Spiritual Satsang Dera Sacha Sauda Sirsa

रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा Spiritual Satsang Dera Sacha Sauda Sirsa

मालिक की साजी-नवाजी प्यारी साध-संगत जीओ, जो मालिक की चर्चा आपकी सेवा में अर्ज करेंगे वो आप सुन सकें इसके लिए आपसे गुजारिश, प्रार्थना है कि आप चुपचाप बैठिएगा और जहां भी जगह मिलती है वहां आराम से बैठ कर उस मालिक की चर्चा सुनिए जो आपकी सेवा में अर्ज करेंगे। समय निकाल कर यहां पर जो जीव आए हैं

अपना काम-धन्धा छोड़ा, गर्मी की परवाह न करते हुए, मन, नफज, शैतान का सामना करते हुए यहां पर रंग-बिरंगी फुलवाड़ी के रूप में आप लोग सजे हैं, बहुत ही भाग्यशाली हैं, बहुत ही नसीबों वाले हैं, क्योंकि राम-नाम की कथा, कहानी आज कलयुग में सुनना बहुत मुश्किल है। आप सभी का सत्संग में, रूहानी मजलिस, आश्रम में पधारने का तहेदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आयां नूं, खुशामदीद कहते हैं,

आज आपकी सेवा में जिस भजन, शब्द पर सत्संग होगा वो भजन है :-

लारा लप्पा लारा मन लाई रखदा,
बुरेयां कम्मां ‘च फसाई रखदा।
दे कर झूठे लारे, ओ देखो जी।

सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि मन या नफज, शैतान किसे कहते हैं ? मन और दिमाग एक नहीं होते। मन का काम केवल बुरे विचार देना है। इन्सान के दिमाग में, इन्सान के विचारों में जो गलत, गन्दे, बुरे विचार आते हैं उनको देने वाले को मन कहा गया है। अच्छे नेक, भले विचार जो आते हैं उन्हें जो दिमाग को देता है उसे जीव-आत्मा, रूह या आत्मा की, ज़मीर की आवाज कहा जाता है।

बुरे विचारों का प्रतीक मन है और इस मन को हिन्दू रूहानी फकीरों ने मन-राम की उपाधि दी है कि ये बड़ा, जबरदस्त है। इन्सान के विचारों को यह चक्री की तरह घुमाता रहता है और लारे बहुत लगाता है कि मैं तुझे ये बना दूंगा, वो बना दूंगा। अन्दर ही अन्दर विचारों का ऐसा जाल बुनता है कि इन्सान उस जाल में फंस कर तड़पता रहता है, बेचैन रहता है, निकल नहीं पाता। मन जैसी ताकत काल के अनुसार, काल महाकाल के अलावा कोई दूसरी नहीं है। बड़ी ही जबरदस्त ताकत है। आपके विचार कहीं और घूम रहे होंगे देखने में आप भक्त नजर आएंगे, शरीर आपका कहीं और है और विचार कहीं और हंै?

मन-जालिम विचारों के द्वारा आपको कहीं से कहीं ले जाता है। बुरे विचार देगा, अच्छे विचार तो आने नहीं देता। जैसे कोई राम-नाम, अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड, खुदा की तरफ बढ़ता है तो ये मन-जालिम तरह-तरह के धन्धे गिनवा देता है कि आज अगर तू सत्संग में चला गया तो तेरी गैर-हाजिरी लग जाएगी। काम-धन्धे का नुक्सान हो जाएगा। रास्ते में परेशानियां आएंगी। दूसरी तरफ मेला, सर्कस, सिनेमा, मुजरा है वहां पर जाने से मन कभी नहीं रोकता। कहता, वो तो बढ़िया है, चल दौड़ कर चल, देख कर आएंगे। पास से पैसा भी देता है और बुद्धू बन कर वापिस चला आता है।

वहां हकीकत, सच्चाई न के बराबर होती है। अधिकतर कल्पना होती है। ये मन ऐसे ही कामों में जीव को उलझाता है। मन काल का वकील, एजेन्ट है। काल को दूसरे शब्दों में नेगेटिव-पॉवर, बुराई की ताकत कहा जा सकता है। इन्सान को काल के दायरे से बाहर नहीं जाने देता।

