Dera Sacha Sauda Haripura Dham, Khaira Khurd, District Mansa, Punjab

…जीत तो दयाल की ही होगी! डेरा सच्चा सौदा हरिपुरा धाम, खैरा खुर्द, जिला मानसा, पंजाब
सरसा से करीब 35 किलोमीटर दूरी पर बसा खैरा खुर्द (जिला मानसा) हरियाणा की सीमा से सटा एक ऐसा गांव है

जो बागड़ी वाक्पटुता के बीच अपने आंचल में पंजाबी कल्चर को समेटे हुए है। गांव की उत्तर-दक्षिण दिशा के मध्य में सरकारी स्कूल के सम्मुख सुशोभित डेरा सच्चा सौदा हरिपुरा धाम का इतिहास कई रोचक पन्नों से भरा हुआ है। रूहानियत के नजरिये से क्षेत्र की आबोहवा में वैचारिक कटुता का भाव हमेशा से रहा है, लेकिन पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1954 में यहां चरणकमल टिकाकर लोगों के दिलोदिमाग में रामनाम की ऐसी अलख जगाई कि आज यहां प्रेम व आपसी भाईचारे की गंगा बहती है।

उस दौरान पूज्य सार्इं जी ने काल को उसकी भाषा में ही माकूल जवाब दिया और ऐसे वचन फरमाए जो आज भी भविष्य की राह आसान करते प्रतीत होते हैं। बताते हैं कि जब ग्रामीणों ने गांव में डेरा बनाने की बात कही तो पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया, ‘यहां डेरा बनाकर क्या करोगे, इस जगह पर काल का बहुत जोर है।’ इस पर एक व्यक्ति बोल पड़ा कि, बाबाजी! आपजी के आगे काल का क्या जोर चल सकता है, आप डेरा जरूर बनाओ जी। इस पर पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया, ‘ यहां काल-दयाल की लड़ाई होती रहेगी। लेकिन जीत दयाल की ही होगी।

अगर आपने डेरा बनाना ही है तो इसका नाम हरिपुरा धाम रखो। फिर हरिपुरा हरा-भरा ही रहेगा।’ बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी ने इस दरबार को लेकर यह भी वचन फरमाया था कि यह दो बार उजड़ेगा, फिर जब तीसरी बार हरा होगा तो हमेशा हराभरा ही रहेगा। ऐसे ठोस वचनों के साथ डेरा सच्चा सौदा हरिपुरा धाम की नींव रखी गई। साढ़े छह दशक के अपने इस सफर में यह दरबार लोगों के लिए एक संजीवनी की भांति कार्य कर रहा है। करीब अढ़ाई एकड़ में फैला यह दरबार डेरा सच्चा सौदा की ऐसी धरोहर में शामिल है, जहां तीनों पातशाहियों ने समय-समय पर पावन चरण कमल टिकाए हैं। पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज गांव में दो बार पधारे हैं। जब दूसरी बार पूज्य सार्इं जी यहां आए तो करीब एक माह तक गांव की खुशहाली को चार चांद लगाते रहे।

काफी जीवों को गुरुमंत्र देकर उन्हें बिना किसी पाखंड के रामनाम की राह पर चलना सिखाया। इसके बाद पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने 19 फरवरी 1989 में विशाल सत्संग फरमाया, जिसमें 1389 लोगों को गुरुमंत्र दिया, जो उस समय के हिसाब से अपने आप में एक रिकार्ड था। कुछ लोगों का कहना है कि पूजनीय परमपिता जी इससे पूर्व भी गांव में एक बार पधारे थे। सन् 1960 से 1990 के अंतराल में काल और दयाल के बीच कई बार कशमकश हुई, लेकिन हर बार जीत दयाल की हुई। इस दरमियान ही दरबार में विस्तार कार्य भी चलता रहा।

