Dera Sacha Sauda, Satnam Pur Dham Kanwarpura

‘ये गांव बड़ा भाग्यशाली है’ डेरा सच्चा सौदा,सतनाम पुर धाम कंवरपुरा (सरसा) Dera Sacha Sauda, Satnam Pur Dham Kanwarpura

भाई! यह गांव बहुत भागों वाला है, क्योंकि यहां इतनी साध-संगत के चरण टिके हैं और राम-नाम की सच्ची बात (सत्संग) सुनने को मिली है। भाई! तुम लोग जरा भी फिक्र ना करो। इस पूरे गांव के एरिया में काल तुम्हारी फसल का कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

करीब 73 वर्ष पूर्व सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज ने डेरा सच्चा सौदा की स्थापना की। यह एक ऐसा दौर था, जो रूढ़िवादी परम्पराओं में जकड़ा हुआ था। पूज्य सार्इं जी ने बागड़ के विरान एरिया में रूहानी प्रेम-प्यार का ऐसा पौधा अंकुरित किया, जो समय-दर-समय अपनी खुश्बू से बागड़ क्षेत्र को महकाने लगा। सार्इं जी ने उन दिनों अकसर पैदल ही कई किलोमीटर तक का सफर तय करते हुए गांव-गांव में सच का उजियारा फैलाया।

बेशक कभी कभार गांव के लोगों की दिली इच्छा के अनुरूप ऊंटगाड़ी, बैलगाड़ी या जीप पर भी सवार होकर संगत को दर्शनों से निहाल करते रहते। सच्ची शिक्षा के इस अंक में आपको एक ऐसे दरबार से रूबरू करवा रहे हैं, जो डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में दूसरे दरबार के नाम से दर्ज है। पूज्य सार्इं जी ने शाह मस्ताना जी धाम का निर्माण करवाने के 7 वर्ष बाद पहली बार किसी गांव में डेरा बनाने की शुरूआत की थी। इस गांव में सन् 1955 में दरबार बनकर तैयार हो गया था। हालांकि उन दिनों डेरे की उसारी कच्ची इंटों से की गई थी, लेकिन गांव की अनूठी सहभागिता से उसी समय से पूरे क्षेत्र पर डेरा सच्चा सौदा के रूहानी प्यार का पक्का रंग चढ़ने लगा था।


यह गांव का सौभाग्य रहा कि पूज्य सार्इं जी 3 बार यहां पर पधारे। पूज्य सार्इं जी सन् 1954 में पहली बार आए, तब गांव में डेरा सच्चा सौदा को मानने वाले कुछ ही सत्संगी थे। धीरे-धीरे गांव पर रूहानियत का खुमार चढ़ने लगा और जब पूज्य सार्इं जी दूसरी बार (सन् 1958) गांव में बने दरबार में पधारे तो मानो पूरा गांव ही चलकर दर्शनों के लिए पहुंच गया था। बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी 1959-60 में भी कुछ समय के लिए पधारे थे। उस समय डेरा सच्चा सौदा सतनामपुर धाम की सार-संभाल में कई सेवादार लगे हुए थे।

1968-69 के आस-पास गुरमुख दास, सत् ब्रह्मचारी सेवादार बनकर यहां आकर सेवा करने लगा। उनकी पूज्य सार्इं जी के प्रति दीवानगी अद्भुत थी। हमेशा अपने मुर्शिद की उपमा गाते हुए हर समय सेवा में लीन रहते। ग्रामीण बताते हैं कि गुरमुख दास का गांव में बने इस दरबार के लिए समर्पण बड़ा गजब था। उस दौरान डेरा में ज्यादातर निर्माण कार्य कच्ची र्ईंटों से हुआ था, गुरमुख दास उन मकानों व दीवारों की संभाल के लिए स्वयं गांव में घूमकर साइकिल पर गोबर एकत्रित करते और फिर उससे दरबार की दीवारें व मकानों को नयापन देने का कार्य करवाते।

यहां तक कि दरबार को पक्का बनाने में भी उनकी भूमिका बड़ी सराहनीय रही। उनकी भक्ति में इतनी प्रगाढ़ता थी कि पूज्य सार्इं जी ने साक्षात दर्शन देकर उसको अंतिम समय के बारे में पहले ही बता दिया था कि ‘अज्ज चलना है भई!’ और अंत समय में गुरमुख दास ने साथी सत्संगियों को बताया भी था कि शहनशाह मस्ताना जी अभी लेने आएंगे। गुरमुख दास की ताउम्र की भक्ति एवं सेवा डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में हमेशा मान-सम्मान के रूप में दर्ज रहेगी।


करीब 43 साल के अंतराल बाद पूज्य गुरु संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां 27 नवंबर 2003 में डेरा सच्चा सौदा सतनामपुर धाम में पधारे। उस दिन सुबह चौ. वरियाम सिंह की ढाणी में रूहानी सत्संग हुआ था और दोपहर बाद पूज्य हजूर पिता जी कंवरपुरा दरबार में पहुंचे।

Table of Contents

‘भाई! डेरे के लिए हमारी हां तो करवा ली, मगर बनाओगे किस जगह?’