किसी दुकान में कोई एजेन्ट रखा जाता है तो वो उस दुकान का गुणगान गाता है कि फलां दुकान पर ये सामान बढ़िया मिलेंगा उसी से लें, वो सही सामान देते हैं। लोग कहते हैं वही कम्पनी का माल हम कहीं और से ले लेंगे, कहता, नहीं। क्योंकि उसे वेतन उसी दुकान से मिलना है। उसी तरह से ये मन काल का एजेंट है। ये बुरे विचार देता है। बुरी सोच देता है और बुरे विचार इन्सान के ऊपर हमेशा छाए रहते हैं। मन स्वाद का आशिक है, लज्जत का आशिक है। दुनियावी विषय-विकारों, भोग-विलास, जीभा के स्वाद में मन जीव को उलझाए रखता है।

आज संसार में आप नजर मार कर देखें तो इन्हीं रसों-कसों में सभी लोग फंसे हुए हैंं। लोग या तो लोभ-लालच में और फिर भोग-विलास में उलझे हुए हैं। पैसे, दौलत के लिए इन्सान-इन्सान का वैरी बना हुआ है। कोई जान पहचान नहीं होती, फिर भी पैसे के लिए एक इन्सान दूसरे इन्सान को खत्म कर देता है। आखिर में नतीजा यह होता है कि वही पैसा यहीं पर छोड़ कर खाली हाथ जाना पड़ता है। किसी को मार कर, जुल्मों-सितम करके जो पैसा कमाया जाता है वो इन्सान को रोगों का घर बना देता है। बेचैनी, परेशानियों से हमेशा उलझाए रखता है।

यही भजन में आया है:-

लारा लप्पा लारा मन लाई रखदा।
इस बारे में बताया है:-
दारा सुत सम्पत परवारा,
डारे काम क्रोध की धारा।
इन्द्री भोग वास भरमावे,
भक्ति विवेक नाश करवावे।
सतगुरु प्रीत मिले ना जब तक,
कभी ना छूटे मन के कौतक।
दल बल मन के कहां लग वरनूं,
ऋषि मुनि कोई जाने ना मरमू।।
ताते सतगुरु खोजो निज के,
बिन सतगुरु कोई चले ना बच के।
सतगरु सम प्रीतम नहीं कोए,
मन मलीन को वो ही धोए।।

तो साथ-साथ शब्द-भजन चलेगा और साथ-साथ आपको बताते चलेंगे। हां जी, चलिए भाई:-

टेक :- लारा लप्पा लारा मन लाई रखदा,
बुरेयां कम्मां ‘च फसाई रखदा।
देकर झूठे लारे, ओ देखो जी।

1. काल ने मन वकील बनाया,
सारे जगत को है भरमाया।
समझ किसे न आए, ओ देखो जी।
लारा लप्पा…

2. ड्यूटी मन की काल लगाई,
काल के दयारे से बाहर न जाई।
ऐसा जादू पाए, ओ देखो जी.
समझ किसे न आए रे। लारा लप्पा…

3. माया का है जाल बिछाया
चोग विषयों का है पाया।
जो फंस जाए छूट न पाए
ओ देखो जी। लारा लप्पा…

4. कर्म काण्ड में जीव फंसाए
लोहे सोने की बेड़ी पाए।
काल से बच न पाए, वो फिर भी।
लारा लप्पा…

भजन के शुरू में आया है :-
काल ने मन वकील बनाया
सारे जगत को है भरमाया।
समझ किसे न आए, ओ देखो जी।

Spiritual Satsang Dera Sacha Sauda Sirsaकाल ने मन वकील बना रखा है जो हमेशा बुराई की दलील देता है। एक अच्छी नहीं लगी तो दूसरी, दूसरी नहीं तो तीसरी, इन्सान को भरमाता रहता है। पीर-फकीर के वचनों को भी पल में काट देता है। ये मन का नशा ही ऐसा है।
जब ये हावी हो जाता है तो इसे अपनी बात सही लगती है। संत-फकीर कहें तो वो गलत नजर आती है। भाई! ये मन का काम है कि हर बात में बाल की खाल निकालता है।

अच्छाई, नेकी, भली बात में ये चलने नहीं देता। मन वकील है इसने सारे जगत को भरमा रखा है। समझ नहीं आने देता। गलत विचार दे दिए, बुरे दे दिए और उनसे अगर कोई रोके तो फिर मन को ठेस लगती है। अरे मन को तो ठेस लगना अच्छी बात है ताकि आत्मा को ताकत मिले। राम-नाम की बात से या सच्चाई की बात से मन को ठेस लगती है। बुराई की तरफ जाते हुए को कोई रोक दे, गलत बात से अगर कोई टोक दे तो भी मन जालिम भड़क उठता है।