शुरूआती चरणों में दरबार के अंदर कच्ची उसारी के साथ निर्माण कार्य आरंभ हुआ, जो सन् 1990 में कंकरीट का आकार ले चुका था। दरबार में डबल लेयर की चारदीवारी बनाई गई है, एक चारदीवारी दरबार के पूरे क्षेत्र को कवर करती है, तो दूसरे लेयर में तेरावास के अलावा साध-संगत की सुविधा के लिए बने कमरों व रसोई घर के चारों ओर बनी हुई है। पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के पावन दिशा-निर्देशन में भी इस दरबार में कई विस्तार कार्य हुए हैं। बाहरी दीवार को नया आकार देना, सिंचाई कार्य के लिए नया ट्यूबवैल लगाना, प्रांगण में नामचर्चा पंडाल के तौर पर शैड का निर्माण करना इत्यादि कार्य वर्तमान में दरबार की प्रगति को प्रदर्शित करते हैं।

पशु-पक्षियों को भी सचखंड ले जाएंगे!

दरबार में सरोवर बनाने के लिए डिग्गी की खुदाई का कार्य चल रहा था। गांव में दूसरी बार पधारे पूज्य सार्इं जी स्वयं की निगरानी में यह सब कार्य करवा रहे थे। जब डिग्गी की खुदाई काफी गहरी हो गई तो उस डिग्गी में उतर गए। सब कुछ अपनी पावन निगाहों से देखकर वचन फरमाया, ‘पुट्टर, गांव वालों को ही नहीं, यहां के पशु-पक्षियों को भी सचखंड ले जाएंगे।’ दरअसल दरबार में बन रही इस डिग्गी के पास से ही सरकारी खाल गुजर रहा था, जो आगे जाकर गांव के जोहड़ तक पहुंचता था। यानि गांव के पशु-पक्षी जो पानी पीते थे, वह अब दरबार के अंदर से गुजरने वाले खाल का पानी पीएंगे और रूहानी वचनानुसार उनका उद्धार होता चला जाएगा।

पूजनीय परमपिता जी ने दिया खरबूजे का प्रसाद

जब पहली बार पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज यहां गांव में पधारे तो उस दिन भी सरपंच सेठ रामेश्वर दास के घर पर उतारा था। अचानक प्रोग्राम के चलते कोई विशेष तैयारी नहीं हो पाई थी। ओमप्रकाश इन्सां बताते हैं कि एक दिन पूर्व ही पूजनीय परमपिता जी के आगमन की जानकारी मिली थी। सेठ रामेश्वर दास के घर ही उतारे का कार्यक्रम तय हुआ। अचानक हुए कार्यक्रम के चलते सरपंच साहब के घर पर हम सभी तैयारियां करने में जुट गए। मैं मंडी से बिस्तरा तैयार करवाकर लाया जिसमें नई रिजाई व गदेला था। उसके बाद जिस कमरे में शाही उतारा होना था, उसको कपड़ों की बची कतरनों से डिजाइन किया गया। जब पूजनीय परमपिता जी यहां पधारे तो कमरे की सजावट देखकर बहुत प्रसन्न हुए। बाद में मुझे बुलाकर खरबूजे का प्रसाद दिया और भरपूर प्रेम लुटाया।

डेरा बनाना ही है तो इसका नाम ‘हरिपुरा धाम’ रखो, हरा-भरा ही रहेगा!

सन् 1954 की बात है, गांव खैरा खुर्द के प्रेमी दल्लू राम, डा. सम्पत राम तथा माता मूली देवी (सरपंच सेठ रामेश्वरदास की माता) डेरा सच्चा सौदा में सत्संग पर पहुंचे। सत्संग सुनी तो दिल में विचार उठा कि क्यों ना अपने गांव में भी सत्संग करवाया जाए, ताकि गांव वालों का भी उद्धार हो सके। इन लोगों ने सत्संग के समाप्त होने पर पूज्य सार्इं जी के सम्मुख पेश कर अपने गांव खैरा खुर्द में सत्संग करने के लिए अर्ज की। शहनशाह मस्ताना जी महाराज ने उनकी दिली भावना को समझते हुए उसी क्षण सत्संग मंजूर कर दिया। वचन फरमाया, ‘आपकी सत्संग मंजूर, आप वहां पहुंचने के लिए सवारी का प्रबंध कर लाओ।’ वे सत्संगी उसी समय वहां से गांव के लिए चल दिए।

