भड़ास निकालने के लिए बोलना अहितकारी
वाणी पर संयम बहुत जरूरी है। शायद इसीलिए कहा भी गया है, ‘कम बोल अच्छा बोल’। बंदूक से निकली गोली वापस नहीं होती, ठीक उसी तरह मुख से निकली बोली भी गोली से कम नहीं होती। कड़वे वचन का अर्थ समझें न कि वचनों में कड़वाहट घोलिए। सोच समझ कर बोल को ही नये लोगों ने तोल मोल के बोल कह कर संबोधित किया।
कुछ लोगों के मन में कुछ नहीं होता किन्तु मुंह खोलते समय अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं कर पाते। उल्टा सीधा बोलकर सफाई देते हैं कि भड़ास निकालनी थी, निकाल ली। हो सकता है उन्हें भड़ास निकलने के बाद हल्का भी लगता हो। कुछ लोग मौका ताड़कर मुंह खोलते हैं और जब मुंह खोलते हैं तो बगैर सोच-समझ कर अनाप-शनाप ही बक बक पूरी कर जाते हैं।
बेमतलब की बातों का प्रवाह स्वयं के लिए मुश्किलें पैदा कर देता है क्योंकि आपके अनावश्यक अपशब्द दूसरों को चोट पहुंचाने का काम करते हैं। परिवार में ऐसे ही वार्तालाप व्यर्थ के विवादों को जन्म देते हैं। रिश्तों में कड़वाहट घोलते हैं। दूरियां बढ़ाते हैं। गलतफहमियां पैदा करते हैं और मतभेदों को बढ़ाते हैं।
भाई-भाई के संबंध बिगड़ जाते हैं। बहनें एक-दूसरे की कट्टर दुश्मन बन जाती हैं। यहां तक कि बाप-बेटों में मतभेद बढ़ जाते हैं। पति-पत्नी के बीच कलह बढ़ती जाती है और पारिवारिक शांति में विच्छेद पैदा हो जाता है। कभी-कभार तो रिश्तों में कटुता इतनी अधिक बढ़ती है कि पवित्र रिश्ते टूट जाते हैं और बढ़िया चल रही गृहस्थी उजड़ जाती है। तलाक तक की नौबत आ जाती है। पति-पत्नी के तलाक का खामियाजा बच्चों को भुगतना पड़ता है। कुछ लोग बोलते कुछ नहीं किंतु अंदर ही अंदर घुटते जाते हैं। यह भी स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं हैं।
तनावग्रस्तता, कलह और रोज – रोज की लड़ाई घर की शांति तो समाप्त कर ही देती है। सुख-समृद्धि भी प्रभावित करती है। ऐसे घरों से लक्ष्मी जी रूठ जाती हैं। सरस्वती की कृपा से तो आप पहले ही वंचित हो चुके होते हैं। धीरे-धीरे घर में दरिद्री सेंध लगाना शुरू कर देती है। आर्थिक तंगी के चक्र व्यूह में आप फंस जाते हैं और बाहर निकलने की बजाए अन्दर ही धंसते चले जाते हैं। अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार कर आप दूसरों को दोषी कह कर अपनी ही गलतियों पर परदा ढंकने का कार्य करते हैं।
नतीजा अच्छा निकल ही नहीं सकता। आत्मविश्वास भी टूटने लगता है। क्या फायदा ऐसी भड़ास निकालने का जिसकी चपेट में सर्वप्रथम आप स्वयं ही आते हैं। बेहतर होगा यदि आप समझदारी और संयम बरतते हुए मुंह खोलने की आदत डालें। आपकी वाणी प्रभावी होनी चाहिए। प्रभावी वाणी का अर्थ ऊंचे स्वर में चीखना-चिल्लाना कतई नहीं है।
मीठी वाणी बोलिए। मन का आपा खोकर बोलना हितकारी नहीं है। संतों ने वाणी के महत्त्व के संदर्भ में समय-समय पर काफी कुछ समझाया भी है। संत कबीर दास जी, तुलसीदास, नामदेव, तुकाराम से लेकर रहीम और रसखान ने भी यही शिक्षा दी कि वाणी पर संयम रखें। अपने विवेक को न खोएं। भड़ास निकालने के चक्कर में इन्सान से शैतान बनने की पहल न करें। शब्दों की मार बहुत ही गहरी होती है। इसके घाव मरहम लगाने से भी नहीं सूखते।
याद रहे, जिस तरह आपको अपना आत्म-सम्मान प्रिय है, दूसरों को भी उनका सम्मान प्रिय होता है। मान-सम्मान की खरीदी अथवा बिक्र ी नहीं होती। मान सम्मान दोगे तो पाओगे। ऐसे शब्दों का प्रयोग न करें जिनकी वजह से बाद में आपको लज्जित होना पड़े।
सच तो यह भी है कि भाषा एवं वाणी पर मां बाप का असर ज्यादा पड़ता है। बच्चे परिवार के बड़े बुजुर्गों से जो सीखते हैं वहीं ग्रहण भी करते हैं। संगत का असर यहां स्पष्ट नजर आता है। फिल्मी संवादों का प्रभाव भी हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी पर पड़ रहा है। टी वी सीरियलों के संवादों का बुरा असर समाज पर पड़े बगैर नहीं रहा। द्विअर्थी संवादों का चलन संस्कृति पर चोट कर रहा है।
-राजेन्द्र मिश्र ‘राज’