कोरोना वैक्सीन मिथकों से बचें
‘‘कम समय में बनी वैक्सीन, लेकिन सुरक्षित है, कोई इफेक्ट्स नहीं है।’’ – डॉ. चारु गोयल सचदेवा,
एचओडी व कंसल्टेंट, इंटरनल मेडिसिन, मणिपाल हॉस्पिटल्स, नई दिल्ली
भारत में 16 जनवरी से कोरोना के खिलाफ वैक्सीनेशन का महाअभियान शुरू हुआ। जैसे-जैसे लोगों को कोरोना वैक्सीन लग रही हैं, सभी के मन में सवाल हैं कि आखिर ये वैक्सीन उन्हें कब तक सुरक्षा देंगी? क्या ये वैक्सीन नए-नए तरह के कोरोना यानी कोरोना वायरस के नए वैरिएंट्स के खिलाफ कारगर होंगी? दुनिया के साइंटिस्ट इनके जवाब जानने में जुटे हैं। एक्सपर्ट्स का मानना है कि भविष्य में ऐसा वैरिएंट भी आ सकता है जो मौजूदा वैक्सींस के असर को काफी कमजोर कर दे। को-विन पोर्टल के अनुसार 14 जून तक कुल 25 करोड़ 14 लाख से ज्यादा लोग वैक्सीन लगवा चुके थे।
इसमें 20 करोड़ 44 लाख लोगों को पहली डोज व 4 करोड़Þ 70 लाख लोगों को दूसरी डोज लग चुकी थी। इनमें 11 करोड़ 3 लाख पुरुष हैं, 9 करोड़ 40 लाख महिलाएं हैं। लेकिन बच्चों के लिए वैक्सीनेशन शुरू नहीं हुआ है। हालांकि ट्रायल जारी हैं। सवाल उठ रहे हैं कि क्या अभी बच्चों को वैक्सीन लगाई जानी चाहिए या ये जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। अभिभावक इसको लेकर कंफ्यूज हैं। ऐसे में ये जरूरी हो गया है कि वैक्सीनेशन से जुड़े कुछ अहम सवालों के जवाब दिए जाएं।
भारत में कैसे होता है बच्चों पर कोरोना वैक्सीन का ट्रायल?
ड्रग कंट्रोलर जनरल आॅफ इंडिया यानी डीसीजीआई ने वैक्सीन को बच्चों पर ट्रायल करने की मंजूरी दी है। इसमें दो साल से 18 साल के बच्चे शामिल होंगे। ट्रायल में 2 से 18 साल के 515 बच्चे भागीदारी लेंगे। बच्चों में वैक्सीनेशन को दो चरणों में बांटा गया है। पहले चरण में बच्चों को अलग-अलग डोज दिया जाएगा।
इसके 28 दिन बाद दूसरा डोज दिया जाएगा। वैक्सीनेशन के बाद बच्चों के स्वास्थ्य की लगातार निगरानी की जाएगी। यह हू-ब-हू वयस्कों पर किए जा रहे ट्रायल की तरह ही है, लेकिन इसमें वैक्सीनेशन का दूसरा भाग अहम हो जाता है। बच्चों का सुपरविजन और एक्स्ट्रा केयर करनी पड़ती है। हर बच्चे का अपना इम्यून सिस्टम होता है, ऐसे में कोई ड्रग बच्चों पर कैसे रिएक्ट कर रही है, उसका ध्यान रखना बेहद जरूरी है। इसलिए बच्चों के स्वास्थ्य की कम से कम 6 से 8 महीने निगरानी की जाएगी। इसके बाद ही ट्रायल को पूरा माना जाएगा।
अमेरिका ने अपनी 38% वयस्क आबादी को वैक्सीनेट करने के बाद मास्क की अनिवार्यता खत्म कर दी है। ब्रिटेन में 75% वयस्क आबादी को कम से कम एक डोज लग चुका है। वहीं, इजराइल ने तो अपनी 60% वयस्क आबादी को पूरी तरह से वैक्सीनेट कर लिया है। इन देशों में धीरे-धीरे परिस्थितियां पहले जैसी हो रही हैं या हो चुकी हैं। इसके मुकाबले भारत में 13% आबादी को कम से कम एक डोज लग चुका है।
यह बातें इसलिए कि भारत में वैक्सीनेशन की रफ्तार कम है। वैक्सीन डोज की उपलब्धता एक समस्या है, जिनका हल सरकारें निकाल रही हैं। पर कई भ्रांतियां और मिथक भी हैं जो लोगों को वैक्सीन उपलब्ध होने के बाद भी उससे दूर रखे हुए हैं। दुनियाभर के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोना वायरस के खिलाफ कोई शर्तिया इलाज नहीं है। लक्षणों के आधार पर इलाज किया जा रहा है और भारत ने दूसरी लहर में 1.5 लाख से अधिक मौतें आधिकारिक तौर पर देखी हैं। इसे देखते हुए वैक्सीनेशन ही एकमात्र उम्मीद की किरण है।
