किसान आंदोलन तीनों कृषि कानूनों को लागू करने पर उच्चतम न्यायालय ने लगाई रोक
देशभर में तीन कृषि कानूनों के विरोध में उतरे आंदोलनकारी किसानों व केंद्र सरकार के बीच गतिरोध अभी बरकरार है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली बेंच ने 12 जनवरी को अहम फैसला लेते हुए इन तीनों कानूनों को लागू करने पर रोक लगाकर मामले को नई दिशा देने का प्रयास अवश्य किया है।

बेशक यह रोक अस्थाई है, लेकिन मामले में न्यायपालिका की एंट्री से केंद्र सरकार को अवश्य थोड़ी राहत महसूस हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले को सुलझाने के लिए चार सदस्यीय कमेटी गठित की है, जिसे दो महीने में अपनी रिपोर्ट देनी है। उधर आंदोलनरत किसानों ने माननीय अदालत के निर्णय का स्वागत तो किया है, लेकिन इस कमेटी के सामने पेश होने से साफ इन्कार कर दिया। 15 जनवरी को फिर से आंदोलनरत किसानों व केंद्र सरकार के बीच बातचीत का दौर शुरू हुआ। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस मामले में किसानों की दो टूक का तोड़ केंद्र सरकार किस प्रकार ढूंढ पाएगी। बेशक अदालत के निर्णय से यह मामला निपटता प्रतीत हो रहा था, लेकिन किसानों ने इस कमेटी को सिरे से नकार दिया।

किसानों का कहना है कि कमेटी में चयनित सदस्यों भारतीय किसान संघ के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के डायरेक्टर डॉ. प्रमोद कुमार जोशी, कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनवट का चयन सरकार की मंशा के अनुरूप हुआ है। इसलिए इस कमेटी से किसानों के पक्ष में फैसले की उम्मीद बेमानी सी प्रतीत होती है। दरअसल कमेटी सदस्यों में तीन सदस्य पूर्व में ही इन तीनों कृषि कानूनों के पक्ष में सरकार का स्तुति गायन कर चुके हैं और एक सदस्य कारपोरेट जगत से जुड़ाव रखता है। बड़ी बात यह भी है कि कमेटी गठन के तीसरे दिन ही भाकियू अध्यक्ष भूपिंद्र मान ने कमेटी सदस्यता से अपना नाम वापिस लेकर इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया।

जानकारों की मानें तो किसान आंदोलन में अदालत के दखल की पटकथा केंद्र सरकार की मंशा को जाहिर करती है, क्योंकि केंद्र सरकार ने बिलों पर रोक के विरोध में अदालत में एक दलील तक नहीं दी, जबकि वह देशभर में रैलियां कर इन कानूनों का फायदा गिनवाने में लगी हुई है। वहीं किसान के नजरीये से यह कमेटी उनके गले की फांस बन सकती थी। कोर्ट ने भी साफ किया है कि कमेटी कोई मध्यस्थ्ता कराने का काम नहीं करेगी, बल्कि निर्णायक भूमिका निभाएगी। यदि किसान इस कमेटी के सामने पेश होकर कानूनों को रदद् करने की दुहाई देते हैं तो बात संशोधन तक आकर अटक सकती है, जो आंदोलनरत किसान हरगिज नहीं चाहते।

ऐसे में कमेटी के गठन का औचित्य क्या रह जाएगा, यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। उधर केंद्र सरकार की ओर से लगातार यह आरोप लगाया जा रहा है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर किसानों में भ्रम फैलाया जा रहा है। सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट में पक्ष रखते हुए बताया था कि ‘कुछ लोग भ्रम फैला रहे हैं कि नए कानूनों से किसानों की जमीन छीन ली जाएगी। लेकिन, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में कॉन्ट्रैक्ट सिर्फ फसल का होगा, जमीन का नहीं।

14 जनवरी तक आंदोलन अपना अर्धशतक पूरा कर चुका है, लेकिन मौसम का सर्द मिजाज अभी भी आंदोलनरत बुजुर्गों, महिलाओं व बच्चों के लिए रह-रहकर कई कठिनाइयां पैदा कर रहा है। इस आंदोलन में 50 के करीब किसान अपनी जान की आहुति भी दे चुके हैं। लेकिन बिलों के विरोध में किसानों का बढ़ता कारवां सरकार के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है। बेशक सरकार ने बिलों की वापसी पर दो टूक कह दिया है कि ये बिल किसी भी सूरत में रद्द नहीं होंगे। ऐसे में किसानों का ट्रेक्टर परैड का ऐलान यह स्पष्ट इशारा करता है कि वे अपनी मांग के विपरित कुछ भी मंजूर नहीं करेंगे। बेशक दोनों पक्ष किसी भी सूरत में टकराव नहीं चाहते, लेकिन संघर्ष का यह रास्ता इतना आसान भी नजर नहीं आता। उम्मीदों एवं आकांक्षाओं के बीच इस आंदोलन के भविष्य की तस्वीर अभी धुंधली ही प्रतीत हो रही है।

