Dera Sacha Sauda Satnam Pur Dham, Gadarana

माताओं के बुलंद हौंसले का साक्षी है सतनाम पुर धाम, गदराना
“‘भाई! तुम लोग हमें बुला तो रहे हो, यह बताओ कि साध-संगत को क्या खिलाओगे’? महमदपुर रोही गांव के सत्संगी बीच में ही बोल पड़े कि देसी घी की मिठाई (लड्डू, बूंदी और जलेबियां) खिलाएंगे बाबा जी।

इसी दरमियान प्रेमी सरदार नाहर सिंह ने हाथ जोड़ कर क्षमा याचिका करते हुए अर्ज की कि, ‘सच्चे पातशाह जी! मैं तो एक गरीब आदमी हूँ। मैं तो साध-संगत को बाजरे की रोटी और मोठों की दाल ही खिला पाऊँगा।’ यह सुनकर पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज बहुत खुश हुए और फरमाया, ‘हम तो गरीबों के घर जाएंगे। हम तो गरीब फकीर हैं, हमें भीलनी के बेर अच्छे लगते हैं।’ पूज्य सार्इं जी ने इन वचनों के साथ गदराना (जिला सरसा) का पहला सत्संग मन्जूर कर दिया।

इस अंक में आपको डेरा सच्चा सौदा के ऐसे दरबार से रूबरू करवा रहे हैं जो माताओं की गौरवगाथा के बलबूते आज डेरा के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। माई भागो की उपाधि से नवाजी गई इन माताओं के रूहानियत के प्रति अद्भुत समर्पण को देखकर पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने गदराना गांव में ढहाए हुए दरबार को फिर से बनाने का हुक्म फरमाया। बड़ी बात यह भी है कि पूज्य सार्इं जी ने सन् 1958 में इस दरबार का नामकरण करते हुए ‘सतनामपुर धाम’ रखा, जो डेरा सच्चा सौदा की आने वाली दूसरी पातशाही की ओर साफ-साफ इशारा कर रहा था, लेकिन तब यह खेल किसी को समझ नहीं आया।

गांव में आवा (टीला) के रूप में विख्यात इस जगह को ग्रामीण कभी भूत-प्रेतों का वास मानते थे, लेकिन पूज्य सार्इं जी के पावन चरण स्पर्श से यह धरती रूहानियत से महक उठी। करीब 20 कनाल एरिया में बना यह भव्य दरबार गांव की उत्तर-पूर्व दिशा को दीपक की मानिंद रोशन कर रहा है। वहीं रेल से सफर करने वक्त हजारों खुली आंखें नित्य-प्रति इस दरबार का पावन दर्शन करती हैं। दरबार में बैठी संगत को जब ट्रेन की सीटी सुनाई देती है तो समय के पहर का स्वयंत: ही आभास होने लगता है। दरबार में भवनों की भव्यता और फलदार पौधों की हरियाली एक खुशनुमा माहौल का अहसास कराती है। साढ़े छह दशक पूर्व तहसील कालांवाली, जिला सरसा के इस गांव में बना यह दरबार आज भी क्षेत्र में रूहानियत की बखूबी अलख जगा रहा है।

2अप्रैल सन् 1953 को डेरा सच्चा सौदा दरबार में भंडारा मनाया जा रहा था। उस दिन कमरा नंबर 38 के सामने शाही स्टेज लगी हुई थी। पूज्य सार्इं जी ने संगत के बीच विराजमान होकर बेशुमार खुशियां लुटाई। अति पूजनीय बाबा सावण शाह जी महाराज की अमिट यादों के रूप में तब 2 अप्रैल को भंडारा मनाया जाता था। उस दिन भी पूूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने समाज में व्याप्त बुराइयों को मिटाने के लिए शाही संदेश दिया, वहीं साध-संगत पर अपनी अपार रहमत भी लुटाई। बताते हैं कि उस दिन संगत पर खूब नोटों की बरसात की गई। पूज्य सार्इं जी अपने हाथों से माया उछालते और कहते कि लूट लो वरी, लूट लो! जब संगत उस माया को पाने के लिए इधर-उधर दौड़ने लगती तो फरमाते कि ‘देखो! सब माया के यार हैं, इस गरीब मस्ताने का यार तो कोई कोई है।’ ऐसे रूहानी कौतुकों के बीच वह पूरा दिन गुजरा।

जैसे ही सत्संग समाप्ति की ओर आया तो संगत से मिलने का सिलसिला भी शुरू हो गया। उस दिन गांव गदराना से सरदार नाहर सिंह भी एक सांझी इच्छा लेकर दरबार पहुंचा था। बता दें कि नाहर सिंह ने महमदपुर रोही में ही गुरुमंत्र ले लिया था, जिसके बाद उसके दिल में रूहानी प्यार की तड़प बढ़ने लगी थी। उस दिन भी वह पूज्य सार्इं जी की पावन हजूरी में अपने गांव में सत्संग की अर्ज लेकर आया था। पूज्य सार्इं जी जब संगत से बातें कर रहे थे तो नाहर सिंह ने सत्संग की अर्ज की, तभी महमदपुर रोही की संगत ने भी खड़े होकर गांव में सत्संग फरमाने की अर्ज कर दी। पूज्य सार्इं जी ने संगत की तड़प को देखते हुए वचन फरमाया, ‘भाई! तुम लोग हमें बुला तो रहे हो, यह बताओ कि साध-संगत को क्या खिलाओगे?’ इस पर महमदपुर रोही वालों ने कहा कि देसी घी की मिठाई (लड्डू, बूंदी और जलेबियां) खिलाएंगे जी।