सन् 1954 की बात है, पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज उन दिनों राजस्थान के गांव किकरांवाली (नोहर) में सत्संग करने पधारे हुए थे। उन दिनों वहां सेठ दुनीचंद अन्यय भक्त हुआ करता था। उस दिन ‘उतारा’ भी उनके घर पर ही था। दिन में सत्संग हुआ, पूज्य सार्इं जी ने शीतल वचनों के द्वारा रेतीले क्षेत्र में ठंडक बरसाते हुए लोगों को राम-नाम से जोड़ा। काफी लोगों ने गुरुमंत्र भी लिया। उस दौरान कंवरपुरा गांव से भी कुछ लोग वहां सत्संग सुनने गए हुए थे। सत्संग के बाद कंवरपुरा के नंबरदार चौ. लायक राम, चौ. आसाराम, चौ. हेमराज, चौ. चैनसुख, चौ. राम सिंह व नेकी राम जी सहित कई लोग उतारे वाली जगह आ गए। श्रीचरणों में अर्ज की कि ‘बाबा जी, म्हारे गाम्अ मै भी सत्संग करो अर गाम्अ मै डेरो भी बनाओ।’ बागड़ी लोगों का प्यार उनकी वाकशैली में साफ झलक रहा था।

पूज्य सार्इं जी ने एक बार तो डेरा बनाने से बिल्कुल इन्कार कर दिया कि सरसा दरबार से कुछ ही दूरी पर तो यह गांव है, यहां डेरे की जरूरत नहीं है। ‘बाबा जी! हमारे ऊपर भी अपनी रहमत करो और अपने पवित्र चरणों के पावन स्पर्श से हमारे गांव की धरती को भी पवित्र करो जी, अपनी रहमत का एक डेरा वहां पर भी बनाओ।’ गांव की साध-संगत द्वारा बार-बार प्रार्थना करने पर दयालु शहनशाह जी ने डेरे के लिए अपनी स्वीकृति दे दी और फरमाया, ‘भाई! डेरे के लिए तुम लोगों ने हमारी हां तो करवा ली, मगर डेरा किस जगह पर बनाएंगे? डेरे के लिए जमीन कौन देगा?’ एक सत्संगी बोला- ‘बाबा जी! यह प्रेमी लायक राम हमारे गांव का नम्बरदार है और मौजूदा सरपंच भी है।’ सरपंच साहब ने हाथ जोड़ते हुए प्रार्थना की कि, ‘बाबा जी! हमारे पास गांव के बिल्कुल पास ही कुछ सांझी (शामलाट पंचायती) जमीन पड़ी है।

आपजी जितनी जमीन में भी चाहें डेरा बना सकते हैं परन्तु गांव में डेरा जरूर बनाएं जी।’ सार्इं जी ने जिज्ञासु भाव में पूछा, ‘तुम्हारे गांव में स्कूल है?’ जी! स्कूल गांव के लगभग पास ही सांझी जमीन पर बना हुआ है। ‘अच्छा भाई! डेरा भी गांव के नजदीक होना चाहिए। इसलिए स्कूल के साथ लगती खाली पड़ी जमीन पर डेरा बना लें। डेरे का मुख्यद्वार गांव की तरफ रखना है।’ इस प्रकार कंवरपुरा गांव की संगत की सच्ची तड़प को देखते हुए सार्इं जी ने गांव में डेरा बनाने का इलाही हुक्म कर दिया।


गांववासियों ने एकत्रित होकर उस जगह को डेरे के लिए चिन्हित करते हुए रजामंदी प्रकट कर दी। बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी ने उस दिन गांव वालों को डेरा बनाने के लिए डेरा सच्चा सौदा में से कुछ सेवादार व मिस्त्रियों को साथ ले जाने का भी हुक्म फरमाया था। दीवान सिंह लाखलान बताते हैं कि उस समय 22 कनाल रकबा डेरा सच्चा सौदा बनाने के लिए दिया गया था। जो 1960 की नई वाराबंदी के समय रिकार्ड में दर्ज हो गया था।

