अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है :
पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां फरमाते हैं कि आत्मविश्वास, आत्मबल सफलता की कूंजी है। जब व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास की कमी होती है, तो वह निराश, हताश व दु:खी रहता है, जबकि आत्मविश्वास के सहारे कठिन से कठिन कार्य को भी आसानी से किया जा सकता है। और यह आत्मविश्वास सिर्फ और सिर्फ भगवान के नाम का जाप करने से, गुरुमंत्र का लगातार सुमिरन करने से आता है।
जब मैं यह लिखने बैठा हूं तब एक कहावत याद आई, ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता!’ अक्सर जब परिवर्तन को हवा देने की बात आती है, तब निराशावादी मन यह कह उठता है, ‘क्या करें!’ पूरे कुंए में भांग पड़ी है! कोई एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।’ मेरा मन कहता है कि चलो भाई कि एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, पर क्या एक हजार चने भी कभी भाड़ को फोड़ सकते हैं? चने तो चने हैं! वे कितने ही हों, भाड़ को नहीं फोड़ सकेंगे।
एक शेर को जब एक गीदड़ नहीं मार सकता तो हजार गीदड़ भी नहीं मार सकेंगे क्योंकि तथ्य केवल भीड़ का नहीं है, मनोबल का है, संकल्पशक्ति का है। राजा को सिपाही भी मार सकता है बशर्ते मनोबल ऊंचा हो! चाणक्य ने जब चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्राट बनाया तो ऊंचा मनोबल ही काम आया! चने भाड़ को फोड़ा नहीं करते! चने तो भाड़ में फूटा करते हैं।
समाज में जितने भी समाजद्रोही तत्व हैं, वे अपने ‘आत्मबल’ से ही अपना आतंक जमाते आए हैं और पकड़े जाते हैं तो उनका आत्मबल टूट जाता है। पुलिस विभाग के कर्मचारी व अधिकारी उन पर हंसकर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि उनका आतंक कैसे रहा! ये तो साधारण से भी गए बीते आदमी हैं!
इसलिए राष्टÑपिता महात्मा गांधी के इन शब्दों पर विचार कीजिए, ‘भय केवल हमारी कल्पना की उपज है। धन, परिवार और शरीर का मोह तज दो, फिर देखो, भय कहां रहता है!’ स्वामी विवेकानन्द ने सच कहा है ‘भय से ही दु:ख आते हैं। भय से ही मृत्यु होती है और भय से ही बुराइयां उत्पन्न होती हैं’। वास्तव में भय ही हमारा मनोबल तोड़ देता है।
जब हमारा मनोबल ऊंचा होता है और लक्ष्य स्पष्ट होता है तो हमारे अकेले होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। महात्मा बुद्ध ने जब ज्ञान प्राप्त कर लिया तो वे अकेले थे किंतु आज करोड़ों लोग उनकी पूजा कर रहे हैं! प्रभु यीशु ने जब अपने मत का प्रचार प्रारंभ किया तो वे अकेले थे, उनके अन्तिम समय तक केवल बारह शिष्य हुए और आज देखिए, लगभग पूरे विश्व में उनकी शिक्षाओं का अनुसरण हो रहा है।
और महात्मा गांधी तो व्यक्तिगत सत्याग्रह के जन्मदाता ही थे। यदि हमारा मार्ग यही है और मनोबल ऊंचा है तो सहज ही अन्य व्यक्ति हमारे साथ सहयोगियों के रूप में जुड़ जाते हैं और कारवां आगे बढ़ जाता है।
यही नियम प्रकृति का भी है। आप किसी भी नदी के उश्वम को देख लीजिए। नदी बहुत ही पतली धारा के रूप में निकल कर बहती दिखेगी, लेकिन जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती है, छोटे नाले, छोटी जलधाराएं और अन्य नदियां उसमें अनायास सम्मिलित होती जाती हैं और आगे चलकर वह नदी भी एक महानदी बन जाती है जबकि कोई नदी अपने प्रारंभिक रूप में विराट नहीं होती।
क्या ये नियम महापुरुषों और प्रकृति के ही हैं? उत्तर स्पष्ट है। नहीं, यह नियम प्रत्येक बात के लिए है। आज जो बहुराष्टÑीय कम्पनियां और उद्योग विराट रूप में दिख रहे हैं, ये कभी बहुत छोटे थे। विराट रूप धारण करने के लिए उद्योगशील रहना पड़ा। कई थपेड़े खाने पड़े। अनुभव की लंबी शृंखला इनके साथ जुड़ी, तब जाकर ये आज इस रूप में हैं।
महाकवि गेटे ने सच कहा है, ‘प्रकृति अपनी प्रगति और विकास में रुकना नहीं जानती और अपना अभिशाप प्रत्येक अकर्मण्यता पर लगाती है’, इसलिए प्रत्येक वह युवक जिसके पास आत्मबल है, जिसका लक्ष्य स्पष्ट है और जो कुछ कर गुजरना चाहता है, उसके लिए निराश होने का कोई कारण नहीं हैं।
यदि एक भी व्यक्ति सफलता के इस मार्ग पर चलकर लक्ष्य को प्राप्त कर चुका है तो कोई भी उस रास्ते जा सकता है। अकेला होना निराश होने का कारण नहीं हैं। रास्ता लंबा भले ही हो, दुर्गम भले हो, लेकिन वह लक्ष्य पर पहुंचेगा। रास्ते में साथी मिलेंगे। सहयोग मिलेगा! यह तय है, बस चलते रहने की तैयारी चाहिये।
– सत्यनारायण भटनागर