spiritual satsang

‘कोई कोई जाने कैसा नशा है नाम का। वो ही जाने प्याला पिया, प्रेम के जाम का’।|
रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा

जो भी साध-संगत आश्रम में, सत्संग में चलकर आई है, आप लोग दूर-दराज से, आस-पास से चलकर आए हैं, आपका यहां आश्रम में, सत्संग में पधारने का स्वागत करते हैं, जी आयां नूं, खुशामदीद, वैल्कम कहते हैं:-

आपकी सेवा में जो भजन बोला जाएगा, जिस पर आज सत्संग होना है, वो भजन है-

कोई कोई जाने कैसा नशा है नाम का।
वो ही जाने प्याला पिया, प्रेम के जाम का।

कोई-कोई है जो मालिक के लिए तड़पता है जिसके अंदर प्रभु के दर्श-दीदार की तलब लगी हो, अंदर तड़प हो कि मैंने उस परम पिता परमात्मा को देखना है और जो उस तड़प के लिए समय लगाता है तो वो ऐसी जगह पहुंचता है जहां पर परम पिता परमात्मा की चर्चा होती है और जिसे रूहानी मजलिस या सत्संग कहा जाता है। ऐसी जगह पर पहुंच कर वो जीवात्मा जब अपने परम पिता परमात्मा की चर्चा सुनती है, रूहानी पीर-फकीरों से उस तक जाने का रास्ता सुनती है तो आत्मा झूम उठती है और फिर वो वर्णात्मक नाम से जुड़ जाती है। वर्णात्मक नाम, जिसमें मालिक का वर्णन किया गया है, इसे सिफाती नाम भी कहा जाता है, यानि जिसमें मालिक की सिफत की गई हो।

ऐसे शब्द जिनको पहले संत, पीर-फकीर अभ्यास करके देखते हैं, उससे जब नूरी नजारे आते हैं, आत्मिक शक्ति, आत्मिक शांति मिलती है तो वो उन शब्दों को आम जनता को देते हैं। तो ये एक ऐसी रीत है जो गुरु-फकीर मालिक के हुक्मानुसार मुरीदों को बताता है। मुरीद आगे कभी किसी को मुरीद नहीं बना सकता, शिष्य कभी शिष्य नहीं बना सकता। इसीलिए गुरुमंत्र, नाम-शब्द आगे न बताने की प्रेरणा दी जाती है। क्योंकि आप अभ्यासी हैं, आप उसका जाप कर सकते हैं, आप आगे किसी का पार उतारा नहीं कर सकते। जैसे टीचर, मास्टर, लैक्चरार ही पढ़ाते हैं, बच्चे लैक्चरारों को नहीं पढ़ाते, ऐसा कहीं भी नहीं है।

उसी तरह गुरु, टीचर, मास्टर ही रूहानियत का सबक पढ़ाता है जिसे वर्णात्मक नाम, कलमा, शब्द कहा जाता है और जो लोग उन शब्दों को लेकर अभ्यास करते हैं, जो लोग शब्दों का नियमित जाप करते हैं उनके अंदर मालिक तक जाने की शक्ति पैदा हो जाती है। नाम का सुमिरन कितनी देर में फल देता है? क्योंकि बहुत जल्दबाज हैं लोग। लोग ये चाहते हैं कि ज्यादा देर सुमिरन न करना पड़े। फल ज्यादा मिल जाए। तो आप कम से कम आधा घंटा, पौना घंटा, घंटा सुबह-सवेरे 2 से 5 बजे के बीच में समय लगाओ। इस समय को हिन्दू धर्म में ब्रह्म मुहूर्त कहा गया है, सिक्ख धर्म में अमृत वेला, मुसलमान सूफी फकीर खुदाया वक्त, बांगे वक्त और इंग्लिश रूहानी सेंट गॉड्स परेयर टाईम कहते हैं।

लेकिन इस समय में सुमिरन करने से पहले आपको कम से कम चार-पांच घंटे नींद लेना जरूरी है यानि 2 से 5 बजे के बीच में जागो पर उससे पहले पांच घंटे तो आपको सोना ही होगा। फिर आप आधा घंटा, पौन घंटा, घंटा मालिक की याद में लगाएं। तो ये सबसे बेहतर समय है। इस समय में बैठने से आत्मिक शक्ति जागृत होती है, आत्मबल बढ़ता है और ये समय बड़ा ही शांत होता है। क्योंकि इस समय के दौरान शोर-शराबा लगभग न के बराबर होता है। सार्इंटिस्ट भी इस समय को अच्छा मानते हैं कि चौबीस घंटे में आक्सीजन की मात्रा अगर किसी समय में अधिक मानी गई है तो वो यही समय है।

तो सार्इंटिस्ट कहते हैं कि हमने नई खोज की जबकि रूहानियत में आदि काल से ये खोज हो चुकी है कि यह 2 से 5 बजे का समय सर्वोत्तम समय है और ईश्वर को पाने का यही सर्वोत्तम समय है। तो इस समय में मालिक के आशिक जागते हैं और वो सुमिरन करते हैं, भक्ति-इबादत करते हैं। अगर आप इस समय में नहीं जाग सकते तो जिस समय भी आप जागते हैं उस समय में जागो, रफा-हाजत जाकर, फै्रश होकर आप सुमिरन पर आधा-पौन घंटा लगाइए और शाम का समय या रात का वो समय जब आप सोने जा रहे हैं।

यानि सोने से पहले आधा-पौना घंटा मालिक की याद में लगाना ये भी बहुत अच्छा है। अगर नियमित रूप में (लगातार) आप सच्ची भावना से सुमिरन करते हैं तो एक महीने में ही आपके ध्यान जमने के लक्षण शुरू हो जाएंगे, यानि 5 दिन में ही। भाव घंटा सुबह-शाम यानि 60 घंटे यानि केवल पांच दिन ही बनते हैं। इससे कम और क्या हो ! तो सच्ची लगन से तड़प कर मालिक का सुमिरन करो। ये न हो कि आप सुमिरन पर बैठे हैं लेकिन ध्यान कहीं ओर दौड़ाए जा रहे हंै। इतना समय कम से कम ध्यान जमने में लगता है, सुमिरन चलने में लगता है। फिर जैसे-जैसे आप सुमिरन करते जाएंगे, आपकी जीवात्मा अंदर की चढ़ाई शुरू करेगी। शरीर के अंदर ही अंदर अजीबोगरीब परिवर्तन होेंगे। वो बुराइयां जिनमें आप लज्जत महसूस किया करते थे, आपको अच्छी लगनी बंद हो जाएंगी ।

वो भलाई जिसको आप फिजूल का धंधा समझते थे, वास्तविकता लगने लगेगी, आपके अंदर सच्ची भावना पैदा होगी, आपका हृदय परिवर्तन होगा, दया-रहम के लक्षण पैदा होंगे, दुनियावी कामों में आप तरक्की हासिल करेंगे और मालिक की याद में भी मन ठहरने लगेगा। फिर समय गुजरता जाएगा और निरंतर अभ्यास से आपकी आत्मा अंदर ही अंदर बढ़ने लगेगी, शरीर में ऊपर को चढ़ने लगेगी। इसमें कइयों को ऐसा महसूस होता है कि जैसे कोई चींटी शरीर पर ऊपर की ओर रेंग रही हो। दूसरे कुछ सज्जनों का ये अनुभव है कि यूं लगता है जैसे शरीर शिथिल होता जा रहा हो। शिथिलता यानि ऐसे जैसे शरीर हल्का-हल्का यानि सुन्न सा होता जा रहा हो।

तो ये लक्षण हैं आत्मा की चढ़ाई के। पर ये किसी किसी को अनुभव होते हैं। लेकिन ज्यादातर इसे महसूस नहीं करते। आत्मा आगे बढ़ जाती है और जब आत्मा उस जगह पहुंचती है जहां आगे दरवाजा बंद होता है। क्योंकि नौ दरवाजे हमारे शरीर के खुले हैं। दो कान, दो आंखें, दो नाक, एक मुंह और दो इंद्रियां। ये नौ दरवाजे हैं जो खुले हुए हैं। दसवां दरवाजा दोनों आंखों के बीच नाक के ऊपर ललाट-माथे की ये जगह है। तो ये जगह बंद है। जब जीवात्मा सुमिरन के द्वारा इस जगह पहुंचती है तो ये दरवाजा खुलता है। इस दरवाजे पर पहुंचने में बहुत ही सुख का अहसास होता है, बेशुमार लज्जत, कशिश, चुम्बकीय खिंचाव और एक ऐसा अनुभव जो भुलाए नहीं भूलता।

ये आत्मा के सिमटने का विशेष अनुभव है क्योंकि आत्मा रोम-रोम में शरीर में उलझी हुई है। हमारे शरीर में हर जगह से आत्मा की वजह से ही सब कुछ चल रहा है। शरीर में से आत्मा को निकालना, मन इंद्रियों में से उसे निकालना बड़ा ही मुश्किल है जोकि समय और धैर्य का काम है। यानि धैर्यवान इन्सान ही ऐसा कर सकता है। पर सुमिरन के बिना निकलना असंभव है। योगा के द्वारा कुछ हद तक ऐसा संभव हो सकता है। लेकिन जो पहुंचे हुए हठ योगी होते हैं वो भी दसवें द्वार से आगे नहीं बढ़ पाते। दसवें द्वार में प्रवेश करते ही जीवात्मा को त्रिलोकी नाथ यानि काल-महाकाल के दर्शन होते हैं। ये वो अवस्था है जहां बड़े-बड़े योगी रुक जाया करते हैं क्योंकि उसमें भी बहुत सूरजों का प्रकाश है। ऐसा नूरानी प्रकाश जो कहने-सुनने से परे है। वहां के नजारे अजब व गजब हैं।

अगर आप खूबसूरती की बात करें तो ऐसे खूबसूरत इन्सान जिन्हें परियां कहा जाता है, वहां पर विचरते हैं, नृत्य करते हैं। ऐसा मधुर संगीत वहां चारों तरफ गूंजता है जो मन को मोह लेता है। इतनी खूबसूरती, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इतना जबरदस्त दृश्य होता है कि जीवात्मा वहीं पर सैर करती रह जाती है और बहुत सारे योगियों ने इसी जगह को भगवान के दर्शन समझा और इसी को खंड-ब्रह्मण्ड समझ कर सब कुछ कह डाला। क्योंकि यहां पर हजारों सूरज, चंद्रमा विचरते हैं, बहुत कुछ यहां पर नजर आता है। लेकिन ये वो असल निज मुकाम नहीं, ये तो काल का एक ऐसा रूप है जिसे महाकाल या त्रिलोकी नाथ भी कहा जाता है। अगर इसमें आत्मा रुक गई तो आप समझिए कि गुलाम हो गए। क्योंकि ये तो काल की जगह है, इसे आपको छोड़ना है।