मात्र 30 दिनों में तैयार हो गया था कच्ची र्इंटों से डेरा

दलीप सिंह लाखलान बताते हैं कि इलाही हुक्म के बाद गांव में डेरा बनाने की योजना पर काम शुरू हो गया, जो लगातार 30 दिन तक चला। बुजुर्गवार बताते हैं कि निर्माण कार्य में सच्चा सौदा दरबार से भी सेवादार भाई और मिस्त्री आए हुए थे। जिस जगह को डेरे के लिए चयनित किया गया था, उस समय वहां पर बड़ी मात्रा में झाड़-बोझे(कंटीले पौधे) उगे हुए थे, जिसकी खुदाई शुरू कर भूमि को समतल किया गया। उस समय गांव की परिधि छोटी थी, यह एरिया पास की शामलात भूमि में था। एक साइड में स्कूल पहले से ही था। इधर गांव में भी लोगों में बड़ा उत्साह था कि यहां डेरा सच्चा सौदा का दरबार बन रहा है। सेवादारों ने सबसे पहले तंबू लगाकर उसमें रहने की व्यवस्था की।

मौजूदा समय में जहां डेरा बना हुआ है, इसके पिछवाड़े में भी काफी जमीन खाली पड़ी थी, जहां से गांव के लोग मिट्टी खोद कर ले जाते थे। वहां पर डेरे के लिए कच्ची र्इंटें बनाने का काम शुरू हो गया। गांव के लोग बड़ी संख्या में यहां सेवा कार्य में हाथ बंटाते। मिट्टी को खोदकर गारा बनाते और फिर र्इंटें तैयार की जाती। उन र्इंटों को सिर पर उठाकर दरबार में लाया जाता। हालांकि सबसे पहले डेरे के चारों ओर कांटेधार झाड़ियों की बाड़ की गई। बाद में अंदर निर्माण कार्य शुरू किया गया। दरबार में जमीन के अंदर तेरा वास बनाया गया, जिसकी खुदाई का कार्य भी कई दिन चलता रहा। शुरूआत में एक गुफा और सामने एक गोल कमरा बनाया गया, जिसकी दीवारों की मोटाई काफी ज्यादा थी।

उनके आगे बरामदे भी बनाए गए। इसके अलावा गुफा वाली तरफ में दो कमरे और भी बनाए गए तथा कमरों के चारों तरफ 6-7 फुट ऊँची कच्ची दीवारें निकालकर चारदीवारी तैयार कर दी गई। तब पूरा डेरा कच्ची र्इंटों से तैयार किया गया था। यह सेवा कार्य लगभग एक महीने में पूरा कर लिया गया। इतने कम समय में डेरा बनने पर गांव में खुशी का माहौल था। जैसे ही डेरा तैयार हो गया तो चौ. लायक राम नम्बरदार, चौ. राम सिंह, चौ. हेमराज, चौ. चैनसुख और चौ. नेकी राम सच्चा सौदा दरबार में आए और सार्इं जी की हजूरी में प्रार्थना की, ‘बाबा जी! आप की कृपा से डेरा बनकर तैयार हो गया है। आपजी कंवरपुरा में पधारें और डेरे में सत्संग लगाएं।’ गांव की पंचायत की अर्ज सुनकर पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया, ‘भाई! जरूर चलेंगे। जब हुक्म होगा सत्संग भी जरूर लगाएंगे।’ पूज्य सार्इं जी जब गांव कंवरपुरा में पधारे तो साध-संगत के प्रेम व सेवाभाव को देखकर बहुत खुश हुए। सच्चे पातशाह जी ने अपनी इलाही मौज में आकर डेरे का नाम ‘डेरा सच्चा सौदा सतनामपुर धाम’ रखा।

बैलगाड़ी में सवार होकर जब सार्इं जी पहुंचे दरबार

सन् 1958 में सर्द मौसम का वक्त था। उस दिन सुबह ही डेरा सच्चा सौदा सतनामपुर धाम में चहल-पहल शुरू हो गई, सेवादार काफी संख्या में पहुंचे हुए थे, वहीं गांव के लोग भी चेहरों पर खुशी के भाव लिये दरबार में पहुंचने लगे थे। जैसे ही सुबह के 9 बजे होंगे, गांव का माहौल उत्साह, उल्लास व हर्षोल्लास से भर उठा। पूज्य सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज शाही परिधान में बैलगाड़ी पर विराजमान होकर आते दिखाई दिए तो संगत की खुशी मानो आसमां को छूृने लगी। हर कोई अपने मुर्शिद को देखकर खुशी में झूमने लगा। गांव वाले बताते हैं कि उस दिन पूज्य सार्इं जी ने सतनामपुर धाम की उत्तर दिशा में बने गेट से प्रवेश किया, जो आज भी मौजूद है।

तब डेरा सच्चा सौदा सतनापुर धाम बनकर तैयार हो चुका था। जैसे ही सार्इं जी दरबार में पधारे तो दर्शनों के लिए पूरा गांव ही उमड़ पड़ा। हर कोई लालायित था कि वह भी सार्इं जी के दिव्य दर्शनों को आत्मसात कर पाए। सार्इं जी ने अपनी मीठी बोली से इस बागड़ी गांव का दिल जीत लिया। यही नहीं, आस-पास के गांवों के लोग भी सत्संग में पहुंचते और सतगुरु की रहमतों के साथ-साथ बूंदी के प्रसाद की झोलियां भरकर ले जाते।

