
बेपरवाह जी के उतारे (ठहराव) के लिए गांव की मस्जिद को बड़े ही सुंदर ढंग से सजाया गया। मस्जिद तक पहुंचने वाले सभी रास्तों पर नए कपड़े बिछाए गए। जैसे ही सार्इं जी ने गांव में प्रवेश किया तो गांववासी खुशी में झूम उठे। गांव का चप्पा-चप्पा खुद को गौरवांवित महसूस करने लगा। सार्इं जी गांववासियों की इतनी श्रद्धा एवं प्यार को देखकर बहुत खुश हुए। हालांकि सार्इं जी ने रास्तों में बिछाए गए कपड़ों को उठवा दिया, और वचन फरमाए कि हमें आपकी खुशी मंजूर है। सार्इं मस्ताना जी मस्जिद परिसर में आकर विराजमान हुए। गांव में 4 जून 1952 को रात का सत्संग हुआ। दूसरे दिन जौहड़ पर एक पीपल के पेड़ के नीचे बड़े से चबूतरे पर सुबह का सत्संग हुआ।
यह सार्इं मस्ताना जी महाराज का गांव में रूहानी सफरनामे का पहला पड़ाव था। हालांकि उस समय गांव में जात-पात की गहरी खाई थी, लेकिन सार्इं जी ने अपने वचनों की मिठास से सबको एक माला में पिरोने का बाखूबी कार्य किया। इसके उपरांत अगले महीने यानि 10 जुलाई 1952 को गांव में फिर से रूहानी सत्संग हुआ। सत्संग के दौरान बिश्नोई लोगों का वैराग्य फूट पड़ा। कई सज्जन बोल उठे- सार्इं जी, आपकी आवाज तो खुदा की आवाज है। पत्तराम गोदारा बिश्नोई को बेपरवाह जी में अपने ईष्ट के दर्शन हुए।
सत्संग के अगले रोज ही सार्इं जी के दर्शनों के लिए गांव से बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हुए और गांव में डेरा बनाने की अर्ज करने लगे। बेपरवाह जी ने फरमाया-‘डेरा जरूर बनाएंगे।’ सार्इं जी की यह स्वीकृति लोगों में खुशी का संचार कर गई। लोगों में उत्साह देखते ही बन रहा था। हर कोई एक-दूसरे से उत्सुकता वश पूछ रहा था कि सार्इं जी डेरा कहां पर बनाएंगे। कई जमींदार भाइयों ने डेरा बनाने के लिए अपनी भूमि देने की बात कही, लेकिन सार्इं जी स्वयं चलकर ऐसी भूमि का चयन करना चाह रहे थे जो आश्रम के लिए उपयुक्त एवं अनुकूल हो।

सरसा-हिसार रोड पर धांगड़ गांव से करीबन 5 किलोमीटर की दूरी पर बसे महमदपुर रोही (जिला फतेहाबाद) गांव आज डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो चुका था। जुलाई 1952 में डेरा आश्रम का निर्माण शुरू कर दिया गया। डेरा सच्चा सौदा के पुराने सेवादार 84 वर्षीय बालू गुरमुख बताते हैं कि सार्इं बेपरवाह मस्ताना जी की पावन दया-दृष्टि में आश्रम निर्माण का कार्य शुरू हुआ। संगत बड़े चाव से सेवाकार्य में जुटी हुई थी।