गांव पहुंचते ही लोगों को एकत्रित कर सत्संग के बारे में बताया, जिसे सुनकर सभी बहुत खुश हुए। बताते हैं कि तीसरे दिन कुछ सत्संगी भाई दो ऊंट साथ लेकर सरसा दरबार में आ गए। चौथे दिन पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ऊंट की सवारी करते हुए पहले करंडी गांव में पधारे। यहां सूरजा राम के घर पर ठहरे। बाद में सेवादार दल्लूराम, हेतराम कान्हावाला, छज्जूराम, वैद सम्पत गोदारा, जगमाल, रामेश्वर दास व तत्कालीन सरपंच सहीराम जांगू सहित काफी साध-संगत वहां पहुंच गई। करंडी गांव से खैरा खुर्द का फासला थोड़ा ही है। ये सभी सत्संगी पूज्य सार्इं जी के साथ-साथ गांव में आए। यहां गांव वालों ने शानदार तरीके से पूज्य सार्इं जी का स्वागत किया। ढोल बजाया गया, मंगलगीत गाए गए। उस दिन शाही उतारा सेठ रामेश्वर दास के घर पर था। रात्रि को गांव की चौपाल में चौधरी गणपत राम के घर के आगे बड़ी धूमधाम से सत्संग हुआ। उस दिन सत्संग में जिस भी कविराज ने भजन बोला, उसको पूज्य सार्इं जी ने नोटों के हार पहनाए। अगले दिन पुराने प्रेमियों की जिम्मेवारी लेकर कई जीवों को नामदान दिया।

दूसरे दिन पूज्य सार्इं जी संगत से मुखातिब हो रहे थे। तभी कुछ पुराने सत्संगी कहने लगे कि सार्इं जी ! यहां डेरा बनाओ जी। इस पर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘भाई, कल देखेंगे।’ बताते हैं कि अगले दिन सुबह शहनशाह जी उठते ही घूमने के लिए बाहर नहर के पार चले गए। उस दौरान कई सेवादार भी साथ थे। जब चलते-चलते गांव के साथ लगती सांझी शामलाट की जमीन से गुजर रहे थे तो गांव के इन सत्संगियों ने अर्ज की कि शहनशाह जी! यह सारे गांव की सांझी जमीन है, यहां डेरा बनाओ जी। यह सुनकर सर्व-सामर्थ सतगुरु जी ने एक-दो मिनट खामोशी धार ली।

फिर शहनशाह जी ने अपनी शाही डंगोरी उठाई और पास में मिट्टी के बड़े ढेर की एक साइड में डंगोरी टिकाते हुए एक लकीर खींचनी शुरू कर दी। चारों ओर हदबंदी के रूप में शाही लकीर बनाने के बाद वचन फरमाया, ‘यहां डेरा बनाकर क्या करोगे, इस जगह पर काल का बहुत जोर है।’ इस पर एक प्रेमी भाई ने विनती की, बाबाजी! आपजी के आगे काल का क्या जोर चल सकता है। आप डेरा जरूर बनाओ जी। फिर वचन फरमाया, ‘डेरा बनाकर तुम दु:खी होवोगे। काल-दयाल की लड़ाई होती रहेगी। लेकिन जीत दयाल की ही होगी।