अन्दर ही अन्दर योजनाएं शुरू हो जाती हैं। अब ये करेंगे! अब वो करेंगे! अब फलां करेंगे। भाई! मन से बाज आ जाओ। इसके पीछे मत चलो। इसने किसी को नहीं छोड़ा जो तुझे छोड़ देगा! छोड़ता उसे है जो राम के नाम के साथ जुड़ जाता है, वरन् अन्दर ही अन्दर बुरे विचार दे देकर मालिक से दूर करने की योजना बनाता रहता है।

इस बारे में लिखा है :-

मन है जिसके कहे लग कर,
हर समय तू होता है ख्वार।
सारी दुनिया अपनी समझे,
करता है झूठा अहंकार।।
महल गाड़ियां कुटुम्ब कबीला,
जितनी तेरी माया है।
जो कुछ दिखाई देता सब कुछ झूठ,
चलती फिरती छाया है।।

जो नजर आता है वो सब कुछ झूठ है। एक दिन छोड़ जाने वाले सारे पदार्थ हैं। इनके लिए मोह मत बढ़ा। मत इनके लिए गुमराह हो। इनके लिए अगर तू प्रभु, परमात्मा से दूर हो गया तो खुशियों के लिए तरस जाएगा। बेचैनियां पल्ले पड़ जाएंगी। मन के कहे कोई भी न चलो। बुरे विचार आते हैं तो सुमिरन करने लग जाओ। मन आप पर हावी होता है, भरमाता है तो अपने सतगुरु, मालिक, परमात्मा को याद कीजिए ताकि आप बुरे विचारों से, मन के जाल से बाहर आ सकें।

ड्यूटी मन की काल लगाई
काल के दायरे से बाहर न जाई।
ऐसा जादू पाए, ओ देखो जी,
समझ न आए रे।

काल ने ये ड्यूटी लगाई है कि जीव को भरमाते रहना ताकि कोई आत्मा काल के दायरे से बाहर न निकले। ये मन-जालिम हर तरह से भरमाता है, हर दाँव चलाता है, किसी तरह से कोई फंस जाए। मन किसी को कोई लालच जैसे काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, आदि सब कुछ देता रहता है। इनमें कहीं न कहीं इन्सान फंस ही जाता है और जो फंस गया तो वो मन के हत्थे चढ़ गया। फिर मन गुमराह करता है।

‘मन है बना ड्राईवर हर इक प्राणी का।’

मन ड्राईवर बना अन्दर बैठा है। जैसे गाड़ी में ड्राईवर बैठ कर कहीं भी ले जाए वैसे ही मन-जालिम हर इन्सान के अन्दर है और बुरे विचार देकर इसे कहीं भी ले जा सकता है। जीवन की खुशियां खत्म कर सकता है। इस मन से बचो।
ऐसा जादू पाए ओ देखो जी, समझ ना आए रे

इस बारे में लिखा है:-

मन का ये काम है किसी को अपने दायरे से बाहर नहीं जाने देता। इसने जीवों को एक तरह से जादू करके, फरेब से काबू में रखा हुआ है। हम अपने निजघर को भूले बैठे हैं और दर-ब-दरी हमारे भाग्यों में लिखी गई है।
अपने निजमुकाम, निजधाम, सतलोक, सचखण्ड, अनामी को भूल गए और इस संसार में मोह बढ़ा लिया। ये तो एक दिन छूट जाने वाले पदार्थ है। जो संगी-साथी हैं, दोस्त-मित्र हैं, रिश्ते-नाते हैं जब उनका समय आएगा संसार छोड़ कर चले जाएंगे। आप ने उन्हें साथी समझा, उनसे प्यार बढ़ाया तो आपको तड़पना पड़ेगा, बेचैन होना पड़ेगा।

ये मन का जादू है। लोग किसी को बे-गर्ज नि:स्वार्थ प्रेम से रहता देख कर खुश नहीं रहते। कोई न कोई अंगुली लगाते हैं। मनघड़ण्त बात सुनाते हैं। कई लोग कानों के कच्चे होते हैं। जरा सी बात सुनी नहीं कि तेरे को फलां आदमी ऐसे कह रहा है, फलां आदमी वैसे कह रहा है भड़क उठते हैं। हम क्या किसी से कम है ! हमें ऐसे कह दिया, बस! मन का दांव चल गया। वो बीच वाला अंगुली लगा के चलता बना। पंजाबी में कहावत है :-

‘अग्ग लाई डब्बू कुत्ता कंध ते।’