सार्इं जी यह सब देखकर बहुत खुश थे। सार्इं जी ने दरबार का नामांकरण करते हुए वचन फरमाए कि ‘इस दरबार का नाम अमरपुर धाम रखते हैं। आज से पूरा गांव ही अमर हो गया।’ सार्इं जी ने आगे फरमाया कि ‘वह (शाह मस्ताना जी धाम) दरबार पूजनीय सावण शाह जी दाता का उपकार है और यह (अमरपुर धाम) दरबार मस्ताना का बच्चा है।’ उधर गांव के चौधरी पतराम गोदारा बिश्नोई की ओर से डेरा के लिए दी गई चार एकड़ भूमि के चारों ओर बाड़ लगाने की सेवा भी साथ ही शुरू हो गई थी। सेवादार कांटेदार झाड़ियों से बाड़ बनाने में जुटे हुए थे।
सार्इं जी ने सेवादारों को बाड़ और ऊंची करने के वचन फरमाए कि बाड़ जितनी ऊंची होगी, संत उतना ही पहुंचा हुआ होगा। सेवादारों ने बाड़ को इतना ऊंचा कर दिया था कि पास के रास्ते से गुजरते हुए लोगों को दरबार के अंदर कुछ भी दिखाई नहीं देता था। सार्इं जी ने तेरा वास (गुफा) का निर्माण करवाया और संगत के लिए पंडाल भी तैयार करवाया। समयानुसार दरबार में निर्माणकार्य चलता रहा। पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने इस दरबार में कई निर्माण और विस्तार कार्य अपनी पावन हजूरी में करवाए। पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने भी समय-समय पर दरबार की लोकेशन को नया आयाम दिया।

मौजूदा समय में दरबार करीब 6 एकड़ भूमि तक फैला हुआ है। करीब साढ़े चार एकड़ भूमि पर यहां के सेवादारों द्वारा बागबानी की जाती है, जैसे अमरूद, चीकू, अनार आदि के पौधे दरबार के साथ-साथ गांव की शान को भी चार चांद लगा रहे हैं। यहां संगत की सुविधा के लिए एक बड़ा सा शैड बनाया गया है, जहां साध-संगत नामचर्चा का आयोजन करती है। संगत के आराम करने के लिए एक बड़ा हॉल भी बनाया गया है।
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पहले मकान बनवाते, फिर ढहा देते:
सार्इं मस्ताना जी के खेल बड़े निराले होते। ‘संतन की रमज न जाने कोई’, यानि संत-फकीरों के हर खेल में कोई ना कोई राज छुपा होता है, लेकिन इसकी समझ हर किसी को नहीं आ पाती। महमदपुर रोही में दरबार बनाने की सेवा चल रही थी। इस आश्रम को बेपरवाह जी ने बहुत बार बनवाया व गिरवाया। दरबार के निर्माण में कच्ची इंटों का प्रयोग किया जाता। निर्माणकार्य जब पूरा हो जाता तो हर कोई उसे सलाहते और खुश होते कि दरबार बनकर तैयार हो गया है। अगले दो पल में बेपरवाह जी फरमा देते कि इसे गिरा दो।
बकौल काशी राम, सार्इं जी के इन विचित्र खेलों को देखकर कई बार सेवादार दु:खी होते, परन्तु फिर कहते कि ‘उनकी वही जानें’। एक बार डेरे में कच्चा कोठा बनवाया। सेवादारों ने उसकी अच्छी तरह लिपाई की और एक रेशमी कपड़े का थान उसके आगे बिछाया। बेपरवाह जी आए और फरमाया कि तुम्हारा प्रेम कबूल है और कपड़ा इकट्ठा करवा दिया। करीब 3-4 घंटे उसी कच्चे कोठे में बैठने के बाद बोले कि इस कोठे को हम गिराएंगे। अगर तुम नाराज हो तो हम यहाँ से चले जाते हैं, तो गांव वालों ने कहा कि आपकी मर्जी है इसे रखो या गिराओ, मगर यहाँ से मत जाओ।
कोठे को गिरा कर दो खानों का छप्पर बना दिया गया। सार्इं जी ने दरबार के इर्द-गिर्द बेरियां व शहतूत लगवाए और वचन फरमाया कि इनमें रोज पानी डालते रहो और ध्यान से देखना कि ये वृक्ष तुम से बातें करेंगे पर आप लोग इनकी भाषा नहीं समझ नहीं पाओगे।
भई! तेरा भी कुछ करेंगे!!