अगर आपने डेरा बनाना ही है तो इसका नाम हरिपुरा धाम रखो। फिर हरिपुरा हरा-भरा ही रहेगा। यहां तीन किस्मों के वृक्ष लगाना- बड़, पीपल, नीम इसको त्रिवेणी समझना। एक डिग्गी खोदना, इन वृक्षों को उसमें से पानी देते रहना।’ वचन की लड़ी को जारी रखते हुए शाही मुखारबिंद से फरमाया- ‘सुमिरन करने वाला, हक-हलाल की कमाई करने वाला, दृढ़ विश्वासी प्रेमी यदि विश्वास से दरबार में आकर पानी पी लेगा तो उसकी बीमारी खत्म हो जाएगी।’

66 वर्षीय ओमप्रकाश इन्सां बताते हैं कि जब पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज डेरा बनाने के लिए निशानदेही कर रहे थे, तभी एक सेवादार न्यामतराम बोला कि बाबा जी, डेरा तो छोटा रह गया। यह सुनते ही पूज्य साईं जी ने एकाएक फरमाया- ‘काल चिढ़ पैया भई, काल चिढ़ पैया।’ यह फरमाते हुए पूज्य सार्इं जी थोड़ा साइड में जाकर खड़े हो गए। बताते हैं कि उस दिन पूज्य सार्इं जी के हुक्मानुसार हेतराम काहनावाला पेड़ लेकर आया था। पूज्य सार्इं जी ने अपने पावन कर-कमलों से त्रिवेणी केरूप में पीपल, बड़ और नीम का पेड़ लगाया था।

उस दिन गुलर का भी पेड़ लगाया गया था। यह त्रिवेणी लगाते हुए वचन फरमाया था कि यहां सच्ची त्रिवेणी लगा रहे हैं, कहीं भी हवा नहीं चल रही होगी तो भी यहां पर हवा लगेगी। यह सच्चा शिमला है। सत्संगी ओमप्रकाश बताते हैं कि इस दौरान पूज्य सार्इं जी ने भविष्य के संदर्भ में इशारा करते हुए फरमाया था कि जहां आपने (सेवादारों को फरमाया) हमारा डेरा (उतारा) लगाया था, वहां तो आग बल (जल) रही थी, ये तो गरीब मस्ताना था जो वहां ठहर गया, कोई और होता तो कब का खत्म हो जाता। फिर अपनी डंगोरी को एक जगह पर बार-बार टिकाते हुए वचन फरमाया- ‘वहां से आग चलेगी और यहां आकर भांबड़ मचेगा।’ तीन बार यह वचन दोहराया। इन रूहानी वचनों की सच्चाई पूरे गांव ने अपनी खुली आंखों से पूरी होती देखी है।

रोजाना की तरह तीसरे दिन भी सुबह के समय सोहणे सतगुरु जी टहलने के लिए नहर के पार चले गए। सेवादारों को हुक्म फरमाया, ‘वापिस आकर डेरे में सत्संग करेंगे।’ गांव में सत्संग का ढंढोरा पिटवा दिया। वापिस आकर शहनशाह जी ने सत्संग करना शुरू कर दिया। काफी देर वचनविलास के बाद साध-संगत को हुक्म फरमाया, ‘वृक्ष लगाओ, डिग्गी खोदो और जो डेरे की सीमा पर लकीर खींची है वहां पर कांटेदार झाड़ियों की बाड़ कर दो। हम शाम को सत्संग करने के लिए झंडा खुर्द जाएंगे।’ बेपरवाह जी शाम को गांव झण्डा खुर्द में रात का सत्संग करने चले गए।

अगले दिन पूज्य सार्इं जी वहां से सरसा दरबार के लिए रवाना हो गए। उधर खैरा खुर्द की साध-संगत ने डिग्गी खोद ली, वृक्ष भी लगा दिए और सेवादार झाड़ियों से डेरे की बाड़ करने की सेवा में जुट गए। बताते हैं कि तब सेवादार दल्लूराम, छज्जूराम, हेतराम काहनावाला सहित कई सत्संगी कच्ची र्इंटें निकालते और उनको एकत्रित करते। धीरे-धीरे इन कच्ची र्इंटों से पहले एक गुफा (तेरा वास) तैयार की गई। बताते हैं कि यह गुफा जमीन में करीब 8 फुट गहरी थी, इसके साथ-साथ दो मकान भी बनाए गए। संगत की सुविधा के लिए रसोई भी बनाई गई। इस प्रकार शहनशाही हुक्म से करीब-करीब डेरा तैयार हो गया।