उधर से सरदार नाहर सिंह भी खड़ा हो गया और नम्रता में हाथ जोड़कर कर कहने लगा कि, ‘सच्चे पातशाह जी! मैं तो एक गरीब आदमी हूँ। मैं तो साध-संगत को बाजरे की रोटी और मोठों की दाल ही खिला पाऊँगा।’ यह सुनकर परम दयालु दातार पूज्य सार्इं जी बहुत खुश हुए और फरमाया, ‘हम तो गरीबों के घर जाएंगे। हमें भीलनी के बेर अच्छे लगते हैं।’ और इन वचनों के साथ गदराना का सत्संग मन्जूर कर दिया। बताते हैं कि गदराना में वह पहला सत्संग दिसम्बर 1953 में हुआ।

सर्द मौसम के बीच जब पूज्य सार्इं जी गदराना गांव में पहली बार पधारे तो ग्रामीणों की गर्मजोशी देखकर बहुत प्रसन्न हुए। हालांकि पहले दिन जब सत्संग लगा तो गांव से थोड़ी संख्या में लोग आए, लेकिन हर बार सत्संग में यह संख्या बढ़ती चली गई। पूज्य सार्इं जी लगातार 8 दिनों तक गदराना गांव में विराजमान रहे। दिन में सत्संग लगाते, वहीं रात को भी राम नाम की खूब रड़ मचती। इन आठ दिनों में पूरा गांव ही रूहानियत के रंग में रंग गया। सतगुरु के प्रति उमड़े इस प्रेम के बलबूते ही गांववाले डेरा भी मंजूर करवा गए। गांव की उत्तर-पूर्व दिशा में बने आवा (ऊंचा टीला) को शाही हुक्म के बाद देखते ही देखते समतल कर एक भव्य आकार दे दिया गया। पूज्य सार्इं जी ने दरबार की नींव रखने के उपरांत वचन फरमाया कि हम जब दूसरी बार आएंगे तो बाकी का निर्माण पूरा करवाएंगे। पूज्य सार्इं जी दूसरी बार जब (सन् 1954) पधारे तो अपने रूहानी स्पर्श से दरबार की सुंदरता को चार चांद लगा दिए।

इस दौरान भी पूज्य सार्इं जी काफी दिनों तक यहां विराजमान रहे। इसके बाद ऐसा दौर भी आया जब पूज्य सार्इं जी ने हुक्म देकर गदराना का डेरा गिराया और फिर उससे भी सुंदर दरबार का निर्माण भी करवाया। यह ऐसा समय था जब गदराना वासियों को डेरा सच्चा सौदा की दोनों पातशाहियों के एक साथ दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हालांकि उस दौरान किसी को यह आभास नहीं था कि सरदार हरबंस सिंह जी जो आज सेवादार बनकर यहां सेवा कर रहे हैं, वही भविष्य में डेरा सच्चा सौदा की दूसरी पातशाही के रूप में दुनिया को रामनाम जपाएंगे। सन् 1960 के करीब पूज्य सार्इं जी तीसरी बार पधारे तो गांव पर खूब रहमतें लुटाई। गांववासियों ने भी पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज की दया मेहर की बदौलत खूब वाहवाही लूटी और खुद को एक नये आयाम के साथ जोड़ लिया।

कहते हैं कि प्रभु प्रेम में चलना इतना आसान भी नहीं होता, वह प्रभु जिस पर प्रेम लुटाता है, उसे आजमाता भी है। 60 के दशक के बाद करीब 37 वर्ष का एक ऐसा अंतराल भी आया जब काल ने रूहों को भटकाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया। सन् 1987 से 1997 तक गांव में सामाजिक सरोकार भी थम से गए। दयाल और काल की इस लड़ाई में आखिर सच की जीत हुई। 27 दिसंबर 1997 को गांव में पीपा बजाकर मुनादी करवाई गई कि कल से गदराना में डेरा सच्चा सौदा दरबार खुलने जा रहा है, किसी को कोई भ्रम, भुलेखा हो तो मिटा ले। गांववासी बताते हैं कि जैसे-जैसे गली-गली में यह मुनादी हुई मानो गांव के बच्चे-बच्चे में एक नई उमंग, जोश व खुशी जाग उठी। अगली रोज पूरा गांव ही पूज्य सार्इं जी द्वारा बख्शिश की गई दरबार रूपी नियामत को सजदा करने पहुंच गया।

