सहजता में ही व्याप्त है जीवन का वास्तविक सौंदर्य The real beauty of life pervades simplicity
सहजता एक उत्तम गुण है। सहजता हमारी क्षमता का अभूतपूर्व विकास है। जो लोग सहज भाव से निरंतर प्रयासरत रहते हैं जीवन में बहुत आगे जाते हैं। सहजता का अनुगामी जीवन में कभी पीछे नहीं रहता। पिछड़ता नहीं। वैसे भी एक झटके में शिखर पर पहुँचने में आनंद कहाँ? अब प्रश्न उठता है कि कई लोग सहज होते हुए भी उपरोक्त अपेक्षित उन्नति क्यों नहीं कर पाते?
वे जीवन में क्यों पिछड़ जाते हैं? आनंद से वंचित क्यों रह जाते हैं? यहाँ एक प्रश्न और उठता है कि क्या ऊपर से सहज दिखने वाला व्यक्ति वास्तव में सहज है भी या नहीं?
कई बार व्यक्ति ऊपर से तो सहज दिखलाई पड़ता है लेकिन वास्तव में सहज नहीं होता। अंदर एक तूफान चलता रहता है। यह तूफान वैसे तो बाहर भी थोड़ा बहुत झलकना चाहिए लेकिन नहीं झलकता। अंदर द्वंद्व है, पीड़ा है, राग-द्वेष है। अंदर नकारात्मक भावों का तूफान है लेकिन बाहर फिर भी खामोशी है। इसका यह अर्थ हुआ कि बाहर की खामोशी अभिनय मात्र है।
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किसान-मजदूर प्राय:
अंदर से सहज ही होते हैं। तथाकथित बुद्विजीवी या प्रोफेशनल कई बार ऊपर तो सहज दिखते हैं लेकिन अंदर से उतने ही असहज, मानसिक अशांति के शिकार, तनाव व दबाव से पीड़ित, हमेशा दुश्ंिचताओं व द्वंद्व में घिरे हुए। शायद बाहर से असहज होने का समय नहीं। समय है तो एक इमेज बना रखी है कि ये करना है, ये नहीं करना।
जब तक भौतिक शरीर की जड़ता श्रम द्वारा समाप्त नहीं की जाती, तब तक आंतरिक सहजता संभव भी नहीं। भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि ‘सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत’ अर्थात् सहज कर्म दोषपूर्ण होने पर भी त्यागने योग्य नहीं। कोई भी कार्य कर रहे हैं और उसमें बार-बार गलती हो रही है तो उसे ठीक करने का सबसे आसान तरीका है कि उसे और अधिक सहज रूप से कीजिए। आप उसे अपनी स्वाभाविक गति से भी धीरे कीजिए। इस सहजता से जो आंतरिक विकास होता है, जिस एकाग्रता की प्राप्ति होती है वह कार्य को शुद्धता से करने की क्षमता प्रदान करती है।
कोई विषय मुश्किल लगता है तो उस विषय को बिलकुल प्रारंभ से दोबारा शुरू कर दें। जो आता है उसे भी ध्यान से दोबारा कर लें। जहाँ अटक रहे हैं, दो-तीन बार अभ्यास करें लेकिन सहजता से। सहज रहें, कोई समस्या नहीं होगी। असहजता के कारण ही समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
सौंदर्य भी तो सहजता में ही है। कली से फूल बनने में सहजता है तभी फूल में असीम सौंदर्य है। एक मजदूर के पत्थर पर तीव्र प्रहार करने से रोटी तो उत्पन्न हो सकती है, कला या सौंदर्य नहीं। कला या सौंदर्य के लिए अपेक्षित है प्रस्तर पर सधे हुए हाथों से मृदु आघात अर्थात् सहजता। जिसे हम तहजीब कहते हैं , वो भी तो जीवन की सहजता ही है। जहाँ सहजता नहीं, वहाँ कैसी तहजीब, कैसा शिष्टाचार?
ये पंक्तियाँ भी तो यही संकेत करती प्रतीत होती हैं:
सच है तहजीब ही
अख़्लाक की जाँ होती है,
फूल खिलते हैं तो
आवाज कहाँ होती है।
जीवन को सौंदर्य से आप्लावित करना है, उसे कलापूर्ण बनाना है तो सहजता का दामन थामना ही होगा और वो भी बाह्य सहजता का नहीं, आंतरिक सहजता का।
-सीताराम गुप्ता
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