“पूज्य सार्इं जी ने अपने पावन कर-कमलों से त्रिवेणी केरूप में पीपल, बड़ और नीम का पेड़ लगाया था। यह त्रिवेणी लगाते हुए वचन फरमाया था कि यहां सच्ची त्रिवेणी लगा रहे हैं, कहीं भी हवा नहीं चल रही होगी तो भी यहां पर हवा लगेगी। यह सच्चा शिमला है।

पूज्य सार्इं जी दूसरी बार गांव में पधारे, एक महीने तक लुटाई खुशियां

फरवरी 1955 का समय था, सरसा दरबार में महीनेवार सत्संग सुनने के लिए गांव से कई सत्संगी पहुंचे। इन सत्संगियों ने बाद में पूज्य सार्इं जी के चरणों में अर्ज की कि सार्इं जी, डेरा बनकर तैयार हो चुका है जी, अपने पावन चरण टिकाओ जी। पूज्य सार्इं जी ने उनकी अर्ज स्वीकार करते हुए अगले महीने मार्च का सत्संग मंजूर कर दिया। गांव में यह बात एक सौगात के रूप में पहुंची। मानो पूरा गांव ही पूज्य सार्इं जी के दर्शनों को आतुर हो उठा।

पूरी तैयारियां की गई, दरबार को सजाया गया। वहीं गांव में भी ढोल बजा-बजाकर कर यह बताया गया कि फलां दिन पूज्य सार्इं जी पधार रहे हैं। तय समय पर पूज्य सार्इं जी हरिपुरा धाम में आ पधारे। उस दिन सच्चे पातशाह जी ने डेरे में ही बड़ी धूमधाम से सत्संग किया। इस दौरान पूज्य सार्इं जी ने कपड़े से बनी खाकी गुथली में से नोट निकाल-निकालकर लोगों को बांटे। बताते हैं कि इस दरमियान पूज्य सार्इं जी एक महीने के करीब यहां पर रहे। कई बार गांव में चले जाते और वहां भी सत्संग लगाते, लोगों को रामनाम से जोड़ते रहते। गांव की चारों दिशाओं पर अपनी पावन दृष्टि का आशीर्वाद देते और असीम खुशियां लुटाते रहते।

गांव के बुजुर्गवार बताते हैं कि डेरा में प्रारंभिक सेवा कार्य दौरान थोड़े ही मकान बनाए गए थे। जो तेरावास बनाया गया था, उसमें एक व्यक्ति के बैठने मात्र की ही जगह थी। इधर डेरा में कच्ची उसारी चल रही थी, उधर साथ में ही सरकारी स्कूल भी बनकर तैयार हो रहा था, तब यह स्कूल भी कच्ची र्इंटों से बनाया गया था।

पूज्य सार्इं जी जब दूसरी बार यहां पधारे तो कई निराले चोज दिखाए। पूज्य सार्इं जी कई बार स्कूल में चले जाते और बच्चों की कुश्ती करवाने लगते। कुश्ती में जीतने वाले को एक रुपया और हारने वाले को दो रुपये का ईनाम देते। कई बार गांव की चौपाल में जाकर रामनाम की चर्चा भी करते और सत्संगियों के घरों में भी चरण टिकाते, उन्हें खुशियों से मालामाल करते रहते।