62 वर्षीय लाभ सिंह बताते हैं कि करीब 37 वर्ष के अंतराल के बाद जनवरी 1998 में पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां यहां दरबार में पधारे। हर कोई आपसी विरोध मिटाकर पावन दर्शनों के लिए दौड़ पड़ा। उस दिन पूज्य हजूर पिता जी ने दरबार में रूहानी मजलिस भी लगाई, जिसमें कविराजों ने खूब भजनवाणी की। पूज्य हजूर पिता जी अब तक गदराना दरबार में तीन बार पधार चुके हैं। पूज्य हजूर पिता जी ने इस दौरान दरबार की भव्यता को नया रूप दिया और सेवादारों को बागवानी के टिप्स देकर दरबार की आबोहवा को हरियाली से सराबोर कर दिया। डेरा सच्चा सौदा सतनामपुर धाम आज क्षेत्र में सभी धर्मों के लोगों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है, वहीं अपने आकर्षक लुक से सबका मन मोह रहा है।

‘यहां का हुक्म लगा है, यहां डेरा बनाएंगे’

पूज्य सार्इं जी ने गांववालों की दिली इच्छा का किया सम्मान
पूज्य सार्इं जी जब पहली बार गांव में पधारे तो गांववासियों के दिलों में डेरा सच्चा सौदा के प्रति एक अजीब सा लगाव हो उठा। पूज्य सार्इं जी दिन में भी सत्संग फरमाते और देर रात तक भी भजन बंदगी करवाते रहते। एक रात को कार्यक्रम शुरू हुआ तो गांव के कई मौजिज लोग वहां आए और पूज्य सार्इं जी से अर्ज करने लगे कि बाबा जी, हमारे गांव में भी डेरा बनाओ जी। बताते हैं कि उस समय डेरा सच्चा सौदा सरसा दरबार के अलावा महमदपुर रोही सहित दो-तीन दरबार ही बने हुए थे। पूज्य सार्इं जी ने गांववासियों की इस दिली तड़प को मंजूर कर लिया। ‘चलो वरी! कल जगह दिखाना।’

अगली सुबह पूज्य सार्इं जी ने काफी एरिया में घूमकर देखा लेकिन कोई जगह पसन्द नहीं आई। पूज्य सार्इं जी के अनन्य भक्त कबीर सिंह व नाहर सिंह ने अपने खेत भी दिखाए कि यहां डेरा बनाओ जी। पूज्य सार्इं जी फरमाने लगे कि यह जगह तो बहुत दूर है, संगत को यहां आने-जाने में परेशानी होगी। दरअसल उन सेवादारों ने दरबार बनाने के लिए जो अपने खेतों की जगह दिखाई थी, वह गांव से काफी दूर थी। इस तरह घूमते-घुमाते पूज्य सार्इं जी गांव की उत्तर साइड में आ पहुंचे। बताते हैं कि गांव के उत्तर-पूर्व दिशा में एक बड़ा सा टीला नुमा जगह थी। इस जगह को आवा (पंजाबी भाषा में बोला जाने वाला शब्द)बोलते थे जो 20-25 फुट ऊँचा और करीब 275 ७ 275 फुट लम्बा-चौड़ा था। सारे सेवादार कहने लगे कि यहां पर डेरा बना लो जी। उस जगह की ओर अपनी पावन दृष्टि डालते हुए पूज्य सार्इं जी ने एकाएक सभी को हुक्म फरमाया कि सभी पीछे हट जाओ। पूज्य सार्इं जी ने एक बोरी जमीन पर बिछाई और उस पर पालथी मारकर बैठ गए। पूज्य सार्इं जी अपने मुख मंडल पर चादर ओढ़कर अंतर्ध्यान हो गए।

कुछ समय बाद नूरानी मुखड़े से चादर हटाते हुए वचन फरमाया कि ‘यहां का हुक्म लगा है, यहां डेरा बनाएंगे।’ पूज्य सार्इं जी ने सभी को हाथ ऊपर उठाकर अपनी सहमति जताने की बात कही तो सभी ने खुशी-खुशी हाथ उठा दिए। थोड़ी देर में ही जय-जयकार हो उठी कि गांव में डेरा सच्चा सौदा का दरबार बन रहा है। बताते हैं कि इससे पूर्व लोग इस आवे पर जाने से डरते थे। एक हादसे के बाद गांव में आम चर्चा थी कि यहाँ पर भूत रहते हैं। शाही हुक्म के साथ ही डेरा बनाने की सेवा शुरू हो गई। ‘चलो बई कस्सियां लेकर आओ।’ के शाही वचन के बाद गांव वाले कसियां (फावड़े) लेकर आ गए और उस आवे को ढहाने लगे। यह आवा बहुत ही ऊंचा था। यहां इंटों को पकाने के लिए लोग भट्टियां तैयार किया करते थे। उन दिनों टैÑक्टर और कराहों की बड़ी दरकार थी।

