आजादी की सहमी-सहमी दास्तां India Independence Day
सदियों से भारत अंग्रेजों की दासता में था, उनके अत्याचार से जन-जन त्रस्त था। खुली फिज़ा में सांस लेने को बेचैन भारत में आजादी का पहला बिगुल 1857 में बजा किन्तु कुछ कारणों से हम गुलामी के बंधन से मुक्त नही हो सके।
वास्तव में आजादी का संघर्ष तब अधिक हो गया जब बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ इसी चाहत में ना जाने कितने वीरों ने अपनी आँखें बंद कर ली, ताकि आज यहाँ पैदा होने वाला हर बच्चा आजाद भारत के आजाद आकाश के नीचे अपनी आँखें खोल सके! न जाने कैसे लोग थे वो जो अपने स्वार्थों को छोड़ चल पड़े स्वतंत्रता की उस डगर पर, जिसका अंत तो पता था, परंतु रास्ते की दूरी का अंदाजा लगाना मुश्किल था।
परंतु उन वीरों ने इस बात की परवाह न करते हुए सिर पर कफन बाँध निकलना पसंद किया और इस तरह कारवाँ बढ़ता रहा और मंजिल एक दिन 15 अगस्त 1947 के रूप में आ गयी और भारत देश आजाद हुआ।
अंग्रेजों से हासिल की यह आजादी आज हमें सकून का एहसास दिलाती है, मगर 14 अगस्त से लेकर अगले कुछ हफ्ते उस समय के लोगों ने कैसे जीए, यह ब्यां कर पाना बहुत ही मुश्किल है। दरअसल आजादी की उस हवा में राजनीति इस कद्र घुल गई थी कि अंग्रेज जाते-जाते भी हिंदूस्तान को दो हिस्सों में बांट गए, जिसमें से एक है हमारा हिन्दुस्तान और दूसरा है पाकिस्तान है। वर्तमान में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बहुत से ऐसे व्यक्ति व उनके परिवार आज भी उन बंटवारे के दिनों को याद कर सहम जाते हैं। सच्ची शिक्षा टीम ऐसे ही कुछ व्यक्तियों से रूबरू हुई, जिन्होंने उन हालातों को अपने आंखों से देखा।
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बंटवारे की बात मानने को ही तैयार नहीं थे हमारे बुजुर्ग
जब हिंदू-मुस्लिम के नाम से भड़की आग की चिंगारी हमारे गांव खंगरांवाला जिला लाहौर में पहुंची तो हमें पता चला कि देश का बंटवारा हो चुका है। लेकिन हमारे बुजुर्ग तेजा सिंह व उनके भाई इस बात को कतई मानने को तैयार नहीं थे, कि किसी देश का भी बंटवारा हो सकता है। क्योंकि उस समय से पूर्व वहां बिलकुल शांत माहौल था। गांव में मुसलमानों के अलावा खोजे, सिक्ख व जट्ट समुदाय के लोग आपस में मिल-जुलकर रहते थे।
कंगनपुर ( जिला सरसा) निवासी 82 वर्षीय बघेल सिंह बताते हैं कि देश के बंटवारे का दर्द बड़ा गहरा है। मैं उस समय 9 वर्ष का था, लेकिन जो कुछ खुली आंखों से देखा उसे महसूस कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बघेल सिंह पिता तेजा सिंह बढ़ई का कार्य करते थे, हालांकि परिवार के अन्य लोग खेतीबाड़ी करते थे।
उस दिन गांव में हुए विवाद के बाद बुजुर्र्गाें ने निर्णय किया कि परिवार के लोगों को पास के गांव में अपने सरीके (रिश्तेदार) में छोड़ आते हैं, जब तक यह विवाद शांत नहीं हो जाता। उस गांव में सिक्ख बिरादरी के काफी घर थे। उस रात को ही विवाद और बढ़ गया। अगली सुबह हम जैसे ही उस गांव में रफा हाजत के लिए बाहर निकले तो मुस्लिम लड़कों की टोलियों ने हल्ला बोल दिया। ऐसे विकट हालात बने कि वहां से सीधे ही परिवार जान बचाते हुए वहां से बार्डर की ओर रवाना हो गए। वापिस घर जाने का मौका ही नहीं मिला।