जो जीवात्माएं पूर्ण गुरु, पीर-फकीर के दिशा-निर्देशन में सुमिरन करती हैं वो इस तरफ देखती ही नहीं क्योंकि यहां पहुंचते ही आत्मा का खुद का प्रकाश भी कई सूरजों जितना हो जाता है। इतनी लाइट, इतनी शक्ति होती है कि अगर वो पूर्ण गुरु, पीर-फकीर की चेताई हुई है, सुमिरन से जुड़ी हुई है तो उसे काल-महाकाल से क्या लेना-देना। वो यहां नहीं रुकती। अरबों-खरबों कि.मी. की चढ़ाई महसूस होती है, यानि इन्सान (अभ्यासी) को खुद को लगता है कि वह ऐसे चढ़ाई पर चढ़ता जा रहा है। जीवात्मा बहुत ऊंचाई पर पहुंच जाती है। वहां पर एक ऐसा रास्ता है जो बड़ा ही बारीक है, बड़ा ही तंग है। उस रास्ते पर अगर मालिक का सुमिरन किया हुआ है, अभ्यासी है तो वो जा सकता है। वरना वो रास्ता नजर ही नहीं आता। वहां से भी जीवात्मा नीचे चली आती है और फिर वहीं आकर महाकाल के चक्कर में फंस जाती है।

लेकिन जब अभ्यासी अभ्यास करता रहता है तो पूर्ण सतगुरु की चेताई वो रूह उस रास्ते को पहचान लेती है जो बारीक से भी बारीक जैसे सूई का अगला हिस्सा होता है, उससे भी कई गुणा बारीक है। वहां पर आत्मा को डालना होता है यानि अपने आप को उसमें प्रवेश दिलाना होता है। ये भी बड़ा ही जटिल और मुश्किल काम है। लेकिन जिसने सुमिरन किया होता है, अभ्यास किया होता है वो निधड़क, बेपरवाह होकर उसमें प्रवेश कर जाते हैं। ये एक आसमान को छोड़ना है, उस आसमान को जो काल के प्रभाव तले है, महाकाल का है। बस जैसे ही उसमें आत्मा प्रवेश कर गई तो उस तंग रास्ते में जीवात्मा आड़ी-तिरछी, ऊपर-नीचे, कई बार इतना नीचे गिरती है कि उसको कहीं कोई स्टॉप भी नजर नहीं आता कि कब कहीं रुकेगी, कब कहीं ठहराव आएगा।

इतनी गिरावट, कभी ऊपर, कभी नीचे जैसे हार्ट की ईसीजी करते समय सामने स्क्रीन पर ग्राफ बनता है। बल्कि उससे भी अजीबो—गरीब ग्राफ अगर बनाएं तो रूह का वहां पर बन जाता है। वो अरबों-खरबों कि.मी. का फासला इस थोड़ी सी जगह में ही सिमट जाता है। वो बड़ा ही अजीबो-गरीब रास्ता है लेकिन जीवात्मा के पास अपना प्रकाश होता है। अपने सतगुरु-मालिक की रहनुमाई में होती है तो उसके सहारे वो जीवात्मा और आगे बढ़ती है। जैसे ही ये रास्ता खत्म होता है तो एक ऐसा आसमान खुलता है जिसे रूहानियत की शुरूआत कहा जाता है यानि जीवात्मा मालिक के गृह में प्रवेश कर गई। उसे अलख पुरुष कहें या कोई भी नाम उस मालिक का रखा जाए, उसके दर्श-दीदार होते हैं और उसके एक रोम में अगर हजारों सूरजों का प्रकाश कहें तो कम होगा, ऐसा प्रकाश है।

अमृत-आबोहयात के झरने, ऐसी लज्जत, ऐसी खुशी, जीवात्मा हंस के रूप में वहां पर हीरे-लाल, जवाहरात के चबूतरों से भी बढ़कर हैं। जिसकी अगर थोड़ी सी भी तुलना करते हैं तो बस हीरे-जवाहरातों की चमक याद आती है और कुछ भी नहीं। वहां पर चारों तरफ बेशुमार आनंद है, ऐसी खुशियां, ऐसी लज्जत, ऐसा परमानंद है कि जीवात्मा उन नजारों में खो जाती है। ये वो जगह है जहां पर आत्मा को पहुंचना जरूरी है। आप देखना चाहें तो उसे देख सकते हैं। यही नहीं, इससे आगे और बहुत कुछ है लेकिन ये तभी संभव है अगर दृढ़ विश्वास व सुमिरन के द्वारा अभ्यासी इन्सान बन जाए। इसके लिए समय देना होगा। आत्मा इससे आगे बढ़ती है।

बस एक छोटी सी बात कि जैसे-जैसे आत्मा स्टेजें पार करती है उसका रुतबा बढ़ता है, उसमें खुद में प्रकाश की मात्रा और शक्ति कई गुणा बढ़ जाती है। वो आगे बढ़ती हुई जब अपने परम पिता परमात्मा के दर्श-दीदार करती है तो उसमें नजारे बढ़ जाते हैं। इस धरती पर रहते हुए इन्सान जैसी भक्ति-करता है उसे वैसा ही दर्जा मरणोपरांत दिया जाता है। लेकिन वो वहीं पर रुक जाती है, आगे नहीं बढ़ पाती। जो रूहें मालिक का सुमिरन भी नहीं करती, नाम ले लेती हैं और मनमते चलती हैं, बुरे कर्म, निंदा-चुगली और हर तरह की बुराइयां करती हैं, वो जीवात्माएं ऐसी जगह पर आती हैं जिसे सुन्न कहा जाता है।

वहां पर भयानक अंधकार और भयानक गिरावट है, ऊंचाई का रास्ता है पर उन रूहों के लिए वो बंद रहता है। तो वहां पर वो रूहें विचरती हैं, रहती हैं। हालांकि जीवात्मा में अपना प्रकाश है लेकिन जो राम-नाम का प्रकाश है, जब वो सुमिरन में बैठी थी तभी उसके साथ वो प्रकाश जुड़ गया था। इसलिए कबीर जी ने लिखा है कि एक स्वांस में अगर सुमिरन सुन लिया जाए तो वो त्रिलोकी से पार ले जाता है। तो ऐसा प्रकाश रहता है जीवात्मा में और वो अपने प्रकाश में काम करती रहती है, विचरती रहती है, कोई दु:ख नहीं होता, किसी भी तरह की बाहरी तकलीफ नहीं होती लेकिन एक ऐसी तकलीफ, बहुत जबरदस्त तड़प उसे लगी रहती है जिसका इलाज भी नहीं हो पाता।

वो तकलीफ होती है परम पिता परमात्मा के दर्श-दीदार का न होना। जीवात्मा को अपने प्रभु-मालिक के दर्शन न हों यही उस रूह के लिए सबसे बड़ी सजा वहां होती है। ऐसी बेचैनी, ऐसी अंदर तड़प जो पूरी नहीं हो पाती। वहां सदियां हो जाती हैं आत्मा को भटकते हुए। उनकी वहां पर भी बाकायदा पहचान होती है कि ये वो-वो आत्माएं हैं। तो भाई! इस तरह से वो जीवात्माएं वहां पर उलझ जाती हैं। जब कोई संत, पीर-फकीर शरीर बदलता है तो वो मालिक, परम पिता-परमात्मा स्वरूप दिव्य आत्मा शरीर छोड़कर जाती है तो उनको ये हक होता है कि वहां पर फंसी हुई जीवात्माओं को वो अपने साथ ले जा सकते हैं और उनके छूटने का कोई भी तरीका नहीं होता।

वो हर समय वहां पर कैद रहती हैं और चिल्लाती, तड़पती रहती हैं। तो इस जन्म में अगर तौबा कर ली जाए, मालिक का सुमिरन-भक्ति-इबादत कर ली जाए तो उन गुनाहों से, पापों से छुटकारा होता है, प्रायश्चित सच्चा होता है। जब इन्सान लापरवाह हो जाता है, मन का गुलाम हो जाता है, वचनों को मानता ही नहीं तो सुन्न अवस्था में जीवात्माएं रहती हैं और ये हकीकत है, ऐसा वहां पर होता है। भाई! अगर आप सुमिरन करो तभी आप रूहानियत के बारे में जान सकते हैं। जैसा आपको बताया कि पहली स्टेज पर पहुंचते ही जहां अमृत के झरने हैं, जहां सुरीली आवाज है, अगर ये कहें कि बीन, बांसुरी, सितार, पानी के झरने, शंख-नाद इन सबको बजाया जाए या मंदिर में बजने वाली वो घंटियां जिनकी दूर से आवाज हल्की-हल्की और मीठी-मीठी सुनाई देती है, इन सबको अगर जोड़ दिया जाए, तो इन सबसे अरबों-खरबों गुणा ज्यादा रसदायक मधुर संगीत वहां पर चलता है, जिस पर जीवात्माएं नाच उठती हैं।

रूह को ऐसी कशिश मिलती है, ऐसा खिंचाव मिलता है, ऐसा परम सुख मिलता है जो लिखने-बोलने में नहीं आता। आप दुनिया में जिस भी चीज में लज्जत महसूस करते हैं, स्वाद या मान-बड़ाई जो भी चीज आपको खुश कर देती है, संसार में जिस भी इन्सान को जिस भी चीज से सुख मिलता है, आनंद मिलता है वो आनंद तो क्षणिक होगा लेकिन वहां उस आनंद से अरबों-खरबों गुणा ज्यादा बढ़कर परमानंद है जो स्थिर रहता है, हमेशा बना रहता है, जीवात्माएंं उसी में गोते लगाती हैं। तो भाई! उस परमानंद की प्राप्ति करने के लिए आपमें मालिक ने ताकत भरी है, आप इस्तेमाल में लाते हो या नहीं लाते ये आप पर निर्भर करता है।

क्योंकि मन ने आपको फंसाने के लिए यहां पर बहुत से जाल बना रखे हैं, बहुत कुछ बना रखा है। आपसी प्यार-मुहब्बत की एक ऐसी जंजीर बना रखी है जिसकी लज्जत-खुशी में आप गंदगी में खो जाते हैं, उससे बाहर नहीं आ पाते। जो भावना, जो रिश्ते हमारे पीर-पैगम्बरों ने तय किए उनके प्रति सजग रहो, लेकिन उनसे हटकर जो रिश्ते आप जोड़ लेते हैं वो आपकी जीवात्मा के लिए घातक हैं, रूहानियत में आप आगे नहीं बढ़ पाएंगे। जो रिश्ते सही हैं उनके लिए वोही भावना रखो। पति-पत्नी, माता-पिता, बहन-भाई जो भी रिश्ते हैं, उनके लिए आपका कर्तव्य है, उसे अदा करो, संत इससे रोकते नहीं। लेकिन इसके अलावा आप अगर कोई भी रिश्ता बनाते हैं वो नाजायज है।