गांव के बुजुर्ग लोगों का मानना है कि उस समय पूज्य सार्इं जी काफी दिनों तक गांव में ठहरे, बेशक इन दिनों में पूज्य सार्इं जी दरबार में ही रात्रि विश्राम किया करते, लेकिन गांव के आस-पास के एरिया में शहनशाह जी के पावन चरणों की छौह आज भी महसूस होती है। उस दिन शाम को ठीक चार बजे सत्संग आरम्भ हुआ। साध-संगत काफी संख्या में सत्संग पंडाल में सजी हुई थी। उसी रात को फिर सत्संग लगाया। सत्संग का मस्ती भरा कार्यक्रम देर रात तक चलता रहा। इस दौरान साध-संगत में सोना, चांदी और कपड़े आदि भी खूब बांटे गए।

उस सत्संग पर 45-50 लोगों ने गुरुमंत्र भी लिया। उन दिनों की एक दंतकथा आज भी अकसर सुनने को मिलती है कि जब सार्इं जी दूसरी बार कंवरपुरा में सत्संग करने पहुंचे हुए थे, तो सर्दी का मौसम था। एक दिन सत्संग के दौरान बरसात आने की संभावना भी बनी हुई थी। आसमान में घने बादल छाये हुए थे। बादलों की गर-गर्राहट सुनकर और चमकती हुई बिजली को देखकर किसान भाई बहुत ही परेशान नजर आ रहे थे, कि अगर ओलावृष्टि जैसी आपदा आ गई तो सारी फसलें तबाह हो जाएंगी, क्योंकि इससे पूर्व एक बार ऐसा हो चुका था। सत्संगी किसान भाई मन ही मन अरदास कर रहे थे कि हे मालिक ! हमारी लाज रख लेना। कहते हैं कि सतगुरु घट-घट की जानता है। पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘भाई! यह गांव बहुत भागों वाला है, क्योंकि यहां इतनी साध-संगत के चरण टिके हैं और राम-नाम की सच्ची बात (सत्संग) सुनने को मिली है।’ फिर से वचन फरमाया, ‘भाई! तुम लोग जरा भी फिक्र ना करो।

इस पूरे गांव के एरिया में काल तुम्हारी फसल का कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’ बताते हैं कि सन् 1958 से लेकर आज तक कंवरपुरा गांव में प्राकृतिक आपदा से फसलों को कभी बड़ा नुकसान नहीं हुआ। सन् 1982 के अन्दर इस क्षेत्र में काफी ओलावृष्टि हुई थी, लेकिन कंवरपुरा गांव काफी हद तक महफूज रहा।

‘बुलाओ वरी उनको, मालिक की औलाद हैं वो भी।’

जब सार्इं जी यहां गांव में पधारे हुए थे तो अकसर अंतर्ध्यान होकर कई घंटों तक बैठे रहते। उस समय आसाराम सेवादार ही साथ रहा करता। एक दिन सार्इं जी तेरा वास से बाहर निकले और बाहर घूमने चले गए। उसी दौरान रास्ते में बनबांवरी बिरादरी की काफी महिलाएं व पुरुष दर्शनों के लिए आ पहुंचे और उन्होंने सार्इं जी के पांवों के हाथ लगाने का प्रयास किया। काफी रोकने के बाद भी वे नहीं रुक रहे थे, जिससे सार्इं जी काफी नाराज भी हुए। वे सार्इं जी के पीछे-पीछे दरबार में आ पहुंचे। यह देखकर सार्इं जी ने सेवादारों को हुक्म फरमाया- ‘इनको डेरे से बाहर निकालो, अभी निकालो! जो इनको लंगर देगा, नरकों में जाएगा!’

बताते हैं कि सार्इं जी ने जहां पानी से हाथ धोये थे, वहां जमीन पानी से गिली हो गई थी। वह औरतें अपने श्रद्धा भाव के चलते उस गिली मिट्टी को भी खा गाई थी। सेवादारों ने उन सबको दरबार से बाहर निकाल दिया, जो बाद में पास में ही बनी नहर पर चले गए और वहीं पर अपना डेरा जमा लिया। देर रात तक भूखे-प्यासे वहीं पर जमे रहे। जैसे ही देर सायं पूज्य सार्इं जी ने उनका ख्याल किया तो फिर से वचन किया- ‘बुलाओ वरी उनको, मालिक की औलाद हैं वो भी।’ उन्हें दरबार में वापिस लाने के बाद फरमाया- ‘दयो इन्हां नूं भी टुकर।’ बताते हैं कि सबको भरपेट लंगर खिलाया गया और प्रसाद भी दिया गया।