अंगुली लगाने वाला तो चला गया ताकि इसका प्रेम उनसे न बन जाए। कोई न कोई कारण होता है ताकि दूसरे से उसका प्रेम न बढ़े या वो कहीं सबसे प्रेम न करने लग जाए। कहता, मेरे तक ही सीमित रहे। तरह-तरह के मन जादू चलाता रहता है। इसी जादू में अल्लाह, वाहेगुरु, राम के नाम से दूर करता रहता है। गुमराह करता रहता है। भाई, मन के जादू का क्या कहना! बहुत तरह का जादू करता है। बहुत तरह से इन्सान को भरमाता है, भटकाता है।

इससे बचने का बस, एक ही तरीका है राम का नाम, वाहेगुरु की याद, अल्लाह की इबादत, गॉड प्रेयर्स। इसके बिना और कोई तरीका नहीं जिससे मन के जादू से बचा जा सके। मन बड़ा ही जादूगर है, बड़ा भरमाता है। भाई! इससे बचने के लिए सत्संग में आकर मालिक के नाम की युक्ति पाकर उसका अभ्यास करो तो इसका जो जोश है ठण्डा पड़ता है और आत्मा का बल बढ़ता है तभी आत्मिक, शान्ति या सन्तोष आता है।

माया का है जाल बिछाया,
चोग विषयों का है पाया।
जो फंस जाए छूट न पाए, ओ देखो जी।

माया का जाल बिछा रखा है, विषय-विकारों का चोगा डाल रखा है। जैसे शिकारी पक्षियों को पकड़ते हैं, जाल बिछा देते हैं और उसमें चोगा, दाने इत्यादि फंैक देते हैं ताकि उस चोगे को देख कर पक्षी उड़ता हुआ वहां पर आए, उनको चुगने लगे तो उनके जाल में फंस जाए। उसी तरह मन जालिम ने विषय-विकारों, काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार का चोगा डाल रखा है। जो कोई इनमें फंसेगा तो वो मन के जाल में फंस कर रह जाता है। मन ऐसी लज्जत, स्वाद, खुशी महसूस करवाएगा कि इन्सान सोचता है यही उसकी जिन्दगी है और राम, अल्लाह, परमात्मा को भुला देता है।

माया का है जाल बिछाया,
चोग विषयों का है पाया।
जो फंस जाए छूट ना पाए, ओ देखो जी।
इस बारे में लिखा है:-
कालबूृत की हसतनी मन बउरा रे
चलतु रचिओ जगदीस।।
काम सुआइ गज बसि परे मन बउरा रे
अंकसु सहिओ सीस॥।
बिखै बाचु हरि राचु समझु मन बउरा रे।।
निरभै होइ न हरि भजे मन बउरा रे
गहिओ न राम जहाजु।।

जैसे पुराने समय में हाथी को पकड़ने के लिए कागज की हथनी बना लेते थे। बहुत बड़ा खड्डा खोद कर उसके ऊपर घास-फूस की छत डाली और ऊपर कागज की हथनी खड़ी कर दी जाती तो उसे देखकर हाथी दूर से ही दौड़ा चला आता। हाथी मस्ती में एकदम से खड्डे में गिर जाता । कई दिन उसे भूखा रखा जाता। फिर एक आदमी उसे धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा खाना देता आखिर में उसकी मस्ती उतर जाती और वह उस आदमी का गुलाम बन जाता।

अगर हाथी हिलता तो ऊपर से अकुंश सहना पड़ता है। इस तरह से इतना ताकतवर-प्राणी गुलाम बन जाता है, उसी तरह से हे इन्सान, हे जीवात्मा, रूह! तुझे फंसाने के लिए काल ने मन रूपी हस्तनी बनाई है। वो मन के द्वारा कभी काम-वासना, विषय-विकार, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार रूपी चारा तुझे देता रहता है और ऊपर से अंकुश भी देता है। भाई ! ये मन का अंकुश है। ऊपर से हिलने नहीं देता। अरे! जितना आप दौलत के लिए, काम-वासना में, मोह-ममता में तड़पते हो सौ प्रतिशत तड़पते हो और अगर उसमें से दस प्रतिशत भगवान की याद में तड़पो तो वाहेगुरु, अल्लाह, राम की दया-मेहर जरूर होगी। पर उस मालिक की याद में तड़पता कोई-कोई ही है।