सार्इं जी मुस्कुराए और उस टीले की ओर देखते हुए वचन फरमाया- ‘भई! तेरा भी कुछ करेंगे।’ सार्इं जी ने फरमाया कि इस जगह पर पुराने संतों की चेताई हुई रूहें फंसी पड़ी हैं जिन्होंने उस समय भजन-सुमिरन की कदर नहीं की और वे अब छुटकारा पाने के लिए पुकार कर रही हैं। सार्इं जी ने उस रात फिर सत्संग किया। कहते हैं कि कुछ समय के अंतराल बाद वह टीला खत्म हो गया। लखपत राय ने बताया कि सार्इं जी गांव के प्यार को देखकर बहुत खुश थे। गांव ने जो कुछ भी मांगा, सार्इं जी ने हर ख्वाहिश पूरी की। गांव में सार्इं जी की चेताई हुई 100 से ज्यादा रूहें हैं, जो आज भी दरबार के प्रति अगाध श्रद्धा भाव रखती हैं और सेवादार सत्संगी बहन-भाई भी अब बहुत हैं।
सार्इं जी ने बख्शी दरगाह की पदवी:

जो अल्लाह, राम, वाहेगुरु की भक्ति में आया, जिसने राम को धारण कर लिया वो ही सबसे ऊंचा है। भेड़कुट, बांवरी आदि छोटी जाति के लोगों को रामधारी का खिताब दिया। बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने सेवादारों को भिन्न-भिन्न उपाधियों से भी नवाजा। प्रेमी काशी राम को (गवर्नर), ख्याली राम (वायसराय), भीमा राम(लाट साहब), बनवारी सेठ (मोदी साहिब), हजारी राम (पोलिटिकल), सोहन लाल (वजीर साहिब), पत्त राम (जज साहिब) के अलावा मोहर सिंह (माल अफसर), धर्मवीर (थानेदार) व काशी राम रामधारी (नम्बरदार) आदि। बेपरवाह जी ने यह वचन भी फरमाया कि ‘आप साध-संगत के अफसर नहीं हो, आप दरगाह के अफसर हो।’
सार्इं जी ने गांव को देश-दुनिया में चमकाया

जब पिता जी पहली बार चुनाव मैदान में उतरे तो बेपरवाह जी के पास आशीर्वाद लेने गए, इस पर दातार जी ने वचन फरमाए- सरपंच बनने से पहले भी अहंकार नहीं करना है और जीतने के बाद भी अहंकार नहीं करना है।
ऐसा रहमत भरे आशीर्वाद का ही कमाल था कि चुनाव के नतीजे बहुत ही चौंकाने वाले सामने आए। इंद्रजीत बताते हैं कि गांव ने समय-समय पर प्रदेश के राजकाज में महत्वपूर्ण भागीदारी की है।
12 साल तक नाच-नाचकर पाई बेशुमार खुशियां

सार्इं जी जिस भी गांव में सत्संग करने के लिए पहुंचते, मैं पहले ही पहुंच जाता और सार्इं जी के स्वागत में खूब नाचता। सार्इं जी भी बड़ा प्यार लुटाते थे। करीब 12 वर्ष तक सार्इं जी के सान्निध्य में दूर-दूर तक सत्संगों में जाने का अवसर मिला।
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने भी हमेशा प्यार भरा आशीर्वाद दिया। पूज्य हजूर पिता जी ने भी हमेशा बच्चों की तरह लाड़-प्यार दिया है।
‘‘तेरे ही तो दर पे गरीबों की लाज है…!’’

एक दिन सार्इं जी से गृहप्रवेश की अर्ज की। मन में बड़ा वैराग्य फूट रहा था। सार्इं जी ने परिवार की भावना का सम्मान करते हुए फरमाया कि वरी! जरूर आएंगे। समय में बदलाव के साथ सार्इं दातार जी ने अपन चोला बदल लिया। मन में एक टीस सी थी कि सार्इं जी अपना वायदा पूरा नहीं करके गए।
पूजनीय परमपिता जी एक बार अमरपुर धाम में पधारे हुए थे, बेपरवाह जी ने अचानक ही घर में आने का प्रोगाम बना लिया। वर्षों की इच्छा को बिना कहे पूजनीय बेपरवाह जी ने पूर्ण कर पूरे परिवार को खुशी से सराबोर कर दिया।
तीनों पातशाहियों ने लुटाया अपना बेशुमार रहमोकरम

