बिना कही बात -बाल कथा Unsaid thing -Children’s story
एक रियासत थी। नाम था कंचनगढ़। कंचनगढ़ समृद्ध न था। बहुत गरीबी थी तब कंचनगढ़ में। गरीब लोग और ऊसर धरती। चारों ओर भुखमरी थी। कंचनगढ़ के राजा कंचनदेव अपनी रियासत को देखकर बहुत दुखी थे। उन्हें उपाय नहीं सूझ रहा था। लगता था, रियासत कुछ दिनों में मिट जाएगी। कंचनगढ़ के लोग रियासत छोड़कर कहीं चले जाने की सोचा करते।
एक दिन कंचनदेव राज्य की दशा से बहुत चिंतित हो उठे। अचानक उनके पास एक साधु आए। लंबे बाल, गेरूए वस्त्र। राजा ने उठकर साधु को प्रणाम किया। ‘प्रसन्न रहो बेटा,‘ साधु ने राजा को आशीर्वाद दिया।
कंचनदेव ने साधु को अपने राज्य के बारे में बताया। कुछ करने की प्रार्थना की। साधु मुस्कुराकर बोले, ‘कंचनगढ़ सचमुच कंचनगढ़ है। इसके नीचे सोने की खान है।‘ इतना कहकर साधु चले गए।
राजा ने खुदाई करवाई। वहां सोने की खान निकली। बहुत सोना था उस खान में। राजा का खजाना सोने से भर गया। राजा ने अपने राज्य में जगह-जगह मुफ्त भोजनालय बनवाए, दवाखाने खुलवाए, चरागाह बनवा दिए। अब वहां कोई दुखी न था। सब लोग खुश थे, किंतु वे आलसी हो गए थे। कोई भी काम नहीं करते थे। मुफ्त भोजन जो मिलने लगा था उनको।
मंत्री ने राजा को बहुत समझाया, ‘महाराज, लोग आलसी होते जा रहे हैं। उनको काम दिया जाए।‘ पर राजा ने मंत्री की बात को सुनकर टाल दिया।
कंचनगढ़ की समृद्धि देखकर पड़ोसी रियासत का राजा जलभुन रहा था। अचानक पड़ोसी राजा ने कंचनगढ़ पर चढ़ाई कर दी। मांग की ‘या तो सोना दो या लड़ो।‘
कंचनगढ़ के आलसी लोगों ने राजा से कहा, ‘बहुत सोना है, कुछ दे दें। बेकार खून क्यों बहाया जाए?‘ राजा ने लोगों की बात मान ली। सोना दे दिया।
कुछ दिनों बाद पड़ोसी राजा ने फिर कंचनगढ़ पर चढ़ाई कर दी। इस बार उसका लालच और बढ़ गया था। इसी प्रकार उसने कई बार कंचनगढ़ से सोना लिया। एक दिन मंत्री ने कंचनदेव से घूमने के लिए कहा। वह राजा को नगर से पूर्व की ओर बने, गुलाब के बाग की ओर ले गया। थोड़ी दूर जाने पर कंचनदेव ने देखा, मैदान में दूर तक दाने बिखरे हैं। काफी कबूतर वहां दाना चुग रहे हैं किंतु यह क्या? थोड़ी दूर पर कुछ कबूतर मरे पड़े थे। राजा ने मरे हुए कबूतरों के बारे में मंत्री से पूछा। मंत्री ने बताया, ‘महाराज की आज्ञा से पक्षियों को मुफ्त दाना भी डाला जाता है।‘
‘फिर ये कबूतर मरे कैसे?‘ कंचनदेव ने मंत्री से पूछा।
‘महाराज, इन्हें शिकारी पक्षियों ने मारा है। शिकारी पक्षियों को यह मालूम है कि कबूतर दाना चुगने यहीं आते हैं।‘ कंचनदेव यह सुनकर परेशान हो गए। अगले दिन मंत्री फिर उनको दूसरी दिशा का बाग दिखाने ले गया। किंतु दूसरी दिशा में भी वही दृश्य था। राजा ने मंत्री से पूछा, तो उसने उत्तर दिया, ‘शिकारी पक्षी इन्हें भी मार डालते हैं।‘
‘तो कबूतर भागते क्यों नहीं ?‘
‘भागते हैं, लेकिन लालच इतना जबरदस्त है कि फिर आ जाते हैं,‘ मंत्री ने राजा को बताया। राजा ने मंत्री से कहा, ‘दाना डलवाना बंद कर दो।‘ मंत्री ने वैसा ही किया। अगले दिन राजा फिर घूमने निकला। देखा, दाना तो नहीं है किंतु कबूतर आ-जा रहे हैं। उड़ते हैं, फिर आ जाते हैं। राजा ने मंत्री से पूछा। मंत्री ने कहा, ‘महाराज, इन्हें बिना प्रयास के ही दाना मिल रहा था। ये अब दाने-चारे की तलाश की आदत भूल चुके हैं। आलसी हो गए हैं। शिकारी पक्षी इस बात को जानते हैं, कबूतर तो यहीं आएंगे। वे आसानी से इन्हें मार डालते हैं।‘
राजा सोच में पड़ गए। शाम को उन्होंने मंत्री को बुलवाया। कहा, ‘नगर के सारे मुफ्त भोजनालय बंद करवा दो। जो मेहनत करे, वही खाए। लोग निकम्मे होते जा रहे हैं। और हां, एक बात और, मैं अब शत्रु के सोना मांगने पर सोना नहीं दूंगा, लडूंगा। जाओ, सेना को मजबूत करो।‘
मंत्री राजा की बात सुनकर बहुत खुश हुआ। बोला, ‘महाराज, मैं तो बहुत दिनों से यही बात कहना चाहता था लेकिन आपके क्र ोध के डर से चुप रहा।‘
सुनकर राजा हंस पड़े। बोले, ‘तुम्हें मान गए। तुम बिना कहे भी अपनी बात खूब कहना जानते हो।‘
-नरेन्द्र देवांगन