ईश्वर ने जितना दिया, उसी में संतोष करना सीखें
मांगने की प्रवृत्ति सदा से ही अहितकारी कही गई है। इसलिए हमारी संस्कृति में त्याग का विशेष महत्त्व दर्शाया गया है। याचना करने से मनुष्य का सब कुछ क्षीण होता है परन्तु त्याग से सब प्राप्त होता है। ईश्वर मनुष्य को पात्रता के अनुसार स्वत: ही देते हैं। इसलिए माँगने से परहेज करना चाहिए।
मांगना सरल नहीं बहुत कठिन कार्य है। मांगने की स्थिति आ जाने पर एक स्वाभिमानी मनुष्य पता नहीं कितनी मौत मरता है। ईश्वर मनुष्य को बिना माँगे ही मालामाल कर देता है। कुछ लोगों की प्रवृत्ति ही माँगने की होती है यानी वे याचक प्रवृति के होते हैं। वे माँगकर ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं। सारा समय उन्हें कुछ न कुछ माँगना ही होता है। कुछ व्यक्ति लापरवाह प्रकृति के होते हैं। इसलिए उनके पास आवश्यक वस्तुओं की कमी बनी रहती है। और उन्हें माँगना ही पड़ता है। कोई कितना भी तिरस्कार क्यों न करे, वे चिकने घड़े बने रहते हैं।
इसी प्रकार लोभी व्यक्ति भी सदैव कुछ न कुछ पाने की कामना करता रहता है। इसलिए वह सदा अतृप्त ही रहता है। उसके पास कितना ही क्यों न हो, उसकी दृृष्टि में वह कम ही रहता है। इसलिए वह सदा और पाने की कामना करता रहता है। मनुष्य को किसी से कुछ पाने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जब उसकी अपेक्षा पूर्ण नहीं होती, तब मनुष्य दु:खी रहता है।
‘ब्रह्मपुराण‘ में इस विषय पर विचार व्यक्त करते हुए व्यास जी ने कहा है-
देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता:।
तत्क्षणादेव लीयन्ते धीश्रीह्रीशान्तिकीर्तय:
अर्थात् ‘कुछ दीजिए’ यह वचन कहते ही शरीर में विद्यमान पाँच देवता तत्क्षण देह को छोड़कर चले जाते हैं- बुद्धि, लज्जा, लक्ष्मी, कान्ति और कीर्ति। तात्पर्य यही है कि जब मनुष्य किसी से कुछ माँगने के लिए जाता है तो उसकी बुद्धि, उसका विवेक उसका साथ छोड़ देते हैं। माँगने वाले को लज्जा त्याग देती है। लक्ष्मी उससे नाराज हो जाती है। मनुष्य उस समय कान्तिहीन हो जाता है और उसकी कीर्ति मानो कहीं खो सी जाती है। यानि माँगना किसी भी तरह से कोई फायदे का सौदा नहीं, उससे मनुष्य को हानि होती है।
मनुष्य को यदि कुछ चाहिए तो उसे सदा परमपिता परमात्मा से याचना करनी चाहिए। वही एक ऐसा है जो बिना माँगे ही सबकी झोलियाँ भरता रहता है। संसार के लोग तो माँगने पर दुत्कार सकते हैं, न देने के सौ बहाने बना सकते हैं परन्तु उस परमेश्वर से सच्चे मन से प्रार्थना की जाए तो वह व्यर्थ नहीं जाती। देर-सवेर वह मनुष्य की हर जायज कामना को पूर्ण कर ही देता है। मनुष्य को इसलिए सदा उसकी शरण में ही जाना चाहिए।
जिस प्रकार भौतिक जगत के माता-पिता अपने बच्चों के माँगने अथवा न माँगने पर भी, उनकी सारी आवश्यकताएँ पूर्ण करते हैं, उसी प्रकार वह ईश्वर भी अपने बच्चों को कभी निराश नहीं करता। वह सदा ही उनकी जरूरतों का ध्यान रखता है। वही एकमात्र मनुष्य का ठौर है, तो उसी की शरण में ही जाना चाहिए। सबसे बड़ी बात वह किसी से चर्चा करके मनुष्य को अपमानित नहीं करता और न ही कभी एहसान जताता है।
जहाँ तक हो सके, माँगने की प्रवृत्ति को टालना चाहिए। इस आदत तो कदापि नहीं अपनाना चाहिए। प्रयास यही करना चाहिए कि ईश्वर ने जितना दिया है, जो भी दिया है, उसी में सन्तोष करना चाहिए तथा अधिक पाने के लिए मेहनत, परिश्रम भी करते रहना चाहिए एवं उस मालिक को कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए, सदा उसी में अपना जीवन यापन करने का प्रयास करना चाहिए। -चन्द्र प्रभा सूद