lohri लोहड़ी उत्तर भारत का एक लोकप्रिय त्यौहार है। इस्सर आ, दलीदर जा…
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लोहड़ी से जुड़ी कई मान्यताएं
- पंजाब में लोहड़ी का त्योहार दुल्ला भट्टी से जोड़कर मनाया जाता है। मुगल शासक अकबर के समय में दुल्ला भट्टी पंजाब में गरीबों के मददगार माने जाते थे। उस समय लड़कियों को गुलामी के लिए अमीरों को बेच दिया जाता था। कहा जाता है कि दुल्ला भट्टी ने ऐसी बहुत सी लड़कियों को मुक्त कराया और उनकी फिर शादी कराई।
- इस त्योहार के पीछे धार्मिक आस्थाएं भी जुड़ी हुई हैं। लोहड़ी पर आग जलाने को लेकर मान्यता है कि यह आग राजा दक्ष की पुत्री सती की याद में जलाई जाती है।
- लोगों का यह भी मानना है कि लोहड़ी का नाम संत कबीर की पत्नी लोही के नाम पर पड़ा। पंजाब के कुछ ग्रामीण इलाकों में इसे लोई भी कहा जाता है।
- लोहड़ी को पहले कई जगहों पर लोह भी बोला जाता था। लोह का मतलब होता है लोहा। इसे त्योहार से जोड़ने के पीछे बताया जाता है कि फसल कटने के बाद उससे मिले अनाज की रोटियां तवे पर सेकी जाती हैं। तवा लोहे का होता है। इस तरह फसल के उत्सव के रूप में मनाई जाने वाली लोहड़ी का नाम लोहे से पड़ा।
- पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि लोहड़ी होलिका की बहन थीं। लोहड़ी अच्छी प्रवृत्ति वाली थीं। इसलिए उन्हीं के नाम पर त्योहार मनाया जाता है।
- कई जगहों पर लोहड़ी को तिलोड़ी के तौर पर भी जाना जाता था। यह शब्द तिल और रोड़ी यानी गुड़ से मिलकर बना है. बाद में तिलोड़ी को ही लोहड़ी कहा जाने लगा।
खास तौर पर इसे पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर नई फसल के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। लोहड़ी की रात खुली जगह पर आग जलाई जाती है। लोग लोकगीत गाते हुए नए धान के लावे के साथ खील, मक्का, गुड़, रेवड़ी, मूंगफली आदि उस आग को अर्पित कर परिक्रमा करते हैं। लोहड़ी मनाने वाले किसान इस दिन को अपने लिए नए साल की शुरूआत मानते हैं। गन्ने की कटाई के बाद उससे बने गुड़ को इस त्यौहार में इस्तेमाल किया जाता है।
लोहड़ी का त्यौहार पंजाबी संस्कृति में अपनी एक खास पहचान रखता है। वर्षों से इस पर्व की सार्थकता रही है, जो आज भी समाज को एक नई दिशा दिखा रहा है। हालांकि समय की रफ्तार के साथ लोहड़ी पर्व का महत्व कुछ कम हुआ है, लेकिन इस पर्व की पौराणिकता बड़ी रोचकपूर्ण रही है। 85 वर्षीय दलीप कौर बताती हैं कि जिंदगी के उतार-चढ़ाव के बीच इस त्यौहार के कई खूबसूरत रंग देखे हैं।
आजकल तो यह पर्व केवल रेवड़ी व मूंगफली बांटने तक ही सीमित होकर रह गया है, लेकिन 4 दशक पूर्व तक इस त्यौहार की पूरी रौनक बरकरार थी। मुझे आज भी याद है जब मैं अपनी सहेलियों के साथ लोहड़ी की खूब तैयारी करती थी। दर्जनभर सहेलियां इक्ट्ठी होकर दिनभर गली-गली घूमकर लोहड़ी के लिए सामग्री के रूप में पाथियां व तिल आदि की व्यवस्था करती थी। इस कार्य में लड़के भी हाथ बंटाते थे।
घर द्वार पर जाकर गीत गाया जाता कि ‘दे माई पाथी, तेरा पुत चढूगा हाथी।’
यानि लोहड़ी के कार्यक्रम में भागीदारी के लिए दान के रूप में पाथी मांगी जाती और उस परिवार को आशीष दी जाती कि उनका बेटा नई बुलंदियों को छूएगा। जैसे-जैसे दिन ढलने को आता पर्व का चाव और बढ़ता जाता। सभी सहेलियां, महिलाएं और बुजुर्ग माताएं सज-धजकर तैयार हो जाती और लोहड़ी की रौनक बनती थी।