‘उनके बुरे कर्मों के बदले हमें अपने खून का एक लोटा काल को देना पड़ा है।’

संतों का जीवन परहित को समर्पित होता है। सच्चा गुरु, किसी जीव को नामदान देकर उसे अपना शिष्य बनाने से पूर्व उसके पूर्वले बुरे कर्मों को नष्ट करता है और उसकी सारी बलाएं (कष्ट) खुद के शरीर पर ले लेता है।
ऐसा ही एक प्रत्यक्ष नजारे का जिक्र करते हुए ग्रामीण बताते हैं कि गांव में हर रोज सत्संग होता था। पूज्य सार्इं जी उस दिन सुबह तेरा वास से बाहर विराजमान थे। तभी पंजाब से दो पुलिस अफसर दर्शनों के लिए पहुंचे। सार्इं जी ने सेवादारों को वचन फरमाया, ‘इन्हें प्रसाद भी खिलाओ और चाय-पानी भी पिलाओ।’ बाद में उन्होंने सत्संग सुना, और बहुत प्रभावित हुए। बाद में नामाभिलाषी जीवों को बुलाया जाने लगा। उन दोनों अधिकारियों ने भी गुरुमंत्र देने के लिए प्रार्थना की। यही नहीं, उन्होंने सेवादारों से भी गुजारिश की कि हमें भी नाम दिलवा दो।

किंतु पूज्य सार्इं जी ने उन्हें नाम देने से साफ इन्कार कर दिया। यह विषय काफी चर्चा में आ गया, आखिरकार गांव की पंचायत व सेवादारों ने मिलकर फिर से पूज्य सार्इं जी की हजूरी में पेश होकर दोनों अफसरों को गुरुमंत्र देने की अर्ज दोहराई। आखिरकार सार्इं जी उन्हें नाम देने के लिए रजामंद हो गए और गुरुमंत्र की दात प्रदान कर दी। बताते हैं कि उस दिन सत्संग के बाद नामदान देने के बाद पूज्य सार्इं जी के शरीर में बहुत जबरदस्त तकलीफ महसूस होने लगी। सार्इं जी का स्वास्थ्य इस कदर खराब हो गया कि पेशाब में भी बड़ी मात्रा में खून आने लगा।

सार्इं जी ने वह खून वहां मौजूद पंचायत एवं सेवादारों को दिखाते हुए फरमाया, ‘भाई! तुम लोगों के कहने पर हमने उन दोनों को नाम तो दे दिया है, परन्तु वे नाम के अधिकारी नहीं थे। उन्होंने बहुत भारी पाप किए हुए थे। काल ने उन्हें सात जन्म तक तपते भट्ठ में मक्की के दानों की तरह भूनना था। उनके भारी कर्मों का बोझ हमें उठाना पड़ा और उसके बदले अपने खून का एक लोटा काल को देना पड़ा है।’

‘देखो वरी! दुनिया माया के पीछे भाग रही है।’

दुनिया को सच की राह दिखाने के लिए सार्इं जी बहुत चोज दिखाते। सत्संग के दौरान सार्इं जी ने एक भोंपा के गले में माला डालते हुए फरमाया- ‘देखो वरी! किन्ना जोर लगांवदा है, माया दे पीच्छे। ’ वह भोंपा अपने गले में सारंगी डालकर उसको बजाने के लिए पूरे जोर से लगा हुआ था। एक व्यक्ति सिर पर घड़ा उठाकर सार्इं जी के सामने नाच रहा था, सार्इं जी ने फरमाया- ‘देखो, देखो, इसदा घड़े विच ध्यान है, परमात्मा ’च नहीं। यह सब माया के लिए कर रहा है।’ फिर एक कुत्ते के गले में भी नोटों की माला पहनाते हैं और फिर उसे वहां से भगा देते हैं, वहां बैठे लोग भी उस कुत्ते के पीछे दौड़ने लगते हैं तो फरमाने लगे- ‘देखो वरी! दुनिया माया के पीछे भाग रही है।’

फकीरां दी केहड़ी जात हुंदी है!