गांववालों ने हाथों से ही उस आवे को साफ करने का बीड़ा उठा लिया। माता-बहनें भी बहुत सेवा करती। भाई कसियों से मिट्ठी भरते और बहनें बठ्ठलों से उसे नीची जगह पर डालती। इस प्रकार कई दिनों तक ऐसी सेवा चलती रही। 77 वर्षीय गुरमुख सिंह बताते हैं कि यहां पहले एक छोटा सा कोठड़ा हुआ करता था, जिसे शाही हुक्म के बाद ढहा दिया गया। उसके बाद कच्ची इंटों से एक और नया कोठड़ा बनाया गया। चारों और झाड़ियों की बाड़ बनाई गई। पूज्य सार्इं जी उस नये कोठरे में विराजमान हो जाते और पावन हजूरी में संगत सेवा करती रहती। पहले आगमन के दौरान पूज्य सार्इं जी गांव में 8 दिन विराजमान रहे। दरबार में भी सेवाकार्य जोर पकड़ने लगा था। पूज्य सार्इं जी ने एक सेवादार की ड्यूटी वहाँ पर लगा दी और फरमाया, ‘तुम लोग यहाँ पर सेवा चलाते रहो, डेरा हम दोबारा आकर बनाएंगे।’


गांववासी बताते हैं कि उस बड़े टीले को समतल करने के लिए सेवा का दौर काफी दिनों तक चलता रहा। आस-पास के गांवों से भी लोग सेवा करने के लिए आने लगे। इसी बीच जब पूज्य सार्इं जी दूसरी बार यहां पधारे तो हुक्म फरमाया कि ‘यहां पक्की गुफा तैयार करनी है।’ इसके बाद नींव खोदने का कार्य शुरू हो गया। पूज्य सार्इं जी ने धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा के नारों के बीच दरबार की नींव रखी और पक्की गुफा (तेरा वास) का निर्माण शुरू करवा दिया।

उस दौर में लोग ऊंटों से ज्यादातर सामान ढोया करते थे। दरबार में र्इंटें लाने के लिए ऊंटों की सेवा ली गई। गांव के सत्संगी लोगों के पास काफी ऊंट थे, जिन पर र्इंटें लाद कर लाई जाती। सिंह बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी के खेल बड़े निराले थे। जिस र्इंट भट्ठे से दरबार के लिए र्इंटें आती, उन्हें हर रोज नए-नए नोट भिजवाए जाते। भट्ठे वाले लोग भी यह देखकर हैरान थे कि यह बाबा इतने नये नोट रोज कहां से लेकर आता है, क्योंकि तब नए नोटों का चलन बहुत ही कम था, ज्यादातर काम आनों(पैसों) मेंं होता था। काफी दिनों तक पूज्य सार्इं जी यहां रहकर साध-संगत से सेवा लेते रहे। तेरा वास के अलावा यहां एक बड़ा सा थड़ा भी बनाया गया था, जिस पर विराजमान होकर पूज्य सार्इं जी सत्संग किया करते थे। इस दौरान ही पूज्य सार्इं जी ने दरबार का नामकरण करते हुए ‘आनन्द पुर धाम गदराना’ रखा और वचन फरमाए कि ‘दिल तो करता है गदराना के हर जीव-जंतु को सचखंड ले जाएं!’

‘फिक्र ना करो, काल से और पानी ले लेंगे।’ फिर झमाझम बरस उठे बदरा

पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज तीसरी बार गांव पधारे तो उससे पहले कालांवाली में ठहरे हुए थे। जब पूज्य सार्इं जी दरबार में पधारे तो गांव से भी बड़ी संख्या में लोग दर्शानार्थ दरबार में आ पहुंचे। बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी के पधारने से थोड़ा समय पूर्व ही दरबार में बनी हुई डिग्गी की एक दीवार ढह गई। सेवादार बड़े मायूस थे, क्योंकि बड़ी मेहनत से उस डिग्गी में पानी एकत्रित किया था। उन दिनों पानी की बड़ी किल्लत थी। डिग्गी के पानी से ही दरबार में कई दिनों तक सेवाकार्य चलता था। पूज्य सार्इं जी ने दरबार में आते ही सेवादारों के चेहरे की रंगत को पढ़ लिया और डिग्गी की तरफ इशारा करते हुए पूछा- ‘भाई ये क्या हुआ?’ सेवादारों ने बताया कि सार्इं जी, बड़ी मुश्किल से इस डिग्गी में पानी इकट्ठा किया था, दीवार गिरने से सारी मेहनत बेकार चली गई।

‘अच्छा भई, चलो फिक्र ना करो, काल से पानी और ले लेंगे।’ यह वचन फरमाकर पूज्य सार्इं जी ज्यों ही अंदर तेरा वास में गए, उसके थोड़ी देर बाद उत्तर-पश्चिम दिशा से एक छोटा सा बादल उठा और देखते ही देखते झमाझम बारिश शुरू हो गई। सतगुरु का यह साक्षात करिश्मा देखकर सेवादार झूम उठे, क्योंकि अब पर्याप्त पानी एकत्रित हो चुका था। वहीं गांव वालों को भी बहुत खुशी हुई, क्योंकि उन दिनों खेतों में भी पानी की कमी महसूस हो रही थी। पूज्य सार्इं जी ने एक साथ दो मनोरथ हल कर दिए।