घर में खुशी का माहौल था। कुछ दिनों के बाद अचानक बेटे की तबीयत बिगड़ गई। उसको हिसार में प्रसिद्ध चिकित्सक को दिखाया तो उन्होंने बताया कि बेटे के हार्ट का वॉल लीक है, जिसके चलते यह स्थिति पैदा हुई है। मन में बड़ी घबराहट सी हुई, लेकिन विश्वास था तो केवल अपने सतगुर पर। हम बच्चे को लेकर डेरा सच्चा सौदा दरबार में पहुंचे।
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज से मिलकर अपनी बात रखी तो बेपरवाह जी ने वचन फरमाया- ‘पुत्तर, घबराना नहीं, हार्ट दा वॉल वगदा है तां वगदा रहण देओ।’ वो समय था और आज का समय है, बेटा बिलकुल स्वस्थ है। हालांकि कुछ समय पूर्व उसी बेटे को एक बार तबीयत खराब होने पर हिसार के उसी डाक्टर के पास दिखाया गया। उस डाक्टर ने अन्य बीमारी का उपचार तो कर दिया लेकिन वॉल के रिसाव को छेड़ने से मना कर दिया। उस डाक्टर ने बचपन से वॉल का रिसाव होने के बावजूद बेटे के हष्ट-पुष्ट होने पर बड़ी हैरानी जताई।
आधे हरियाणा में पहुंचती है दरबार के चीकुओं की मिठास

सेवादार राजेन्द्र इन्सां, रमेश इन्सां, कृष्ण इन्सां, मनजीत इन्सां व सोनू इन्सां ने बताया कि दरबार में चीकू के बड़े-बड़े पेड़ बने हुए हैं जिन पर बेशुमार फल लगता है। इन चीकुओं की मिठास का हर कोई कायल है। आस-पास के जिलों में इन चीकुओं की खास मांग रहती है। यहां हर मौसम के फल व सब्जियाँ हमेशा उपलब्ध रहते हैं। खास बात यह भी है कि दरबार के हर सेवाकार्य में गांव के लोग बढ़-चढ़कर भागीदारी करते हैं। सार्इं जी द्वारा लगाई प्यार की यह फुलवारी आज पूरे गांव को महका रही है। यहां अब साध-संगत धर्म-जात-पात व नफरत की दीवारें तोड़ कर मानवता व इन्सानियत की सेवा एकजुट होकर कर रही है, यहां प्रेम की गंगा बह रही है।
सार्इं जी की रहमत से नलके का पानी हुआ मीठा

