शब्दों का प्रयोग
केवल मनुष्य को ही परमात्मा ने वाणी या जिह्वा जैसी नियामत प्रदान की है। उसके कारण ही वह अपने विचारों को व्यक्त करता है। शब्द जिनका हम सभी मनुष्य उच्चारण करते हैं, वे हमारे कर्म का ही एक रूप होते हैं। जब मनुष्य उन्हें बोलता है तो उसके बोलने से उसके संस्कारों का भी भान होता है। इसीलिए मनीषी समझाते हैं कि अपने हर शब्द को बोलने से पहले उसे तोल लेना बहुत ही आवश्यक होता है अन्यथा उसका दुष्परिणाम सिर्फ मनुष्य को स्वयं ही नहीं भोगना पड़ता बल्कि उसका सम्पूर्ण परिवेश उससे प्रभावित होता है।
संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसका जहर उसके दाँतों में नहीं होता, बल्कि उन शब्दों में होता है जिनका वह उच्चारण करता है। मनुष्य की यही वाणी उसे उच्च सिंहासन पर आसीन करती है और यही वाणी ही उसे नीचे पाताल में धकेल देती है। मनुष्य का मधुर अथवा कटु व्यवहार उसके उत्थान या पतन का कारण बनता है। उसी के कारण ही समाज में उसकी पहचान बनती है। उसकी बोलचाल के ढंग से उसके मित्रों अथवा शत्रुओं की संख्या बनती है।
यदि मनुष्य हर समय व्यंग्य बाण छोड़ता रहता है तो उसके प्रिय साथी भी उससे किनारा करने लगते हैं। ये कटु शब्द सामने वाले के मन पर गहरा वार करते हैं। कोई भी व्यक्ति अपमानित नहीं होना चाहता। सभी लोग उससे घृणा करने लगते हैं। अपनी इस कड़वी जुबान के कारण वह समाज से कटकर अलग-थलग पड़ जाता है। जब तक वह अपने शब्दों पर नियंत्रण नहीं करता, तब तक सब उससे दूर ही रहते हैं। इस वाणी का दुरुपयोग करने से भयंकर उलट-फेर हो सकता है। कविवर रहीम जी ने उचित ही कहा है –
रहमन जिभ्य बावरी, कह गई सरग पाताल।
आप तो भीतर ही रही, जूते खात कपाल।।
अर्थात् जिह्वा अपशब्द बोलकर, स्वयं तो मुँह के अन्दर छिप जाती है पर जूते बेचारे सिर पर पड़ते हैं।
संत कबीर जी कहते हैं कि कड़वे बोल शरीर को जलाते हैं। इसके विपरीत सबसे मधुरता से बोलने वाले व्यक्ति के साथियों की संख्या निरन्तर बढ़ती रहती है। वह सबका प्रिय बन जाता है और लोग उसे अपने सिर-आँखों पर बिठाते हैं। सर्वत्र उसकी चर्चा होती है। लोग उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। इस तरह अनेक हाथ उसका साथ देने के लिए आगे बढ़ने लगते हैं। उसके सुख-दु:ख में साथ देने के लिए तैयार हो जाते हैं। मधुर वचन घाव पर मरहम लगाने का काम करते हैं। वे उस शीतल पानी की तरह होते हैं, जो भयंकर आग को भी बुझा सकता है।
इसीलिए कबीर साहिब जी हमें समझाते हुए कह रहे हैं –
मधुर वचन हैं औषधि, कटु वचन हैं तीर।
अर्थात् मधुर वचन दूसरे के घाव पर औषधि का कार्य करते हैं परन्तु कड़वे शब्द उसे तीर की तरह चुभते हैं।
अनुभवजन्य बात है कि तलवार या किसी शस्त्र के वार से जो घाव हो जाता है, वह इलाज हो जाने पर यथासमय भर जाता है परन्तु शब्दों के वार से होने वाला घाव नहीं भर पाता। उसका तो इलाज भी सम्भव नहीं होता। उस घाव की चुभन या कसक सदा टीस देती रहती है। जब इन्सान विचारमग्न होकर अकेले बैठता है, तब उसके सभी जख्म हरे हो जाते हैं और वे पुराने हुए दर्द पुन: उसे कटार के चुभने जैसी पीड़ा देते हैं। उस समय वह अनमना होकर उन घावों को सहलाने का असफल प्रयास करता है।
इस सम्पूर्ण विश्लेषण का सार यही निकलता है कि समझदार मनुष्य को अपने शब्दों का प्रयोग सदा ही सोच-विचारकर, सावधनीपूर्वक करना चाहिए। मनुष्य को निश्चित ही ऐसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जिससे सामने वाले के मन को किसी तरह की ठेस न पहुँचे। उसका अन्तर्मन उसके शब्द प्रहार से आहत होकर तार-तार न होने पाए। -चन्द्र प्रभा सूद