जो उसकी याद में तड़पता है उसका दामन, झोलियां उसकी दया-मेहर से मालामाल, लबालब रहती हैं।
लोगों को दुनियावी-पदार्थों के लिए तड़पते देखा है। सारा दिन योजनाएं बनाते देखा है। कांट-छांट करते देखा है, ये करो, वो करो, फलां करो, मन के पीछे चलना है पर अल्लाह, वाहेगुरु, राम को पाने के लिए कभी कुछ नहीं करता। ऐसा मन करने ही नहीं देता। भाई! इसके हत्थे मत चढ़ो, ये आपको गुमराह कर रहा है। इसके नशे से बाहर आओ। मालिक को याद करो। उसकी याद में तड़पो, क्योंकि मालिक की याद में जो समय लगाओगे आने वाला समय और आगे का वो समय जब अकेले जाना होगा, तब भी मालिक आपका साथ जरूर देंगे।

आगे आया है:-

कर्म काण्ड में जीव फंसाए,
लोहे सोने की बेड़ी पाए।
काल से बच न पाए, वो फिर भी।

ये मन तरह-तरह के कर्म काण्ड करवाता है। कभी कहता है इतना दान कर दे, कभी कहता है मालिक को चढ़ावा चढ़ा दे मालिक खुश हो जाएगा! कभी कहता है खड़ा रहने से मालिक खुश हो जाएगा। क्यों बैठने वालों पर क्या मालिक खुश नहीं होता ? कभी कहता है सूर्य की तरफ देखता रह, हठ-योगी बन जाते हैं। कई लोग हाथ उठा करके खड़े रहते हैं और वह वहीं जुड़ जाता है, सीधा ही नहीं होता। बड़ी अजीबो-गरीब हालत है। कई नंगे ही घूमते रहते हैं कि मालिक मिल जाएगा। फिर तो सभी पशु उस मालिक को पा लें! क्योंकि उनके कौन सी

पैंट-शर्ट पहनी होती है? ऐसा होते कभी नहीं देखा! फिर तो सारे जानवर परमात्मा के पास होते। कोई कहता है नहीं, आप जटाएं रखो, कंघा न करो, ऐसा होता तो रीछ महोदय तो मालिक के पास होते! कोई कहता कि नहीं, आलू की तरह ऊपर से लेकर नीचे तक सफाचट करवा दो तो मालिक मिल जाएगा। आपकी इच्छा! आपका धर्म जैसा कहता ठीक है लेकिन आलू की तरह बिल्कुल शरीर छिलवाने यानि बाल उड़ा देने से अगर मालिक मिलता,

तो कबीर जी ने लिखा है :-
‘मूंड मुंडाए हरि मिले, तो हर कोई लेत मुंडाए।
बार-बार के मूंडते, भेड़ ना बैकुण्ठ जाए।।’

Spiritual Satsang Dera Sacha Sauda Sirsaकबीर जी कहते हैं कि भेड़-बकरियों को छ:-छ: महीने में बिल्कुल साफ कर देते हैं, ऊन उतार लेते हैं, वो कभी बैकुण्ठ नहीं गई तो मैं कैसे चला जाऊंगा ? ऐसे बहुत से कर्मकाण्ड हैं। कोई कहता है कि फलां रंग के कपड़े पहनो, शरीर पर राख मल लो। एक जीव राख लगाता है, वो राख में ही लोटनी लगाता रहता है, जैसा मिल गया इधर-उधर से खा लिया और फिर उसकी आवाज बड़ी कर्कश होती है।

अगर ऐसा करने से मालिक मिलता तो सबसे पहले वो महाशय मालिक के पास होते जिसके बारे अभी आपको बताया। कोई कहता है उजाड़ों में चले जाओ। अब उजाड़ों में जाने से भगवान मिलते तो उल्लू महोदय तो रहते ही उजाड़ों में हैं। ये कर्मकाण्ड मन का झांसा है कि चलो सारी उम्र इसमें लगा रहेगा। हाथ में टल्ली है उसे बजा रहा है और अन्दर मन की घण्टी बज रही है। ऊपर से राम-राम, अन्दर से अपना काम होता है। कहता, मेरे बेटे को ये मिले मेरे दफ्तर में ये आ जाए, उसकी फट्टी साफ हो जाए, मेरे को तरक्की मिले, उसकी दुकान में आग लग जाए, इधर टल्ली टन-टन, टन-टन। तो ये भक्ति कैसी चल रही है? कितनों का बेड़ा गर्क कर रहा है? भाई! अपना बुरा कर रहा है, किसी और का नहीं।

