बहुत कम लोग सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार पाते हैं कि वे संकोची स्वभाव के या शर्मीले हैं। ऐसे स्वभाव वाले व्यक्तियों को अंतर्मुखी भी कहा जाता है। ऐसे व्यक्तियों के लक्षण प्राय: बातचीत के दौरान प्रगट होते हैं जैसे अपना पक्ष रखते हुए झिझकना, घबराना, कांपना, बोलते-बोलते रूक जाना, पसीना आना, शरीर के अंगों को विशिष्ट मुद्रा में हिलाना आदि।
तब भी कभी ऐसे स्वभाव वालों का बातचीत में जिक्र आता है तो कोई न कोई कह ही देता है-अरे वह तो एकदम झेंपू
हैं। संकोची होना या अंतर्मुखी होना मनोविज्ञान की दृष्टि में एक असामान्यता ही है। यहां भी शायद आश्चर्यजनक तथ्य लगेकि दुनिया में जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, भले ही वे चिंतक हों, विचारक हों, वैज्ञानिक हों, नेता हों, दार्शनिक हों, लेखक हों या अभिनेता हों, सत्तर प्रतिशत ऐसे ही स्वभाव के थे। तथ्यात्मक दृष्टि से उनके स्वभाव का यही गुण उन्हें सफलता के उच्च शिखर तक पहुंचा गया क्योंकि उन्होंने अपने स्वभाव की इस कमजोर खूबी को पहचान कर उसका
सदुपयोग ही किया और उसे ऊर्जा की तरह उपयोग किया।
Table of Contents
संकोची या शर्मीले वर्तमान में हेय दृष्टि से देखे जाते हैं
चौंकिये मत, किसी और के नहीं स्वयं के द्वारा विशेषकर युवाओं के साथ यह समस्या व्यापक रूप से निहित है कि वे किसी अजनबी व्यक्ति से तपाक से नहीं मिल पाते, चाहते हुए भी चल रहे वार्तालाप में बराबर का हिस्सा नहीं ले पाते, अधिकारी, मेहमान या किसी विशिष्ट व्यक्ति के सामने नर्वस हो जाते हैं। ये लक्षण मानव स्वभाव के सामान्य अंग है। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही इन्हें असामान्य कहा जा सकता है। अपने इस स्वभाव से परिचित व्यक्ति स्वयं को हेय समझते हैं। यह एक साधारण बात है। संकोच मानसिक विकास नहीं है। जैसे-जैसे यह भावना पनपती जाती है, समस्या उतनी ही जटिल होती जाती है।
वास्तव में संकोची, शर्मीला या झेंपू होना कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है, न ही व्यक्तित्व व कैरियर के विकास में बाधक
है क्योंकि अभिव्यक्ति की संपूर्णता केवल वार्तालाप में ही निहित नहीं है। फिर भी कई लोग इस गलतफहमी का शिकार
होकर स्वयं को बड़ा नुकसान कर बैठते हैं जबकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि अगर वे चाहते तो इससे बच सकते थे।
ऐसे स्वभाव में परिवर्तन लाना भी बहुत आसान है। अगर आप स्वयं को संकोची प्रवृत्ति का महसूस करते हैं तो सबसे
पहले इसे कुंठा के रूप में न पालते हुए पूरे आत्मविश्वास से हमेशा दोहराते रहिये, ‘हां मैं झेंपू हूं। पूरे समय स्वयं को गंभीर प्रवृत्ति का न समझिये। सार्वजनिक क्षेत्रों में सक्रियता संकोच को जड़ सहित उखाड़ने का मूल मंत्र है।
अगर बातचीत के दौरान कोई आपके इस स्वभाव पर कोई टिप्पणी करता है तो उन्मुक्तता के साथ यह कह कर स्वतंत्र हो जाइये। हां मैं ऐसा ही हूं। ऐसा कहते समय इस बात की चिंता न करें कि सामने वाला आपकी इस बात को किस रूप में ले रहा है।
यकीन मानिये निश्चित ही वह आपकी स्पष्टवादिता का कायल हो जायेगा और संभवत
यह भी सोचें कि आप मजाक कर रहे हैं क्योंकि अगर आप ऐसे होते तो स्वयं को ऐसा व्यक्त नहीं करते।
वार्तालाप या बहस में पूर्वाग्रह न रखें बल्कि यही सोचें कि आपका बोलना बहुत महत्वपूर्ण या आवश्यक नहीं है, लेकिन आप इसे समस्या समझ बैठे हैं तो हां या न से वार्तालाप में हिस्सा लें और किसी एक पक्ष का समर्थन करने लगें, संवाद की स्थिति में अपने आप दो पक्ष बन जाते हैं। जिस पक्ष पर आप खुद को ज्यादा जानकार समझें, उसी की तरफदारी करें।
थोड़ी देर में आप बहस में बराबरी के हिस्सेदार हो जायेगे और आपको पता भी नहीं चलेगा और जब लगेगा तो आपके आत्मविश्वास में वृद्धि ही होगी। इसके लिये आप एकांत में भी अभ्यास कर सकते हैं।
यह बात भी हमेशा जेहन में रखें कि किसी भी हालत में सब का ध्यान आपकी तरफ नहीं है। यह भ्रम न पालें कि आसपास मौजूद सब लोग केवल आपके झेंपूपन को देख रहे हैं। वास्तव में ऐसा है नहीं। धीरे-धीरे स्वभाव में परिवर्तन लाइये। नये व्यक्ति से पूरे आत्मविश्वास से मिलिये। जीवन में सक्रि यता लाइये। कुछ ही दिनों में आप विकराल सी लगने वाली इस छोटी सी समस्या से निजात पा जायेंगे और शायद कहेंगे, ‘मैं भी कभी शर्मीला था’। -भारत भूषण श्रीवास्तव
सच्ची शिक्षा हिंदी मैगज़ीन से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook, Twitter, Google+, LinkedIn और Instagram, YouTube पर फॉलो करें।