हिन्दुु और सिक्ख धर्म में भी उसे गलत बताया गया है। इस्लाम धर्म में ऐसे नाजायज रिश्ते को कहा है कि वो आपके ऊपर हराम है। तो भाई! रिश्तों के प्रति सही रहते हुए अपने परम पिता परमात्मा से रिश्ता जोड़ो, भक्ति करो, सुमिरन करो तो यकीनन आपके अंदर के जो ऐब हंै, मन जो आपको लाचार कर देता है, मजबूर कर देता है, वो रुक जाएंगे और परम पिता परमात्मा की दया-मेहर के काबिल आप बनते चले जाएंगे। तो यही भजन-शब्द में लिखा है:-

कोई-कोई जाने कैसा नशा है नाम का।
वो ही जाने प्याला पिया, प्रेम के जाम का॥

इस बारे में लिखा, बताया है
मेरे पास अगर सौ जानें हों सबकी सब कुर्बान कर दूं यानि इसका कोई मोल नहीं, मोल है तो मालिक की धुन का। क्योंकि ये ज्ञानी ही समझ पाता है, जो अभ्यासी है वो ही समझ सकता है कि इस आत्मा की वजह से शरीर की कदरो-कीमत है। और जब उस आत्मा को इस दुनिया से अरबों-खरबों गुणा ज्यादा वहां प्रकाश मिलता है, परम सुख मिलता है तो वो क्यों यहां उलझना चाहेगा।

यहां अरबों-खरबों गुणा जो भी चीज आपको पसंद है वहां उससे बढ़कर परम सुख मिलेगा, पर जब तक आप देखेंगे नहीं ‘जब तक न देखूं अपनी नैनी, तब तक न मानूं गुरु की कहनी।’ कितना भी गुरु, पीर-फकीर बता दे, एक बार तो कहेगा कि हां जी, होगा, बिल्कुल होगा। लेकिन जैसे ही दुनिया में गया तो कहता है कि क्या होना है तू इधर ही लगा रह, पता नहीं वो मिलेगा भी या नहीं। इधर तो मिल गया ना, संतुष्ट हो गया, उधर वाला क्या पता मिले या ना मिले। तो ये कह कर मन फट्टी पोंछ देता है। फकीर तो सत्संग में जोर लगाते रहते हैं, एक-एक बात खोल-खोल कर समझाते रहते हैं और ये जालिम ऐसा है कि दुनिया के मोह-प्यार में फंसा कर, दुनिया के रिश्ते में फंसा कर गुलाम बना देता है।
भजन के शुरू में आया-

नशे तो घणे और भी बने, लोग दिन-रात जिन्हें खाएं हैं बड़े।
सुबह का पिया, शाम उतरा, नाम का नशा दिन-रात चढ़े।
ऐसा नाम का नशा, जिसे चढ़ है गया, हो मस्त गया।

दुनिया में बहुत भांति के नशे हैं। वो नशा सुबह पीओ, शाम को उतर जाता है और शाम का पिया सुबह उतर जाता है और शरीर में छोड़ जाता है एक बेचैनी, आत्मा में है एक ग्लानि, एक धब्बा। ये दुनियावी नशे चाहे थोड़े समय के लिए उत्तेजना देते हैं, अंदर से यूं लगता है कि कुछ मिल रहा है। लेकिन वास्तव में जितने भी नशे हैं ये बर्बादी का घर हैं। इन नशों की बजाय अगर मालिक के नाम का नशा लिया जाए तो वो दिन-रात चढ़ा रहता है। ऐसी मस्ती, ऐसी लज्जत कि जीवात्मा अंदर से और शरीर बाहर से तंदुरुस्त नजर आते हैं। भयानक से भयानक कर्म भी, जो कि संचित कर्म होते हैं वो मालिक की मस्ती के सहारे कट जाया करते हैं। इन्सान अगर सुमिरन का पक्का हो, भक्ति-इबादत करता रहे, प्रभु के प्रेम का प्याला पीता रहे तो उसके भयानक से भयानक कर्म भी कटते चले जाते हैं।

चाहे वो कोई गृहस्थी है, चाहे कोई साधु है वो तभी बच सकता है अगर वचनों पर अमल करे। बेअमलों के लिए ही परेशानियां आती हंै। संत, गुरु, पीर-फकीर बताते हैं कि रात को जल्दी सोएं और सुबह जल्दी उठें, इससे शरीर स्वस्थ रहता है। यानि कम से कम 4-5 घंटे नींद जरूरी है। वैज्ञानिक लोग भी इस मत को मानते हैं। आयुर्वेद तो यह बात बहुत पहले से ही कह रहा है तथा ऐलोपैथी व नैचुरोपैथी में भी मानते हैं कि अगर सूरज रहते-रहते थोड़ा भोजन ले लिया जाए तो वो उस भोजन से जो देर रात को लिया जाता है, अच्छा रहता है।

कई कारण हैं-पाचनक्रिया अच्छी हो जाएगी, नींद अच्छी आएगी और आप काम-धंधा जो करना चाहेंगे उसमें कोई दिक्कत नहीं आएगी बल्कि हाजमा अच्छा रहेगा। जल्दी सोने और जल्दी जागने से बहुत फायदा है, जिसे सार्इंटिस्ट भी मान चुके हैं कि सूरज निकलने से पहले जाग जाओ। यही रूहानियत का मत है कि सुबह 2 से 5 बजे के बीच, तो सूरज निकलने से पहले-पहले आप जाग जाइए। रफा-हाजत जाकर तरोताजा हो जाइए और फिर सुमिरन पर बैठ जाइए। सुबह-सवेरे 15 मिनट, आधा घंटा, पौन घंटा आप सुमिरन पर बैठ कर तो देखिए। बैठने का सबसे अच्छा तरीका पालथी मारकर बैठना है, आप कुर्सी पर भी बैठ सकते हैं, वो आपकी मर्जी है लेकिन जितना आप अपने शरीर को आराम देंगे, उतनी ज्यादा व जल्दी नींद आएगी। या आप जब भी जागें,आधा-पौन घंटा मालिक की याद में जरूर दो।

उसके बाद आप नाश्ता वगैरह जो भी लेते हैं लेने के बाद आप अपने काम-धंधे पर जाइए। अपना कार्य कीजिए लेकिन बीच-बीच में जब आप अकेले हैं, कहीं बैठे हैं, थोड़ा सुस्ता रहे हैं तो आप थोड़ा सा सुमिरन भी कर लीजिए। आपका शरीर अधिक स्वस्थ रहेगा, आपका ध्यान ज्यादा अच्छाई की तरफ जाएगा और ताजगी महसूस होगी। खाना लेते हैं तो उससे पहले थोड़ा सुमिरन कीजिए, मालिक को याद करके खाइए। फिर आप अपना हार्ड वर्क, मेहनत, कड़ा परिश्रम करें। फिर आप कुछ समय अपने बच्चों को दें। जब आप काम-धंधे से लौटकर आते हैं तो खाना वगैरह लेकर थोड़ा समय बच्चों को, परिवार को देना चाहिए। आपकी जो जिम्मेदारियां हैं उनकी तरफ भी ध्यान देना जरूरी है।

परन्तु कोल्हू वाला बैल मत बनो। फिर सोने से पहले आधा घंटा, 15 मिनट या घंटा जो भी है सुमिरन में जरूर दें। तो ये एक आदर्श जीवन है रूहानियत के अनुसार अगर आप जीना चाहो तो। जैसे आप हफ्ते में छुट्टी मनाते हैं, मनोरंजन करते हैं लेकिन साथ में दो-चार घंटे परमार्थ के लिए, दूसरों के भले, नेकी के लिए भी रख लो तो यकीन मानो आपकी रूहानी जिंदगी में खुशियां जरूर भर जाएंगी। इस तरह से आप अपना जीवन गुजारते जाइए। तो बताइए इसमें आपसे क्या छुड़वाया। कुछ भी तो नहीं छुड़वाया। आपके जीवन का थोड़ा नियम होना चाहिए।

अब बात आती है जो त्यागी हैं। चाहे वो जंगलों में, चाहे पहाड़ों में रहते हैं, साधु सज्जन हैं, उनका भी नियम होना चाहिए। ये नहीं है कि त्याग से ही भगवान मिल जाएगा, ऐसे तो पशुओं ने बहुत कुछ त्यागा होता है। लेकिन ऐसे त्याग से कुछ होने वाला नहीं है। त्यागने से मतलब होता है कि काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार मन और माया का त्याग करो। ये है त्याग, ये है सादगी, ये हैं साधु। वैसे तो दुनिया को छोड़ना भी कोई मामूली बात नहीं है। यानि दुनियादारी के लोगों के हिसाब से बहुत बड़ी बात है। पर ये सच्चाई है कि जब सच्चे मुर्शिदे-कामिल की दया-मेहर, रहमत होती है तभी ये सब कुछ छोड़ा जा सकता है, वरना इन्सान में क्या हिम्मत कि वो छोड़ दे।

साधु-फकीर कोई भी है और वो कहीं भी रहे, जंगलों में, उजाड़ों में, पहाड़ों में उसका मतलब होता है कि उसने घर-गृहस्थ को त्याग दिया। साधु का जो लेबल लग गया, सच्चे मुर्शिदे-कामिल बेपरवाह परम पिता जी के वचन हैं, भाई! अगर साधु जीवन गुजारना है तो आपके लिए परिवार वाले गए और परिवार वालों को कह देते थे कि आपके लिए ये गया। अगर इसे साधु बनाना है तो। साधु यानि जिसने सब कुछ त्याग दिया, परिवार वालों से उसका कोई मतलब नहीं रह गया। पहला स्टैप त्याग का यह है। फिर बात आती है 24 घंटे की, उसमें ना बच्चा खिलाना है, ना सास-ससुर, न घरवाला, न पत्नी है जिसकी ख्वाहिश पूरी करनी है, इन सबसे तो वो फारिग हंै।

क्या करना है? बस! परमार्थी सेवा और परमार्थ-पुरुषार्थ। जहां भी सेवा मिले, उसमें जुट जाओ। करते रहो सेवा और साथ में सुमिरन। आपको जो रूहानी तरक्की के बारे में बताया, उसे जो साधु होता है उसकी जल्दी रूहानी तरक्की हो सकती है। लेकिन साधु हो तब, लेबल से नहीं। क्योंकि लेबल तो कोई भी लगा लेगा। साधु का मतलब कि उसने परिवार से लिंक हटा लिया और लिंक हटाने से मतलब ये नहीं कि आप उन्हें दुआ-सलाम न करो। जब भी मिलते हैं सत्कार कीजिए, आपके जन्मदाता हैं उनका अदब कीजिए लेकिन उनके मोह-प्यार में फंस कर उनके ताने-बाने में मत उलझो। जब आप साधु ही हैं तो इनको छोड़िए और सुमिरन के लिए समय निश्चित कीजिए। जब आप सेवा कर रहे हैं तो आपको इससे क्या कि आपका बेटा-बेटी क्या कर रहे हैं।

