कृषि जगत पॉलीहाऊस में शिमला मिर्च का उत्पादन

कृषि जगत पॉलीहाऊस में शिमला मिर्च का उत्पादन

Table of Contents

भारत में शिमला मिर्च की व्यवसायिक खेती हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में की जाती है। इसे ‘गीली मिर्च’, ‘घंटीनुमा मिर्च’ तथा ‘शिमला मिर्च’ के नाम से जाना जाता है। इसमें विटामिन ए, बी एवं सी टमाटर से अधिक मात्रा में पाया जाता है। तीखापन रहित होने के कारण यह कच्चा या सलाद के रूप में भी खाया जाता है।

उन्नतशील किस्में:-

हमारे देश में उगाई जाने वाली शिमला मिर्च की किस्में बाहर से आयातित हैं। इसकी खेती बहुत सीमित क्षेत्रों में की जाती है। इसी कारण इसकी नई किस्मों के विकास के अनुसंधान कार्य पर कम जोर दिया गया है। अब तक मुख्य रूप से उगाई जाने वाली किस्में- कैलफोर्निया वण्डर, और चाइनीज जाइंट थी। कुछ क्षेत्रों में बुलनोज, यलो वण्डर, रूबी किंग, किंग आफ नार्थ, अर्ली जाइण्ट, वर्ड बीटर, हंगेरियन वैक्स आदि की भी खेती की जा रही है।

पौध तैयार करना:-

शिमला मिर्च की अगेती/बेमौसमी फसल लेने के लिए शिमला मिर्च के बीज को जनवरी-फरवरी माह में बो देना चाहिये। पौध तैयार करने के लिए 98 छिद्रों वाली प्रो-टे (प्लास्टिक ट्रे) का प्रयोग करना चाहिये।

इस प्रो-ट्रे का आकार सामान्यत:

54 सेमी. लम्बा एवं 27 सेमी. चौड़ा होता है।
सड़ी हुई गोबर की खाद एवं निर्जीवीकृत मिश्रण को पौध उगाने के लिए प्रयोग किया जाना आवश्यक होता है। परम्परागत मिश्रण मिट्टी, गोबर की खाद, बालू के स्थान पर कोको पीट, वार्मीकुलाइट, बालू या परलाइट मिश्रण का प्रयोग किया जा सकता है। यह रोगमुक्त होने के साथ-साथ अत्यन्त भुरभुरा होता है, जिससे जड़ों का विकास भली प्रकार होता है।

सामान्यत:

100 किग्रा. कोकोपीट से लगभग 100 प्रो-टे भरा जा सकता है। ट्रे के एक छिद्र में एक बीज डालकर कोकोपीट से बीज को ढक देना चाहिये। इसके तदोपरान्त हजारे (फव्वारे) की सहायता से हल्की सिंचाई कर इसे प्लास्टिक फिल्म से ढकना चाहिये जिससे बीज का अंकुरण आसानी से हो सके। अंकुरण सामान्यत: 6-8 दिनों में हो जाता है। अंकुरण के पश्चात पॉलीथीन फिल्म को हटा देना चाहिये। पौध 4 से 6 सप्ताह में रोपण हेतु तैयार हो जाती है।

क्यारियों की तैयारी:-

सबसे पहले पॉलीहाउस में मिट्टी की खुदाई के पश्चात ढेलों को तोड़कर जमीन को भुरभुरा, समतल एवं मुलायम बनाया जाता है। 100 सेमी. चौड़ी और 15 सेमी, ऊंची क्यारियां बनायी जाती है तथा कतारों के मध्य 50 सेमी. का फासला छोड़ दिया जाता है।

सड़ी हुई गोबर की खाद 20 किग्रा. तथा नीम की खली 100 ग्रा. प्रति वर्ग मीटर में डालकर मिट्टी में अच्छी तरह मिलाया जाता है। 4 प्रतिशत फॉरमेल्डीहाइड से (4 ली. प्रति वर्ग मीटर) सभी क्यारियों को गीला किया जाता है। सभी क्यारियों को 4 दिनों तक काली प्लास्टिक की चादरों में ढककर पॉलीहाउस की खिड़की-दरवाजे बंद कर देनी चाहिए, जिससे कि हानिकारक रोगाणुओं का नाश हो जाये।

चार दिनों के बाद पॉलीथीन की फिल्म पूरी तरह से हटा दें, ताकि फॉरमेल्डीहाइड का धुआं पूरी तरह निकल जाए। पौध लगाने के पहले प्रति वर्ग मीटर नाइट्रोजन 5 ग्राम, फास्फोरस 5 ग्राम एवं पोटाश 5 ग्राम की पोषित खुराक डाली जाती है। क्यारियों के मध्य में सिंचाई के लिए इन लाइन लेट्रल पाइप डाली जाती है। इस पाइप में 30 सेमी. दूरी पर छेद होता है, जिससे 2 लीटर पानी का निकास होता है।

मिल्चिंग:-

पॉलीहाउस में तैयार क्यारियों को 100 गेज (25 माइक्रोन) की काली पॉलीएथीलीन फिल्म से ढक देना चाहिए और फिल्म को दोनों तरफ किनारे मिट्टी से दबा देने चाहिए।

पौध रोपण:-

कतारों के बीच 60 सेमी. और पौधों के बीच 30 सेमी. के अंतर पर दोहरी कतार में छेद बनाये जाते हैं। शिमला मिर्च के पौधों को पॉलीहाउस से प्लास्टिक की ट्रे में तैयार करने के बाद रोपण के एक दिन पहले 0.3 मिली. इमीडाक्डाइक्लोप्रिड प्रति लीटर पानी का मिश्रण बनाकर छिड़काव किया जाता है।