इतने वर्षों में जो कुछ भी धन कमाया था, लावारिस हालत में छोड़कर चलने का मजबूर हो गए। जैसे-जैसे हिंदू व सिक्ख परिवारों को पता चलता गया, वैसे-वैसे लोग एकत्रित होते गए और करीब दो किलोमीटर लंबा काफिला तैयार हो गया। घर की आर्थिक हालत उनकी ठीक नहीं थी, इसलिए मेरे परिवार के लोग पैदल ही चल रहे थे, बाकि कई धन्नाढय परिवारों के पास अपनी बैलगाड़ियां थी, उन पर सामान व बुजुर्ग और बच्चों को ऊपर बैठा रखा था।
जब ढोल बजाते हुए लूटने को आई टोली
बघेल सिंह बताते हैं कि नफरत की आग से बचते-बचाते हुए काफिला करीब 30 किलोमीटर आगे बढ़ चुका था। पूरा रास्ता बड़ा डरावना था, क्योंकि जंगल क्षेत्र में से होकर गुजर रहे थे। तभी सामने से नौजवानों की बड़ी सी टोली ढोल बजाते हुए सामने से आती दिखाई दी।
दरअसल यह लोग लूटने के मकसद से ही आए थे, लेकिन हमारे काफिले में कई रईस परिवार भी साथ थे, जिनके लोग घोड़ियों पर सवार थे और उनके पास हथियार भी थे। जब उस टोली ने देखा कि ये लोग तो हथियार भी लिए हुए हैं तो उन्होंने अपनी चाल बदल दी, क्योंकि उनके पास केवल लाठियां ही थी। वे कहने लगे कि आप लोग जा रहे हो, इसलिए भाइयों को राम सत् कहने आए हैं। इस प्रकार वहां से बचकर खेमकरण बार्डर पर पहुंचे।
8 दिन पैदल चलकर बार्डर पर पहुंचे
बताते हैं कि लगातार 8 दिनों तक काफिला चलता रहा, फिर कहीं जाकर भारत के बार्डर पर पहुंचा। हालांकि रास्ते में जहां भी सायं ढलती, वहीं आस-पास में रात को डेरा जमा लेते और आदमी पूरी रात पहरा देते रहते। दिनभर चलने के कारण बुजुर्ग लोगों को बहुत तकलीफ उठानी पड़ती। महिलाओं व बच्चों की भी हालत बहुत बुरी हो चुकी थी।
बारिश के चलते बची कई जानें
बघेल सिंह बताते हैं कि उन दिनों बारिश कई दिनों तक होती रही। जिसके चलते बहुत से लोगों की जानें बच गई। वे बताते हैं कि दंगाकारी लोगों ने नहरों के पुलों पर बंब लगाए हुए थे। उनका मकसद था कि जब लोगों का काफिला वहां से गुजरेगा तो बंब फटने से यह लोग मर जाएंगे। लेकिन बारिश के चलते वे बंब भीग गए और फटे नहीं। काफिले के लोगों को जब इस बात का पता चला तो रास्ते में जितनी भी नहरें आई, सभी लोग पुल की बजाय नहरों से होकर गुजरे। गनीमत रही कि उस समय उन नहरों में पानी नहीं था।
काफिले से अलग हुए तो गंवानी पड़ी जान
काफिले को चलते हुए 7 दिन हो चुके थे। जैैसे ही सायं हुई तो बार्डर के नजदीक जा पहुंचे। लेकिन बीच में एक मुस्लिम गांव पड़ता था, जिसके बारे में सुना था कि यहां खुंखार लोग रहते हैं, जो मां-बहनों की इज्जत से खेलते हैं और सामान भी लूट लेते हैं। उस सायं फैसला हुआ कि रात को काफिला आगे नहीं बढ़ेगा। बाकी का सफर अगली सुबह पूरा करेंगे। लेकिन काफिले में से कुछ लोग इस बात पर राजी नहीं हुए।
वे कहने लगे कि बार्डर पास ही है तो फिर यहां क्यूं रूकना। हम लोग तो रात को ही जाएंगे। उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की गई, लेकिन वे नहीं माने। अगली सुबह जब काफिला उस गांव के पास पहुंचा तो वहां का मंजर देखकर सबकी आंखें खुली रह गई। रास्ते पर आदमियों के शव पड़े हुए थे। सारा सामान बिखरा हुआ था और बड़ी बात उनके साथ जो लड़कियां व औरतें थी, वे सब गायब थी। कुछ एक बुजुर्ग महिलाओं की लाशें पड़ी हुई थी। मौत का ऐसा नाच देखकर मन बहुत दुखी हुआ।
बंटवारे से पहले ईमान के धनी थे लोग