माताओं ने रिझाया मुर्शिद,सतनामपुर धाम की मिली सौगात

मातृ शक्ति की आवाज जब-जब बुलंद हुई है तो उनके संघर्ष ने हमेशा एक नई वीर गाथा लिखी है। डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में भी ऐसी ही एक अनोखी गाथा सुनने को मिलती है। गदराना गांव में डेरा सच्चा सौदा का दरबार बने अभी 4 वर्ष ही बीते थे। सन् 1958 का शुरुआती समय था, एक दिन पूज्य सार्इं जी श्री जलालआणा साहिब के दरबार में विराजमान थे। अचानक मौज में आकर सेवादारों को हुक्म फरमाया कि ‘जाओ गदराना का डेरा ढहाकर सारा सामान यहां ले आओ।’ दरअसल यह खेल गदराना गांव के कुछ लोगों की विकृत मनोदशा को सुधारने के लिए खेला गया था, क्योंकि गांव के लोगों का अपने सतगुरु के प्रति वैराग्य कम होने लगा था। उधर जब डेरा गिराने की बात गांव तक आई तो माता-बहनों के दिल को बहुत ठेस पहुंची। उन दिनों गांव के आदमियों में रूचि का अभाव साफ दिखाई देता था।

शाही हुक्म के अनुरूप इस डेरे को ढहाने के लिए सेवादार पहुंच गए। खास बात यह भी थी कि उन सेवादारों की कमान सरदार हरबंस सिंह जी (पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज का बचपन का नाम) को सौंपी गई थी। सेवा दिन-रात चलने लगी। सेवादारों ने दरबार का सामान बड़ी सावधानी से हटाना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में डेरे की र्इंटें, छत इत्यादि सारा सामान श्री जलालआणा साहिब में भिजवा दिया। डेरा ढहाना बेशक एक रूहानी चोज था, लेकिन गांव की माता-बहनों के दिलों में वैराग्य आसुओं का सैलाब बनकर उमड़ रहा था। उनकी पीड़ा को समझने के लिए गांव का जब कोई पुरुष तैयार नहीं हुआ तो उन्होंने स्वयं एकजुट होने की ठान ली।

माता-बहनों ने इकट्ठी होकर एक राय बनाई और हर रोज डेरे वाली जगह पर घण्टों बैठकर भजन-सुमिरन करने लगी। बताते हैं कि माता-बहनों ने भजन-सुमिरन के माध्यम से अपने सतगुरु को रिझाने का भरपूर प्रयास किया। वे हमेशा एक ही अर्ज करतीं कि किसी भी तरह गांव में डेरा दोबारा मंजूर हो जाए। इन माता-बहनों ने गाँव के जिम्मेवार सत्संगी भाइयों से भी प्रार्थना की कि वे पूज्य सार्इं जी की हजूरी में पेश होकर अर्ज करें, परन्तु कोई व्यक्ति आगे होने को तैयार नहीं हुआ। शायद वे इस बात से डर रहे थे कि पूज्य सार्इं जी बहुत नाराज होंगे कि तुम लोगों ने डेरे की सम्भाल क्यों नहीं की? लेकिन गांव की नारी शक्ति ने यह ठान लिया था कि अब चाहे कुछ भी हो जाए वे यह डेरा दोबारा मंजूर करवाकर ही दम लेंगी।

उन्हीं दिनों 12 जनवरी 1958 को श्री जलालआणा साहिब में रूहानी सत्संग निश्चित हो गया। गदराना की करीब 40 माता-बहनें इकट्ठी होकर इस सत्संग में आ पहुंची। अपनी चुनियों को सिर पर दस्तार की मानिंद सजा कर पूज्य सार्इं जी की पावन हजूरी में हाजिर हुई। उनका हौंसला पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा नजर आ रहा था। कुछ पुराने सत्संगी यह भी बताते हैं कि उस दिन पूज्य सार्इं जी श्री जलालआणा साहिब दरबार में चबूतरे पर विराजमान थे, इन 40 बहनों ने वहां पहुंचकर अरदास करते हुए उस चबूतरे के चारों ओर चक्कर भी लगाए थे। इन माता-बहनों के प्रेम, हिम्मत और उत्साह को देखकर पूज्य सार्इं जी ने खुश होते हुए फरमाया, ‘एक वह समय था, जब माई भागो मर्द का रूप धार कर लड़ाई के मैदान में कूद पड़ी थी।