कई ऐसे भी सज्जन होते हैं जो इधर उलझे रहते हैं। तो भाई! आप सेवा करते रहिए और सुमिरन भी कीजिए, आपका मन जरूर लगेगा, इस तरह से आप आगे बढ़ते जाएंगे। सुबह अगर गृहस्थी लोग आधा घंटा करते हैं तो जिसने सब कुछ त्यागा हुआ है, उसे तो दो घंटे बैठना चाहिए। चलो दो घंटे नहीं तो घंटा ही बहुत है। आपको आगे जैसा स्वाद मिलेगा वैसे ही बढ़ता जाएगा। तो भाई! आप सुमिरन कीजिए, लगन से, तड़प से, नींद को त्यागो, नींद नहीं आएगी तो क्या होगा। डाक्टर आपको कहते होंगे कि पागल हो जाएगा लेकिन सवाल ही पैदा नहीं होता कि पागल हो जाओ। अगर कोई सुमिरन में जागता है तो हो ही नहीं सकता कि वो पागल हो। हां, वो ‘पा+गल’ जरूर हो जाता है, ये तो सच है।

यानि वो रूहानियत की बात को पा जाता है। पर ये कलियुग है, यहां इतना ठूंस-ठूंसकर खाना खा लेते हैं कि पेट में कोई सुमिरन करने की जगह ही नहीं रहती। खा लिया, पी लिया ऐसा तो जीव-जंतु भी करते हैं। त्याग तो हो गया, जंगलों में चले गए, घर-गृहस्थ छोड़ दिया, इतना माल खाया और वजन इतना बढ़ जाता है जैसे गुब्बारे में हवा भरते हैं, फूल कर कुप्पा हो जाते हैं। क्या ये ही भक्ति है? क्या ये ही सादगी है? सुमिरन को जोड़कर देखें तो छुट्टी है। फिर कोई परेशानी, मुश्किल, तकलीफ आ जाती है। तो परेशानियों में पड़ने से, दु:ख उठाने से क्या ये बेहतर नहीं कि वो ही समय मालिक की याद में लगा कर रूहानी नजारे लूटे जाएं।

पर कोई माने तब ना। फकीरों ने तो बताना है। लेकिन साधु कोई भी है उसकी ड्यूटी परमार्थी सेवा से शुरू होती है। जैसे आप ड्यूटी से नहीं चूकते वैसे ही साधुओं को भी नहीं चूकना चाहिए। अपनी ड्यूटी यानि सेवा कार्य लगन से करना चाहिए। उसमें मन की उल्टी-सीधी बातें नहीं होनी चाहिए, चुगली-निंदा नहीं होनी चाहिए। बस, लगन से सेवा करो, साथ में सुमिरन, भजन, शब्द भी बोलते रहें और गृहस्थियों के लिए जैसा ऊपर बताया गया अपने बच्चों के प्रति, अपने परिवार के प्रति अपना फर्ज निभाइए और सुबह-शाम सुमिरन भी कीजिए तथा साथ में परमार्थ में समय लगाइए और साधुओं के लिए जरूरी है रात को हल्का भोजन लें।

ये नहीं कि बहुत शक्तिवर्धक हो। क्योंकि जितना फकीर शक्तिशाली भोजन लेगा उतना ही वो परेशान हो जाता है, मन उसका जालिम उसे सताना शुरू कर देता है। ठीक उतना ही लो जितना जरूरत समझो। जैसा काम आप करते हो उसके अनुसार लो। फावड़े की सेवा है तो उसके अनुसार भोजन लो। फिर आप ज्यादा से ज्यादा सुमिरन कीजिए। ये मत सोचिए कि नींद क्यों नहीं आ रही बल्कि ये सोचिए कि नींद क्यों आ रही है। बस, सुमिरन होना चाहिए, सुमिरन पर ही बस ध्यान देना चाहिए। सुमिरन में लग जाइए ना कि सिर जोड़ कर छुप जाएं, ऐसा न करें। सुमिरन में लग गए तो सुमिरन करते जाइए। जब नींद आने लगे तो उसे कोशिश कीजिए हटाने की और जब ज्यादा ही परेशान करे तो फिर सो जाइए। चार घंटे काफी हैं सोने के लिए। अगर सही तरीके से भोजन करता है, परमार्थी सेवा करता है, कोई हार्ड वर्क करता है वो पांच घंटे सो सकता है। इस तरह से जो सादगी से चलते हैं, बेपरवाह जी ने वचन किए हैं:-

‘सच्चे सौदे दी फकीरी दा मुकाम बड़ा उच्चा।
इत्थे मिट्टी होके रहणा पैंदा शान दा की कम्म॥’

ऐसा करने वाले के परिवारों को, परिवारों को ही नहीं, उनकी कुलों को, जो चाहे कहीं नर्कों में फंसी पड़ी हैं, मालिक उन्हें निकालकर सचखंड ले जाता है और यहां उनके परिवार-जनों को सवाल पैदा ही नहीं होता कि जरा सी भी तकलीफ आ जाए। पर कोई चले तब ना, कोई इन बातों पर अमल करे तब ना। तो भाई! इसी तरह से जो गृहस्थी है, जो साधु, है दोनों के लिए बताया। जो इन बातों पर अमल करेगा, मालिक उनकी ही संभाल नहीं करता, बल्कि उनके पीछे परिवार-जनों की भी संभाल करता है।

ये कलियुग है, यहां सच्चाई बोलने में बुराई आड़े आती है, तड़प उठते हैं वो लोग जो मन के कहने चलते हैं। वो रोकते हैं कि सच न बोला जाए कि अगर रूहानी फकीर सच बोलते रहे तो सारी दुनिया ही सच्ची हो जाएगी, फिर झूठ का सिक्का कैसे चलेगा। फकीर न तो रुके हैं, न रुके थे और न ही कभी रुकेंगे। सच कहते थे, सच कह रहे हैं और सच ही कहते रहेंगे। नशे बर्बादी का घर हैं तो संत रोकेंगे ही रोकेंगे। चाहे किसी को अरबों का नुकसान हो जाए। तो संत, पीर-फकीर सच के नुमाइंदे होते हैं। उनका हर कर्म, अगर वे अपने शरीर से भी कोई कर्म करते हैं, अपने लिए कुछ नहीं होता, बल्कि दूसरों को मालिक से जोड़ने के लिए, दूसरों के फायदे के लिए, भलाई के लिए होता है। इसलिए भाई! अमल करके देखो। चाहे आप गृहस्थी हैं या आप साधु हैं तो दया-मेहर, रहमत ना मिले तो कहिए।

इस तरह से जीवन गुजार कर देखिए जो आपको आदर्श जीवन बताया है। जरूर आप मालिक की दया-मेहर, रहमत को पा सकेंगे, उसके दर्श-दीदार के लायक भी आप धीरे-धीरे बनते जाएंगे। क्योंकि वो कोई छोटा-मोटा मुकाम नहीं है, बहुत ही बड़ा मुकाम है। मालिक के दर्शन करना, वो भी पूर्ण स्वरूप में। उस लाइट, उन रोशनियों को जोकि उसके रोम-रोम में भरे हैं, उनको निहारना कोई इन आंखों के बस की बात नहीं है। एक सूरज की तरफ देखो तो देखा नहीं जाता। डाक्टर भी कहते हैं कि चमकते सूरज को मत देखो। देखोगे तो गड़बड़ हो जाएगी, अगर इसकी किरणें पड़ गई तो। कोई हठयोगी है, वह थोड़ा बहुत देख लेते हैं लेकिन वहां तो लाखों-करोड़ों सूरज आएंगे और आत्मा को क्यों नहीं पता चलेगा क्योंकि आत्मा में खुद का प्रकाश होगा, खुद में शक्ति होगी, खुद में ताकत होगी।

तो इस तरह से जो लोग सुनते हैं और श्रोता भी कोई-कोई होता है। ये कलियुग है, यहां संत, पीर-फकीर वचन करते हैं तो उनका भी मखौल उड़ाया जाता है। इससे संतों को कोई फर्क नहीं पड़ता, संतों को इससे गुस्सा करके क्या लेना, संतों का चाहे खड़े होकर मखौल उड़ा दो इससे संतों को क्या लेना-देना, संतों को तो वचन करने हैं, आगे आपकी मर्जी, मखौल उड़ाओ या अमल करो वो अल्लाह-मालिक जाने। संतों को इससे कुछ लेना-देना नहीं। हां, वो वचन करते ही रहेंगे।

‘जैसी मै आवै खसम की बाणी। तैसड़ा करी गिआनु वे लालो।’ जैसा सतगुरु, अल्लाह-मालिक ख्याल दे देगा वो वैसा ही बोलेंगे। वो किसी के गुलाम न तो थे और ना ही हो सकते हैं, सवाल पैदा ही नहीं होता। तो साध-संगत की जानकारी के लिए ये कह रहे हैं। ऐसा आम दुनिया में होता है। अगर लोग अमल करने लगें तो फकीरों को इतना जोर लगाने की क्या जरूरत बल्कि ऐसा लगता है जैसे चिकने घडेÞ हों और घडेÞ भी उलटे। उन पर पानी डालो तो एक बूंद भी अंदर नहीं जाती। चिकनाई होने की वजह से वो गीले भी नहीं होते। तो कई सज्जन ऐसे होते हैं, कितने वचन कर लो, जो मर्जी कह दो, वो कहते हैं कि हम तो यही करेंगे। अजी, फिर क्या है? उनको लगता है कि देखेंगे कि हमें कौन रोकेगा। कोई भी नहीं रोकेगा पर जब रोकने वाली बात आई, तब देखते हैं आप कैसे नहीं रुकोगे।

जब आपका आगे हिसाब-किताब होगा, हो सकता है इस जिंदगी में ही हो वो तो मालिक ही जाने। वो उसके हाथ में है, फकीरों को इससे कुछ लेन-देन नहीं। फकीरों का काम निरोल टीचर, मास्टर की तरह है कि ये बुराइयां हैं इन्हें छोड़ दो और ये-ये अच्छाइयां हैं इनसे जुड़ जाओ। आगे आपकी मर्जी आप किससे जुड़ते हैं लेकिन आप यकीन मानो और ये वचन चाहे आप लिख लो, यह सौ प्रतिशत सच्चाई है। अमल कर लोगे आपका फायदा है, नहीं करोगे, आप जानो आपका मालिक जाने।

