You said count the money - experiences of satsangis

तैनूं केहा, पैसे गिण ला -सत्संगियों के अनुभव
पूनजीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की दया-मेहर

माता लाजवंती इन्सां पत्नी सचखण्ड वासी प्रकाश राम कल्याण नगर सरसा से परम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की अपने पर हुई अपार रहमत का वर्णन करती है:-

करीब 1981 की बात है, उस समय हम गांव सादिक जिला फरीदकोट में रहते थे। वहां से कई सेवादार भाई डेरा सच्चा सौदा सरसा में माहवारी सत्संग पर सेवा करने के लिए आया करते थे। उनमें हम दो औरतें भी शामिल थी। उस समय बसों के किराये कम थे। मैं सौ रुपये में से बस का किराया, खाने पीने का खर्चा करके बाकी पैसे वापिस घर ले जाया करती थी। एक बार मेरा बेटा मुझे कहने लगा, मम्मी, हर महीने सौ रुपया खर्चा करके अपने कैसे पूरे आएंगे? मैंने उसको कोई जवाब न दिया, परन्तु अपने अंदर ही अंदर मन में सोचा कि मैंने आगे से घर से किराया नहीं मांगना।

मैंने अपने सतगुरु पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के चरणों में विनती कर दी कि पिता जी, घर वाले तो मुझे आने नहीं देते, अब आप ही कोई किराये-भाडेÞ का इंतजाम करो ताकि मैं सत्संग पर आ सकूं। जब मैं इस शशो पंज में थी, तो मेरी मां का जलालाबाद से संदेश आया कि मैं बहुत बीमार हूं, दुखी हूं, मुझे मिल जाओ। उस समय मेरे पास केवल पचास रुपये थे। मैं सादिक से बस चढ़ कर गुरुहरसहाए चली गई। गुरुहरसहाए बस से उत्तर कर जब मैं रेलवे स्टेशन पर जाने लगी तो सड़क पर दुकानों के आगे एक चांदी का बड़ा सा टुकड़ा पड़ा था, जहां से आम लोग गुजर रहे थे।

मैंने वह चांदी का टुकड़ा उठाया तथा वहां पर दुकान के आगे खड़ी हो गई कि किसी का गिरा होगा। कोई पूछेगा तो मैं दे दूंगी। मैं वहीं काफी देर तक खड़ी रही। उस समय मुझे मेरे सतगुरु परम पिता जी ने आवाज दी, ‘बेटा, तूं सत्संग ते नहीं जाणा?’ फिर मुझे समझ आ गई कि मेरे सतगुरु ने मेरे किराये का प्रबंध किया है। मैंने चांदी का टुकड़ा साढेÞ तीन सौ रुपये में बेच दिया। मैंने मां की कुशलता पूछी तो मेरी मां मुझे कहने लगी कि तूने कुछ दिनों के लिए मेरे पास रहना है। मैंने अपनी मां को कहा कि मैंने सुबह सरसा सत्संग पर जाना है। मैं रह नहीं सकती।

मेरी मां रोने लग गई कि तू इस दु:ख में मेरे पास रह नहीं सकती। मैंने कहा कि सत्संग से वापिस आकर मैं तेरे पास आ जाऊंगी। परन्तु मेरी मां न मानी। मैंने अपने सतगुरु पूजनीय परम पिता जी के आगे अरदास कर दी कि पिता जी, मेरी मां को ठीक कर दो ताकि मैं सत्संग पर आ सकूं। पिता जी ने उसी रात मेरी मां को तंदरुस्त कर दिया तो मेरी मां ने मुझे अपने आप कह दिया कि जा सत्संग पर जा आ। मैं डेरा सच्चा सौदा सरसा सत्संग पर पहुंच गई।

इसके उपरांत मैंने कमेटी डालने का काम शुरू कर दिया। कमेटी की रकम बढ़ती-बढ़ती सोलह हजार रुपये तक पहुंच गई। इसमें से मेरा किराया-भाड़ा तथा खर्चा निकल आता था। मुझे पैसे की कभी कमी न आई। एक बार घरेलू जरूरतों की वजह से मेरा हाथ तंग हो गया। मुझे चिंता हो गई कि अब मैं सत्संग पर कैसे जाऊंगी। उन दिनों में सोलह हजार रुपये की कमेटी थी। रात को पैसे इकट्ठे हो गए। अगले दिन सुबह ही वह पैसे कमेटी उठाने वाले को देने थे। जब मैं वह पैसा कमेटी उठाने वाले को देने के लिए उनके घर जाने लगी तो रास्ते में मुझे मेरे सतगुरु पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की आवाज आई, ‘बेटा! पैसे गिण ला।’ परन्तु मैंने पिता जी की आवाज को अनसुना कर दिया तथा सोचा कि जल्दी-जल्दी पैसे देकर अपना काम निपटा लूं। पूजनीय परम पिता जी ने मुझे झिड़कते हुए गर्म लहजे में कहा, ‘तैनूं केहा पैसे गिणला।’ फिर मैं रुक गई तथा वापिस अपने घर आ गई। जब मैंने पैसों की गिनती की तो चार हजार रुपये अधिक थे। मैं वैराग्य मैं आ गई। मैंने पिता जी का लाख-लाख शुक्राना किया जिन्होंने उन पैसों में चार हजार रुपये की बढ़ोतरी कर दी। इस समय मेरी आयु करीब 80 वर्ष है। मेरी जिन्दगी में कभी भी ऐसा समय नहीं आया जब मेरे सतगुरु कुल मालिक ने मेरी जरूरत को पूरा न किया हो।

जैसे कि किसी महात्मा का कथन है:-

पूरा दाता जिहनां नूं मिलेआ,
उहनां नूं होर मंगण दी लोड़ नहीं दर दर ते जाणा मुक गेआ, इक्को दी है लोड़ रही।
मित्र बणेआ सतगुरु जिस दा,
उसनूं कोई थोड़ नहीं।
जो कुझ दर ते जा के मंगदा,
उह खाली दिन्दा मोड़ नहीं।

मेरे बच्चे भी परमार्थी कार्यांे में मेरा साथ देते हैं और सतगुरु उन मेें बस कर भी मेरी हर तरह से मदद करता है। मैं अपने सतगुरु की रहमतों और अहसानों का बदला कभी भी तथा कैसे भी नहीं चुका सकती। बस धन्य-धन्य ही करती हूं। अब मेरी अपने सतगुुरु परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के स्वरूप पूज्य हजूर पिताजी के चरणों में यही विनती है कि मेरी ओड़ निभा देना जी।

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