‘जैसी जिसकी भावना, तैसा ही फल ले।’

जैसे विचार हैं उसका फल तुझे मिलेगा। इसलिए बुरे विचारों में मत पड़ो। अल्लाह, राम से यही मांगो कि मुझे भी दो समय का भोजन दे दे, सभी को दे दे। तेरे वाले से छीन कर तो देना नहीं। वो तो दया का सागर है, रहमत का दाता है उसने तो देना ही देना है पर तेरी भावना शुद्ध हो तुझे जरूर मिलेगा, उसकी दया-मेहर के काबिल तू बन जाएगा। भाई! कर्मकाण्ड जीव को फंसाए रखते हैं। चाहे पुण्य करते हैं, चाहे पाप करते हैं तो ये दोनों नरक-स्वर्ग की बेड़ी हैं। बेड़ी चाहे लोहे की है या सोने की है। अब जब बेड़ी लग गई, कैद तो हो गया, तो निकल नहीं पाएगा। उसी तरह कर्मकाण्ड की बेड़ी मन लगवा देता है और जीव को निकलने नहीं देता।

इस बारे में लिखा है:-

वास्तव में हउमै सहित अच्छे या बुरे दोनों तरह के कर्म ही जीव को बांधने के लिए
एक जैसे हैें। पवित्र गीता के अन्दर श्री कृष्ण जी फरमाते हैं कि अच्छे और बुरे कर्म जीव के बंधन के लिए एक-जैसे हैं। जैसे लोहे की बेड़ी हो या सोने की, बांधने के लिए एक-जैसी हैं। उनका फल नरक या स्वर्ग के हेर-फेर और जन्म-मरण के चक्कर में फिरना है। जीव जब तक अपने आप को कर्त्ता समझता है तब तक कर्मांे का बंधन उसके सिर के ऊपर है।
जब तक इन्सान यह समझता रहता है कि मैं ही सब कुछ हूं, मैं ही कर सकता हूं, मैं ये हूँ. मैं वो हूं तब तक उस मालिक की दया-मेहर, रहमत नहीं होती। जहां अहंकार है वहां मालिक का प्यार नहीं और जहां मालिक का प्यार है वहां अहंकार-खुदी नहीं रहती।

चाखा चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान।
एक म्यान में दो खड़ग, देखा सुना ना कान।।

कबीर जी कहते हैं जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं आती उसी तरह एक शरीर में अहंकार और प्रभु का प्यार इकट्ठे नहीं रहते। जहां अहंकार, खुदी है वहां मालिक का प्यार नहीं और जहां मालिक का प्यार-मोहब्बत है वहां अहंकार-खुदी नहीं रहती। भाई ! अहंकार, कर्मकाण्डों से बचने के लिए मालिक का नाम ही तरीका है जो आपकी सेवा में अर्ज कर रहे हैं।

तो थोड़ा सा भजन और है:-

5. मानस जन्म है मिलेया जैसा,
बार-बार न मिलना ऐसा।
माटी में मन है मिलाए,
ओ देखो जी। लारा लप्पा…..

6. मीत ना जानो है ये दुश्मन,
सुनने ना देता नाम की ये धुन।
इधर-उधर ले जाए, सुरत को। लारा लप्पा..

7. वशिष्ट जी हैं ये फरमाते,
पी ले समुन्द्र पहाड़ उठाते।
मन काबू न आए, ओ फिर भी। लारा लप्पा..

8. मन जीता जिस जग है जीता,
मानस जन्म है सफला कीता।
‘शाह सतनाम जी’ हैं समझाएं,
ओ फिर भी, समझ ना आए रे। लारा लप्पा.

भजन के आखिर में आया है
मानस जन्म है मिलेया जैसा,
बार-बार न मिलना ऐसा।
माटी में मन है मिलाए, ओ देखो जी।
इन्सान का शरीर सर्वोत्तम, अति उत्तम है यानि सरदार-जून है और ये बार-बार नहीं मिलता।
कबीर मानस जनमु दुलंभ है
होइ न बारैबार।।
जिउ बन फल पाके भोइ गिराहि
बहुरि न लागहि डार।।