भाई! फकीर हमेशा सच की बात सुनाते हैं, सच से जोड़ते हैं और अल्लाह, वाहेगुरु राम की चर्चा करते हैं। उनका किसी एक से कोई लगाव नहीं होता, वो तो सर्वसांझी बात कहते हैं। वो जो भी वचन करते हैं सबके लिए होता है, किसी एक के लिए नहीं। तो ये सच्चाई है, ये वास्तविकता है, हां! कड़वी जरूर है। सच्चाई कड़वी होती है ठीक है। इस बारे में लिखा-बताया है-

गुरु नानक साहिब जी को जब बाबर बादशाह ने भांग पेश की तो उन्होंने फरमाया कि इस मद का नशा सुबह का शाम और शाम का सुबह को उतर जाता है पर मालिक के नाम का नशा दिन-रात चढ़ा रहता है, कभी उतरने वाला नहीं।

‘पोस्त भंग अफीम मद, नशा उतर जाए प्रभात।
नाम खुमारी नानका, चढ़ी रहे दिन-रात॥
भउ की भांग सिफत का कूंडा ज्ञान का किया डंडा,
सच शब्द अमृत मथ पीआ तब हुआ अमल अखंडा’॥’

अर्थात् गुरु साहिबानों ने बताया कि भय की भांग यानि संत, पीर-फकीरों को भय का नशा रहता है, मालिक से डर होता है और मालिक की सिफत यानि वर्णात्मक नाम का वो जाप करते हैं। आगे आया कि जो ज्ञान गुरु, पीर-फकीर बताते हैं उसका वो एक तरह से डंडा रखते हैं, मन जालिम को बुराइयों से रोकने के लिए अपने गुरु का वो डंडा उसे लगाते हैं कि भाई! तुझे कहा तो ये गया है और तू किधर को जा रहा है, कहां जा रहा है? उसे उस ज्ञान के द्वारा रोकते हैं जो गुरु, पीर-फकीर करते रहते हैं। जो सच्चे मालिक के भक्त होते हैं, जो उसकी याद में चलते हैं, ऐसा गुरु साहिबानों ने फरमाया। आगे भी लिखा है- ‘सच शब्द अमृत मथ पीआ, तब हुआ अमल अखंडा’ तो गुरु, पीर-फकीर ने सच का शब्द, गुरुमंत्र, नाम दिया, उसको मथ के यानि विचारों के द्वारा, ख्यालों के द्वारा जब उसका जाप किया तो उसे पी गए तो ऐसा ज्ञान मिला, ऐसा प्यार मिला जो अखंडनीय है, जो किसी के कहने से खंडित नहीं होता, चाहे मन धोबी धोए, चाहे काल जोर लगाए। उस ज्ञान को कोई भी खंडित नहीं कर सकता।

आगे भी आया- ‘बाबर कलंदर प्याला पीओ। उतर न जाये कबहूं खीओ’ हे बाबर बादशाह! ऐसा प्याला पीओ जो कभी न उतरे। गुरु नानक देव जी ने बाबर बादशाह से कहा, ऐ बाबर! अरे, ये जो भांग आपने मुझे दी है ये तो सुबह पीऊंगा, शाम को उतर जाएगी, शाम को पीऊंगा सुबह को उतर जाएगी। तू ये राम-नाम, अल्लाह-मालिक वाली भांग पी कर देख, एक बार अगर चढ़ गई, कभी उतरेगी नहीं। ऐसा सुख, परम सुख तुझे देगी कि तू कभी बयान भी नहीं कर पाएगा। तो देखो, एक बादशाह के सामने एक फकीर की गर्दन झुकी नहीं बल्कि अपने ज्ञान का वो सबूत दिया, जरा भी नहीं झिझके। अगर पीना है तो यह अमृत, नाम का रस पी, गंदगी क्या पीनी है। तो संतों का यही काम होता है, कोई भी आ जाए वो सबको एक जैसा ज्ञान देते हैं।

ये नहीं कि कोई बड़ी मुर्गी आएगी, ये जो काम करता है इसक ो मत गिनवाओ वरना ये नोट नहीं चढ़ाकर जाएगा। ठग्गी मारने वाले को कहेंगे कि बेटा! करता रह पर हमें जरूर चढ़ा जाया कर। जी नहीं। सच्चा गुरु कभी ऐसा नहीं कहता, किसी से अगर ऐसा कुछ हो गया, ठग्गी, बेईमानी अंजाने में कोई कर बैठता है तो वो उसे भी रोकता है कि पाप की कमाई है, यह धीमा जहर है, यह जहर अपने बच्चों को मत खिलाना, तू इसे परमार्थ में, दीन-दुखियों की सेवा में लगा दे ताकि तू जो कर बैठा है, तुझ पर इसका बुरा असर न पड़े। यह सच्चा गुरु कहता है, अपने किसी काम के लिए वो कभी किसी को नहीं कहता। आगे आया है जी:-

सूक्ष्म नशे, भांत-भांत के, जिनको कोई ना जाने।
तन का नशा, धन का नशा, मन का नशा ना कोई पहचाने।
ऊंची जात का नशा, किसे बात का नशा, गुण, राज का नशा॥

नशे बहुत तरह के हैं। एक नशा चरस, स्मैक, भांग-धतूरा है, ये तो दिखने में आते हैं पर जिन कुछ नशों का वर्णन आपके लिए कर रहे हैंंंंं वो दिखने में कम आते हंै। जिसमें पहला नशा तन का नशा है, जिसमें तन की खूबसूरती भी है लेकिन उसका शुक्राना नहीं, शीशे के सामने खड़ा होकर ये सोचता है कि वाह! ये कितना खूबसूरत है, मंै गजब का हूँ पर कहीं न कहीं तो कमी नजर आती ही है। कई बार चिट्ठियां आती हैं, कई लिखते हैं, गुरु जी! मेरी नाक थोड़ी टेढ़ी है आप सीधी कर दो, मैं मोटा हूँ, पतला कर दो, मैं पतला हूँ मोटा कर दो, मैंं बीच का हूँ मुझे पावरफुल कर दो आदि। यानि संतुष्टि इन्सान को बिल्कुल भी नहीं है। कई सज्जनों को झूठा गुमान हो जाता है कि मेरी खूबसूरती के सामने सब कुछ फीका है।

जी नहीं! हो सकता है कि एक दिन ये बीमारियोंं का घर बन जाए और फिर जो शक्लो-सूरत से प्यार करते हैं वो कन्नी कतराने लगेंगे और एक दिन इसको जलाकर राख तो बना ही दिया जाएगा। तन का नशा यानि थोड़ी पावर आ गई, मसल्ज बन गए, कपड़े उतार-उतार कर लोगों को दिखाते हैं, प्रदर्शित करते हैं कि देख मेरे मसल्ज। भाई! ये तेरे ही हैं दूसरों को इसका क्या लाभ है! दूसरों को दिखाकर आप क्या साबित करना चाहते हैं! केवल अपनी वाह-वाही। तो ये बड़ी अजीबोगरीब नौजवान पीढ़ी की मनोदशा है। ये तो मेहनत है।

आप गांवों में जाइए, जो मेहनतकश लोग हैं, जो मजदूरी करते हैं उनके मसल्ज वैसे ही इतने हार्ड होते हैं। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है और कई तन के नशे में डूबे रहते हैं कि मुझे राम से क्या, मुझे भगवान से क्या, मेरी बॉडी ऐसी, मेरी बॉडी इतनी मजबूत है और कई सजाने में लगे रहते हैं। इस तरह से आप अपने जैसे किसी इन्सान को तो हो सकता है प्रभावित कर सकें पर अल्लाह, राम, मालिक वो इन बातों से प्रभावित नहीं होता। ये तन का नशा बड़ा ही जबरदस्त है जिसे लग जाए वो शीशे के आगे से घंटों नहीं हटते।

सपने में भी सपने देखते हैं कि मैं फलां एक्टर बन गया, मैं वो बन गया और वास्तव में चारपाई तोड़ रहा होता है। ये तन का नशा है। कला तो अच्छी बात है। कोई भी कलाकार है उस कला को आप दीनता से रखिए। ये मत सोचिए कि हम टॉप पर पहुंच गए। टॉप तो तानसेन ने भी नहीं कहा कि हम टॉप पर पहुंच गए, जिन्होंने राग गाकर दीपक जला दिए थे। वहां तक आज हमें लगता नहीं कोई पहुंच पाए। कई ऐसे पहलवान हो गुजरे हैं, जैसे भीम हुआ है, तो उनका मुकाबला आज दुनिया में नहीं है। तो किसी भी कलाकार से मतलब यानि बॉडी की कला, बाहरी कला, गाने की, बजाने की, खेलने की, किसी तरह की कोई भी कला है, ये नहीं कह सकते कि आप उसमें आखिर तक पहुंच गए हैं।

यही रूहानियत है, इसमें कोई रूहानी फकीर तो हो सकता है कि पहुंच जाए वरना बहुत ही मुश्किल है और वो बताएगा भी नहीं। वो तो यही कहेगा कि ना जी, जैसे आप वैसे ही हम। तो असलियत यही है। तो तन का नशा मत आने दें, इतना अहंकार मत करें। अपने शरीर को सही सलामत रखो, वर्जिश, कसरत जरूर करो, पर अपना कर्म करते हुए। अपने कार्य से मुंह मत फेरिए। मालिक का सुमिरन भी कीजिए, उसमें कोई हर्ज नहीं बल्कि फायदेमंद है वर्जिश वगैरह। चाहे वो खेतों में करो या फिर अपने घर में करो, कहीं भी करो लेकिन उसमें खोकर पागल मत बन जाओ।

आगे आता है धन का नशा। धन-दौलत का नशा बड़ा ही जबरदस्त है। इसको लेने के लिए तो आज अधिकतर लोग एक-दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। आप इसको सुंघा दो तो कोई भी इन्सान इन्सानियत से पल में गिर सकता है। कोई मालिक का प्यारा है तो क्या कहना, वरना ज्यादातर लोग इसके गुलाम हैं, पैसे के लिए पागल हैं और इस हद को भी पार कर जाते हैं। कई सज्जन कहते हैं कि पैसे के बिना काम नहीं चलता, ये बात ठीक है। पैसा तो कमाओ पर मेहनत करो, हक-हलाल से कमाओ। दुनिया में जितने भी धनी व्यक्ति हुए हैं उनके पिछले जीवन को देखें तो उनमें ज्यादातर लोग कोई अखबार बांटा करता था, कई ऐसे थे जो पैट्रोल पंप पर पैट्रोल डाला करते थे और आज उनके नाम की तूती बोलती है, दुनिया के धनाढ्यों में उनका नाम है।