पहले वहां पर कच्ची ईटों का डेरा बनाया गया। उन दिनों सारे गांव में जमीन के नीचे वाला पानी बिल्कुल खारा हुआ करता था। गांव वालों को जब इस बात का पता चला तो वह पूज्य बेपरवाह मस्ताना जी के पास आ गए। पूज्य बेपरवाह जी उस समय डेरे में नल लगवाने के बारे में विचार कर रहे थे।
पूज्य बेपरवाह जी की हजूरी में अपनी मजबूरी प्रकट करते हुए गांव वालों ने प्रार्थना की, हे सार्इं जी! आप स्वयं खुदा, रब्ब, कुल मालिक हैं, आप इस नल का पानी मीठा कर दें तो हम सब ग्रामवासी आप जी से नाम शब्द लेकर प्रेमी बन जायेंगे।
पूर्ण रूहानी संत-फकीर दुनिया की भलाई के लिए ही तो सृष्टि पर अवतार धारण करते हैं और मानवता की सेवा, जीवोद्धार करना ही उनका एक मात्र उद्देश्य रहता है। दयालु दातार जी ने उन सब को यह विश्वास दिलवा दिया कि परमात्मा ही सब कुछ करने वाला है, आप उस पर भरोसा रखें। वह जीवों की सच्ची अरदास अवश्य पूरी करता है। इसके साथ ही सर्व-सामर्थ दातार जी ने डेरे के अन्दर एक स्थान पर अपने पवित्र चरण कमल रख कर आदेश दिया, ‘भाई! यहां पर नलका लगा दो।’ नलका ठीक उसी स्थान पर लगाया गया। कुल मालिक की अथाह रहमत हुई। नलके का पानी अमृत के समान ठन्डा, मीठा और इतना स्वादिष्ट था कि सभी गांव वाले खुश हो गए। गांव में कुल-मालिक की जय-जयकार होने लगी। सचमुच गांव वालों को अमृत का चश्मा मिल गया था। गांव की सभी माताएं-बहनें पानी भरने डेरे में ही आने लगी और इस प्रकार सारा दिन डेरे में पानी भरने वालों का शोर रहने लगा।
इससे डेरे में रहने वाले साधु, सतब्रह्मचारी व सेवादार भाइयों के आराम व उनकी भजन-बंदगी में बाधा पड़ती थी। इसलिए गांव के मुखिया लोगों के साथ राय मश्वरा करके नलका वहां से उखाड़ कर मेन गेट के साथ लगा दिया गया। परन्तु पानी बिल्कुल खारा निकला। उसके बाद वहीं गेट के आस-पास उसी गहराई पर लगभग चार-पांच बोर किए गए, परन्तु पानी न मीठा था और न ही मीठा निकला। गांववालों ने नलका फिर से पहले वाली जगह पर लगाने की सलाह की, लेकिन पहले वाला बोर (नलका) तो बन्द कर दिया गया था, इसलिए उस सही जगह का अनुमान भी ठीक से नहीं लगा। जो नया बोर वहां पर किया गया उसका पानी भी बिल्कुल खारा था।
प्रेमी बताते हैं कि आखिर उसी पहले वाले स्थान की तलाश की गई, जहां पर पूज्य बेपरवाह जी ने शुरू में नलका लगवाया था। जब नलका फिर से उसी स्थान पर लगाया गया तो पूज्य बेपरवाह जी की ‘रहमत का अमृत’ यानि वही ठण्डा व मीठा पानी प्राप्त हुआ। कुल मालिक के इस अद्भुत करिश्मे को देखकर सभी लोग हैरान रह गए। हालांकि वहां साथ किया गया बोर उस निश्चित स्थान से केवल चार गज के अन्तर पर ही था। कुल मालिक की उस प्रत्यक्ष रहमत को देखकर गांव वालों को यकीन हो गया कि पूज्य बेपरवाह मस्ताना जी महाराज स्वयं भगवान, कुल मालिक, रब्ब, खुदा हैं। उन्हें यह भी मालूम पड़ गया कि परमात्मा जो चाहे कर सकता है और पूज्य बेपरवाह जी ने वो सब कुछ प्रत्यक्ष करके दिखा भी दिया।
एक बार ग्रामीणों ने सार्इं जी से गांव में पानी की समस्या के समाधान की अर्ज की तो सार्इं जी ने वचन फरमाए कि समय आएगा जब गली-गली में पानी होगा। समय गुजरा तो क्षेत्र में सेम का बोलबाला होने लगा। हर गली में थोड़ा-सा गड्ढा खोदते ही पानी निकल आता था। लेकिन सेम के चलते फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा। उन्हीं दिनों जब पूजनीय परमपिता जी अमरपुर धाम में पधारे तो ग्रामीणें ने फिर अर्ज की कि बेपरवाह जी सेम से सब कुछ बर्बाद हो रहा है। बेपरवाह जी ने वचन फरमाए- ‘भई! पहले दी तरहां ही कर देइये।’ तो ग्रामीणों ने दुहाई देते हुए कहा कि कि नहीं दातार जी, ऐसा हुआ तो हम फिर से प्यासे मर जाएंगे। बेपरवाह जी ने फरमाया कि ‘चलो, फिर बराबर-बराबर कर देते हैं।’ तभी से यहां से सेम चली गई और अच्छी फसलें होने लगी।
जिसके बेटा नहीं है,वही पहला टक लगाए!