चाहे देश में बंटवारे के नाम पर कितना भी शोर-शराबा हुआ हो, लेकिन हम नित्य की भांति 15 अगस्त को अपने रूटीन कार्य में मसगूल थे। अगले दिन 34 चक के नंबरदार ने मेरे पिताजी को बताया कि देश में बड़ा विवाद शुरू हो गया है। यह एरिया पाकिस्तान बना दिया गया है, इसलिए आप लोगों को भी अब यहां से जाने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। यह सुनकर हमारे पांवों तले से जमीन निकल गई कि ऐसा भला कैसे हो सकता है। वह रात हमारे लिए कयामत की रात थी, क्योंकि अगली सुबह तो पता नहीं किस दिशा में जाना होगा। आंखों में बेबसी के आंसु छलकाते हुए 90 वर्षीय गुरबचन सिंह कंबोज ने आजादी के नाम पर मिले जख्मों को शब्दों का रूप देते हुए अपनी खामोशी तो तोड़ दी, लेकिन सुनने वालों को जैसे सांप सूंघ गया हो।
पाकिस्तान के अलफ उन्नी कटोरा गांव से संबंध रखने वाले गुरबचन सिंह वर्तमान में सरसा जिला के कंगनपुर गांव में रह रहे हैं। उन्होंने बताया कि देश बंटवारे के समय बेबसी के आंसू जो हमने पीये हैं उनका दर्द कोई और महसूस नहीं कर सकता। बुजुर्ग औरतें, छोटे-छोटे बच्चे, जो चलने में भी समर्थ नहीं थे, हमारे काफिले के साथ जैसे-तैसे खुद को खींच रहे थे। रास्ते में ना कहीं पीने को पानी था, ना खाने को अनाज। बस भूखे-प्यासे इसी आस में चले जा रहे थे कि शायद आजाद भारत में हमें वो सब कुछ मिलेगा जो पीछे छोड़ कर जा रहे हैं। लेकिन यहां आकर भी मायूसी ही हाथ लगी। तब लोग एक-दूसरे को इस तरह से नोंच रहे थे मानो जैसे गीद की नजर अपने शिकार पर रहती है। ये तो भला हो सिक्ख कौम का, जिन्होंने लंगर लगाकर भूखे लोगों को जीने का आसरा दिया।
गुरबचन सिंह बताते हैं कि हमारे गांव में बहुत ही रईस परिवार रहते थे, हम उनकी जमीन जोत कर गुजारा करते थे, लेकिन उस समय वहां के लोगों में हमेशा ईमानदारी का भाव देखने को मिलता था। आजाद भारत के लिए महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने जो सपने संजोये थे, वे बेमानी-से नजर आते हैं। क्योंकि हमारे मुल्क में बेईमानी और ठग्गी-ठोरी का बहुत बोलबाला है।
अंग्रेजों का खौफ ही न्याय का आधार था
एक बार गांव में पानी की किल्लत आ गई। घर में बनी डिग्गी में भी पानी तली तक जा पहुंचा जिसमें बहुत सी मच्छलियां थी। पड़ोसी मुसलमान परिवार के लड़कों ने उन मच्छलियां को निकाल लिया। जब इसका पता मेरे पिता जी को चला तो उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट करने की बात कही।
मामला बड़ा संवेदनशील था, हिंदुओं में पानी की पवित्रता बहुत मायने रखती थी। इस बात को लेकर पूरा मुस्लिम परिवार हमारे द्वार पर आकर बच्चों की गलती की क्षमा मांगने लगा। उधर अंग्रेजों के राज में पीड़ित की पुकार सुनी जाती थी, सजा के खौफ से वे सब डर गए थे। उस समय कोई रिश्वत लेता पकड़ा जाता था तो अंग्रेज उसे कड़ी सजा देते थे। लेकिन हमारे आजाद देश में आज न्याय पाने के लिए इन्सान का पूरा जीवन भी कम पड़ जाता है।
जब पूरा गांव ही आग की भेंट चढ़ा दिया था
बताते हैं कि उस दौरान मौत का बहुत तांडव हुआ था। नजदीकी गांव शाहपुरा को उस दौरान आग लगा दी गई। इस गांव में अधिकतर हिंदू लोग ही रहते थे। वहां लोगों को जिंदा जला दिया गया, बस एक लड़की भगवानो वहां से किसी तरह जिंदा निकलकर आई थी।