वैक्सीन शरीर को वायरस को पहचानने और उसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने में मदद करती है। बेहद जरूरी है कि जब भी उपलब्ध हों, वैक्सीन का डोज अवश्य लें। वैक्सीनेशन से जुड़े कुछ मिथक और शंकाएं हैं जो लोगों को वैक्सीन लगाने से रोक रही हैं।
हम ऐसे ही मिथकों से जुड़ी सच्चाई को आपके सामने विशेषज्ञ चिकित्सक के माध्यम से साझा कर रहे और उन लोगों से शेयर करें जो किसी मिथक या शंका की वजह से वैक्सीन से दूरी बना रहे हैं।
मिथक :
वैक्सीन बहुत कम समय में बनी हैं। इस वजह से यह सुरक्षित नहीं है।
हकीकत:
यह बात सच है कि वैक्सीन एक साल से भी कम समय में विकसित हुई हैं। इससे पहले मम्स की वैक्सीन चार साल में तैयार हुई थी और वह सबसे कम समय में विकसित वैक्सीन थी। यह देखें तो कोविड-19 वैक्सीन तो रिकॉर्ड टाइम में विकसित हुई है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि वैक्सीन सुरक्षित नहीं है। किसी भी वैक्सीन को अप्रूवल देने में नियमों का सख्ती से पालन हुआ है। हां, प्रोसेस जरूर फास्ट ट्रैक रहा है।
पर सभी आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन किया गया है। वैज्ञानिकों ने 24 घंटे काम कर सुनिश्चित किया है कि यह वैक्सीन सबके लिए सुरक्षित रहे। दरअसल, डब्ल्यूएचओ से लेकर हर देश के रेगुलेटर ने सख्त रेगुलेशन का पालन किया है। लैबोरेटरी में इन वैक्सीन को जांचा गया। फिर इंसानों पर उसके ट्रायल्स हुए। उसमें मिले नतीजों के आधार पर उनकी इफेक्टिवनेस तय हुई है। यह कहना पूरी तरह गलत है कि वैक्सीन असुरक्षित है। रेगुलेटर्स ने सुरक्षा और एफिकेसी जैसे पहलुओं पर डेटा स्टडी करने के बाद ही उन्हें अप्रूवल दिया है।
मिथक:
वैक्सीन के गंभीर साइड इफेक्ट्स हैं।
हकीकत:
यह सच नहीं है। भारत की ही बात करें तो एडवर्स इवेंट्स सिर्फ 0.013% रहे है। यानी दस लाख में केवल 130 लोगों में साइड इफेक्ट्स देखने को मिले हैं। यानी नहीं के बराबर। इंजेक्शन लगाने वाली जगह पर दर्द, सूजन, बुखार जैसे साइड इफेक्ट्स जरूर हो सकते हैं। यह लक्षण एक से दो दिन में खुद-ब-खुद ठीक भी हो जाते हैं। इस वजह से वैक्सीन से मिलने वाले फायदों के मुकाबले साइड इफेक्ट्स कुछ भी नहीं हैं। इसे लेकर चिंतित होने की जरूरत कतई नहीं है।
मिथक:
वैक्सीन की वजह से विकसित होने वाली इम्यूनिटी शराब पीने से कमजोर होती है।
हकीकत:
यह सरासर गलत दावा है। वैक्सीन और शराब का कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग बहुत ज्यादा शराब पीते हैं, उनके शरीर में इम्यूनिटी कमजोर हो सकती है। बहुत ज्यादा शराब पीने से लिवर, दिल के रोग होने का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में डॉक्टर इससे बचने की सलाह दे रहे हैं। शराब और वैक्सीन को लेकर विवाद रूस से शुरू हुआ था। वहां के नेताओं ने कहा था कि वैक्सीन लेने वालों को कम से कम दो-तीन महीने शराब नहीं पीना है। इसके बाद कई लोगों ने वैक्सीन को लेकर हिचक दिखाई। जांच से कुछ भी साबित नहीं हुआ है।
मिथक:
जिन महिलाओं के पीरियड्स चल रहे हैं, उनकी इम्यूनिटी को वैक्सीन कमजोर करती है।
हकीकत:
