अफसोस -साहित्य कथा
वह जब मेले में पहुँचा तो उसकी आँखों के सामने हज़ारों रंग-बिरंगी दुकानें सजी हुई थी। दुनियाभर की जरूरत का सामान उस मेले में बिकने को तैयार था। सभी दुकानदार अपनी चीज़ों के नाम ले-लेकर उनके गुणों का बखान कर रहे थे। अभी उसने आधा मेला भी ठीक से नहीं देखा था और कुछ खरीदा भी नहीं था। दरअसल वह चंद सिक्के लेकर ही आया था और वह उन्हें यूं ही किसी बेकार-सी चीज में खर्च करके खत्म भी नहीं करना चाहता था। सो उसने सोचा कि उसके पास सिक्कों की कमी है तो क्या हुआ, वक़्त की तो नहीं।
इसलिए पहले पूरा मेला घूमा जाए और फिर खूब सोच-विचारकर इन थोड़े से पैसों को समझदारी से खर्च किया जाए। ऐसे मौकों पर अक्सर उसके दिल और दिमाग आपस में झगड़ पड़ते थे। उसका दिल उसे अक्सर परेशानी में डालता था और दिमाग उसे हमेशा उन परेशानियों से बाहर निकाल लेता था।
आज जब वह मेले में आया तो दिल और दिमाग दोनों को उसने चुप करा दिया था। बस आज वह अपनी आँखों को खुला रखे हुआ था। सभी सजी-धजी दुकानों में रखी हुई चीजें उसे आकर्षित कर रही थीं। वह मन्त्र-मुग्ध-सा उन्हें देखे जाता और मुस्काते हुए आगे बढ़ जाता। अभी दो कदम चला ही था कि उसे रंग-बिरंगी सजी-धजी दुकानों के बीच में सड़क पर एक खिलौने बेचने वाली स्त्री दिखाई दी। जो अपनी बांस की टोकरी में कुछ मिट्टी के खिलौने बेच रही थी।
उन खिलौनों के बीच उसे एक बहुत ही सुन्दर गुड़िया दिखाई दी। उसकी बनावट और रंग इतने सुन्दर थे कि वह वहीं रुक गया। बहुत देर तक उस मिट्टी की गुड़िया को निहारता रहा। उस मिट्टी की गुड़िया के होठों पर अजीब-सी रहस्यमयी मुस्कान थी और आँखों में एक विशेष आकर्षण-सा, उसकी आंखें बोलती थी या लब, ये समझ नहीं आ रहा था, लेकिन उसे न जाने क्यों ऐसा लगा कि उसे अभी उस गुड़िया ने एक आवाज दी हो और वह रुक गया था खामोशी से।
उसे वहाँ रुका देख खिलौने वाली मुस्काई और बोली ‘‘कुछ खरीदना है बाबू?’’ ‘‘मैंने अपनी जिन्दगी में ऐसी सुन्दर गुड़िया कभी नहीं देखी। ये मुझे चाहिए ही चाहिए।’’ उसके दिल ने पहली बार उसे सलाह दी, हाँ तुम इसे ले लो अभी के अभी।
तभी दिमाग ने उसे चेताया सुनो, ‘‘पागल मत बनो। अभी तो मेला शुरू हुआ है, अभी से पैसे खर्च कर दोगे? आगे इससे बेहतर दुकानें होंगी और इससे लाख दर्जे बेहतर खिलौने भी, अभी इसे खरीदकर कहाँ बोझ लिए फिरते रहोगे? मेले का मजा भी नहीं ले सकोगे, न झूलों का, न खाने-पीने का।’’ दिमाग ने अपने तर्क दिए।
दिल ने आखिरी बार बोला ‘‘और अगर पूरा मेला घूमने के बाद भी ऐसी गुड़िया नहीं मिली तो? और ऐसा भी हो सकता है इसे कोई और खरीद ले जाए।’’ उसने दिल-दिमाग दोनों को चुप कराया और उस खिलौने वाली से बोला-‘‘हाँ, मुझे ये गुड़िया चाहिए। उसने उंगली से छूकर उस गुड़िया पर अपना हक जताया, लेकिन मैं अभी इसे नहीं ले जा सकता, लौट कर आकर इसे ले जाऊंगा।
मैं पहले मेला घूमना चाहता हूँ।’’ लड़के ने अपनी बात स्पष्ट की और वह आगे बढ़ गया, लेकिन चार कदम चलकर वह फिर वापस आया और संशंकित होते हुए बोला-‘‘तुम इसे किसी को मत बेचना, मैं वापस आकर इसे ले जाऊंगा।’’ और फिर उस गुड़िया को निहारने लगा। अब उस स्त्री ने मुस्कुराकर कहा-‘‘बाबू, इतनी पसंद है तो अभी ले जाओ, क्या पता वापस आओ तब तक मैं न मिलूं तुम्हें या ये ही न मिले। अक्सर बहुत से ग्राहक ऐसा बोलकर जाते हैं, फिर आते भी नहीं।’’ खिलौने वाली ने अपना अनुभव बताया।