बताते हैं कि उस समय पूज्य सार्इं जी की रहमतों की खूब चर्चा होने लगी थी। दूर-दराज से भी लोग दर्शनों के लिए पहुंचने लगे। उन्हीं दिनों नजदीकी गांव आहलूपुर में एक तथाकथित महात्मा हुआ करता था। पूज्य सार्इं जी की वाहवाही से वह चिढ़ने लगा, एक दिन वह डेरे के नजदीक तंबू लगाकर सत्संग करने लगा। पूज्य सार्इं जी हमेशा सादगी पूर्ण रहते और बहसबाजी से परहेज रखते थे। बुराई को चिढ़ता देख पूज्य सार्इं जी ने वचन फरमाया ‘सारी दुनिया बहसों, वाद-विवादों में ही जिंदगी बर्बाद कर गई।’ घट-घट के जानणहार पूज्य सार्इं जी अकसर फरमाते कि ‘भाई! असीं तो अनपढ़ हैं। बे-इल्मी बॉडी है, हमें कुछ नहीं आता।’ यानि भोले-भाले बन जाते। पूज्य सार्इं जी अकसर ऐसे चोज दिखाते और लोगों में खुद को गरीब मस्ताना ही दर्शाने का प्रयास करते। करीब एक महीने तक ऐसी रहमतें लुटाने के बाद एक दिन पूज्य सार्इं जी ने सायं को ही सरसा दरबार की ओर रवाना होने का हुक्म फरमा दिया। चौधरी रामजी लाल के ऊंट पर सवार होकर भावद्दीन गांव के बस अड्डे पर पहुंच गए, वहां से बस में सवार होकर सरसा दरबार आ पधारे।

जब सच्चाई की हुई जीत

पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज के ज्योतिजोत समाने के बाद हरिपुरा धाम में एक बार काल के नुमाइंदों ने कब्जा करने का प्रयास किया। इस दौरान काल और दयाल की खूब लड़ाई हुई। पूज्य सार्इं जी के वचनानुसार दयाल की जीत तो निश्चित थी। एक घटनाक्रम के बाद उन दबंगों को यहां से भागना पड़ा। पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने गांव की साध-संगत की अर्ज पर पूज्य सार्इं जी के समय के सेवादार हाकम सिंह की यहां दरबार में ड्यूटी लगा दी। उस दौरान बाड़ को हटाकर फट्टों की मदद से कच्ची दीवारें निकाली गई। बता दें कि मिट्टी को गूंथ कर दो फट्टों के बीच डालकर उसको दीवार का आकार दिया जाता है। इन दीवारों की ऊंचाई साढ़े चार फुट के आस-पास थी। बाद में पूजनीय परमपिता जी ने पक्का डेरा बनाने की मंजूरी दे दी।

सेवादार दर्शन सिंह को खैरा खुर्द में सेवा के लिए भेज दिया। भाई दर्शन सिंह जी ने सरपंच रामेश्वर दास को साथ लेकर करंडी के भट्ठे से ईंटें मंगवाई और साध-संगत के सहयोग से कच्चा डेरा गिराकर पक्का डेरा बनाना शुरू कर दिया। चार कमरे पक्के, एक रसोई व बाथरूम और टीन का एक बरामदा तैयार कर दिया। सभी कमरे, रसोई, बाथरूम व बरामदे की पक्की चारदीवारी कर दी। साध-संगत का उत्साह देखकर डेरे की सारी जमीन की पक्की चार दीवारी भी बना दी गई । डेरे का एक बड़ा मेनगेट व उसके आगे एक बड़ा कमरा भी बना दिया गया है। वहीं शाही हुक्मानुसार तेरावास में थोड़ा बदलाव भी किया गया। लेकिन एक बार फिर से काल की ताकत मुखर हो उठी। दरबार में फिर से काफिरों का दबदबा हो गया। यह देखकर गांव की संगत वैराग्य में आ गई।