रोपने से पहले 1 लीटर पानी में 1 ग्राम फफूंदी नाशक कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से पौधों की जड़ों को गीला किया जाता है। पौधों को पॉलीथीन फिल्म के छिद्रों के मध्य में लगाया जाता है। ध्यान देना चाहिए कि पौध कहीं भी प्लास्टिक की चादरों से न छुए। रोपण के तत्काल बाद हजारे से हल्की सिंचाई करनी चाहिए। पौध स्थापित होने तक प्रतिदिन इसी तरह सिंचाई होना जरूरी है।

यदि पॉलीहाऊस में आर्धता (नमी) कम हो तो फॉगर चलाये जाते हैं। पॉलीहाऊस को रोग मुक्त करने के बाद भी अगर पौधा मरने लगे तो 1 लीटर पानी में 3 ग्राम कॉपर आॅक्सीक्लोराइड या 1 ली. पानी में 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम से क्यारियों को गीला किया जाता है।

शिमला मिर्च के पौधे को 30 सेमी. ऊपर से काट कर उसकी दो शाखाओं को बढ़ने दिया जाता है। पौधे की इन शाखाओं को फसल के अन्त तक रखा जाता है और शेष अन्य सभी शाखाओं को काटना होता है। उपरांत दूसरी गांठ के पास से फिर काट देते हैं, जिससे चार शाखाएं निकल आती हैं।

बढ़ते हुए पौधों को सहारा देने के लिए नाइलॉन के तार/प्लास्टिक ट्यूब से प्रत्येक शाखा को साधा जाता है। प्रतिदिन 2 से 3 लीटर पानी प्रति वर्ग मीटर की दर से दिया जाता है। रोपण के तीसरे हफ्ते में

घुलनशील उर्वरक 19 : 19 : 19 (एन.पी.के.) को 13.74 ग्राम प्रति वर्ग मीटर में ड्रिप सिंचाई से पानी दिया जाता है। रोपण के 60 दिन बाद 2 या 3 दिन अन्तराल पर सूक्ष्म पोषक तत्व दिये जाते हैं।

फसल सुरक्षा:-

शिमला मिर्च में फसल सुरक्षा हेतु कीट व्याधियों के रोकथाम का समुचित उपाय किया जाना आवश्यक है। सफाई एवं नियंत्रित आवागमन से काफी हद तक कीटों पर संपूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है।

कीट प्रबन्धन:-

थ्रिप्स :

ये कीट पत्तियों का रस चूसते हैं, जिससे पत्तियां सिकुड़ जाती हैं या एकदम छोटी रह जाती हैं। यह कीट विषाणु रोग को फैलाने में भी मदद करता है, इसलिए पॉलीहाऊस में यह कीट दिखते ही इसकी रोकथाम अति आवश्यक है।

प्रबंधन :

नूवाक्रान 1.0-1.5 मिली. प्रति ली. पानी में घोलकर 15 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये।

माइट :

यह कीट मिर्च के पौधों की पत्तियों एवं फूलों का रस चूसता है, साथ ही विषाणु रोग को फैलाने में भी मदद करता है।

प्रबंधन :

कीट की रोकथाम हेतु 2.5-3.0 ग्राम प्रति ली. घुलनशील गंधक का छिड़काव दिनों के अन्तराल पर करना चाहिये।

माहू :

ये कीडे भी पौधे का रस चूसते हैं तथा विषाणु रोग फैलाते हैं।

प्रबंधन :

रोगार 1.5 मिली. दवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करें।

फल/पत्ते खाने वाली सूंड़ी :

इस कीट की सूंड़ी शिमला मिर्च के कच्चे फलों में छेद कर उसके गूदे को खाती है। जिस फल में कीट सुराख कर देता है उसमें आसानी से फफूंद का प्रकोप हो जाता है।

प्रबन्धन :

एजाडिरैक्टिन (नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई.सी. 2.5 लीटर प्रति हे. की दर से 600-700 लीटर पानी में या ट्राइकोग्रामा 2-3 कार्ड प्रति हे. 10 दिन के अन्तराल पर लगायें।

शीर्षमरण रोग (डाइबैक) एवं फल सड़न :

इस रोग के कारण पौधों का ऊ परी भाग सूखना प्रारम्भ हो जाता है और नीचे तक सूख जाता है। प्रारम्भिक अवस्था में टहनियां गीली होती हैं और उस पर रोएंदार कवक दिखायी देते हैं। रोगग्रसित पौधों के फल सड़ने लगते हैं। लाल फलों पर इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।

प्रबंधन :

इससे बचाव के लिए कार्बेन्डाजिम 2.5 गा्रम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित कर बोयें। क्षतिग्रस्त टहनी को सुबह के समय कुछ नीचे से काटकर इकट्ठा करके जला दें। डाइफोल्टान (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) तथा कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत (1 ग्राम प्रति लीटर पानी) घोल का छिड़काव बारी-बारी से करें। इस रोग में पत्तियां अनियमित रूप से सिकुड़ कर पीली पड़ जाती हैं, जिससे पौधों की वृद्धि रुक जाती है। यह रोग कीटों के द्वारा फैलता है। इसलिए कीट की रोकथाम आवश्यक है। (हिफी)

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here
Captcha verification failed!
CAPTCHA user score failed. Please contact us!