जैसा अन्न वैसा मन
बेपरवाह शाह मस्ताना जी महाराज फरमाया करते कि हक हलाल, मेहनत की करके खाओ। शहनशाह जी खुद भी कड़ा परिश्रम करते।
कई बार सेवादार लंगर घर में लंगर आदि पकाने के लिए सूखा गोबर, लकड़ियां वगैरह इकट्ठी करते तो अगर शहनशाह जी पास होते तो अपना हिस्सा भी जरूर डालते और कहते कि असीं अपना हिस्सा डाल दिया है। आप जी अकसर दिन-रात पास खड़े होकर परिश्रम करवाते।
एक बार शाह मस्ताना जी महाराज रूहानी मजलिस के दौरान आश्रम में साध-संगत में विराजमान थे। उपस्थित साध-संगत अपनी-अपनी शंकाएं अपने मुर्शिद के चरणों में रखकर उनका निवारण करवा रही थी। एक व्यक्ति ने आप जी से पूछा कि किसी से कुछ लेकर खाने से नुक्सान तो नहीं होता? बेपरवाह जी ने उसे समझाया कि जैसे बाजे(ग्रामोफोन) के रिकार्ड होते हैं। उस पर जैसी रिकार्डिंग होती है वह वैसे ही बजता है।
उसी प्रकार जो जैसा खाता है वह वैसा ही बोलता है। अगर कोई भजन-सुमिरन में ध्यान लगाने वाला सत्संगी बहुत प्रेम और लगन से किसी को कुछ खिला दे तो खाने वाले में भी भजन-सुमिरन करने का ख्याल उत्पन्न हो जाएगा। उसके अन्दर भजन का असर बैठ जाता है। यह तो ठीक है लेकिन अगर कोई बुराई करने वाले या गलत भावना से ग्रस्त आदमी से कुछ लेकर खाया तो खाने वाले के ख्यालों में भी मैल आ जाती है। जैसा मैला अन्न खाया है, वैसा मैला मन हो गया।