सरपंच रामेश्वर दास की माता मूली देवी व बहन गोमती देवी सहित कुछ सत्संगी डेरा सच्चा सौदा पहुंचे और शाही हजूरी में पेश हो डेरा को फिर से बहाल करने की अर्ज करने लगे। पूजनीय परमपिता जी ने फरमाया कि ‘बेटा फिक्र ना करो, किसी को फूल जितनी भी चोट नहीं आने देंगे। सब कुछ ठीक हो जाएगा।’ इसके बाद सरसा दरबार से गुरमेल सिंह, रेशम सिंह, मिल्खा राम, मुख्तयार सिंह व रामकुमार भट्टू सहित आठ-दस सत्संगी खैराखुर्द के दरबार में आ गए। सरपंच रामेश्वर दास के प्रयास सराहनीय रहे। दरबार में फिर से सेवाकार्य शुरू हो गया। इसके उपरांत डेरा के विकास कार्य एवं विस्तार कार्य को नित नई ऊंचाई मिलती गई।

वो तो हमने काल को जलाया है !

बताते हैं कि एक समय ऐसा आया जब इस दरबार पर तथाकथित लोगों ने कब्जा करने का प्रयास किया। उस समय सेवादार दल्लूराम दरबार में देखरेख का कार्य करता था। उन लोगों ने इस सेवादार को यहां से बाहर निकाल दिया। जिसके बाद दल्लूराम सीधा डेरा सच्चा सौदा सरसा दरबार में जा पहुंचा और पूज्य सार्इं जी की हजूरी में पेश होकर सारा घटनाक्रम कह सुनाया। चोजी दातार जी ने यह सब कुछ सुनते हुए उक्त सेवादार को वचन फरमाए- ‘जा दल्लूराम, वापिस जा और डेरा को आग लगा दे।’ सत्वचन कहते हुए सेवादार फिर वापिस खैरा खुर्द के दरबार के गेट पर आ पहुंचा। दरबार के अंदर दबंग लोग मौजूद थे, तो दल्लूराम ने सोचा कि वचन को पूरा तो करना है, इसलिए उसने डेरा की बाड़ में एक जगह आग लगा दी, यह देखकर वे दबंग लोग उसकी ओर दौड़े तो वह घबरा गया और जान बचाते हुए वहां से गांव की ओर भागने लगा।

बकौल दल्लूराम, थोड़ी दूर जाने के बाद जब मैंने वापिस मुड़कर देखा तो दरबार के अंदर से आग की बड़ी-बड़ी लपटें निकल रही थी, मानो सब कुछ आग की भेंट चढ़ गया हो। रातों-रात सरसा दरबार आ पहुंचा और सुबह फिर अपने मुर्शिद के चरणों में हाजिर हो गया। पूज्य सार्इं जी ने पूछा- ‘हाँ भई दल्लूराम, क्या हुआ?’ जी, सब कुछ जल गया। ‘नहीं भई, तूने जहां आग लगाई थी उतना ही जला है, वो तो हमने काल को जलाया है।’ अगली रोज गांव के अन्य लोगों ने वहां जाकर देखा तो दरबार में सब कुछ सही सलामत था। केवल बाड़ में आगजनी से थोड़ा सा नुकसान हुआ था। बताते हैं कि कुछ समय के बाद दबंग लोगों को वहां से निकलना पड़ा और दरबार में फिर से रामनाम की गंूज सुनाई देने लगी।

पूजनीय परमपिता जी ने लुटाया रहमोकरम

सन् 1960 में डेरा सच्चा सौदा हरिपुरा धाम में काल की ताकत बड़ी बलबत्ती होकर सुलग रही थी। हालांकि काल और दयाल की इस लड़ाई में उन सत्संगी लोगों को कोई खरोंच तक नहीं आई, जिन्हें अपने सतगुरु पर पूरा दृढ़ विश्वास था। इसी कशमकश के बीच करीब 29 साल का समय गुजर गया। गांव वालों के अनुसार, सन् 1989 को पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने यहां पधारकर फिर से दरबार को हरा-भरा कर दिया। 19 फरवरी को पूजनीय परमपिता जी ने दरबार में विशाल रूहानी सत्संग फरमाया, जिसमें पूरा गांव ही उमड़ पड़ा था।

