चढ़ा बसंती खुमार -बसंत पंचमी (5 फरवरी)
न ठंडी, न गर्म, न चुभने वाली, न डराने वाली! बसंत की हवाएं तो बस सुहानी होती हैं। पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने, घूमने-फिरने, शादी-ब्याह आदि हर लिहाज से इस ऋतु को अच्छा माना जाता है।
तो क्यों न आप भी रंग जाएं इस ऋतु के अनूठे रंग में और सीखें जीवन जीने की नई कला! एक बार फिर से बसंती मौसम आ गया है। इस मौसम में जहां एक ओर पीले-पीले सरसों के फूल, पक्षियों की चहचाहट, हर तरह के फूलों से सराबोर प्राकृतिक सुंदरता अपनी अनूठी छटा बिखेरती है, वहीं फैशन डिजाइनर भी इस ऋतु को सेलिब्रेट करने के लिए अपना नया कलेक्शन लांच करते हैं। पंजाब और हरियाणा में बसंत पंचमी का अपना ही महत्व है। सेहत बनाने (स्वास्थ्य-सुधार) के लिहाज से भी ये मौसम सबसे अच्छा है।
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कुल मिलाकर हर तरफ बस बसंत के स्वागत का माहौल होता है तो ऐसे में भला आप अछूते क्यों रहें।
प्रकृति का अनूठा रंग:
कडकड़ाती ठंड के अंतिम पड़ाव के रूप में बसंत ऋतु का आगमन प्रकृति को बासंती रंग से सराबोर कर जाता है। पीले-पीले सरसों के फूल, पक्षियों की चहचाहट और खुशनुमा माहौलवाली बसंती बयार अपने साथ कई बदलावों को लेकर आती है। एक तरफ जहां जीवों के खान-पान और व्यवहार में बदलाव होते हैं, वहीं डालियां भी फूलों के वजन से झुकी हुई नजर आती हैं। अंगारों की तरह दिखते पलाश के फूल, आम के पेड़ों पर आए बौर, हरियाली से ढंकी धरती और गुलाबी ठंड के इस ऋतु का हिंदू धर्म में बहुत महत्व है। माघ के महीने की पंचमी को बसंत पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है। मौसम का सुहाना होना इस मौके को और रूमानी बना देता है।
फूलों वाली बात:
बसंत का आमतौर पर मतलब ही प्राकृतिक सुंदरता और पीले रंगों की अनूठी छटा से है। फूलों के लिए ये सबसे बेहतर मौसम है। इसमें अधिकतम फ्लॉवरिंग होती है। इस समय इस प्रक्रिया को बसंतीकरण भी कहते हैं। इस मौसम में कई पौधे होते हैं जो अपने चरम पर होते हैं। इनमें सरसों, हजारे, खट्टी- बुट्टी समेत 50 से ज्यादा ऐसे फ्लॉवर्स हैं जो इसी मौसम में खिलते हैं। इसका कारण है कि दिन बड़े होने लगते हैं जिस वजह से पौधों को सूरज की रोशनी ज्यादा देर के लिए मिलती है। ये उनकी ग्रोथ के लिए फायदेमंद होती है। सर्दी के मौसम में पौधों में अधिकतम वेजिटेशन होती है जिसमें वे लो टेम्प्रेचर में ग्रोथ करते हैं। बसंत आने तक उनमें अच्छे खासे फूल आ जाते हैं, जिससे चारों ओर प्रकृति में सुंदरता दिखाई देती है। कुल मिलाकर वनस्पति शास्त्र में इस मौसम की काफी अहमियत है। तो आओ आप भी सजाईए अपने घर को फूलों से।
पीली रोशनी का समंंदर:
अनंत तक फैले सरसों के खेतों के बीच खड़े होकर देखें तो लगता है कुदरत ने सारा बसंत ही इन बासंती फूलों के नाम लिख दिया है! रेल या बस से सफर करने पर रसिक मन को दाएं-बाएं एक साथ दृष्टि दौड़ानी पड़ती है, कहीं कोई सरसों का दृश्य देखने से नहीं रह जाए! सरसों के मार्फत बसंत का अविर्भाव कुछ इस तरह होने लगता है और कुछ ही दिनों में ये नन्हे सुकोमल फूल सारा बसंत अपने नाम कर लेते हैं धूप में पीले, रूपहले पीले की मौलिकता लिए।
बुरांश और फ्यूंली के साथ बसंत:
मैदानी इलाकों में जहां सरसों बसंत को विस्तार देती है, वहीं कुमाऊं और गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्रों में फ्यूंली और बुरांस बसंत के आगमन की सूचना देते हैं। बसंती रंग के पांच पंखुड़ियों वाले फ्यूंली को लोक-कवियों ने ‘बसंतदूती’ नाम दिया है। देहरादून के आस-पास इसे ‘वसंती’ कहते हैं। पंजाब में ये ‘बाल-बसंत’ के नाम से जाना जाता है। चैत्र के महीने में कांडियों में फ्यूंली के फूल भरकर गांव के हर घर की दहलीज पर रखे जाते हैं और इस तरह सभी दहलीजें देवालयों में तब्दील हो जाती हैं। कुछ ऐसी ही लोक- परंपराएं बुरांस के फूलों के साथ भी जुड़ी हैं। गढ़वाल और कुमाऊं में बुरांस की प्रशंसा में अनेक गीत गाए जाते हैं। बसंत आने पर बांस की रंगीन टोकरियों में बुरांस के लाल चटकीले फूल रखे जाते हैं। अपने नन्हें हाथों में बच्चे बुरांस की टोकरियां लिए घर-घर जाकर ‘फूल देही’ ‘फूल देही’ के स्वर से पूरे मोहल्ले को गुंजा देते हैं। घरों के प्रवेश-द्वार पर बुरांस के फूल रखे जाते हैं और फिर वहां से ये मंदिरों में रख दिए जाते हैं।
जंगल की शोभा पलाश:
बसंत के मौसम में यदि जंगल की ओर जाना हो तो नारंगी-लाल रंग के पलाश के फूल आंखों को तृप्त कर देते हैं। वनों में बसंत के मुख्य अतिथि पलाश के फूल ही होते हैं। दूर से ही समूचा जंगल आग की लपटों की तरह धधकता दिखाई देता है। इसीलिए अंग्रेजी में पलाश को ‘फ्लेम आॅफ द फॉरेस्ट’ कहा जाता है और संस्कृत का सर्वाधिक साहित्यिक और दिलचस्प नाम है ‘किंशुक’। इसके फूलों की आकृति तोते की चोंच के समान होने के कारण ‘किंशुक’ नाम पड़ा। ‘किं’ यानी ‘क्या’ तथा ‘शुक’ अर्थात ‘तोता’। अर्थ हुआ- ‘क्या तोता है!’ हिंदी में इसके टेसू और ढाक अन्य प्रचलित नाम हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि सिराजुदौला और क्लाइव के बीच हुए निर्णायक युद्ध की स्थली प्लासी, पलाश का ही अपभ्रंश है। कभी इस स्थान पर ढेरों पलाश के पेड़ हुआ करते थे।
सीखें जीवन जीने की कला:
प्रकृति का हर परिवर्तन मनुष्य के जीवन में भी कुछ परिवर्तन अवश्य ही लाता है। बसंत भी हमें जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और उत्साह का संदेश देता है। जब भी प्रकृति अपना स्वरूप बदलती है तो ये संकेत करती है कि समय के साथ बदलाव जरूरी है। पतझड़ के बाद बसंत ऋतु का आगमन भी इसी का प्रतीक है। बसंत ऋतु में भी जीवन प्रबंधन के कई सूत्र छिपे हैं। हमें जरुरत है उन सूत्रों को समझने की। पतझड़ में पेड़ों से पुराने पत्तों का गिरना और इसके बाद नए पत्तों का आना जीवन में सकारात्मक भाव, ऊर्जा, आशा और विश्वास जगाता है।
बसंत ऋतु फूलों के खिलने का मौसम है जो हमें हमेशा मुस्कुराने का संदेश देता है। बसंत को शृंगार की ऋतु भी माना गया है। जो व्यक्ति को व्यवस्थित तथा सजे-धजे रहने की सीख देती है। बसंत का रंग बसंती (केसरिया) होता है। जो त्याग का, विजय का रंग है। ये हमें बताता है कि हम अपने विकारों का त्याग करें एवं कमजोरियों पर विजय पाएं। बसंत में सूर्य उत्तरायण होता है, जो संदेश देता है कि सूर्य की भांति हम भी प्रखर और गंभीर बनें।
बसंत को ऋतुओं का राजा भी कहा गया है क्योंकि बसंत ऋतु में उर्वरा शक्ति यानि उत्पादन क्षमता अन्य ऋतु की अपेक्षा बढ़ जाती है।
सेहत का ख्याल:
डॉयटिशियन नीलांजना सिंह कहती हैं कि सर्दियों में आमतौर पर हमारा खान-पान काफी हैवी हो जाता है, इसलिए बसंत शुरू होते ही हमें खानपान हल्का कर देना चाहिए। बसंत से लेकर गर्मियों तक हमें अपने खानपान में तरल पदार्र्थो को10 से 15 प्रतिशत तक बढ़ा देना चाहिए।
सर्दियों की वजह से कुछ लोग दही नहीं ले पाते, लेकिन बसंत में आप इसे आसानी से ले सकते हैं। इस समय पपीता, अमरूद, केला और चीकू जैसे फल और मूली, गाजर, शक्करकंदी, मटर और हरे पत्ते वाली सब्जियों को अपने खानपान का हिस्सा बनाना चाहिए। मौसम बदलने के साथ बीमारी का खतरा भी बढ़ जाता है, इस वजह से हमें ज्यादा तेल, चिकनाई और मसाले वाले खाद्य पदार्थ नहीं लेने चाहिए। आंवला, संतरा जैसे फल ज्यादा से ज्यादा लें।’
-नीलम शुक्ला