पूज्य सार्इं जी कंवरपुरा प्रवास के दौरान एक दिन सुबह बाहर घूमने के लिए निकले। सुबह ही पौ फटने के बीच पक्षियों की चहचहाट में पूज्य सार्इं जी गांव से दूर निकले मार्ग पर लंबी-लंबी डींगें भरते हुए जा रहे थे। साथ में दो-तीन सत्संगी भी थे, जिनमें नंबरदार लायकराम लाखलान भी था। दीवान सिंह बताते हैं कि मेरे दादा नंबरदार लायकराम जी के मनोइंद्रियों में एक सवाल पैदा हो गया। लेकिन डर भी था कि कहीं बाबा जी बुरा ना मान जाएं। लेकिन मन की तसल्ली के लिए उन्होंने कुछ पूछने के अंदाज में कहा- ‘बाबा जी! लोग कह हैं के, थै मुसलमान हो।’

सार्इं जी ने जब यह बात सुनी तो कदमों की कसरत को थोड़ा कम करते हुए नंबरदार जी की तरफ मंद-मंद मुस्कुराहट के साथ निहारते हुए फरमाया- ‘वरी! फकीरां दी केहड़ी जात हुंदी है।’ ऐसा फरमाते ही फिर से कदमताल को तेज कर दिया। सार्इं जी ने फिर फरमाया- फकीरां दा इन्सानियत ही धर्म होता है। हमारा जन्म हिन्दू परिवार में हुआ है। अगर फिर भी किसी ने तसल्ली करनी है तो हमारे पिंडे की बहनें-भानजे मुम्बई में रहते हैं, तसल्ली कर सकते हैं।’ पूज्य सार्इं जी के पवित्र मुखारबिंद से यह सच्चाई जानकर सत्संगी भाई ने क्षमा याचना करते हुए कहा कि सार्इं जी! मुझे बख्श दो। ऐसा मैं नहीं कहता, मैंने लोगों से सुना है। इस पर मेहरबान दाता जी ने उन्हेें क्षमा दान देते हुए फरमाया, ‘अच्छा पुट्टर! बख्शा!’

‘आज के सत्संग का फल तो सुक्ष्म जीवों ने ले लिया!’


संतों की महिमा अपरम्पार है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण डेरा सच्चा सौदा में कदम-कदम पर देखने को मिल जाता है। फेफाना निवासी लिखमा राम बिजारणियां उन दिनों कंवरपुरा दरबार में पूज्य सार्इं जी का सत्संग सुनने पहुंचे थे। वे बताते हैं कि उस दिन मेरे गांव से काफी लोग पैदल चलकर ही कंवरपुरा गए थे। सुबह जैसे ही दरबार पहुंचे तो थोड़ी देर बाद ही पूज्य सार्इं जी दरबार में बने चबूतरे पर विराजमान हो गए। अभी सत्संग शुरू होने की तैयारियां शुरू हो रही थी। भजन मंडली के सेवादार भी तैयारियों में जुटे हुए थे। इतने में कंवरपुरा गांव के चौधरी राम सिंह ने अलग अंदाज में सार्इं जी का स्वागत करते हुए अपनी बंदूक से हवा मेंं फायर कर दिया।

एकाएक तेज आवाज सुनकर कुछ लोग सहम गए, वहीं काफी खुश भी हो रहे थे। उधर पूज्य सार्इं जी, बंदूक की आवाज सुनकर अचानक चबूतरे पर खड़े हो गए और बिना कुछ बोले अंदर दरबार में चले गए। यह देखकर सभी लोग दंग सा रह गए। कोई कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। बाद में सेवादार पूज्य सार्इं जी की हजूरी में पेश हुए तो शहनशाह जी ने फरमाया- वरी! अब सत्संग नहीं होगा। आज के सत्संग का फल उन सुक्ष्म जीवों ने ले लिया, जो गोली चलने से नष्ट हो गए हैं। कहने का भाव पूज्य सार्इं जी ने चौधरी साहब की बंदूक से चली गोली से हुए जीवों के नुकसान की भरपाई अपने सत्संग का फल देकर पूरी की। यह सुनकर सभी सेवादारों ने क्षमा मांगी और भविष्य में ऐसी गलती ना दोहराने की बात कही।

पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने सुनी सत्संगी के दिल की पुकार

चौ. वरियाम सिंह की ढाणी में सत्संग था, उसके बाद पूज्य हजूर पिता जी यहां गांव में पधारे। दलीप सिंह बताते हैं कि उस सत्संग से पूर्व सायं को मेरे रिश्तेदार नाथूसरी से यहां गांव में आए, वे सत्संग के लिए तीन ड्रम दूध के भरकर लाए थे। वे जब यहां पहुंचे तो सूर्य अस्त हो चुका था। वे बोलने लगे कि चलो आपको सत्संग सुनाने के लिए ले चलते हैं तो मैंने मना करने की मंशा से गर्दन हिला दी। उन्होंने जब दोबारा यह बात कही तो मैंने कहा कि यदि मेरे गांव में जस (शक्ति) है तो सुबह बाबा जी यहां गांव में आएंगे। और गांव में जस नहीं है तो नहीं आएंगे। दोपहर बाद जैसे ही सत्संग की समाप्ति के बाद पूज्य गुरु जी का यहां आने का कार्यक्रम तय हुआ तो वही रिश्तेदार पहले ही यहां पहुंच गए और बोलने लगे कि तुम्हें कैसे पता था कि गुरु जी यहां आएंगे। उस दिन पूज्य गुरु जी ने दरबार में काफी समय तक भरपूर रहमतें लुटाई। पूज्य गुरु जी ने उस दौरान ही कंवरपुरा दरबार में टयूबवैल लगाने की मंजूरी दी थी।