यही नहीं, आस-पास के गांवों से भी बड़ी तादाद में संगत यहां आई थी। सर्द मौसम के बीच खुले में शाही स्टेज लगाया गया था। बताते हैं कि शाही स्टेज की पिछली साइड में मात्र एक पर्दा लगा हुआ था, जिसको पूजनीय परमपिता जी ने स्वयं कहकर हटवा दिया था। उस समय सर्द हवाएं बड़ी जोर से चल रही थी। जानकार यह भी बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी ने उस समय वचन फरमाए थे कि बड़ी सर्द हवाएं हैं, ये हवाएं हमारे शरीर को चीर कर निकल रही हैं। यानि संगत पर आने वाले कष्ट को पूजनीय परमपिता जी अपने शरीर पर झेल रहे थे। प्रभावशाली सत्संग फरमाने के बाद उस दिन 1389 लोगों को गुरुमंत्र की दात दी गई, जो काल के मुंह पर तमाचा थी। गांव के कई बुजुर्गवार तो यह भी बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी इससे पूर्व सन् 1980 के आस-पास भी गांव में पधारे थे।

पूज्य हजूर पिता जी दो बार यहां पधारे, दोगुणी खुशियां बरसीं

हरिपुरा धाम डेरा सच्चा सौदा की तीनों पातशाहियों की पावन दृष्टि से गुलजार रहा है। पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां यहां दरबार में पहली बार सन् 1995-96 में पधारे। पूज्य पिता जी उस दिन अचानक ही यहां पहुंचे थे, उस दौरान दरबार में 5 सेवादार थे। कुछ समय रहमतें लुटाने के बाद पूज्य हजूर पिता जी यहां से जीवोद्धार यात्रा पर चले गए। उसके बाद सन् 2000 के करीब फिर से दरबार शाही मौजूदगी से रोशन हो उठा। उस दिन दरबार में रूहानी मजलिस भी लगाई गई, जिसमें कविराजों ने भजन गाए। उस दौरान पूज्य हजूर पिता जी ने कई सत्संगियों के घरों में भी पावन चरण टिकाए और परिवारों को बेअंत खुशियां प्रदान की।

पूज्य हजूर पिता जी के सान्निध्य में हरिपुरा धाम में कई विस्तार कार्य भी हुए हैं। दरबार में पूर्व में बनी चारदीवारी जमीनीं नमी के कारण ढहने लगी थी। उस दौरान दरबार में बेरियों का बाग लगा हुआ था, कई लोग अकसर बेरियों को नुकसान पहुंचा जाते थे। साध-संगत की अर्ज पर पूज्य हजूर पिता जी ने यह चारदीवारी दोबारा से पक्की ईंटों से तैयार करवाई। वहीं दरबार में पूजनीय परमपिता जी के समय में सिंचाई के लिए एक ट्यूबवैल लगाया गया था, जिसमें जलस्तर काफी नीचे जा चुका था। सेवादारों ने सरसा दरबार में पहुंचकर इस बारे में अर्ज की तो पूज्य हजूर पिता जी ने वचन फरमाया कि ‘बेटा, नया टयूबवैल डूंगा(गहराई) करके लगाना।’ लेकिन सेवादार उस बात को समझ नहीं पाए और दरबार में आकर करीब 150 फुट गहराई में ही ट्यूबवेल लगाकर चला दिया।

जब पानी का स्वाद चखा तो वह नमकीन था। फिर सेवादारों ने जाकर माफी मांगी। दोबारा से फिर गहराई पर, 250 फुट गहराई में टयूबवैल लगाया गया तो पानी में बड़ा बदलाव देखने को मिला। आज वही ट्यूबवैल दरबार के साथ-साथ आस-पास के खेतों में सिंचाई का माध्यम बना हुआ है।

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here
Captcha verification failed!
CAPTCHA user score failed. Please contact us!