क्यों! क्योंकि उन्होंने आराम नहीं किया। मेहनत, परिश्रम किया, हार्ड वर्क किया। तो आपको मेहनत से कोई नहीं रोकता, आप मेहनत कीजिए। पैसा चाहिए तो ठग्गी-बेईमानी, बुरे कर्म मत करो, ये तो संत कहेंगे ही। तो भाई! धन कमाओ लेकिन अहंकार न करो। क्योंकि रावण के नौकर से भी आप गरीब हैं। रावण के नौकर के जो कमरे थे वो भी सोने के बने हुए थे और वो जिन बर्तनों में खाना खाते थे वो भी सोने के थे। तो वो नौकर भी आपसे अमीर होगा और रावण खुद कितना धनी था, आपका ये पुर्जा, आपका ये दिमाग इसका हिसाब ही नहीं लगा पाएगा।

उसकी सारी लंका ही सोने की थी और वो खुद लंका का राजा था इसलिए सारा धन ही उसका था। तो उसका हश्र क्या हुआ ‘इकु लखु पूत सवा लखु नाती॥ तिह रावन घर दीआ न बाती॥’ एक बेटा भी नहीं बचा जो दीआ बत्ती कर सके, तो आप किस बात पर अहंकार करते हैं! चंद रुपए आ जाते हैं तो गर्दन अकड़ा-अकड़ा कर चलता है, कहता है कि बाकी तो कीड़े-मकौड़े हैं आदमी तो मैं ही हूँ। नहीं भाई! अहंकार मत करो। ऐसा करने वालों को मार पड़ती है, दु:ख उठाने पड़ते हैं। आगे आता है ‘मन का नशा न कोई पहचाने’, मन का नशा पहचानना बड़ा ही मुश्किल है। बाहर से कई बार कई सज्जनों को ये होता है कि अगर ‘मैं’ कहंूगा यानि मैं कहने से अहंकार आ गया।

जी नहीं, मैं कहने से ‘मैं’ नहीं आती, आपके अंदर जो मन का सूक्ष्म अहंकार है जो आपके एक कोने में अड़ा रहता है कि मैं तो बहुत होशियार हूँ, पर मैं पता नहीं चलने देता, मुझे ज्ञान तो बहुत है पर मैं दिखावा ऐसे करता हूँ जैसे भोला-भाला हूँ, मैं दुनिया के सबसे चतुर इंसानों में से हूँ, भगवान ने अक्ल तो मुझे ही बांट दी बाकी के सब बेअक्ले फिरते हैं। ये जो आपके कोने में है ये है मन का सूक्ष्म अहंकार, ये है खुदी जो आपको लिए बैठी है। आप अंदर कुछ और होते हैं तथा बाहर कुछ और होते हैं। दिखने में देवता स्वरूप और अंदर राक्षस महाशय तैयार बैठे हैं। तो ये अंदर का जो राक्षस है, अंदर की जो खुदी, अंदर का जो अहंकार है यही गड़बड़ी वाला है, यही इन्सान को दु:खी करता है और यही मन का सूक्ष्म अहंकार है। ‘मन का नशा’ इसे कहते हैं। किसी बात को नहीं समझना, किसी बात को सीधी तरह से नहीं लेना बस, अपने मन के कहने पर चलते रहना।

‘ऊंची जात का नशा’ कि मेरी जात ऊंची, मेरा धर्म ऊंचा, मेरा मजहब ऊंचा। दूसरों के सामने तो कहता है कि मैं सबको एक ही मानता हंूँ। लेकिन अंदर ये होता है कि नहीं-नहीं कहने में क्या हर्ज है लेकिन सूई वहीं की वहीं कि मैं तो बड़े वाला हूँ, बाकी सब छोटे वाले हैं। अगर तू बड़े वाला है भाई, तो ये बता कि क्या तू आसमान से टपका है? सब माता के गर्भ से आए हैं। तू अगर अलग से आया हो तो भी मान लें, या तेरी रगों में क्या घी-दूध बहता है जो छोटे कहे जाने वालों में पानी बहता हो। ये भी नहीं होगा, या तुम्हें सोने के दो सींग लगे हों और उन्हें डायमंड लगा हो। क्या ऐसा है? कहीं भी कुछ फर्क नहीं। एक जगह बैठ जाओ, एक जैसे कपड़े पहन लो, सवाल ही पैदा नहीं होता कि अलग नजर आएं।

सब ईश्वर की मूर्तियां हैं, लगभग एक जैसी हैं। थोड़ा नैन-नक्श में फर्क हो सकता है, वो मालिक जाने क्यों फर्क किया, कैसी नस्ल बनाई उसने । तो वो उसके हाथ में है। तो भाई! सब एक हैं इसमें कोई दो राय नहीं है। पढ़े-लिखे डाक्टर साहिबानों को तो मानना ही चाहिए कि वे ब्लड देते हैं, ब्लड इकट्ठा होता है तो वो किसी के भी काम कर जाता है। बड़े वाला हो या छोटे वाला कोई भी हो, वो खून उसको लग जाता है और उसकी जान भी बचा देता है। लेकिन कई सज्जन इन बातों को नहीं मानते। आपको एक हकीकत बताते हैं किसी लैंडलॉर्ड इन्सान का एक नौकर था, वो घर से खाना लेकर आता था। टोकरा सिर पर होता था तथा रोटी व सारा सामान उसमें रखा होता था।

वो बेचारा पैदल चल कर चार कि.मी. जाता और वहांं पर उच्च घराने वाला वो उतार लेता। अब रोटी खाने का जब समय आता तो कहता कि अरे, दूर, थोड़ा दूर बैठ। तो बड़ी हैरानी की बात होती। क्यों? कहता कि अगर हाथ लगा दिया तो सारा खाना ही खराब, भ्रष्ट हो जाएगा। एक पानी की डिग्गी थी। आस-पास के भाई लोग उसके सिर पर मटका रख देते थे। मटका उसी के सिर पर रखा है, पानी पर हाथ उसी के लगे हुए हैं लेकिन पानी निकालते समय कहता है कि ना, तू पीछे हो जा, तू हाथ मत लगाना। है ना दोगली नीति। नहर खोदकर पानी लाते हैं बेचारे वो लोग जिनको इन्सान छोटे लोग कहता है । लेकिन हम तो सबको एक मालिक की औलाद ही मानते हैं।

तो वो ही नहर खोदकर पानी लाते हैं और डिग्गी में पानी भरते तो उसमें पांव मारते थे। क्योंकि कोई फूस वगैरह अड़ जाता तो पैर मारकर उसे निकालते थे। उसमें उनके चरण धुल-धुलकर पानी गिर रहा है और खेतों में जब बीज बोया जाता, अब तो मशीनें आ गई हैं लेकिन पहले यूं मल-मलकर, सारा सामान उन्हीं के हाथों से जाता था और आज भी मशीनों में हाथ वो ही मारते हैं क्योंकि खाद, स्प्रे वगैरह लगी होती है, बायचांस चढ़ जाए, उनको तो बेशक चढ़ जाए, उनको आदमी नहीं समझता। तब तो उनको आगे कर देता है कि तू कर। रात को खेत में पानी लगाना होता है, सांप के बिल हैं, पानी भी तू ही लगा, स्प्रे भी तू ही कर, फसल काटे भी वही, निकाले भी वही, बड़े-बड़े घरों में तो आटा भी पिसवा कर वही लाते हैं लेकिन जब रोटी बन गई तो कहता कि हाथ मत लगाना। है ना कमाल की बात! दोगली नीति! सब कुछ उनसे करवा लिया और बाद में कहता है कि हाथ मत लगाना। कितना अजीबो—गरीब मामला है। तो ये जात-पात का नशा है।

आगे आया कि ‘किसे बात का नशा’, किसी को ये होता है कि मेरे में ये गुण है जो दूसरों में नहीं है या मुझे ये गुप्त बात पता है, उसी का नशा छाया रहता है कि मैं ये कर सकता हूँ, मैं वो कर सकता हूँ तो उसका नशा चढ़ा रहता है। ‘गुण, राज का नशा’, किसी को राज पहुंच का नशा होता है। वो गांव वालों को हिलने नहीं देता। तुम्हें पता नहीं मेरे हाथ कितने लंबे हैं! कि मेरी ऊपर तक पहुंच है! मेरे जानने वाले बहुत हैं! मेरे सामने खांसने की जुर्रत नहीं किसी की! तो वाकई लोग डरते हैं कि पता नहीं भाई ये क्या करवा दे। तो इस तरह से ये नशे इन्सान को लेकर बैठ जाते हैं और इनके आदी होकर लोग सारी-सारी उम्र इनमें गंवा देते हैं और भगवान की तरफ ध्यान नहीं देते। तो इस बारे में लिखा-बताया है।

‘मद तो बहुत भात का, काहे न जाने कोए।
तन मद, मन मद, जात मद, माया मद सब लोए॥’

आगे फिर नशों की चर्चा है-

‘इतने नशे जब छोड़े, तब सुने अनहद धुनकार।
अफीम-शराब, करें हैं खराब, छोड़ दे इनको करके विचार।
ये कबीर जी कहें, गर इनसे बचें कभी दु:ख ना सहें।’

तो ये नशे तो छोड़ने हैं ही, दुनियावी नशे भी छोड़ दें, मालिक का सुमिरन करें, भक्ति-इबातद करें तो हो सकता है कि मिनटों में ध्यान जमना शुरू हो जाए। इनको छोड़ने के लिए सुमिरन काफी समय तक करना होगा, अपने मन से लड़ना होगा। जो ये बुराइयां देता है, जो अंदर ये भावना भरता है, तो उसके लिए सुमिरन ज्यादा करना पड़ता है। ये नशे छोड़ो, ये बुराइयां छोड़ो तो आप मालिक की दया-मेहर के काबिल बन सकते हैं, उसकी दया-दृष्टि आप पर बरस सकती है। इस बारे में फिर लिखा है:-

भांग तंबाकू सूथरा, अफीम और शराब।
कहे कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार॥
विद्या मद और गुण मद, राज मद उन्माद।
इतने मद को रद्द करे, तब पावै अनहद॥

