कहा था!
पूज्य गुरु संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां सन् 1994 से लेकर अब तक 5 बार सचखंड धाम में पधार चुके हैं। 20 जनवरी 1994 को पहला रूहानी सत्संग करने के बाद पूज्य हजूर पिता जी का रात्रि उतारा दरबार में ही था। उस रात्रि मुख्यद्वार के ऊपर बने चौबारे पर ही विराजमान रहे।
अगली सुबह पूज्य गुरु जी ने डिग्गी के पास खड़े होकर वचन फरमाया कि ‘भई, इस हैंडपंप के बोर में फिल्टर डाल दो, ताकि पानी और ज्यादा निकलने लगे।’ असल में उस डिग्गी के नजदीक जो हैंडपंप लगाया गया था, वह पूज्य सार्इं जी के वचनानुसार ही लगाया गया था। उसका पानी शहद की तरह मीठा और ठण्डा था, लेकिन आस-पास के घरों द्वारा लगातार पानी निकालने से पानी कम आने लगा था। पूज्य गुरु जी ने उस हैंडपंप के बोर में फिल्टर डालने का हुक्म फरमाया। परन्तु जिम्मेवार पूरी बात समझ नहीं पाए और उन्होंने वहां पर कुआं खोद डाला। बाद में वह पानी खारा हो गया, क्योंकि गांव की अधिकतर जमीन का नीचे वाला पानी खारा है।
सेवादार जब यह समस्या लेकर सरसा दरबार में आए कि शहनशाह जी! वहां पर तो पानी खारा है। पूज्य गुरु जी ने मुस्कुराते हुए फरमाया, ‘भाई! हमने तो केवल फिल्टर डालने के लिए कहा था। कुआं खोदने का हुक्म तो दिया ही नहीं।’ सेवादार भाइयों ने इस भूल के लिए क्षमा मांगी। बाद में उस डिग्गी के पास ही एक नया बोर करने का वचन फरमाया। हुक्मानुसार उसी स्थान पर बोर करके फिल्टर डाल दिया है। ऊपर मोटर भी लगा दी गई, जिसमें से मीठा पानी आने लगा। साध-संगत की सुविधा के लिए 12 फुट गोलाई व 12 फुट गहरी डिग्गी अलग से बनाई गई जो पेयजल के लिए प्रयुक्त होती है। नहरी पानी के अलावा बोर से पानी की आपूर्ति की जाती है।
पूज्य गुरु जी ने पूर्व में ही कर दिया था आगाह
बताते हैं कि पूज्य हजूर पिता जी सत्संग करने के बाद पहली बार सचखंड धाम में पधारे तो यहां सारे एरिया पर अपनी पावन दृष्टि डालते हुए सेवादारोें का हौंसला बढ़ाया। यहां की व्यवस्था पर खुशी जाहिर करते हुए पूज्य गुरु जी ने फरमाया- ‘बेटा, दरबार में 100 बिस्तर का भी प्रबंध करके रखो।’ सेवादारों ने शाही वचनानुसार आपसी सहयोग से दरबार में 100 बिस्तर एकत्रित कर लिये और उन्हें संभाल कर रख दिया।
लिखमा राम बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी के वचनानुसार यहां दरबार में दूर-दूराज से भी संगत आया करती थी। एक बार जनवरी के पावन भंडारे का समय था। कोटा शहर से संगत सरसा दरबार के लिए आ रही थी। फेफाना गांव के पास आते ही उनकी बस का पट्टा टूट गया। देर रात्रि का समय था। ऐसी सर्दी में सड़क पर सूनसान खड़ी बस में महिलाओं के साथ-साथ बच्चे भी थे, जो बहुत घबरा गए। किसी तरह कोटा ब्लॉक के सेवादारों ने स्थानीय सेवादारों से सम्पर्क किया। बाद में उस बस में सवार सारी संगत को यहां दरबार में लाया गया और लंगर भोजन की व्यवस्था की गई।
खास बात यह भी थी कि उस दौरान जो संगत यहां दरबार में आई उसकी संख्या 100 के करीब ही थी। तब वो वचन याद आया कि बेटा यहां दरबार में बिस्तर का भी प्रबंध कर लो। पूज्य गुरु जी ने आने वाले समय के बारे में बहुत पहले ही आगाह कर दिया था कि उनके बच्चों को किसी प्रकार की परेशानी ना होने पाए। पूज्य गुुरु जी श्री गुरुसरमोडिया के अलावा राजस्थान व गुजरात जाते समय कई बार यहां दरबार में पधारते रहे हैं।
यहां एक साथ जगते हैं शिक्षा के दीप, रूहानियत की जोत
डेरा सच्चा सौदा सचखण्ड धाम गांव की एकता एवं अखंडता का अनूठा उदाहरण पेश करता है। गांव की उत्तर दिशा के अंतिम छोर पर बना यह दरबार ग्रामीणों को शिक्षा के साथ-साथ रूहानियत का भी पाठ पढ़ाता प्रतीत होता है। दरअसल दरबार के मुख्यद्वार के सामने ही विद्यालय बना हुआ है, जहां से देश के होनहारों की खनक दिनभर दरबार में आसानी से सुनाई देती है। करीब 4800 बीघा क्षेत्र में फैला यह गांव कई वैभव व ऐतिहासिक कथा-कहानियों को अपने आंचल में संभाले हुए है। जाट बाहुल्य इस गांव में सभी संप्रदाय के लोग रहते हैं।
मंदिर, मस्जिद के अलावा यहां लोगों की गौशाला में भी अटूट आस्था है। मुख्य आकर्षण का केंद्र डेरा सच्चा सौदा सचखंड धाम की आभा गांव की सुंदरता को चार चांद लगाती है। करीब 3 बीघा में बना यह दरबार वर्तमान में चारों ओर से पक्की दीवारों से घिरा हुआ है। दरबार की पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेशद्वार है, जो पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज के अनमोल वचनों से 1960 के बाद बना था। दरबार की दक्षिण-पश्चिम दिशा में गलेफीदार स्टाइल में बने तेरा वास, चौबारा, लंगरघर आज भी ज्यों के त्यों खड़े हैं। इसके अलावा कई अन्य कमरे भी साध-संगत की सुविधा के लिए बनाए गए हैं। एक बड़ा हॉल भी है जिसकी छत पहले कच्ची थी, लेकिन अब उसको नया रूप दे दिया गया है।
वहीं विशाल आंगन में पीपल का एक बड़ा-सा पेड़ पूरे दरबार को छायावान रखता है। बताते हैं कि इस पीपल के चारों ओर एक चबूतरा हुआ करता था जिस पर पूज्य सार्इं जी कई बार विराजमान होकर सेवादारों से मुखातिब होते थे। समय के अंतराल के अनुसार इस धाम में कुछ बदलाव अवश्य किए गए हैं, लेकिन पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने दरबार के मूल स्वरूप को हूबहू बरकरार रखवाया है।