आज भी धरोहर हैं हमारी प्राचीन तोपें Artillery
भारत में तोपों का प्रचलन काफी पुराना है। बाबर के आने से पहले गुजरात के राजाओं द्वारा तोपों का प्रयोग किया जाता था। वैसे तो हुमायूं के पास भी तोपें थीं और औरंगजेब ने भी तोपों का प्रयोग बहुत किया था परन्तु उस काल की विशेष प्रहार क्षमता वाली उल्लेखनीय तोपों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है।
भारतीय राजाओं के तोपखाने की अनेक तोपें आज भी उपलब्ध हैं जो संग्रहालयों, प्राचीन दुर्गों की प्राचीरों और राजमहलों की शोभा बढ़ा रही हैं। ये आकर्षक तोपें पुरातत्वीय दृष्टि से आज भी महत्त्वपूर्ण हैं।
यूं तो तोपों का इतिहास बहुत ही पुराना है किन्तु प्राचीन काल में तोपों का प्रयोग सिर्फ आतिशबाजी के लिए ही किया जाता था। आतिशबाजी ही तोपों की जननी रही होगी, ऐसा विश्वास किया जाता है। दुनिया की सबसे पहली तोप लगभग एक हजार वर्ष पहले चीन में बनी थी। उस समय लोगों को तोप के सामरिक महत्त्व (युद्ध में प्रयोगार्थ) के विषय में जानकारी नहीं थी। सामरिक महत्त्व की तोपों के निर्माण का श्रेय सर्वप्रथम इटली को ही जाता है। इटली में सोलहवीं शताब्दी में लोहे की काफी बड़े आकार की तोपें बनाई गयी थी। चालीस टन वजन की तोप का इतिहास भी यहां मिलता है।
इसके बाद तरह-तरह की छोटी-बड़ी तोपें बनने लगीं। ये तोपें युद्ध में अहम् भूमिका भी निभाने लगीं। जिसके पास उस जमाने में तोपखाना होता था, उसकी जीत सुनिश्चित समझी जाती थी। प्राचीनकाल में किसी भी युद्ध में तोपें निर्णायक भूमिका निभाती थीं और किसी भी लड़ाई का रूख मोड़ने की क्षमता रखती थी।
तोपों का निर्माण लोहे से ही होता था किन्तु पीतल व अन्य धातुओं से भी तोपों के निर्माण का उल्लेख मिलता है। स्वाधीनता संग्राम के समय वीर तांत्या टोपे ने लकड़ी से बने तोप का उपयोग किया था। प्राचीनकाल की अनेक तोपें आज भी विश्व के संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं।
अनेक लोहे की तोपें ऐसी भी हैं, जिन पर अभी तक जंग नहीं लगा है यद्यपि ये खुले आकाश के नीचे धूप एवं वर्षा में सैंकड़ों वर्षों से पड़ी हैं। कुछ तोपें तो असाधारण रूप से विशालकाय हैं जो अपने अन्दर एक लंबा इतिहास समेटे हुए हैं।
पुराने जमाने में लकड़ी की भी तोपें हुआ करती थीं तथा उनका युद्ध में बखूबी प्रयोग होता था। इन तोपों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाने-ले जाने में सुविधा हुआ करती थी। सन् 1715 ई. में सिखों द्वारा लकड़ी की तोपों का प्रयोग किया गया था।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान अमर वीर तांत्या टोपे द्वारा भी लकड़ी की तोपों का उपयोग अरखारी के महाराजा के विरूद्ध किया गया था। आज के समय में लकड़ी की तोप की बात सुनकर आश्चर्य होता है परन्तु उस जमाने के कुशल कारीगर लकड़ी की बहुत अच्छी तोपें बनाते थे जो युद्ध में अच्छा काम करके दिखाती थीं किन्तु उनकी क्षमता एवं आयु धातु से बनी तोपों से कम हुआ करती थी।
भारत में तोपों का प्रचलन काफी पुराना है। बाबर के आने से पहले गुजरात के राजाओं द्वारा तोपों का प्रयोग किया जाता था। वैसे तो हुमायूं के पास भी तोपें थीं और औरंगजेब ने भी तोपों का प्रयोग बहुत किया था परन्तु उस काल की विशेष प्रहार क्षमता वाली उल्लेखनीय तोपों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है।
होल्कर एवं सिंधिया राज्यों में तोप बनाने के अच्छे कारखाने थे जो न केवल अपने लिए बल्कि दूसरी रियासतों के लिए भी तोपें बनाते थे। स्वाधीनता के प्रथम संग्राम में भी तोपों का खुलकर प्रयोग हुआ था। झांसी, ग्वालियर आदि के किलों पर आज भी वे तोपें रखी हुई हैं जिनके प्रयोग से अंग्रेजों के छक्के छूट गए थे।
भारतीय राजाओं के तोपखाने की अनेक तोपें आज भी उपलब्ध हैं जो संग्रहालयों, प्राचीन दुर्गों की प्राचीरों और राजमहलों की शोभा बढ़ा रही हैं। ये आकर्षक तोपें पुरातत्वीय दृष्टि से आज भी महत्त्वपूर्ण हैं। भारतीय शासकों के तोप बनाने के अपने कारखाने थे। बड़ी-बड़ी एवं विशालकाय तोपों के निर्माण में यहां के कारीगर काफी निपुण थे।
इन Artillery तोपों की ढलाई अत्यन्त तकनीकी ढंग से की जाती थी। आज उन तोपों को देखकर आश्चर्य होता है कि उस जमाने में जब अत्याधुनिक मशीनें व साधन उपलब्ध नहीं थे, तब इतनी बड़ी और भारी तोपों की ढलाई कैसे होती होगी? अनेक प्राचीन तोपें ऐसी भी हैं, जिन में एक मण (40 किलोग्राम) का गोला लगता था। जब ये चलती थीं तो आस-पास का क्षेत्र दहल जाता था।
प्राचीन भारतीय तोपों में धूम-धड़ाक, कड़क बिजली, धरती धमकन, चमकदायिनी, धरती धड़क, गढ़मेजन, जयसिंह बाण, शत्रुपछाड़ आदि तोपें काफी प्रसिद्ध थी। इन तोपों को चलाकर एक जगह से दूसरे जगह तक ले जाने के लिए सैंकड़ों सिपाही हुआ करते थे।
आज भी अनेक स्थानों पर स्थित किलों व संग्रहालयों में इस प्रकार की तोपों को देखा जा सकता है जिन्होंने अनेक शत्रुओं का अन्त किया था। इन तोपों पर अनेक प्रकार के संदेश लिखे हैं।
-आरती रानी