इतने नशे छोडेÞ और कोई वाह-वाह कर दे तो खुदी आ जाती है। इन्सान को लगता है कि मैं तो कुछ और ही हूँ। अहंकार नहीं आना चाहिए, खुदी नहीं आनी चाहिए। अहंकार जहां पर है वहां पर ईश्वर का प्रेम नहीं ठहरता। कबीर जी के ये वचन हैं ‘चाखा चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान। एक म्यान में दो खड्ग, देखा सुना न कान।’ जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहती वैसे ही एक शरीर में झूठा अहंकार और मालिक का प्रेम इकट्ठे नहीं रह सकते। अगर आप प्रभु का प्रेम पाना चाहते हैं तो अहंकार को त्याग दीजिए। इससे अपने आप पीछा नहींं छूटेगा। ईश्वर के नाम के द्वारा ही इससे पीछा छूट सकता है। रूहानियत में हमारे धर्मों में यही सिखाया गया है कि जितना आप झुक कर चलेंगे उतना ही मालिक की दया-मेहर, रहमत के काबिल बन सकेंगे। तो आगे आया-

‘भोले-भाले, प्रेम प्याले,
मालिक की नजरों से पी जाते हैं।
अक्ल-इल्म, भूल जाते,
सब बंधनों से छूट जाते हैं।
बन जाते हैं नादान, कर सकें ना बयान
इस प्रेम की जुबान।’

भाई! ‘भोले-भाले, प्रेम प्याले, मालिक की नजरों से पी जाते हैं।’ जिनको दुनिया वाले भोला कहते हैं, या ये कहें कि जिनको ठग्गी मारने का, दुनिया में नोट कमाने का, मेज के नीचे से या दाएं-बाएं से लेने का तरीका नहीं आता उनको भोला कहा जाता है तथा काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के बारे में जिनको ज्ञान कम होता है उनको भोला कहा जाता है। तो ऐसे लोग जब मालिक के नाम से जुड़ते हैं तो बहुत जल्द वो मालिक की दया-मेहर को पा जाया करते हैं और अक्ल-चतुराई वाले देखते रह जाते हैं। क्योंकि अक्ल वहां नहीं पहुंच सकती। वहां तो नम्रता, दीनता से और आत्मिक तरंगों के द्वारा पहुंंचा जाता है।

अक्ल तो ऐसे-ऐसे सवालात खड़े कर देती है जैसे कई सज्जनों ने ऐसा भी कहा, हम कहते हैं जरूर पूछना चाहिए, सच्चा सौदा में जितने भी गुरु हुए तो उन्होंने यही बताया कि सबसे दीनता, नम्रता, प्रेम करो। कहते, गुरु जी! ये देखने में मिलता है कि उनके जो परिवारजन हैं वो अच्छे कपड़े पहनते हैं, अच्छी गाड़ियों में चढ़ते हैं, ऐशो-आराम लूटते हैं। ऐसा क्यों? इसका जवाब यह दे रहे हैं कि चाहे वो इस बॉडी से संबंधित परिवार हैं, चाहे बेपरवाह जी की बॉडी से संबंधित परिवार हैं, फकीर तो केवल खुद ही फकीर होता है, उसका हुक्म सारे परिवार को फकीर बनाना नहीं होता। गुरु जब नवाजता है उसी को नवाजता है, न कि उसके परिवार को फकीर बनाता है।

कभी भी रूहानी संत अपने सारे परिवार को फकीर नहीं बनाया करते। उनको घर-गृहस्थ में, जैसे आम दुनिया जीती है, जीने की पूरी-पूरी आजादी होती है, रहने का हक होता है वो जैसे भी रहें रह सकते हैं। रही बात उनके पास गाड़ियां हैं या ये ऐशो-आराम क्यों लूटते हैं तो इसका जवाब ये है कि ये सारी अपनी जद्दी- जायदाद से है। ठग्गी नहीं मारी, किसी से बेईमानी नहीं की। सबके पास अपनी-अपनी जमीन है और जद्दी जायदाद है अपने बुजुर्गों की। किसी से लूट कर या गद्दी पर आने के बाद उसमें कोई अरबों गुणा बढ़ोतरी नहीं की गई। कोई भी जाकर चैक कर सकता है, अच्छी तरह से संतुष्टि कर सकता है। उस जायदाद की आमदन आती है।

मेहनत करते हैं, कोई फिजूल खर्चा नहीं करते। क्योंकि संत, पीर-फकीर के परिवार से होते हैं, तो गुण तो उन वाले उनमें होते ही हैं। वो फिजूल खर्चा नहीं करते। अगर वो ऐशो-आराम लेते हैं, गाड़ी में बैठ गए, ये अपनी जमीन-जायदाद की आमदनी से है, किसी से मांग कर नहीं लिया, किसी का हक नहीं मारा और न ही आश्रम का एक नया पैसा लिया हो कभी, सवाल पैदा ही नहीं होता। अपनी जमीन-जायदाद से, अपने बिजनेस व्यापार से, अपने कारोबार से वो अगर कुछ बनाते हैं तो इसको गलत तरीके से नहीं लेना चाहिए। हां, जवाब आपको दे रहे हैं कि ये हकीकत है। यहां पर ये भी सच्चाई बयान करना चाहेंगे कि जब सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने अपनी दया-मेहर, रहमत से इस दास को नवाजा तो ये चर्चा हुई, परिवार वाले आते, जैसे साध-संगत बैठी होती थी।

हमारा उनसे कोई लेन-देन नहीं। पांच-छह महीने गुजर गए, कोई चर्चा परिवार वालों से नहीं होती थी। तब सच्चे मुर्शिदे-कामिल के पास एक सेवादार हुआ करते, उन्होंने जाकर अर्ज की, कि बहुत छोटे बच्चे हैं संत जी के। ये नाम (संत जी) गुफा में सच्चे मुर्शिदे-कामिल आम पुकारा करते। संत उनका ही दिया हुआ ये नाम है। उन्होंने कहा कि संत जी का जो परिवार आता है, उनको ये बुलाते तक नहीं, उनसे बोलते तक नहीं।

तो सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने हमें अपने पास बुलाया और ये वचन किए, फरमाया कि आप मिला करो। तो हमने कहा, सतगुरु जी! आपने रहमत की, आपके पास आ गए। आप जानो आपका काम जाने। तो कहने लगे कि हम गुरु के नाते आपको कहते हैं कि ‘उनको टाइम आपने जरूर देना है। दुनिया वाले कुछ भी कहें, आपने उनकी बात को सुनना भी है और उनसे बात भी करनी है, तो इसलिए कई बार जब वे आते हैं तो उनको मिलते हैं, बैठते हैं। पर कई बार किसी के अंदर, खास करके जो खास होते हैं, उनके अंदर ये अड़ जाता है, साध-संगत को तो कोई मतलब नहीं होता, पर हम सबको ही ये बताना चाहते हैं कि भाई! ये हमारे गुरु-मुर्शिदे-कामिल का वचन है।

ये जो बेपरवाह जी के परिवार आते हैं, गलीचे बिछाते हैं, ये हमारा फर्ज है उनके अदब-सत्कार के लिए है, ये तो बाल जितना भी नहीं है, सतगुरु जानता है, हमारे दिलो-दिमाग में इनके प्रति कितना अदब है, ये तो एक जरा सा है, नाम मात्र है। तो भाई! इनके लिए, परिवारों के लिए बेपरवाह जी सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने हुक्म दिया तो हम बातचीत करते हैं। जो जिसके लिए हुक्म है उसे वो हुक्म बजाना ही होता है। गुरु-मुर्शिदे-कामिल जो हुक्म करते हैं एक मुरीद को उस पर चलना ही चाहिए, चाहे कोई भी हुक्म हो। कोशिश यही रहती है कि हर हुक्म पर चला जाए पर चलाने वाले तो वही हैं, हिम्मत इन्सान करता है।

ये कुछ ऐसे सवालात थे जो हमारे पास लिखकर आए थे। हमने चाहा कि एक को जवाब क्यों दें। छुपकर जवाब तो वो देता है जिसके अंदर कोई चोरी हो या कोई बेईमानी करता हो। जो बिल्कुल सच्चा है, हर जगह पर सच्चा है तो वो झूठ क्यों बोलेगा। तो इसलिए ये आज आपको बताया है कि असलियत क्या है, वास्तविकता क्या है ताकि आपके जहन में जो सवाल हैं, जो उथल-पुथल मच जाती है वो क्लीयर (साफ) हो जाए।

तो भजन के आखिर में आया:-

‘मीरां को जहर दिया, अमृत प्याला बन था गया।
राणा ने, मारने को, नाग पिटारी बंद किया।
बना सांप का वो हार, फिर खींची तलवार, प्रेम आगे गया हार।

मीरा की कथा-कहानी आपके सामने है। उसे जहर दिया गया और ये कहा गया कि ये तेरे प्रभु का चरणामृत है। मीरा की जो भावना थी वो उस समय अपने मालिक को जिस रूप में माना करती थी यानि उस मूर्ति में थी। पूरी भावना, पूरा ख्याल वहीं। तो उसे कहा गया कि ये तेरे प्रभु का चरणामृत है, हालांकि वो जहर था और ऐसा जहर कि जिसको पीते ही इन्सान खत्म हो जाता है। तो उसने कहा अहोभाग्य कि आप भी मालिक की तरफ लग गए! क्योंकि भक्त के साथ छल-कपट करता है, छली-कपटी ऐसा रूप धारण करे तो भक्त उजागर नहीं करता, ये नहीं है कि मालिक उसे अहसास नहीं करवाता। ये सवाल ही पैदा नहीं होता। पर वो मालिक की रजा में होता है।

कहती कि अहोभाग्य, आप मालिक के प्यारे कब से बन गए, कमाल हो गई! पहले आपके चरण छूऊं, फिर ये प्याला पीऊंगी। तो वो विष का प्याला ले लिया और अपने मालिक-सतगुरु का ध्यान धरा और गटागट पी गई। उस प्याले ने उस का बाल भी बांका नहीं किया। भगवान ने उसे चावल-रोटी नहीं बनाया बल्कि वो अमृत-आबोहयात बना दिया जो बाजार में अरबों रुपए से भी एक बूंद नहीं मिलता। तो ऐसा मालिक का प्यार, ऐसी मुहब्बत। फिर जब देखा कि यह तो मर ही नहीं रही, ये तो रास्ते से हट ही नहीं रही। रास्ते से हटा क्यों रहे थे? वो किसी का कुछ बिगाड़ती नहीं थी लेकिन उसका गुरु दुनिया की निगाह में शायद छोटी जाति का माना जाता था।

जहां तक इतिहास बताता है वो उससे जुड़ी रही, उसके प्यार में बिल्कुल मस्त हो गई। या फिर दूसरा कारण था कि राजघराने से होते हुए भी नाचती रही, मुजरा करती थी, सत्संगों में जाया करती थी। ऐसा क्यों करती है? ये तो अपना नाम बदनाम करती है। वह बेचारी किसी से कुछ भी नहीं लेती थी। अपने मालिक के प्यार में मस्त थी। उसे रोकने के लिए फिर एक सांप पिटारी में बंद करके दिया गया कि ले मीरा! इससे तू अपने प्रभु का हार-शृंगार कर। ये नौलखा हार है या इसे पहनकर तू मुजरा कर। तेरा मालिक तुझ पर बहुत खुश होगा।

