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जीना किसका सार्थक – इस संसार में उसी व्यक्ति का जीना सार्थक माना जाता है, जिसके मरने के उपरान्त लोग युगों-युगों तक उसे स्मरण करते रहें। उसके जीवन से लोग प्रेरणा लेते रहें। ऐसा व्यक्ति वही हो सकता है, जो दिन-रात समाज की भलाई के लिए बिना माथे पर शिकन लाए, हँसते हुए, नि:स्वार्थ भाव से परोपकार के कार्य करता रहे। वह अपने घर-परिवार के सभी दायित्वों का निर्वाह सुचारू रूप से करता रहे। उनमें वह कभी किसी तरह की कोई कोताही न बरते।

पंचतंत्र पुस्तक में पण्डित विष्णु शर्मा ने इस विषय में कहा है-

यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहवरू स तु जीवति।
काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम।।

अर्थात् जिसके जीने से कई लोग जीवित रहते हैं, वही वास्तव में जीवित कहलाता है। क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता?

कहने का तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक माना जाता है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को अपने जीवन का आधार मिलता है। सबसे तिरस्कृत होने वाले कौए जैसा जीव भी अपने उदर का पोषण करके अपना जीवन पूर्ण कर ही लेता है।

यहाँ कवि ने किसी अन्य का उदाहरण न देकर कौवे का उदाहरण दिया है। इसका अर्थ यह है कि कौवा स्वार्थी व मूर्ख जीव होता है। वह किसी अन्य पक्षी का भला नहीं करता। उसकी मूर्खता का लाभ कोयल उठा लेती है। वह भी काली होती है और अपने अण्डे सेने के लिए कौवे के घोंसले में रख देती है। कौवा उन्हें अपने बच्चे समझता है, पर जब बसन्त ऋतु आती है तो ज्ञात होता है कि वे कोयल के बच्चे हैं।

मनुष्य को कवि ने कौवे की तरह न बनने का परामर्श दिया है। इसी प्रकार मनुष्य को भी सदा ही सावधान रहना चाहिए ताकि कोई उसकी सरलता, सज्जनता और सहृदयता का दुरूपयोग न कर सके। किसी भी कारण से उसे ब्लैकमेल न करने पाए। उसे सदा यह भी ध्यान रखना चाहिए और सतर्क रहना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति उसे आसानी से मूर्ख बनाकर ठगने के प्रयास में सफल न हो सके।

कौवा सन्देशवाहक का कार्य भी करता है। जब कभी वह प्रिय सन्देश लाता है, तो उसे सम्मान मिलता है। इसके विपरीत जब वह अप्रिय सन्देश लाता है, तब लोग उसे कंकर मारकर भगा देते हैं। पितरपक्ष में जब उसकी आवश्यकता पड़ती है, तब आदर से उसे बुलाते हैं और खिलाकर सम्मानित करते हैं।

इसी प्रकार समाज का हित साधने वाले इन्सान को लोग/समाज अपनी सिर-आँखों पर बिठाते हैं। उनका मान-सम्मान करते हैं, परन्तु समाज विरोधी गतिविधियाँ में लिप्त रहने वाले को वह सदा ही तिरस्कृत करते हैं। इस विवेचना के अनुसार यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को अपना हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। उसे स्वयं ही अपनी सीमाओं के विषय में विचार करके उनका निर्धारण करना चाहिए।

मनुष्य को स्वार्थी न बनकर परोपकार के कार्य करते रहना चाहिए। अपना पेट तो बेजुबान जानवर भी भर लेते हैं, पर वे दूसरों के दु:ख-दर्द को न समझने के कारण उनकी सहायता नहीं कर सकते। वे परोपकार के कार्य भी नहीं कर सकते हैं।

सही मायने में मानव को ही ईश्वर ने यह सामर्थ्य देकर इस धरती पर भेजा है कि वह संसार के सभी चराचर जीवों पर दया करे। उनका हर प्रकार से ध्यान रखे। वास्तव में मनुष्य कहलाने का वही अधिकारी है, जो दूसरों की परेशानियों को समझने वाला हो। दूसरों के कठिन पलों में उनका सहारा बनने वाला हो, उन्हें सांत्वना देने वाला हो, तो ऐसे ही व्यक्ति को समाज युगों तक याद रखता है और उसी मनुष्य का जीवन ही सफल कहा जा सकता है।
-चन्द्र प्रभा सूद