उस अकेली माई भागो ने 40 सिक्खों को गुरु-साहिबान से बख्शवा लिया जो अपने मुर्शिद को लिखित बेदावा देकर आये थे। परन्तु आज 40 माई भागो बन कर आई हैं। इस तरह पूज्य सार्इं जी ने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए फरमाया, ‘भाई! सरदार हरबन्स सिंह जी (परम पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज) से पूछेंगे। अभी तो वे गिराए गए डेरों का सामान ढोने में लगे हुए हैं।’ बाद में पूज्य सार्इं जी ने उन माता-बहनों के उत्साह, बुलंद हौंसले और उनकी दिलेरी पर खुश होकर गदराना में दोबारा डेरा बनाने का हुक्म फरमाया। पूज्य बेपरवाह जी ने दिसम्बर 1958 में डेरा दोबारा तैयार करवा कर इसका नामकरण ‘डेरा सच्चा सौदा, सतनाम पुर धाम’ के रूप में किया।

कभी खुद का राज जाहिर नहीं होने देते थे

एक बार पूज्य सार्इं जी सेवा स्थल पर विराजमान थे। दरबार बनाने की सेवा चल रही थी। गांव से ही बीर सिंह भुल्लर नाम का एक व्यक्ति वहां पर आया। वह अपने एक हाथ में दूध से भरी टोकनी और दूसरे हाथ में गुड़ का थैला उठाए हुए था। कहने लगा- बाबा जी, मैं यह सारा सामान संगत की सेवा के लिए लेकर आया हूं, स्वीकार करो जी। पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने फरमाया- ‘हम तो यहां (डेरा सच्चा सौदा में) कोई दान-चढ़ावा नहीं लेते, इसको वापिस ले जाओ।’ यह सुनते ही वह व्यक्ति सारा सामान नीचे जमीन पर रखकर अपने दोनों हाथ जोड़कर विनती की मुद्रा में खड़ा हो गया। कहने लगा- बाबा जी, मैंने आपको सियाण (पहचान) लिया है। आप तो वो बाबा हो, जिसको पाने के लिए सारा जग भटक रहा है। यह सुनते ही पूज्य सार्इं जी ने उसको मुंह बंद रखने का इशारा करते हुए फरमाया- ‘चल भैणया लेया तेरा दूध तां रख ही लैंदे हां!’

‘ऊंची आवाज में नारे लगाओ, गांव की सारी बलाएं (भूत-प्रेत) भाग जाएंगी’

बकौल मल्ल सिंह, मैं उन दिनों 8-9 साल का था, जब पूज्य सार्इं जी गांव में पहली बार पहुंचे थे। बाबा जी, उस समय काफी दिनों तक यहां ठहरे। दूसरी बार भी जब आए तो कई हफ्ते यहां ठहरकर गांव की भूमि ही नहीं, हर जीव-जंतु को पवित्र बना दिया। पूज्य सार्इं जी ने बहुत अजब-गजब रंग भी दिखाए, जिसे देखकर गांव वाले हैरान भी होते और खुश भी। कई बार सार्इं जी, डेरा की पूर्व साइड में खुले पड़े मैदान में युवाओं की कुश्ती करवाते, जिसे देखने के लिए बहुत लोग इकट्ठे हो जाते थे। खास बात यह भी थी कि सार्इं जी हारने वाले को विजेता से ज्यादा ईनाम देते और फरमाते कि जीत की असल खुशी का अहसास तो हारने वाले को होता है।

स्कूूल से छुट्टी होते ही मैं और मेरे साथी सीधे डेरा में आ जाते। हालांकि उस समय इतनी समझ नहीं थी, लेकिन बाबा जी, सिंधी भाषा में बोलते तो बहुत ही प्यारे लगते। हमें और तो कुछ समझ नहीं आता था, हां ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ पूरा समझ जाते थे। उन दिनों डेरे में बाबा जी, संगत को बूंदी बहुत बांटा करते। बच्चों में भी उस बूंदी को खाने की बड़ी ललक सी रहती। सार्इं जी हमें बूंदी का प्रसाद देते और फरमाते कि गांव की गलियों में जाकर ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ का नारा लगाकर आओ। मेरे एक साथी की आवाज बड़ी ऊंची थी, वह जोर-जोर से नारा लगाने लगा। यह देखकर पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ऐसे ही ऊंची-ऊंची आवाज में गली-गली नारे लगाओ, गांव की सारी बलाएं (भूत-प्रेत)भाग जाएंगी। वह जोर-जोर से नारे लगाता, जो दूर तक सुनाई देता और हम उसके पीछे-पीछे दौड़ते हुए चलते। गलियों में घूमने के बाद फिर वापिस डेरा में आ जाते और बूंदी का प्रसाद खूब रज्ज कर खाते। कई बार तो हमें तांबे के सिक्के भी ईनाम में देते, जिसे पाकर खुशियां कई गुणा और बढ़ जाती।

जिन्न की पीड़ा से दिलाई मुक्ति

पूज्य सार्इं जी महाराज जब पहली बार गांव में पधारे तो उस दिन शाही उतारा प्रेमी नाहर सिंह के घर पर था। बताते हैं कि नाहर सिंह इससे पूर्व प्रेत आत्माओं के चक्कर में कई जगहों पर झाड़-फूंक करवा चुका था, लेकिन उसके मन को कभी तसल्ली नहीं मिली। पूज्य सार्इं जी का घर-आंगन में पधारना नाहर सिंह के लिए बड़ा खुशी का दिन था। जिस कमरे में शाही उतारा था, उसको बहुत सजाया-संवारा गया था।

