संपन्नता दुश्मन है स्वास्थ्य की
संपन्न समाज वह वर्ग है जिसके पास वह सब कुछ है जो मनुष्य के लिए मुमकिन है। उसको क्या चाहिए। जरूरत क्या है उसकी? वह समझौता कर रहा है, हर पग पर संघर्षपूर्ण समझौता जबकि संतुष्टि हृदय की अवस्था है, लाचारी में किया जाने वाला समझौता नहीं।
बड़ी बीमारियों से ग्रसित होने वाले मनुष्यों में 85 प्रतिशत संपन्न वर्ग के लोग होते हैं। तनाव, अनिद्रा से लेकर ब्लड प्रेशर, कैंसर और हार्ट अटैक इसी वर्ग के हिस्से आता है। तमाम बड़ी बीमारियों का नाम भी आम जनता को मालूम नहीं है। संपन्न समुदाय की उम्र भी अनवरत घटती जा रही है। आहार की भांति अनवरत औषधियों का सेवन किया जा रहा है।
हर कोई कमा रहा है-हर कोई खा रहा है। सभी स्वावलंबी-स्वाभिमानी। सभी के पास कोठियां, कारें, नौकर चाकर। बीवी-बच्चों से भरा-पूरा संसार। घर में सभी को दवा चाहिए। हर तीसरा व्यक्ति रक्तचाप का शिकार है। लोग कहते हैं खाने-पीने में मिलावट है। शरीर को कुछ नहीं मिलता। अगर दलील में दम है तो तोंदें बड़ी क्यों हो रही हैं? चेहरा लाल टमाटर क्यों? आखिर क्या वजह है बीमारी व अकाल मृत्यु की।
पहली वजह है अनिद्रा। दिन भर काम और तिकड़मबाजियों में सिर खपता है। रात तक क्लब, पार्टी, टी. वी., उसके बाद कुछ और। बामुश्किल 3-4 घंटे मिलते हैं सोने के लिए और जन्मता है-तनाव। तनाव में रक्तचाप तेजी से बढ़ता है। ये दोनों मिलकर तमाम बीमारियों को जन्म देते हैं।
ब्लड प्रेशर अब 30 के बाद नहीं, 15 के बाद ही शुरू हो जाता है। बच्चे तक अछूते नहीं रहे।
समर्थ समाज में यह खतरनाक रोग इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि पहला दौरा घर में पड़ता है तो दूसरा अस्पताल पहुंचते-पहुंचते। लापरवाही हुई तो ‘तीसरे‘ की नौबत आती है और अब अस्पताल नहीं, श्मशान की राह बचती है।
पैसे के लिए जिंदगी दांव पर लगी है। पांच लाख वाले को पचास चाहिए, पचास लाख वाले को करोड़ चाहिए और करोड़ वाले को करोड़ों। हमारी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और वासनाओं की कोई सीमा नहीं है। पीढ़ियों तक का बंदोबस्त कर लेने को पागल हैं हम।
कल कॉलेज का प्रोफेसर साइकिल चलाता था। आज चपरासी को भी हीरो होन्डा चाहिए, कार चाहिए। डॉक्टर सुबह पैदल चलने की सलाह देगा तो पहले हजार – पांच सौ रूपए के जूते चाहिए। इज्जत का सवाल है। दूध का पैकेट लाना हो,सब्जी लानी हो – नौकर चाहिए या कार-स्कूटर। दावत में जाना है – मंदिर जाना है तो पैदल नहीं जाएंगे।
शरीर के अंग जाम रहेंगे तो जंग लगेगी ही। दूध कोई नहीं लेता। जो लेता है वह उसे बिना पाचक औषधि के पचा नहीं पाता। गैस बन जाती है। पचाने के लिए किंचित दैहिक श्रम की जरूरत पड़ती है। कुछ नहीं तो कम से कम रोज 20 मिनट पैदल चलना चाहिए। आप 100 रूपए रोज कमाएंगे क्योंकि डॉक्टर का बिल नहीं देना पड़ेगा। दो हजार दिन पैदल चलिए और दो लाख बचाकर अगले दो हजार दिन का जीवन भी पाइए।
परदादा को किसी भांति की फिक्र नहीं थी। जो मिलता था, प्यार से खा लेते थे। मेहनत करके कमा लेते थे। किसी तरह का तनाव नहीं लेते थे। परहित या जरूरतमंदों की मदद करके स्वास्थ्यवर्धक ऋण आयन्स व आत्मिक आह्लाद भी प्राप्त किया करते थे। बड़े मजे से 100 पार कर जाते थे।
दादा जी में इच्छाएं बढ़ी। उन्होंने स्वयं में सिमटना शुरू किया और 85 तक आ गए। पिता जी थोड़ा और एकाकी बने, स्पीड तेज की और उम्र घटकर 76 वर्ष तक आ गईं। नई पीढ़ी बिलकुल खुदगर्ज, महज पैसे व भोग-विलास की भूखी, शराबी-कवाबी बनी । बुक होने लगा। स्पीड तीव्रतम होने से दुर्घटनाएं स्वाभाविक बनी।
संयम-संतोष-सहयोग समर्थ समाज की पहली और आखिरी जरूरत है। पैटर्न बदलना होगा। स्वास्थ्य व उम्र के लिए तनिक पीछे लौटकर मानवीय दृष्टिकोण अपनाना होगा। हमारी सारी कसरत, हमारे सारे प्रपंच, समस्त यत्न-हमारी कीमत पर? -नीलम