लुटाई अपार रहमत


पूज्य सार्इं जी के सत्संग मेंं रामसिंह के पुत्र उमेश पर कुछ खास ही मस्ती का रंग दिखने लगा था। बताते हैं कि उस दौरान उमेश को गाने-बजाने का भी बहुत शौक था, और वह सार्इं जी की पावन हजूरी में भी बहुत ही अच्छे भजन लगाया करता और मस्ती में नाचा भी करता। इस दिन सार्इं जी उसकी भक्ति की तड़प को देखकर बहुत खुश हुए और उसे सोने की ताबीजी दात के रूप में प्रदान की। ग्रामीण बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी के प्रिय शिष्य चैनसुख राम का छोटा भाई न्योमतराम भी सार्इं जी का ऐसा भगत हुआ है जो अपने सिर के बालों को ऊपर छत के साथ बांध कर सुमिरन किया करता था। यह विषय काफी चर्चा में भी रहा। दरअसल न्योमतराम की दिली इच्छा थी कि भक्ति के मार्ग में नींद रुकावट ना बने, यदि नींद की झपकी भी आए तो वह उसी क्षण चेतन अवस्था में आ जाए।

‘वरी बलां थी, गई दो सौ कोस दूर।’

90 वर्षीय रामचंद्र लाखलान बताते हैं कि यह कंवरपुरा गांव का सौभाग्य है कि सार्इं मस्ताना जी महाराज स्वयं यहां पधारे हैं। सार्इं जी ने यहां के लोगों को रामनाम के साथ जोड़ा और उनके मन में बसे मिथ्या आंडबरों को भी हमेशा के लिए खत्म कर दिया। रोचकता से भरी एक बात सुनाते हुए उन्होंने बताया कि एक दिन सुबह सार्इं जी सैर को निकले, स्कूल से थोड़ी दूरी पर ही गांव का श्मशान घाट बना हुआ है।

जब उस घाट के नजदीक पहुंचे तो वहां एक बड़ा सा दड़ा यानी टिब्बा हुआ करता था। उसमें से एकाएक तेज खड़क-खड़क की तीन बार आवाज सुनाई दी। तो ताऊ नंबरदार लायक राम ने पूछा- ‘सार्इं जी, कै अडंगो है?’ सार्इं जी ने फरमाया- ‘वरी बलां थी, गई दो सौ कोस दूर।’ उस समय के लोग यह मानते थे कि कोई भूत-प्रेत का साया उधर रहता था, जिससे लोग भयभीत भी रहते थे।

पूज्य सार्इं जी के अंतिम दर्शन को फर्ग्यूसन ट्रैक्टर-ट्राली पर सवार होकर आई थी संगत

पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज के प्रति गांव की दीवानगी कमाल की रही है। साईं जी का तीन बार गांव में आगमन हुआ, और हर बार गांव पर रामनाम की खुमारी पहले से बढ़कर चढ़ती रही। 70 वर्षीय दलीप सिंह बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी से गांव का विशेष लगाव बन चुका था। आस-पास के क्षेत्र में जहां भी सार्इं जी की सत्संग होती, वहां पर गांव के युवा हमेशा भागीदारी करते। कंवरपुरा में जब पहली बार सार्इं जी आए तो चौधरी राम सिंह के घर पर उतारा था। उस दिन भी गांव के चबूतरे पर सत्संग हुआ था, लेकिन उस समय गांव से कुछ एक ही सत्संगी थे, जिन्होंने सुचान गांव में सत्संग पर नामदान लिया था। उस समय मेरे चाचा वकील हरी राम को भी नाम लेने की बात कही गई, तो उन्होंने कहा कि बाबा जी, मेरा पेशा ऐसा है, इसमें हर कहीं जाना पड़ता है।