बताते हैं कि उस कमरे में जिन्न की आत्मा वास करती थी। जब पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज कमरे में चारपाई पर विराजमान हुए तो एकाएक वचन फरमाया-‘ओह! हमें इतनी सख्त जगह पर क्यूं बैठाया है वरी!!’ शाही मुखारबिंद से यह वचन सुनते ही नाहर सिंह हाथ जोड़कर घुटनों के बल खड़ा हो गया। मेरे सार्इं जी, अगर आपको ही यह जगह सख्त लग रही है तो फिर हमारा क्या बनेगा! पूज्य सार्इं जी थोड़ा मुस्कुराए और अपने पावन आशीर्वाद से नाहर सिंह को हिम्मत दी। गांववासी इस बात के आज भी साक्षी हैं कि उसके बाद नाहर सिंह के घर में कभी किसी भी प्रकार की अनहोनी घटना नहीं हुई, अपितु ऐसी रहमत बरसी कि दिनोंदिन वह घर उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ता ही गया।

रूहानी कौतुक: वरी! कुएं से आवाज तो मीठे पानी की आ रही है!

गांव में पीने वाले पानी की बड़ी किल्लत थी। एक दिन पूज्य सार्इं जी डेरा में सेवा कार्य का निरीक्षण कर रहे थे, तभी गांव की पंचायत आई। सभी लोगों ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि बाबा जी, आपजी तो पहुंचे हुए संत हो, गांव में कुएं का पानी बहुत खारा है, कृपा करो जी। अर्ज सुनते ही पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘वरी! मांगने भी लगे तो यह क्या मांगा! जो मांगने वाली चीज थी वह तो मांगी नहीं। यह आत्मा युगों-युगों से भटक रही है, इसके बारे में भी कभी सोचो!’ यह वचन फरमाते हुए पूज्य सार्इं जी ने पूरी पंचायत को प्रसाद दिया और आशीर्वाद देकर वहां से फिर दूसरी ओर सेवादारों से बातें करने लगे।

बताते हैं कि उन दिनों पूज्य सार्इं जी अकसर सायं करीब 4 बजे उसी कूएं के पास से गुजरते और स्कूल तक घूमकर आते थे, जिसका पंचायत ने जिक्र किया था। दिन में उस कुएं के आस-पास काफी लोग बैठे रहते थे। एक दिन पूज्य सार्इं जी जब उस कूएं के पास से गुजरने लगे तो सेवादारों को फरमाया कि ‘लाओ वरी, इनके कुएं का पानी देखते हैं!’ सेवादार न्यामतराम को एक डल्ला (मिट्टी का छोटा टुकड़ा) देने को कहा। पूज्य सार्इं जी उस कुएं के पास आ गए और उस डल्ले को उसमें गिरा दिया। बताते हैं कि वह कुआं करीब 150 हाथ गहरा था। गहराई के कारण उस डल्ले के गिरने से उसमें से धड़ाम की जोरदार आवाज सुनाई दी। पूज्य सार्इं जी ने फरमाया- ‘वरी! कुएं से आवाज तो मीट्ठे पानी की आ रही है।’ पास खड़े भाग सिंह ने कहा कि बाबा जी, ऐसे पानी के मीठा होने का क्या पता लगता है! ‘लाओ बई, एक और डल्ला लेकर आओ।’ पूज्य सार्इं जी ने दूसरी बार भी डल्ला कुएं में गिराया तो उससे फिर वैसी ही आवाज सुनाई दी।

यह सुनकर फिर फरमाया- पानी तो मिट्ठे की आवाज आ रही है वरी! इसके दरमियान एक और सेवादार ने भी वैसा ही सवाल उठा दिया। पूज्य सार्इं जी ने फिर तीसरी बार डल्ला मंगवाकर उसमें डाला और वही वचन फिर दोहराए कि आवाज तो मीठे पानी की आ रही है। यह विचित्र खेल दिखाते हुए पूज्य सार्इं जी आगे घूमने को निकल गए।
मल्ल सिंह बताते हैं कि इस घटना के ठीक 8 दिन बाद पूज्य सार्इं जी ने सेवादारों को हुक्म फरमाया कि उस कुएं का पानी निकालकर लाओ। मैं और बग्गा सिंह पड़ोस में सरदार बीरू सिंह के घर से डोल (कुएं से पानी निकालने का देशी यंत्र) लेकर आए, जिसके साथ लंबी सी रस्सी लगी हुई थी।

