गेहूँ फसल को पीलेपन से बचाने में कारगर है यह छिड़काव
सभी फसलों की भांति गेहूँ को भी अधिक पैदावार के लिए संतुलित पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, जिनको मृदा की जांच के आधार पर रासायनिक खादों से पूरा किया जाता है। वैसे तो खादों का प्रयोग मृदा जाँच के आधार पर ही करना चाहिए किंतु अगर मृदा जाँच समय पर न हो सके तो सामान्य अवस्था में भी सभी खादों का प्रयोग संतुलित मात्रा में करना चाहिए, क्योंकि यदि संतुलित मात्रा में खादों का प्रयोग न किया गया तो पौधों में तत्वों की कमी के लक्षण पत्तियों पर दिखाई देने लग जाते हैं।
हर एक तत्व की कमी के लक्षण अलग-अलग होते हैं। अधिकतर अवस्थाओं में पत्तियाँ पीली हो जाती हैं। अगर इस पीलेपन की समय पर पहचान हो जाए तो उपयुक्त खाद या पर्णीय छिड़काव ( घुलनशील उर्वरकों को पानी में घोलकर पौधों की पत्तियों पर छिड़कने की प्रक्रिया) के द्वारा इसको दूर किया जा सकता है।
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wheat पीलेपन के कारण:
गेहूं की खड़ी फसल में पीलेपन के कई कारण हो सकते हैं। इस पीलेपन की समस्या का समाधान पीलेपन के कारण में ही निहित है। इसलिए पहले पीलेपन के कारण को जानना अति आवशक है।
कार्बन नत्रजन अनुपात का महत्व:
किसी भी अवशेष या भूमि की कार्बन : नत्रजन (सी:एन) अनुपात 20:1 के आसपास आदर्श माना जाता है, परंतु यदि यह अनुपात अधिक हो जाए तो मृदा के अंदर परिवर्तन होता है। जब किसान खेत तैयार करते हैं तो पुरानी फसल के कार्बनिक अवशेष खेत में मिल जाते हैं। इन अवशेषों के कारण खेत में कार्बन तथा नत्रजन का अनुपात बढ़ता है।
इसे सी: एन अनुपात कहते हैं यानि कार्बन: नत्रजन अनुपात। यह अनुपात प्राप्त पोषक तत्वों की मात्रा फसल को मिलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
wheat धान की पराली से क्रियाशील होते हैं सूक्षमजीव
यदि हम धान की पराली मिट्टी में दबाएँ जिसकी सी: एन अनुपात 80:1 होती है, तो सूक्षमजीव जैसे बैक्टीरिया, फफूंद, आॅक्टिनोमीसीटेस आदि क्रियाशील हो जाते हैं तथा इसके विघटन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ये अधिक मात्रा में कार्बनडाइआॅक्साइड पैदा करते हैं। परंतु ये नाइट्रेट नत्रजन को जोकि पौधों को लेनी होती है भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं। इससे मृदा में नत्रजन की कमी आ जाती है तथा कमी के लक्षण पुरानी पत्तियों पर पीलेपन के रूप में दिखाई देते हैं। इससे सामान्यत: नत्रजन की कमी आती है जिसको रोकने के लिए बिजाई के समय यूरिया डालने की सिफारिश की जाती है।
नत्रजन की कमी:
चूंकि नत्रजन पौधों में चलायमान है, इसकी कमी के लक्षण पौधे में पहले पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते हैं। नई पत्तियाँ हरी रहती हैं। पुरानी पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं। कमी ग्रस्त पौधों की ऊंचाई कम होती है तथा शाखाएँ कम बनती हैं। अधिक कमी की अवस्था में पूरी पत्ती पीली हो कर जल जाती है। सामान्यतया इस तत्व की पूर्ति के लिए 130 किलो यूरिया की सिफारिश है। यदि फास्फोरस डी.ए.पी. के द्वारा दिया जाना है तो 110 किलोग्राम यूरिया डालें। खड़ी फसल में कमी आने पर 2.5 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव करना लाभदायक है।
लोहे की कमी :
लोहे की कमी में पीलापन पत्तियों पर दिखाई देता है, जबकि नाइट्रोजन की कमी में पीलापन पुरानी पतियों में दिखाई देता है। हल्का पीलापन धारियों में दिखाई देता है। अगर खरीफ में खेत में ज्वार या मक्का की फसल की बिजाई की गई हो तो इनकी पत्तियों को देखें। यदि नई पत्तियों पर सफेद धारियाँ दिखाई दें तो लौह तत्व की कमी है।
सल्फर की कमी :
सल्फर की कमी के कारण भी फसलों में नए पत्ते पीले हो जाते हैं। सामान्यत: सल्फर की कमी गेहूं में कम ही देखने को आती है पर मिट्टी की जांच करवा कर सल्फर की कमी को दूर करना लाभदायक रहता है। फसल की बिजाई से पहले खेत तैयार करते समय 200 किलोग्राम 4 (बैग) जिप्सम डालने से खेत की भौतिक दशा में सुधार होने के साथ-साथ सल्फर की पूर्ति भी हो जाती है।
अन्य कारण : wheat
- गेहूं की फसल में सूत्रकृमि के प्रकोप के कारण जड़ें नष्ट हो जाती हैं जिसके कारण पौधों का समुचित विकास नहीं हो पाता तथा जड़ों के पोषक तत्व न उठाने के कारण पीलापन आ जाता है। मोल्या रोधी किस्म राज एम आर-1 की बिजाई करने तथा उचित फसल चक्र को अपना कर इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।
- दीमक के प्रकोप के कारण भी जड़ें या तना में पूर्ण रूप या आंशिक रूप से कटाव हो जाता है जिसके कारण पौधा पीला पड़ जाता है। सिफारिशशुदा कीटनाशक के प्रयोग से दीमक के प्रकोप को कम किया जा सकता है।
- जलभराव सेम या मिट्टी के लवणीय होने के कारण पौधों की जड़ें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप पोषक तत्वों का ग्रहण ठीक प्रकार से नहीं हो पाता जिसके कारण पोषक तत्वों की कमियाँ आ जाती हैं। इस अवस्था में पर्णीय छिड़काव लाभदायक होता है।
- फफूंद जनित रोग जैसे कि पीला रतुआ आदि के प्रकोप से भी फसल में पीलापन आ जाता है। अत: इस प्रकार के पीलेपन को पहचान कर इसका समय पर निदान करना चाहिए।
सौजन्य- देवेंद्र सिंह जाखड़, कृषि विज्ञान केंद्र सरसा।