जैसे वृक्ष की टहनी से फल पक कर धरती पर गिर जाता है वो पका हुआ फल दोबारा उस टहनी पर नहीं लग सकता। उसी तरह मालिक को मिलने के लिए आत्मा को इन्सान का शरीर पका हुआ फल मिला है। एक बार अगर हाथ से चला गया तो बार-बार ये शरीर नहीं मिलेगा। फायदा उठाया जा सकता है अगर इसमें सुमिरन, नाम का अभ्यास किया जाए, आवागमन से मुक्ति मिले, सुख-शान्ति मिले, आनन्द परमानन्द की प्राप्ति हो! पर मन माटी में मिला रहा है। ये तो अपने ही उधेड़बुन में इन्सान को फंसा देता है, बुरी तरह से इन्सान मन के जाल में फंसा रहता है और मन जो कार्य करवाता है वो समझ नहीं आने देता। मन कहता है कि इसमें इतना लाभ, फायदा होगा ये काम कर, वो काम कर। अल्लाह, राम का तो नाम ही नहीं लेने देता। भाई! ये मन बड़ा ही जालिम है।

मीत ना जानो है ये दुश्मन, ..
सुनने ना देता नाम की ये धुन।
इधर-उधर ले जाए, सुरत को।

जैसे मालिक की याद में कोई बैठता है और दस मिनट नहीं होने देता कि ये मन दौड़ना शुरू कर देता है। कभी कहीं, कभी कहीं। फिर भी वो बहादुर हैं जो मालिक की याद में बैठे रहते हैं। मन ऐसे-ऐसे कार्य गिनवाता है, ऐसे-ऐसे धन्धे जो पहले कभी ख्याल में ही नहीं होते। भाई! ये मन इधर-उधर दौड़ाता रहता है।

अब नाम की धुन के बीच में अगर कोई सबसे बड़ी रुकावट है तो वो मन है जो धुन को सुनने नहीं देता। आवाज को अन्दर आने नहीं देता। विचारों में और ही और बातें चलती रहती हैं पर परमात्मा का नाम ये लेने नहीं देता।

इस-बारे में लिखा है :-

सतगुरु कहे करो तुम सोई,
मन के कहे चलो मत कोई।।
ये भव में गोते दिलवावे,
सतगुरु से बेमुख करवावे।।
काल चक्कर में डाल घुमावे,
मोह जाल में बड़ा फंसावे।
मित्र ना जानो वैरी पूरा,
गुर भक्ति से डारे दूरा।।

वशिष्ट जी हैं ये फरमाते,
पी ले समुन्द्र पहाड़ उठाते ।
मन काबू न आए, ओ फिर भी।

वशिष्ट जी जो श्री रामचन्द्र जी के गुरु हुए हैं वो उनको बचपन में समझाते हुए फरमाते हैं, अगर कोई कहता है उसने सारी हिमालय-पर्वतमाला को उठा लिया है, ये बात असम्भव है। कहने लगे, फिर भी मैं एक पल के लिए मान लूंगा शायद किसी ने ऐसा कर लिया होगा। फिर वशिष्ट जी कहने लगे, अगर कोई कहता है कि मैंने सारे समुंद्रों का पानी पी लिया, यह भी असम्भव है।

कहते, एक पल के लिए मैं मान लूंगा किसी ने ऐसा कर लिया होगा पर अगर कोई कहता है कि उसने मन को जीत लिया है ये बात मैं कभी नहीं मानूंगा। इतनी बड़ी-बड़ी बातें असम्भव हैं जो देखने में आता है, सारे समुंद्रों का पानी पीना कोई आसान काम नहीं, सारी हिमालय पर्वतमाला को उठाना आसान नहीं यानि बहुत असम्भव है, कहते फिर भी मैं मान लूंगा, कोई ऐसा कर लेगा लेकिन मन को जीतना कभी नहीं मानूंगा, क्योंकि मन बुद्धि को काबू कर लेता है। इन्सान को अहंकारी बना देता है, अन्दर चिड़चिड़ापन भर देता है। तरह-तरह की बीमारियां लगा देता है।

अपने आप को बड़ा बनाए रखता है कि तू तो बहुत बड़ा है, तेरे जैसा कोई दूसरा है ही नहीं। ये अहंकार, ये खुदी जो मन की देन है इन्सान को किसी क्षेत्र में सफल नहीं होने देती। भाई! मन को रोकने के लिए राम का नाम ही तरीका है! क्योंकि मन स्वाद, _लज्जत का आशिक है और वाहेगुरु, हरि, ओ३म, अल्लाह के नाम में जो रस, जो आनन्द है वो किसी और चीज में नहीं है। तो जब उसे चखेगा तभी मन इधर-उधर नहीं दौड़ेगा क्योंकि वो स्वाद, लज्जत का आशिक है। ऐसा स्वाद उसे दुनिया में नहीं मिलेगा, तो फिर वो सहयोग देने लगता है, बल्कि यही कहता है कि मुझे वो स्वाद फिर चखा।

