कम में करें गुजारा, बदलेगा जीवन का नजारा Will save less, change the outlook of life
अगर आप मिनिमलिस्ट बन जाएँ यानी अपनी चाहतें और जरूरतें कम कर लें, अपने वैभव का प्रदर्शन करके दूसरों को इंप्रेस करने का लोभ छोड़ दें तो आप काफी हद तक खुशहाल रह सकते हैं।
आपने इन दिनों कुछ अद्भुत नजारे देखे होंगे। लोगों को बाहर निकलने के लिए जितना भी मना किया जाए, वे मानते नहीं। वे लोग सामान लेने के लिए साग सब्जी के ठेले पर, राशन की दुकानों पर, मेडिकल शाप्स पर इस तरह लाइन लगाकर खड़े हो जाते हैं मानो सब कुछ अभी खत्म हो जाएगा।
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एक मानसिकता है अति संग्रह
अक्सर संपन्न लोगों पर ही ऐसी तोहमत लगाई जाती है कि वे जरूरत से ज्यादा सामान इकट्ठा कर रहे हैं और दूसरों को जरूरी चीजों से वंचित कर रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि बहुत से गरीब तबके के लोगों को भी ऐसा ही करते देखा गया है । जहां से मदद मिली वहीं से ले ले कर वे इतना इकट्ठा कर लेते हैं कि दो-तीन महीने में भी उसे खत्म न कर पाएँ। जाहिर है, यह मामला अमीर गरीब का नहीं बल्कि बुरी आदत का है। ऐसे लोग चाहे जितना सामान इकट्ठा कर लें लेकिन उनके मन की इच्छा पूरी नहीं होती। वहीं दूसरी ओर कई लोग ऐसे होते हैं, जो जरूरत भर की चीजें लाते हैं या फिर मुश्किल हालातों में थोड़ी सी ज्यादा ताकि बार-बार बाहर न निकलना पड़े।
अपनी जरूरत जितना ही काफी
आज दुनिया में लोगों की परेशानी और दुख की सबसे बड़ी वजह न्यूनतम मेहनत से अधिकतम हासिल करने, दूसरों को इंप्रेस करने में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक देने और दूसरों से तुलना करते हुए ईर्ष्या की प्रवृत्ति ही है। कुछ लोग अपने खर्च के लायक आराम से कमा लेते हैं लेकिन वे अपने उस रिश्तेदार, मित्र या पड़ोसी जितना कमाना चाहते हैं जो उनसे अमीर हो। ऐसे में अगर आप मिनिमलिस्ट बन जाएँ यानी अपनी चाहतें और जरूरतें कम कर लें, दूसरों से होड़ करना छोड़ दें और अपने वैभव का प्रदर्शन करके दूसरों को इंप्रेस करने का लोभ छोड़ दें तो आप काफी हद तक प्रसन्नचित्त और खुशहाल रह सकते हैं।
संतोषी सदा सुखी
समाजशास्त्री कहते हैं कि कम में गुजारा करने वाले या संतुष्ट होने वाले यानी मिनिमलिस्ट लोग कम गैजेट्स, कम संपत्ति और कम लग्जरी आइटम से ही खुश रहते हैं। हमारे ऋषि-मुनि, महात्मा गांधी जैसे महापुरुष, जैन धर्म के तीर्थंकर, गौतम बुद्ध, स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस जैसी विभूतियां कम भौतिक सुखों में ही संतोष करने वाली थीं, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने हमारे देश और इस दुनिया को बहुत कुछ दिया और अपने कालखंड के दूसरे लोगों से कहीं ज्यादा आदर पाया।
हमारी भारतीय संस्कृति में कम में गुजारा करना, समय-समय पर उपवास और विशेष समय अवसर विशेष पर अन्न का त्याग, जैन धर्म में अपरिग्रह की सीख दी जाती है। यह न सिर्फ पालन करने वाले व्यक्ति के लिए बल्कि संपूर्ण मानव समाज के लिए लाभदायक प्रवृत्ति है। कम में काम चलाने की प्रवृत्ति आत्म संतुष्टि और खुशहाली का सबब बनती है। इससे अन्न, वस्त्र एवं अन्य संसाधनों की बर्बादी से भी बचाव होता है।
सुकून से जिएँ और जीने दें
संतोष न रखने व दूसरों से होड़ करने वाले पेरेंट्स अक्सर अपने बच्चों को भी दुखी और परेशान कर देते हैं। माना कि बच्चों को प्रतिद्वंद्विता के इस युग में चतुर, चालाक और बुद्धिमान होना चाहिए। पढ़ाई लिखाई या प्रोफेशनल फ्रंट पर अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए लेकिन पेरेंट्स द्वारा सर्वश्रेष्ठ होने का दबाव उन्हें सिर्फ तनाव, अवसाद और कुढ़न ही देता है। पेरेंट्स को समझना चाहिए कि हर कोई सर्वश्रेष्ठ कभी नहीं हो सकता,
इसलिए बच्चों को अनावश्यक तनाव न दें और उन्हें भी अपनी जिंदगी, मस्ती और सुकून से जीने दें और आप खुद भी मस्ती से जिएँ। वैसे भी अपने वर्तमान को बेवजह कष्टदायक बनाकर भविष्य को आनंददायक बनाना वैसा ही माना जाता है जैसे गोद के बच्चे को अपेक्षित छोड़कर पेट के बच्चे को लाड़ लड़ाना। -शिखर चंद जैन
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