उस समय गांव में चमड़े के बौके से पानी निकाला जाता था, लेकिन बीरू सिंह उस यंत्र से घृणा करता था, इसलिए उसने अपनी डोल बनाई हुई थी। डोल की मदद से कुएं का पानी निकालकर लाया गया। डेरा में पूज्य सार्इं जी की हजूरी में वह पानी संगत को पिलाया गया, संगत ने जैसे ही वह पानी पिया तो ‘धन-धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ से आसमां गुंजायमान कर दिया। असल में पानी का स्वाद इतना बदल चुका था कि पीने वाले की आत्मा भी तृप्त हो जाए। कुएं का पानी मीठा होना गांव में चर्चा का खूब विषय बना। पूज्य सार्इं जी की प्रत्यक्ष रहमत पाकर गांववासी खुशी में फूले नहीं समा रहे थे।

सतनामपुर धाम, गदराना दरबार से जुड़ी पुरातन यादों को सांझा करते हुए ब्लॉक भंगीदास सुरजीत सिंह, जग्गा सिंह, गुरदेव सिंह, कुलवंत सिंह, दर्शन सिंह, लाभ सिंह, गुरमुख सिंह मल्ला, मिट्ठू सिंह, जंगीर सिंह (बायं से दायं) व अन्य सेवादार ।

‘कदी इत्थों दी मेरा मुर्शिद जाया करदा सी!’

पूज्य सार्इं जी के अपने मुर्शिद-ए-कामिल बाबा सावण शाह जी महाराज के प्रति अनूठे प्रेम की झलक यहां भी देखने को मिलती थी। बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी दरबार में ठहराव के दौरान जिस कमरे में रहते थे, उस कमरे की पूर्व दिशा में एक झरोखा हुआ करता था। इस दरबार के पास से ही रेलवे लाइन गुजरती है जिस पर रेल गाड़ी का आवागमन रहता था।

जब भी रेलगाड़ी के आने की आहट सुनाई देती तो पूज्य सार्इं जी एकदम अपनी चारपाई से उठकर उस झरोखे की ओर लपक पड़ते, और रेल को आते-जाते निहारते रहते। कई दिनों तक यह अद्भुत नजारा देख रहे सेवादार ने जब जिज्ञासावश पूछा तो पूज्य सार्इं जी ने फरमाया ‘कदी इत्थों दी मेरा मुर्शिद जाया करदा सी!’ यानि कभी ऐसा समय भी था जब पूज्य सार्इं जी के अतिपूजनीय मुर्शिद बाबा सावण सिंह जी महाराज रेलगाड़ी से सिकंदरपुर(सरसा) में सत्संग करने जाया करते थे। बताते हैं कि जब भी पूज्य सार्इं जी यहां दरबार में रहे, हमेशा ही ऐसे हर आने-जाने वाली रेलगाड़ी को उस झरोखे से निहार कर अपने प्यारे मुर्शिद की यादों को तरोताजा किया करते थे।

भैंस को बोलो के सार्इं जी ने दूध मंगवाया है, संगत को खीर खिलानी है!

दरबार में सेवा चल रही थी। पूज्य सार्इं जी संगत की हौंसला अफजाई करने के लिए कोई ना कोई कौतुक दिखाते रहते थे। एक दिन पूज्य सार्इं जी ने हुक्म फरमाया कि ‘चरण दास, जाओ दूध लेकर आओ’। वह सेवादार भोले स्वभाव का इन्सान था। उसने कहा कि बाबा जी, घर में जो भैंस है वह तो तीन डंग दूध देती है यानि डेढ़ दिन के बाद एक बार दूध देती है। सार्इं जी ने फिर कहा- ‘जा, जाकर भैंस के कान में बोल दे कि गरीब मस्ताना ने दूध मंगाया है, साध-संगत को खीर बनाकर खिलानी है।’ चरण दास ने हूबहू वैसा ही किया।

भैंस के पास जाकर उसके कान में वही बात दोहरा दी और उसकी पीठ पर थापी मारकर दूध निकालने बैठ गया। थोड़ी देर बाद चरण दास हाथ में बाल्टी उठाए डेरे में आ पहुंचा। उसके चेहरे पर हंसी रोके नहीं रूक रही थी। ‘कैसे चरण दास!’ उसने बताया कि बाबा जी, भैंस ने तो दूध से बाल्टी ठोक कर भर दी है जी। ‘ठीक है तो, शाम को संगत को खीर बनाकर खिलाएंगे।’ यह देखकर संगत भी बड़ी खुश हुई। उस दिन शाम तक गांव से और भी बहुत सा दूध आ गया, फिर उससे खीर बनाकर सारी संगत को खिलाई गई।

ऐसे पहुंचें दरबार दर्शन को

डेरा सच्चा सौदा सतनामपुर धाम गदराना, तहसील कालांवाली (सरसा) पहुंचने के लिए रेल मार्ग अति सुगम है। वैसे सड़क मार्ग से भी नेशनल हाईवे न. 9 से होते हुए आसानी से पहुंचा जा सकता है।

सड़क मार्ग

सिरसा व डबवाली से दूरी 40 किलोमीटर

रेल मार्ग

कालांवाली रेलवे स्टेशन से दूरी साढ़े 4 किलोमीटर

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