ऐसे में वचनों पर खरा नहीं उतर पाऊंगा। यह सुनकर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया कि ‘कोई ना पुट्टर, तेरे लिए सब माफ है।’ सार्इं जी जब दूसरी बार गांव में पधारे तब तक गांव पर डेरा सच्चा सौदा का रूहानी रंग चढ़ चुका था। उधर डेरा भी बनकर तैयार था। पूज्य सार्इं जी डेरा में बने चबूतरे पर सत्संग किया करते। हर रोज प्रसाद बांटा जाता, कभी केले, कभी सेब, तो कभी बूंदी, तो कभी कुछ। मैं उस समय करीब 9 साल का था, मुझे अकसर प्रसाद लेकर खाने की बड़ी ललक रहती। सार्इं जी की दया-दृष्टि का बहुत प्रसाद ग्रहण किया, शायद यही वजह है कि आज भी सार्इं जी कृपा दृष्टि बनी हुई है। उनका कहना है कि जब पूज्य सार्इं जी अंतिम दिनों में दिल्ली रवाना हुए थे, तो उससे पूर्व भी कंवरपुरा धाम में पधारे थे। सार्इं जी अकसर संगत के बीच बैठकर लंगर ग्रहण किया करते।

उस दिन सार्इं जी ने अचानक वचन फरमाया कि ‘ल्यो भई, डेरे दे टुकर खा लो, हुण चोला बदलांगे।’ वहीं दीवान सिंह बताते हैं कि गांव का हमेशा से डेरा सच्चा सौदा से बड़ा लगाव रहा है। उन दिनों जब पूज्य सार्इं जी ने चोला बदला तो गांव में शोक का माहौल था। उस समय गांव से बड़ी संख्या में ग्रामीण डेरा सच्चा सौदा दरबार में अंतिम दर्शन के लिए पहुंचे थे। चौधरी राम सिंह सिहाग के पास उस समय मैसी फर्ग्यूसन ट्रैक्टर हुआ करता था, जो सारी संगत को अपने ट्रेक्टर-ट्राली के द्वारा दरबार में लेकर गया था।

‘जट्टू इंजीनियर’ से प्रेरणा लेकर शुरू की केसर की खेती

केसर के फूल तोड़ती हुई सेवादार बहनें।

डेरा सच्चा सौदा सतनामपुर धाम इन दिनों केसर की खेती के तौर पर अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए है। सेवादारों द्वारा पूज्य गुरु संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां द्वारा बनाई गई फिल्म ‘जट्टू इंजीनियर’ से प्रेरणा लेकर दरबार में नई शुरूआत करते हुए केसर की खेती की ओर कदम बढ़ाया है। दरबार के रख-रखाव की सेवा में जुटे ब्लॉक कल्याण नगर के भंगीदास सतीश इन्सां व प्रभु इन्सां ने बताया कि पूज्य गुरु जी की फिल्म देखकर कृषि कार्यों के साथ-साथ कुछ अलग से करने की लालसा पैदा हुई।

पूज्य गुरु जी ने फिल्म के द्वारा युवाओं को खेती, बागबानी व अन्य व्यवसायों में नयापन लाने की सीख दी है। सतनामपुर धाम में भी अन्य कृषि कार्यों के साथ केसर की खेती शुरू की गई है। हालांकि अभी शुरूआती चरण में थोड़े एरिया में केसर के पौधे उगाए गए हैं, जिनसे काफी मात्रा में केसर मिलने लगा है। धीरे-धीरे इस कार्य को और बढ़ाया जाएगा, जिससे आय के स्त्रोत बढ़ेंगे।

‘‘विद्या का दान देने वाले सरकारी विद्यालय के बगल में सुशोभित डेरा सच्चा सौदा सतनामपुर धाम गांव की सुंदरता में चार चांद लगाता हुआ प्रतीत होता है। करीब 5 हजार की आबादी को समेटे इस गांव के लोग काफी संख्या में अपने खेतों में घर बनाकर रहने लगे हैं, लेकिन गांव की भव्यता आज भी ज्यों की त्यों बरकरार है।

गांव में सीनियर सैकेंडरी स्कूल के साथ-साथ प्राथमिक चिकित्सालय, विशालकाय स्टेडियम, गऊशाला व हिंदू धर्म के प्रतीक मंदिरों की मौजूदगी गांव में आपसी भाईचारे की सांझ को और बढ़ाती है। यह गांव आज से करीब 200 साल पहले बसा था। उस दौरान भिवानी जिले से लोग यहां आए थे और मुसलमानों से गांव खरीदा था। मौजूदा समय में गांव का रकबा 2100 एकड़ तक फैला हुआ है।’’
– मुकेश लाखलान, सरपंच गांव कंवरपुरा।

ऐसे पहुंचे दरबार

  • रेल मार्ग: हिसार-सरसा रेल लाइन पर सुचान कोटली रेलवे स्टेशन से मात्र 3 किलोमीटर की दूरी।
  • सड़क मार्ग: सरसा शहर से (हिसार नेशनल हाईवे से बाया कोटली गांव) 14 किलोमीटर की दूरी।

डेरा सतनामपुर धाम का वह गेट, जहां से पूजनीय सार्इं मस्ताना जी ने दरबार में पहली बार प्रवेश किया था।

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here
Captcha verification failed!
CAPTCHA user score failed. Please contact us!