तीन कृषि कानूनों को लेकर केंद्र व किसानों के मध्यम उपजे विवाद को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने इन बिलों पर फिलहाल रोक लगा दी है, वहीं 4 सदस्यीय कमेटी गठित की है। हालांकि कमेटी की सदस्यता को लेकर कई तरह की शंकाएं आंदोलनकारी किसानों द्वारा जताई जा रही हैं, वहीं तीन दिन बाद ही भूपिंंद्र सिंह मान द्वारा कमेटी सदस्यता से अपना नाम वापिस लेने से कमेटी की विश्वसनीयता पर संशय के बादल मंडराने लगे हैं। हालांकि बाकी तीनों सदस्यों पर भी बिलों के समर्थक के आरोप लग रहे हैं।

आइये नजर डालते हैं कमेटी सदस्यों की कथनी और करनी पर एक नजर:-

कुछ तत्व आगे आकर किसानों में गलतफहमियां पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों के किसान सरकार द्वारा पारित तीनों कानूनों के पक्ष में हैं। हम पुरानी मंडी प्रणाली से क्षुब्ध और पीड़ित रहे हैं। हम नहीं चाहते कि किसी भी सूरते हाल में शोषण की वही व्यवस्था किसानों पर लादी जाएं। -भूपिंदर सिंह मान, अध्यक्ष भारतीय किसान यूनियन।


परिचय:

कृषि विशेषज्ञ व अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के चेयरमैन, पूर्व राज्यसभा सांसद। किसान संघर्ष के नाम पर 1990 में राष्ट्रपति ने राज्यसभा के लिए मनोनीत किया। 1966 में फार्मर फ्रैंस एसोसिएशन का गठन व संस्थापक सदस्य। बाद में यह संगठन भारतीय किसान यूनियन बना। पंजाब में फूड कॉपोर्रेशन इंडिया में भ्रष्टाचार से लेकर चीनी मिलों में गन्ना सप्लाई और बिजली के टैरिफ बढ़ाने जैसे मुद्दों को उठाया।

 

इन कानूनों से किसानों को अपने उत्पाद बेचने के मामले में और खरीदारों को खरीदने और भंडारण करने के मामले में ज्यादा विकल्प और आजादी हासिल होगी। इस तरह खेतिहर उत्पादों की बाजार-व्यवस्था के भीतर प्रतिस्पर्धा कायम होगी। इस प्रतिस्पर्धा से खेतिहर उत्पादों के मामले में ज्यादा कारगर मूल्य-ऋंखला (वैल्यू चेन) तैयार करने में मदद मिलेगी। इससे भंडारण के मामले में निजी निवेश को भी बढ़ावा मिलेगा। – अशोक गुलाटी


परिचय:

कृषि अर्थशास्त्री, 2015 में पद्मश्री से सम्मानित, भारत सरकार की खाद्य आपूर्ति और मूल्य निर्धारण नीतियों की सलाहकार समिति कमिशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एंड प्राइसेस के चैयरमेन रहे व कृषि से जुड़े विभिन्न विषयों पर शोध किया ।

हमें एमएसपी से परे नई मूल्य नीति पर विचार करने की जरूरत है और यह किसानों, उपभोक्ताओं और सरकार के लिए जीत होनी चाहिए। एमएसपी को कानूनन अनिवार्य बनाना बहुत मुश्किल है। पूरी दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं है। इसका सीधा सा मतलब यह भी होगा कि राइट टू एमएसपी। ऐसे में जिसे एमएसपी नहीं मिलेगा वह कोर्ट जा सकता है और न देने वाले को सजा हो सकती है। – डॉ. प्रमोद जोशी (8 व 16 दिसंबर 2020 को ट्वीट द्वारा)


परिचय:

डॉ. जोशी सरकारी संस्थान साउथ एशिया इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं और नेशनल एकेडमी आॅफ एग्रीकल्चरल साइंसेज और इंडियन सोसाइटी आॅफ एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स के फेलो भी हैं। इसके अलावा कृषि अर्थशास्त्र अनुसंधान केंद्र दिल्ली विश्वविद्यालय के मानद निदेशक के पद पर भी हैं।

नए कानून एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटियों की शक्तियों को सीमित करते हैं और ये स्वागत योग्य कदम है। इन कानूनों को वापस लेने की आवश्यकता नहीं हैै। शेतकारी संगठन ने इन कानूृनों को किसानों की वित्तीय आजादी की तरफ पहला कदम बताया था। -अनिल धनवत, अध्यक्ष शेतकारी संगठन।


परिचय:

पूर्व राज्यसभा सदस्य, महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन के अध्यक्ष, केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के समर्थन में 14 दिसंबर को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को एक पत्र लिखकर देश के कुछ किसान संगठनों ने कृषि कानून का समर्थन किया था। उनमें शेतकारी संगठन भी था। राज्यसभा सदस्य रहे शरद जोशी ने इस संगठन की स्थापना की थी। इस संगठन से महाराष्ट्र के हजारों किसान जुड़े हैं।

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