‘‘मैं आऊंगा।’’
उसने कुछ ऐसी सच्चाई के साथ कहा कि वह खिलौने वाली उसे बड़ी देर तक देखती रही। लड़का चला गया। शाम हो गयी, मेला टूटने का समय आ गया, बहुत-से छोटे दुकानदार अपनी दुकान समेटकर घर चल दिए थे और कई बड़े दुकानदार अपनी दुकान समेटने की तैयारी करने लगे थे।
खिलौने वाली के अब तक सभी खिलौने बिक चुके थे। बस उसने वह गुड़िया को बचाकर रखा था उस लड़के के वास्ते उस लड़के की आँखों की सच्चाई उसे मेला छोड़कर जाने नहीं दे रही थी और उसने कुछ देर ठहरकर उसका इंतजार करने की सोची।
उसे लग रहा था वह लड़का अगर बाद में आया तो कितना दुखी होगा और मैंने उसकी गुड़िया किसी अन्य ग्राहक को बेची भी तो नहीं है, लेकिन कब तक इंतजार करूं उसका? उसे अब तक आ जाना था। मैं भी क्यों उस बेपरवाह लड़के की बात में लग गई! उसकी बात का क्या भरोसा! भूल भी गया होगा वह इस गुड़िया को। उसने जरूर झूले झूलने में या खाने-पीने में या नौटंकी देखने में पैसे उड़ा दिए होंगे, खिलौने वाली खुद से बात किये जा रही थी।
बहुत देर होने पर खिलौने वाली के सब्र का बाँध टूटने लगा था। उसने भारी मन से टोकरी उठाई। उसकी खाली टोकरी में अब भी वह सुन्दर गुड़िया मुस्करा रही थी। उसने उस मिट्टी की गुड़िया से मन ही मन कहा-‘‘कैसी अभागी हो तुम, तुम्हें किसी ने नहीं खरीदा, फिर भी मुस्काती हो? इससे बेहतर होता मैं तुम्हें किसी और को दे देती, चार पैसे भी मिल जाते।’’ उसने अफसोस जताया।
तभी मेले में अचानक से भगदड़ मच गई और दौड़ती आती भीड़ में से आते एक व्यक्ति ने उस खिलौने वाली को ऐसा धक्का मारा कि उसकी टोकरी हाथ से छूट गई और वह गुडिय़ा जमीन पर गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी।
‘‘ओह…ये क्या हो गया!’’ वह मन ही मन बड़बड़ाई।
उसने गुड़िया हाथ में उठाई। उसका सिर अलग और धड़ अलग हो गए थे ‘‘ओह, कम्बख्त टूटी भी तो कितनी खूबसूरती से कि अब भी मुस्काती है!’’
उसे ये मिट्टी की गुड़िया आज पहली बार सच में सुन्दर लगी। उसे अब कुछ-कुछ समझ आने लगा कि क्यों इतने सारे खिलौनों में से उस लड़के की नज़र इस गुड़िया पर ठहर गई थी। वास्तव में ये गुड़िया बहुत सुन्दर थी लेकिन उस लड़के की किस्मत सुन्दर नहीं थी और इस गुड़िया की भी। देखो, वह अब तक नहीं आया, खिलौने वाली गुस्से से भर उठी।
‘‘आ गया मैं।’’ अचानक आवाज आई।
‘‘कहाँ है मेरी गुड़िय़ा?’’
खिलौने वाली ने सिर घुमाकर देखा तो वह लड़का मुस्कुराता और हांफता हुआ खड़ा था। खिलौने वाली ने गुस्से में उसे डांटा,
‘‘टूट गई तुम्हारी गुड़िया।’’
‘‘मैंने बहुत देर तक तुम्हारा इंतजार किया। कितने बेपरवाह हो तुम! तुमने अपना ही नहीं, मेरा भी नुकसान किया है।’’ खिलौने वाली अब गुस्से और दु:ख से भरकर आगे बढ़ गई थी। लड़का आज बेहद उदास था। उसका दिल फिर बोल पड़ा ‘‘जिन चीजों पर हम अधिकार समझते हैं, उन्हें कभी छोड़कर नहीं जाते। अपनी प्रिय चीजों को कभी दूसरों के भरोसे नहीं छोड़ा जाता और जब दिमाग और दिल एक साथ बोलते हों तो सिर्फ दिल की सुनी जाती है।’’
आज पहली बार उसके दिमाग ने उसे दु:ख में डाला था और इस दु:ख, इस पीड़ा और इस अफसोस से उसका दिल उसे निकाल पाने में असमर्थ था। वह भारी कदमों से चल दिया। उसके हाथ में अब भी चंद सिक्के थे, जिन्हें उसने चाहते हुए भी मेले में खर्च नहीं किया था।
-ममता व्यास