वहां मौजूूद सभी सत्संगी पुराने रस्मों-रिवाजों के अनुसार कहने लगे कि हरा पेड़ काटना महापाप है। गांव में बिश्नोई समाज का वर्चस्व था। समाज से जुड़े लोगों ने कहा कि सार्इं जी, आज अमावस्या का दिन है, हमारा समाज इसकी इजाजत नहीं देता।
तीसरी बात यह थी कि दरबार में उस समय छायादार यह एक ही वृक्ष था।
सेवादारों के ऊह-पोह की स्थिति को भांपते हुए सार्इं जी ने फिर वचन फरमाया कि वरी! इस पेड़ को काटना है। इस पेड़ को गर मानस देही मिल जाए तो किसी को कोई इतराज है क्या! इस पर सभी चुप हो गए। सार्इं जी ने फरमाया- इस पेड़ को वही व्यक्ति पहला टक लगाए जिसके लड़का नहीं है। इस पर सभी लोग सुगबुुगाहट में लग गए। सभी ने सोहन लाल को पहला टक लगाने के लिए कहा, क्योंकि उसके 7 लड़कियां ही थी। आखिरकार सोहन लाल ने पहला टक और उसकी धर्मपत्नी ने दूसरा टक अपने हाथों से लगाया। पेड़ कटने के बाद सार्इं जी ने वचन फरमाया- यह पेड़ सोहन लाल के घर लड़के के रूप में पैदा होगा। और हुआ भी ऐसा ही।
ठीक 9 महीने के बाद सोहन लाल के घर लड़का पैदा हुआ। पूरा परिवार बेटे को लेकर सार्इं जी के पास पहुंचा और नामकरण की अर्ज की। सार्इं ने फरमाया कि यह कीकर से पैदा हुआ है तो इसका नाम कीकर सिंह ही रख देते हैं। इस पर परिवार के सदस्यों ने फिर से अर्ज की कि सार्इं जी, यह नाम अच्छा सा नहीं लग रहा है जी। तो सार्इं जी ने फरमाया कि सात बहनों के बाद पैदा हुआ है, चलो इसका नाम कृष्ण रख देते हैं। उसी बच्चे ने बाद में गांव में कृष्ण नंबरदार के रूप में अपनी पहचान बनाई। कृष्ण नंबरदार के बेटे सुंदर ने बताया कि सार्इं जी के उपकारों का देन कभी उतारा नहीं जा सकता। पूरा परिवार आज भी डेरा सच्चा सौदा के प्रति आस्थावान है।
नाम के बगैर मरने नहीं देंगे!
10 मई 1952 की बात है। फतेहाबाद में सत्संग के दौरान महमदपुर रोही से काफी संगत आई हुई थी। वहां के सिमरन सिंह रामधारी (भेड़कुट) ने ‘नामदान’ के लिए अर्ज की और सत्संग मांगा। बेपरवाह जी ने फरमाया कि आप पहले सच्चे सौदे, सरसा आओ! वहीं पर आपको ‘नाम’ की दात देंगे और फिर हम आपके वहां भी चलेंगे। सिमरन सिंह ने अर्ज की कि अगर इससे पहले हमारी मौत हो गई तो? तो बेपरवाह जी ने फरमाया कि नाम के बगैर मरने नहीं देंगे।
एक जून 1952 को डेरा सच्चा सौदा सरसा में सत्संग हुआ, जिसमें सिमरन सिंह, उसका परिवार व गांव के अन्य मौजिज लोग सत्संग के लिए महमदपुर रोही से पहुंचे थे। सत्संग उपरान्त सबने नाम-दान लिया और बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने महमदपुर रोही के लिए 4 जून 1952 का सत्संग मंजूर कर लिया। सत्संग फरमाया और अनेक जीवों को नाम-शब्द बख्श कर उद्धार किया।

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