Fight with 'I' before others

औरों से पहले ‘मैं’ से जंग

दूसरों से जंग करनी बहुत आसान है। जब स्वयं से जंग करनी पड़ती है, तब सारी हिम्मत धरी की धरी रह जाती है। भारतीय संस्कृति में निस्वार्थ कर्म को सर्वोपरि बताया गया है। लेकिन आज जब हमें अपनी संस्कृति का ही ज्ञान नहीं तो उसकी सीखें तो दूर की ही कौड़ी रहेंगी।

धार्मिक स्थल लाइन हो या चौराहे का सिग्नल, हम हर जगह आगे रहना चाहते हैं। यदि कोई हमसे आगे पहुँच जाए, तो उसे देखकर ईर्ष्या होने लगती है। हर चीज में मैं या मेरा सबसे पहले आता है। अपनी आवश्यकताएं पूरी करना भी जरूरी है। लेकिन यही हितपूर्ति स्वार्थ में कब तब्दील हो जाती है तथा इनके बीच कौन सा महीन फर्क है, उसे समझना जरूरी हैं।

हर व्यक्ति को गुजर बसर करने के लिए भौतिक चीजों की आवश्यकता होती है, लेकिन वहीं दूसरी ओर भौतिकता कभी खुशी नहीं दे सकती। साधू को भी एक छत, दो वक्त का खाना और बीमार होने पर इलाज की आवश्यकता होती है। व्यक्ति यदि सांसारिक है, तो इनके बिना उसका दिमाग भी नहीं चलेगा।

यह हितों की पूर्ति है, लेकिन वहीं आवश्यकता से अधिक संग्रह करने लगे तो यह उसका स्वार्थ है। आपके पास चार मकान हैं, दस गाड़ियां हैं, अथाह धन है, तो इसका अर्थ है कि कई लोगों को मुहैया हो सकने वाली सुविधाएं बन आपके पास जुट गयीं हैं।

हमारे भीतर होती है शुरूआत:

मान लीजिये, पहले के जमाने में कोई व्यापारी था। न ठीक से खाया, न ठीक से रहा। लेकिन धन और वस्तुओं को जमा करने लगा। पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे चलता रहा। ऐसे इसकी शुरूआत हुई। यह मानवीय प्रवृति है। हर व्यक्ति यह चाहता है कि जीवन में आराम हो, अच्छा मकान हो, विलासिता हो, यह सब चीजें हमारे सामजिक वातावरण से आती हैं। सभी में यह भावना प्रबल होती है कि जब मैं ज्यादा से ज्यादा ले सकता हूँ, तो क्यों न लूँ।

सक्षम लोगों में तो यह प्रवृति अधिक प्रबल रहती है।
क्योंकि केवल अपना ही हित्त देखना स्वार्थ है। हर व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता है लेकिन समाज का उत्थान साथ में आगे बढ़ने से ही होगा।

हित्त और स्वार्थ में भेद:

जरूरतों की पूर्ति करना व्यक्तिगत हित है। विकास के लिए, प्रगति के लिए, जीवन में आगे बढ़ने के लिए, इनकी पूर्ति करना स्वार्थ नहीं है। लेकिन यदि हितों की नींव किसी का हक मारकर, अहित करके खड़ी की गयी है तो यह स्वार्थ है। पेट भरा होने पर भी व्यक्ति खाता है लेकिन वहीं दूसरा भूखा रहता है। यह न्याय नहीं है। अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब बनता जा रहा है।

भौतिकता का अनंत मोह है ‘मैं’:

भारतीय संस्कृति में सूक्ष्म बात पर अधिक जोर दिया गया है। जो मिला वह ठीक, सब पिछले जन्मों का फल है, जो भाग्य में होगा वही मिलेगा। इसका मर्म समझे बिना पालन करने से व्यक्ति निष्क्रिय हो जाएगा, कोई नयी शुरूआत नहीं होगी। हित्तों की पूर्ति करना, समाज के लिए बेहतर है, बशर्ते वह सकारात्मक ढंग से हो। वहीं जरूरत से ज्यादा का मोह रखना, किसी का अहित कर, रिश्वत खा कर अपने हितों को साधने से धीरे-धीरे समाज का पतन होने लगता है।

परमार्थ है समानता का मार्ग:

आवश्यकताओं की पूर्ति कम करने या न करने से समानता नहीं आएगी। यह तो आवश्यकतापूर्ति से भागने के समान है। आजादी हमें उन बंधनों से चाहिए जो हमें जकड़े हुए हैं। जो जीवन में रुकावट पैदा करते हैं कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पर। हमें सामजिक और सांस्कृतिक दबाब से आजादी चाहिए। समानता तब मिलेगी जब सामजिक न्याय होगा।

क्या है सामजिक न्याय:

सामजिक न्याय से अर्थ है कि सभी व्यक्ति बराबर हों। कोई ऊंच-नीच न हो। किसी तरह का अंतर उनमें न किया जाए। सभी मनुष्यों को समान अधिकार प्राप्त हों। कोई एक व्यक्ति सक्षम हो तो सभी सक्षम हों। सभी को विकास के लिए, आगे बढ़ने के लिए समान अवसर उपलब्ध हों, आप किसी का हक न मारें, दूसरों का हक उन्हें मिले। तथा उन्हें हक दिलवाने में आप भी सहयोग करें। यह तभी सम्भव है, जब इसकी शुरूआत ‘मैं’ को पीछे छोड़कर की जाए।

क्यों जरूरी है स्वार्थ से आजादी:

ताकि एक बेहतर समाज का निर्माण हो सके। जहां सभी को समान अवसर प्राप्त हों, वहाँ फिर रिश्वतखोरी, जमाखोरी के लिए कोई जगह न हो। हर व्यक्ति अपने हितों की पूर्ति के साथ ही दूसरों के हित का भी भान हो और वह तभी सम्भव है, जब इसकी शुरूआत खुद से हो। क्योंकि यह कोई बाहरी व्यक्ति नहीं या समस्या नहीं है, जिससे जंग लड़कर मुक्त हुआ जा सके। यह तो हमारे भीतर ही है, जिसके लिए ‘मैं’ से दूर रहना जरूरी है।  -शिव प्रकाश गुप्ता

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