यह सरासर गलत है। महिलाओं के पीरियड्स का वैक्सीन की इफेक्टिवनेस से कोई लेना-देना नहीं है। प्रेग्नेंट महिलाओं को भी वैक्सीन लग रही है। ऐसे में यह भ्रम है कि पीरियड्स में वैक्सीन डोज लेने से इम्यूनिटी कमजोर होती है।
मिथक:
यदि किसी को कोविड-19 इन्फेक्शन हो चुका है तो उसे वैक्सीन लगवाने की जरूरत नहीं है।
हकीकत:
एंटीबॉडी विकसित करने के दो तरीके हैं- कोविड-19 इन्फेक्शन और वैक्सीन। जिन्हें इन्फेक्शन हुआ है, उनके शरीर में एंटीबॉडी बनी होगी। पर यह कितने दिन टिकेगी, हर व्यक्ति पर निर्भर करता है। पर रीइन्फेक्शन का खतरा भी है। इस वजह से भारत सरकार ने सलाह दी है कि इन्फेक्शन होने के तीन महीने बाद वैक्सीन का डोज लिया जा सकता है। सरकार ने बुजुर्गों के साथ ही उन लोगों को भी प्रायोरिटी ग्रुप में रखा था, जिन्हें डायबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर जैसी बीमारियां हैं। कोरोना से इन्हें सबसे ज्यादा खतरा है, इस वजह से इन्हें वैक्सीन लगवाना सबसे अधिक जरूरी है।
मिथक:
डायबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर, हार्ट डिजीज, कैंसर से पीड़ित लोग वैक्सीन लगने के बाद कमजोर हो सकते हैं।
हकीकत:
यह एक ऐसा ग्रुप है, जिसे भारत सरकार ने प्रायोरिटी ग्रुप में रखकर वैक्सीनेट किया था। इन लोगों को इन्फेक्शन होने पर गंभीर लक्षण होने की आशंका बढ़ जाती है। इस वजह से सलाह दी जाती है कि इस संवेदनशील ग्रुप को जब भी उपलब्ध हो कोविड वैक्सीन लगवा लेनी चाहिए। यह उन्हें इन्फेक्शन के गंभीर लक्षणों से सुरक्षित रखेगी।
मिथक:
कोविड वैक्सीन वैरिएंट्स पर इफेक्टिव नहीं है।
हकीकत:
यह सच नहीं है। वैरिएंट्स पर भी वैक्सीन इफेक्टिव है। पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड की एक स्टडी के मुताबिक कोवीशील्ड और फाइजर वैक्सीन के दोनों डोज लगे हैं तो वे वैरिएंट्स से बचाने में काफी हद तक सफल रहे हैं। कोवैक्सिन के संबंध में भी दावा किया जा रहा है कि यह यूके, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीकी वैरिएंट के साथ ही भारत में मिले डबल म्यूटेंट स्ट्रेन से प्रोटेक्शन देती है।
मिथक:
बच्चों को दूध पिला रही महिलाओं को वैक्सीन नहीं लगानी चाहिए क्योंकि यह उनकी इम्यूनिटी को कमजोर कर सकती है। साथ ही बच्चे को भी नुकसान पहुंचा सकती है।
हकीकत:
शुरूआत में बच्चों को दूध पिला रही महिलाओं को वैक्सीनेशन से बाहर रखा गया था। पर स्टडीज के बाद यह साबित हो चुका है कि वैक्सीन उनके और नवजात बच्चों के लिए सुरक्षित है। डिलीवरी के तत्काल बाद वैक्सीन लगवाने से न केवल मां सुरक्षित होती है बल्कि उसका दूध पीकर एंटीबॉडी बच्चे तक भी पहुंचती है। यह बच्चों को भी कोविड इन्फेक्शन से प्रोटेक्शन देती है।
मिथक:
एमआरएनए वैक्सीन आपके शरीर में कोशिकाओं में मौजूद डीएनए को अलर्ट करते हैं। यह जेनेटिक कोड में बदलाव करते हैं।
हकीकत:
यह दावा पूरी तरह से गलत है। एमआरएनए वैक्सीन कोशिका में जाती है। न्यूक्लियस में जाकर डीएनए में बदलाव नहीं करती। वैक्सीन से दिया गया डोज स्पाइक प्रोटीन की तरह बर्ताव करता है और शरीर वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बनाता है। इस समय फाइजर और मॉडर्ना की एमआरएनए वैक्सीन की इफेक्टिवनेस सभी अन्य वैक्सीन के मुकाबले अच्छी पाई गई है। अमेरिका समेत पूरी दुनियाभर में एमआरएनए वैक्सीन का इस्तेमाल हो रहा है।