don't be so selfish

इतने स्वार्थी भी न बनें
दिव्या घर के जरूरी काम निपटा कर बैठी ही थी कि उसके दरवाजे की घंटी बजी। उसने दरवाजा खोला तो देखा सामने संगीता अपने दोनों बच्चों के साथ खड़ी थी। दिव्या को देखते ही वह बोली ‘दिव्या, मेरी ननंद नागपुर से आई है। कल ही उसे वापस जाना है। मैं जरा उसे खरीदारी कराने ले जा रही हूं। 2-3 घंटे में लौट आऊंगी। तब तक पूजा, साहिल तेरे पास ही रहेंगे।’

दिव्या को कुछ कहने का मौका दिए बगैर संगीता वापस चली गई। दिव्या ने हमदर्दीवश यही सोचा कि ‘चलो, 2-3 घंटे की बात है। आखिर संगीता उसकी पड़ोसन है।’ लेकिन जाने के बाद भी संगीता 5-6 घंटे तक नहीं लौटी। दिव्या ने दोनों बच्चों को खाना खिलाकर टी. वी. देखने बैठा दिया। वह बहुत बेचैनी से बार-बार घड़ी की तरफ देखे जा रही थी। आज उस के विवाह की पहली वर्षगांठ थी। उसके पति शैलेन्द्र ने आज जल्दी घर आने को कहा था। उन का आज घूमने जाने का कार्यक्र म था।

धीरे-धीरे शैलेन्द्र के आने का समय हो गया। दिव्या तैयार होकर बैठ गई। शैलेन्द्र तो आ गए पर संगीता का कुछ पता न था। शाम के 7 बज गए, शैलेन्द्र और दिव्या दोनों बैठे कुढ़ रहे थे। संगीता की बेटियाँ भी उदास हो गईं थीं। रात के 10 बजे संगीता वापस आई। उसके चेहरे पर अफसोस की छाया तक न थी। बहुत सामान्य ढंग से बोली, ‘दिव्या, ज़रा देर हो गई। बाजार के पास ही मेरी देवरानी का घर पड़ता है। सोचा ननंद को वहाँ भी घुमा दूँ। देवरानी ने तो खाना खिला कर ही भेजा। बच्चे तो तेरे पास थे, इसलिए मैं निश्चिंत थी।’

संगीता के वापस जाने के बाद शैलेन्द्र ने दिव्या को आड़े हाथों लिया। विवाह की पहली वर्षगांठ पर दिव्या को शैलेन्द्र की डांट खाकर सोना पड़ा। देखा आपने, संगीता की बेतकल्लुफी की वजह से दिव्या और शैलेन्द्र को कितनी असुविधा हुई। अगर संगीता अपने बच्चों को दिव्या के पास छोड़ने से पहले पूछ लेती तो दिव्या उसे अपने कार्यक्र म से अवगत करवा सकती थी और शादी की वर्षगांठ का दिन बर्बाद होने से बच सकता था।

बहुत सी महिलाओं का स्वभाव इस तरह का होता है कि जहाँ किसी पड़ोसन ने अच्छी तरह बात की या विनम्रता से पेश आई तो वे उस के पीछे ही पड़ जाती हैं। जबरदस्ती किसी पर अधिकार जमाना उन्हें खूब आता है। वे सिर्फ अपनी सुविधा ही देखती हैं चाहे उससे किसी को कितनी ही असुविधा हो।

वैसे एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सहायता करना, आपस में मिलना-जुलना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी पर जबरन किसी पर अपना काम थोपना या किसी का कीमती वक्त बर्बाद करना उचित नहीं है। उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि आप अपने बेतकल्लुफ स्वभाव से दूसरों को असुविधा में डालकर अपना उल्लू भले ही सीधा कर लें पर इससे निश्चित रूप से आपके प्रति औरों के मन में प्रेम व सम्मान की भावना अधिक दिनों तक कायम नहीं रह पाएगी।
-कु. एम. कृष्णा राव ‘राज’

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