इस बारे में लिखा है:-

मन करोड़ों यत्नों से काबू नहीं आता। इसको काबू करना अति कठिन है। बाहर वाले साधनों जप-तप, कर्म-धर्म, सुच-संयम, तीर्थ-व्रत, पुण्य-दान आदि किसी से ये वश में नहीं आ सकता। इसका जीतना अति कठिन है।

भजन के आखिर में आया है:-
मन जीता जिस जग है जीता,
मानस जन्म है सफला कीता।
‘शाह सतनाम जी’ हंै समझाएं,
ओ फिर भी, समझ ना आए रे।।

सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज फरमाते हैं कि मन जीते जग जीत। मन जिसने जीत लिया समझो उसने संसार को जीत लिया। यानि जिसके अन्दर बुरे विचार नहीं चलते, जिसने बुरे विचारों पर काबू पाना सीख लिया है उस जैसा कोई दूसरा नहीं होगा। उसके अन्दर तो शान्ति, आनन्द, लज्जत, खुशी है। मन को जीतना अगर आप चाहते हैं तो उसके लिए आप सुमिरन पर जोर दें। सन्त, पीर, फकीर जो वचन कहें उसको सुना करो, समझा करो और अमल किया करो। ये मत सोचा करो कि आपको कोई सच्ची बात कह दी गई तो बुरा मानते हैं। फिर मन आपका बाजी ले जा रहा है। कह दिया, आप में कमी है तो उसे दूर करो, तिलमिलाओ मत। मन तभी काबू में आएगा।

मन जीता जिस जग है जीता,
मानस जन्म है सफला कीता।
इस बारे में लिखा है :-

नाम के जपने से सारे संसारी बंधन और, बाहर वाली खींचें हट जाती हैं। मन नीच गतियों को छोड़ देता है और इन्सान काम, क्रोध, लोभ मोह, अहंकार रूपी पांच बैरियों(दुश्मनों) को जीत लेता है। जब सुरत इनसे आजाद हो जाती है तो वो आत्मिक-मण्डलों की तरफ उड़ारी मारती है और अपने निजघर पहुंच कर सदा सुख पाती है।

भजन के आखिर में मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज ने यही फरमाया है :-

मन जीता जिस जग है जीता,
मानस जन्म है सफला कीता।
‘शाह सतनाम जी’ हैं समझाएं,
ओ फिर भी, समझ ना आए रे।।

फकीरों का काम, सन्त-महापुरुषों का काम जीवों को समझाना होता है जो बेपरवाह जी ने अपने भजन के द्वारा समझाया कि मालिक के नाम के बिना छुटकारा नहीं है। नाम पर दाम नहीं लगते। काम नहीं छोड़ना। हाथों-पैरों से कर्म करते रहो और विचारों से उस मालिक का नाम लेते रहो। काम-धन्धा भी करते रहोगे, बल्कि अच्छे-नेक कर्म करते हुए आपको हिम्मत आएगी, सफलता मिलेगी क्योंकि वैज्ञानिक लोग मान चुके हैं कि आत्म-बल सफलता की कुन्जी है।

और आत्म-बल को बढ़ाने के लिए कोई टॉनिक, दवा, एलौपैथिक, होम्योपैथिक, आयुर्वेदिक किसी के पास नहीं है। बच्चों को भी पढ़ाते हैं। आत्म-बल, आत्मिक चिंतन से बढ़ता है और आत्मिक चिंतन ओ३म, हरि, अल्लाह वाहेगुरु के नाम से होता है। आप मालिक का नाम जपोगे, आत्मिक शक्तियां जागृत होंगी, जिससे आत्म-बल बढ़ेगा और उस आत्म-बल के सहारे, उस आत्म-बल के साथ आप सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जाएंगे। अच्छे-नेक कर्माें में आप आगे बढेंÞगे और मालिक की दया-मेहर, रहमत के काबिल भी जरूर बन पाएंगे। वो जो आत्म-बल को बढ़ा दे, जो मालिक की दया-मेहर, रहमत का परिचय करवा दे वो नाम, तरीका, युक्ति परमात्मा का नाम बिना धर्म छोड़े, बिना पहनावा बदले, बिना बोली बदले, बिना ढोंग-पाखण्ड के आप ले सकते हैं। आशीर्वाद! आशीर्वाद!!

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