जीवन जीने का हक सबको
प्रत्येक मनुष्य का जीवन बहुत मूल्यवान होता है। उसी प्रकार हर जीव का जीवन भी होता है। सभी को अपना-अपना जीवन जीने का पूरा अधिकार है।
ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि जब हमारा मन करेगा, हम किसी के भी प्राणों को हर लेंगे। मनुष्य को ईश्वर ने अधिकार नहीं दिया कि वह अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए किसी जीव की हत्या करे। उसने सभी जीवों को बनाया है।
उसकी दृृष्टि में मनुष्य, जलचर, नभचर और भूचर सभी जीव समान हैं। इन सभी जीवों में उस परमपिता परमात्मा का ही अंश है जिसे हम आत्मा कहते हैं।
कहीं पढ़ा था कि एक बार मगध सम्राट बिम्बसार ने अपनी सभा में प्रश्न पूछा- देश की खाद्य समस्या सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है?
मन्त्री परिषद् तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गए। चावल, गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि तो बहुत श्रम के बाद मिलते हैं और वह भी तब जब प्रकृति का प्रकोप न हो, ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो ही नहीं सकता।
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तब शिकार का शौक पालने वाले एक सामन्त ने कहा- राजन, सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ माँस है। इसे पाने में मेहनत कम लगती है और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।
सबने इस बात का समर्थन किया लेकिन प्रधानमन्त्री चाणक्य चुप थे। तब सम्राट ने उनसे पूछा- आपका इस बारे में क्या मत है?
चाणक्य ने कहा- मैं अपने विचार कल आपके समक्ष रखूँगा।
रात होने पर प्रधानमन्त्री उसी सामन्त के महल पहुँचे, सामन्त ने द्वार खोला। इतनी रात को प्रधानमन्त्री को अपने महल में देखकर वह घबरा गया।
प्रधानमन्त्री ने कहा- शाम को महाराज एकाएक बीमार हो गये हैं, राजवैद्य ने कहा है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला माँस मिल जाए तो राजा के प्राण बच सकते हैं।
इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का सिर्फ दो तोला माँस लेने आया हूँ। इसके लिए आप एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ ले लें।
यह सुनते ही सामन्त के चेहरे का रंग उड़ गया, उसने प्रधानमन्त्री के पैर पकड़कर माफी माँगी। उल्टे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ देकर कहा- इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का माँस खरीद लें।
प्रधानमंत्री बारी-बारी सभी सामन्तों और सेनाधिकारियों के यहाँ पहुँचे। सभी से उनके हृदय का दो तोला माँस माँगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ। सभी ने अपने बचाव के लिए प्रधानमन्त्री को एक लाख, दो लाख, पाँच लाख तक स्वर्ण मुद्राएँ दीं।
इस प्रकार करीब दो करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह करके प्रधानमन्त्री सवेरा होने से पहले वापस अपने महल पहुँच गए। प्रात: समय पर राजसभा में प्रधानमन्त्री ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्रायें रख दीं।
सम्राट ने पूछा- यह सब क्या है? तब उन्होंने बताया कि दो तोला माँस खरीदने के लिए इतनी धनराशि इकट्ठी हो गई, फिर भी दो तोला माँस नहीं मिला। राजन! अब आप स्वयं विचार करें कि माँस कितना सस्ता है?
इस घटना से यही समझ आता है कि मनुष्य मैं, मेरा परिवार और मेरे बच्चों से आगे नहीं सोचता। उन्हें कुछ न हो, बाकी दुनिया भाड़ में जाए, वाली उसकी सोच बहुत हानि पहुँचा रही है। जिस तरह उसे अपनी जान प्यारी है, उसी तरह सभी जीवों को अपनी जान उतनी ही प्यारी है।
वे अपनी जान बचाने में असमर्थ हैं। मनुष्य अपने प्राण बचाने के लिए प्रार्थना करके, दूसरे को रिझाकर, डराकर, रिश्वत आदि देकर हर सम्भव प्रयास कर सकता है परन्तु पशु बेजुबान होते हैं। वे न तो बोल सकते हैं, न ही अपनी व्यथा सुना सकते हैं। उनसे जीने का अधिकार छीन लिया जाए, यह सर्वथा अनुचित है।
प्राणिमात्र से, जीवमात्र से प्यार करना, उन्हें हानि न पहुँचे, इसका ध्यान रखना चाहिए। ईश्वर केवल उन्हीं लोगों को चाहता है जो उसकी बनाई सृष्टि के सभी जीवों से प्यार करते हैं। उन्हें मारकर आत्मतुष्टि नहीं करते हैं। -चन्द्र प्रभा सूद