फिर खुश हुई कि मैं हैरान हूँ कि आप इतने बदल गए। लाइए मैं अभी इसे आपके सामने पहन लेती हूँ। उस पिटारी में ऐसा कोबरा जो पांच-सात सैकिंड ही लेता आदमी को ऊपर पहुंचाने में। इतना वो विषधर नाग उसके अंदर बंद था। तो वो मीरा को दिया गया। उसने अपने मालिक, सतगुरु, परमात्मा का नाम लिया, पिटारी खोली, क्या देखा कि वास्तव में ही वो नौलखा हार था और उसे गले में पहन कर मस्ती में नाचने लगी, झूमने लगी और राणा के क्रोध की अति हो गई कि ये तो किसी तरह भी काबू में नहीं आती। इतना कुछ कर लिया, इतने इसे मारने के प्रयास कर लिए, फिर भी मरती नहीं।

उसने उसे मारने के लिए तलवार खींची तो हाथ जड़वत (शिथिल) हो गए, जाम हो गए। तो ये उस मालिक के प्रेम, प्यार-मुहब्बत की चर्चा है। संसार में जितने भी इन्सान हैं वो उस मालिक के प्यार, प्रेम की शक्ति को पा सकते हैं। ईश्वर ने आपको दिमाग दिया है पर अभ्यास करना होगा। जैसे वो अपने मालिक के लिए बावली थी, जैसे मीरा अपने मालिक के प्यार में किसी भी चीज को नजरों तले लाती ही नहीं थी यानि नजरअंदाज कर देती थी। बस, मालिक के प्यार में खोई हुई उसी की याद में समय लगाती थी, अगर इतना नहीं तो आप घंटा सुबह-शाम ही दे दो, बाकी समय में मालिक के बताए गए अच्छे-नेक कर्म करो और घंटा सुबह-शाम उसकी याद में तड़प कर देखिए यकीनन आप पे दया-मेहर, रहमत जरूर बरसेगी। कबीर जी ने लिखा है:-

‘कबीर जिसु मरने ते जगु डरै मेरे मनि आनंदु।।
मरने ही ते पाइऐ पूरनु परमानंदु॥’

जिससे (मौत से) दुनिया डरती है, मेरे अंदर आनंद है, क्यों? क्योंकि यहां उसकी ड्यूटी बजानी है, समय लगाना है तो यहां दुनिया का होकर रहना, मलमूत्र की देह धारण करना, वैसे ही रहना है पर मरने के बाद परमानंद हो जाना है, उसमें समा जाना है, उसका रूप हो जाना है तो इसलिए मेरे दिल में परमानंद समाया हुआ है। तो भाई! ये कहना आसान है। कहने को तो कोई भी कह देगा कि जी! मैं ऐसा हूं, मैं भी तैयार हूँ लेकिन जब बात आती है तो हाथ-पांव फूलने लगते हैं, पसीने आ जाते हैं। बहुतों का ये हश्र होता है।

कहने की बातें कुछ और हैं लेकिन करना कुछ और होता है। तो मालिक के प्यार में जो जीते हैं, इतिहास की बात यहां पर आई है कि वो चमड़ी को यूं उतार देते हैं जैसे कपड़ा उतार कर पकड़ाया हो। शायद शमस थे, तबरेज साहिब से ये कहा गया कि आप अपनी खाल उतारो। उसे ऐसा क्यों कहा गया क्योंकि वो सच्ची बात कहता था। सच्ची बात बुराई को भाती नहीं। इसलिए कहा गया कि इसकी खाल उतारो। वो खाल उतारने लगे लेकिन वो फिर आ जाए, वो फिर उतारें लेकिन वो फिर आ जाए ऐसा ही होता गया पर खाल ना उतारी जाए क्योंकि हाथ कांपे जा रहे थे तो फिर कहा कि जला दी जाए ।

वो कैसे जला दें हाथ तो उनके कांपे जा रहे थे फिर और जल्लाद बुलाए वो जलाने लगे उनके भी हाथ कांपने लगे पर खाल ही ना उतरे। तो वो तबरेज साहिब कहने लगे कि आप इसके लिए क्यों तकलीफ करते हो! खाल मेरी उतारनी है जोर आप लगा रहे हो। उसने आरी चला कर झट से अपनी सारी चमड़ी उतार कर पकड़ा दी। ये मालिक जानता है कि सच्चाई क्या है लेकिन ये इतिहास में लिखा हुआ है।

आज कांटा लग जाए तो दर्द नहीं जाता सात दिन, मोच आ जाए तो लेटे रहते हैं। कहते हैं दौड़ो तो कहते हैं ना जी। चमड़ी को यूं उतार कर पकड़ा देना ये कोई आसान काम नहीं है। ये कोई तोहफा तो है नहीं जो हंसी-हंसी दे दिया जाए। कितना दर्द हुआ होगा, कितनी तकलीफ हुई होगी। लेकिन जो ईश्वर के प्यार-मुहब्बत में खोए होते हैं उनकी आत्मा को अहसास तक नहीं होता दर्द तो दूर की बात है। बाहरी तौर पर दुनिया को लगता है कि इसका एक्सीडेंट हुआ, ये हुआ, वो हुआ, इतनी तकलीफ आई लेकिन आत्मा पर कोई असर नहीं होता। जब उसे बुलाओ और पूछो तो मुस्कराते हुए खुशी-खुशी में जवाब देता है, कभी भी गिरी हुई बात नहीं कहते।

ऐसा हमने कई लोगों को नजदीक से देखा। जो सत्संगी थे, उन्होंने जब शरीर छोड़ा तो बाहर देखने में आया कि तकलीफ है, बीमारी है लेकिन जब उनसे बात की तो ऐसा लगा कि इनको कोई तकलीफ नाम की चीज है ही नहीं। तो जो मालिक के प्यार मुहब्बत में चलते हैं वो आखिरी समय भी अपने शरीर को यूं छोड़ जाते हैं जैसे एक पुराना कपड़ा उतारा जाए। ये मालिक के प्यार में, उसके नाम में, उसकी मुहब्बत में ताकत है।

‘मजाजी शराब के, मटके हजार, प्रेम की घूंट बराबर नहीं।
कहें शाह ‘सतनाम जी’, प्रेम के जाम के,
कुछ भी समझो बराबर नहीं।
प्याला पिए एक बार, चढ़ा रहे है खुमार,
देवे जग को विसार।’

मालिक के प्रेम में इतनी ताकत है। आम इन्सान को प्रभु के प्रेम की क्या जरूरत? प्रभु के नाम, उसके प्रेम की जरूरत क्यों है? आप यहां पर रहते हुए उकता जाते हैं, बहुत टैंशन में पड़ जाते हैं। जब कार्य करते-करते ऐसा समय आता है, दिमाग जवाब दे जाता है तो आपको टॉनिक चाहिए, जो आपको टैंशन से मुक्त कर दे। राम का नाम एक टॉनिक है। आप दुनिया में रहते हुए हर कार्य में सफलता चाहते हैं कि मेहनत करें, रिजल्ट मिले। तो उसके लिए आपकी ये स्थिति बनी रहती है कि शायद फल नहीं मिलेगा। पांच-दस प्रतिशत होता है कि शायद मिल जाए।

अगर आपका आत्मबल ये हो कि सौ प्रतिशत फल मिलेगा तो आप काम भी उसी ढंग से करेंगे और यकीनन सफलता का जो प्रतिशत है वो बढ़ता चला जाएगा। आपको दुनिया में रहते हुए आत्मिक शांति होगी। आपके अंदर शांति, बाहर शांति होगी। बाल-परिवार में सुख-शांति हो, घर में खुशियां हों, इसके लिए कोई टॉनिक है तो वो भी राम का नाम है।

आत्मा आवागमन से आजाद हो जाए, जन्म-मरण के चक्कर में ना पड़े, इसके लिए भी अगर कोई टॉनिक है तो वो राम का नाम है। आत्मा जीते-जीअ मरे और जीए , मरना तो आत्मा का नहीं होता यानि शरीर में रहते हुए प्रभु तक जाए जिसमें शरीर मृतप्राय: हो जाता है। तो ऐसे हैं वो नजारे, वो लज्जत, वो परम सुख। अरबों-खरबों गुणा नजारे, वो लज्जत, वो अमृत अगर आप पीना चाहें तो उसके लिए भी मालिक का नाम, उसका प्रेम जरूर लें। दुनिया में कदम-कदम पर प्रभु का नाम सहायता करता है, मददगार है, अगले जहान में सच्चा साथी है। इसलिए प्रभु का नाम हर इन्सान को लेना चाहिए, सुख-शांति के लिए, तंदुरुस्ती के लिए, रूहानियत में तरक्की के लिए और परमानंद के लिए।

‘कहें शाह सतनाम जी, प्रेम के जाम के,
कुछ भी समझो बराबर नहीं।’

सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज, जिनकी दया-मेहर, रहमत से, जिनके रूहानियत के नजरिए से आपकी सेवा में हम एक-एक शब्द बोल रहे हैं, तो भाई! वो मालिक, सतगुरु जो ख्याल देता है, वोही कहलवाता है।

‘ना हमने कुछ किया है, ना कर सकहिं,
ना ही हम कुछ जानत।
जो किया, कर रहे हैं और करते रहेंगे
शाह सतनाम जी, भयो संत ही संत।’

तो ये उन्हीं की दया-मेहर, रहमत है। बरस रही थी, बरस रही है और हमेशा ही बरसती रहेगी। तो भाई! ये सब उन्हीं के वचन हैं कि मालिक के प्रेम के प्याले के बराबर कुछ भी नहीं। ये तो मुकाबला करना पड़ता है, ये तो बताना पड़ता है जिस धरातल पर आप रहते हो, जैसी भाषा है, जो सबसे ज्यादा पावर वाली चीज है।

जैसे नशा है। तो उसकी तुलना करके बताना पड़ता है कि इससे अरबों गुणा है। वरना अगर सच कहें, बेपरवाह जी ने भी बताया कि प्रेम के प्याले का कोई मुकाबला ही नहीं है। उसमें जो नशा, जो परम सुख, जो लज्जत, जो खुशी का अहसास है, सब बीमारियां, दु:ख-तकलीफ, दर्द दूर होते हैं। आज जो आपको बताया अगर उस तरीके से इन्सान अमल करे तो बिल्कुल हल्का होकर मालिक के दर्श-दीदार करता है और जीते जी बहुत बार रूहानी उडारी मारकर मालिक के दर्शन करता है, कण-कण, जर्रे-जर्रे में उसके दर्श-दीदार होने लगते हैं।
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