पकवानों की सुगंध से महक उठता है वातावरण
ढलते सूरज की लालिमा के साथ ही इस दिन हर चेहरे पर खुशी का खुमार छाने लगता है। 80 वर्षीय हरदीप कौर बताती हैं कि लोहड़ी को लेकर औरतों व बच्चों में बड़ी बेसब्री देखने को मिलती है। पर्व की मिठास को और बढ़ाने के लिए इस दिन अच्छे-अच्छे पकवान तैयार किए जाते हैं। खासकर खीर, तिल की पिन्नी, मालपुए, साग इत्यादि को बड़े चाव से बनाया जाता है। यह पकवान अगली सुबह खाया जाता है। इसको लेकर कहावत भी है कि ‘पोह रिज्जी माह खादी।’ यानि उस रात से अगला महीना शुरू हो जाता है। देशी माह पोह की सायं को यह पकवान तैयार किए जाते हैं और अगली सुबह उनको खाया जाता है। इन पकवानों से पूरा वातावरण ही सुगंधित हो उठता है।
रात की परछाई में चमकती है लोक गीतों की आभा
जीवन के 80 बसंत देख चुकी सुखदेव कौर बताती हैं कि दिन ढलते ही लोहड़ी का त्यौहार अपने यौवन पर पहुंच जाता है। जल्दी से घर के कार्य निपटाकर महिलाएं लोहड़ी के निर्धारित जगह पर पहुंचना शुरू हो जाती हैं। गली-गुवांड की एक विशेष जगह पर उपलों का एक बड़ा सा ढेर लगा लिया जाता है। लोहड़ी का असल कार्यक्रम रात की परछाई में शुरू होता है, जब आस-पास गली-मोहल्ले की महिलाएं एकत्रित होकर पाथी(गोबर के उपले) के एक बड़ा ढेर को अग्नि देकर उसके पास बैठकर गीत गाती हैं।
लोहड़ी को अग्नि भेंट करते समय गीत गाया जाता है
चक्की हेठ गंदाला,
असीं गुड़ नी लेना काला।
मच्ची नी लोहड़िए,
मार तिलां दी फक्की।
वहीं इस दौरान लड़कियां गीत गाती हैं कि
लोहड़ी वी लोहड़ी,
कट्टे दी पूछ मरोडी।
कट्टा गया नठ,
रूपिचे कढ्ढो सट्ठ।।
जब लोहड़ी आग की लपटों का रूप लेने लगती है तो उसकी परिक्रमा करते हुए नवविवाहित जोड़े (युगल) लोहड़ी को तिल भेंट करते हैं।
उस दौरान गीत गाया जाता है
तिल छंडे रहे नी तिल छंडे रहे,
केहड़ी कुडी ने खिंडाए।
अपने भाई की सलामती व उसको औलाद का सुख देने के लिए बहनें भी लोहड़ी पर गीत गाती हैं।
नगाहे वालेया मेरे वीर नूं देई बन्नी,
मैं तेरा सुखदी पूजा नगाहे वालेया,
मेरे वीर नूं देर्इं बूजा नगाहे वालेया।
लोहड़ी पर पूरी रात महिलाओं का जमघट लगा रहता है। बुजुर्ग महिलाएं गीत गाती हुई सभी के घरों में धन-वैभव की दुआएं मांगती हैं।
इस्सर आ, दलीदर जा,
दलीदर दी जड़ चुल्ले पा।
लोहड़ी पर हंसी-ठठ्ठा भी खूब चलता है। इसी से जुड़े गीत भी गाए जाते हैं।
तोतेया वे तोतेया, बारी विच खलोतेया
बारी तेरी हरी भरी, फुल्लां दी चंगेर भरी
एक फुल्ल जा पेया, राजे दे दरबार पेया
राजा रानी सुत्ती सी, सुत्ती नू जगा लेया
रत्ता रौला पा लेया, रत्ता रौला चीक दा
भाभो नू उड़ीकदा।
रौनक बनते हैं नवविवाहित जोडे
इस पर्व पर खास आकर्षण का केंद्र होते हैं नवविवाहित जोडेÞ, जो लोहड़ी की संध्या पर थाल भर-भरकर सभी को रेवड़ी व मूंगफली बांटते हैं। उनकी तरफ से विशेष कार्यक्रम आयोजित होते हैं। वहीं जिनके घरों में बच्चे का जन्म हुआ हो, वे भी लोहड़ी बांटते हैं। बदलते समय के बीच अब तो जिनके घरों में लड़कियां पैदा हो रही हैं, वे भी लोहड़ी बांटने को आगे आने लगे हैं। लोहड़ी पर देर रात तक महिलाएं मंगल गीत गाती हैं और हंसी-खुशी अपने-अपने घरों को लौट जाती हैं।
लोहड़ी की समाप्ति पर भी एक गीत गाया जाता है
लोहड़ी छाप देयो वे,
वड्डो जंड ते करीर।