सुख-समृद्धि का पर्व है बैसाखी
रत को यदि पर्वोत्सवों की खान कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। अभावों के साये में जीने के बावजूद यहां के अधिसंख्य लोगों में धार्मिक प्रवृत्तियां कूट-कूट कर भरी हैं जिसका प्रस्फुटन विभिन्न त्यौहारों के रूप में होता है। बैसाखी पर्व भी देश का परम्परागत हर्षोल्लास, उमंंग एवं जोश से परिपूर्ण भाईचारे एवं एकता का संदेशवाहक है। यह पर्व खुशी और दर्द दोनों पहलुआें को अपने भीतर समेटे हुए है।
बैसाखी उतर भारत का एक प्रसिद्ध त्यौहार है और विशेषकर पंजाब में उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन पंजाब में विशाल मेला लगता है व इस दिन की छटा तो बस देखने लायक होती हैं। समूचा पंजाब खुशियों, मेलों व उत्सवों में सराबोर हो जाता है तो हर परिवार का सदस्य नये व चटकीले रंगों के कपड़े पहन नाच-गाने में व्यस्त हो जाता है। किसान भंगड़े की लय और ढोलक की थाप पर अपने-अपने खेतों में थिरक उठते हैं। वे अपनी सुनहरी फसलों को घूमते हुए कह उठते हैं ‘ओए जट्टा, आई-बैसाखी’ और यह स्वर खेत-खलिहान एवं गांवों के हर गली-कूचे में मुखरित हो उठता है।
बैसाखी ऐतिहासिक स्मृतियों का पर्व भी माना जाता है। बैसाखी पर मेले के आयोजन की परम्परा उल्ला में रहने वाले संत भाई पटरो परमहंस ने अपने गुरु अमरदास जी की आज्ञा से शुरू की थी और लाहौर पर विजय प्राप्त करने के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने अपना राजतिलक भी बैसाखी के ही दिन किया था।
‘बैसाखी’ पर्व का असली स्वरूप तो पंजाब के गांवों में ही देखने को मिलता है क्योंकि पूरा वर्ष वहां के किसान, अनाज व समृद्धि वाले इस पर्व का बेसब्री से इंतजार करते हैं। विभिन्न रंगों की रंग-बिरंगी पगड़ियां पहने सिख पुरुष व तिल्ले-गोटे की चुन्नियां ओढ़े युवतियां सलवार-कमीज में ऐसी सजती हैं कि मानों धरा का समूचा वैभव-उल्लास व खुशियां उनके इर्द-गिर्द ही हों। यह पर्व राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधने वाला पर्व है, जिसके प्रति हर वर्ग की अपार श्रद्धा है।
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बैसाखी का ऐतिहासिक महत्तव:-
सिख धर्म के दसवें पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी ने बैसाखी के दिन खालसा पंथ की नींव रखी थी। खालसा पंथ की स्थापना के पीछे गुरु गोबिंद सिंह जी का मुख्य लक्ष्य लोगों को तत्कालीन मुगल शासकों के अत्याचारों से मुक्त कर उनके धार्मिक, नैतिक और व्यवहारिक जीवन को श्रेष्ठ बनाना था। इस पंथ के द्वारा गुरु गोबिंद सिंह जी ने लोगों को धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव छोड़कर इसके स्थान पर मानवीय भावनाओं को आपसी संबंधों में महत्व देने की भी दृष्टि दी।
इसलिए छुआछूत की भावना को खत्म करने के उद्देश्य से ही बैसाखी के पवित्र दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने पंजाब के श्री केशगढ़, आनन्दपुर साहिब में अपने सिखों, जो अलग-अलग धर्म-जाति वर्ग से थे, को अमृत पिलाया। सिक्ख धर्म में खालसा पंथ के लिए ‘सिंह’ नामक उपाधि सृजत की। इस प्रकार इस शुभ दिन से ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख धर्म के साथ ही पूरे मानव समाज की धार्मिक, सामाजिक विचारधारा को नई दिशा दी।
खुशियों का त्यौहार:-
सामाजिक दृष्टि से देखें तो राज्य पंजाब देश का मुख्य कृषि प्रधान प्रांत है। जहां गेहूं की पैदावार काफी अधिक मात्रा में होती है।
अत: इस क्षेत्र के अनेक लोगों की आजीविका खेती से जुड़ी है। यही कारण है कि जब भी रबी की फसल पककर तैयार होती है, तब यहां पर उमंग और उत्साह का माहौल बन जाता है। बैसाखी पर्व पर यह सभी लोग मिलकर अच्छी फसल होने की खुशी को एक-दूसरे से बांटते हैं। इस पर्व पर भंगड़ा और गिद्दा डाला जाता है। वास्तव में इन नृत्यों के पीछे भाव यही होता है कि सालभर की कड़ी मेहनत के बाद अच्छी फसल के रूप में जो सुपरिणाम मिला, अब उसकी कटाई के बाद सारी थकान मिटाकर आने वाले मौसम के लिए तन और मन को एक नई ऊर्जा से भरा जाए। ऐसा करके वे प्रसन्नता को इस अवसर पर प्रकट करते हैं।
इस प्रकार बैसाखी मूलत:
नई फसल की कटाई का उत्सव है। समय बीतने के साथ इस पर्व के साथ धार्मिक परम्पराएं भी जुड़ गई। संभवत: इसीलिए समाज के सम्पन्न वर्ग के साथ ही कमजोर और निर्धन भी इस अवसर पर शामिल हो खुशियों का आदान-प्रदान करें। पर्व की वैज्ञानिक दृष्टि यही है कि यह पर्व अप्रैल माह में मनाया जाता है, तब समय ग्रीष्म के आगमन और शीत ऋतु की समाप्ति की ओर होता है। नार्मल तापमान होने से पेड़-पौधे फलते-फूलते हैं और प्राणी-जगत भी नई ऊर्जा से भर जाता है। यही कारण है कि देश के अलग-अलग प्रांतों में यह त्यौहार अलग-अलग रूप में मनाया जाता है।
पोणा संक्रांति:-
उड़िया समाज बैसाखी के दिन को पोणा संक्रांति के नाम से मनाता है। इस दिन दही-गुड़ से तैयार पोणा खास तौर पर बनाया जाता है। साथ ही यहां बनने वाले व्यंजनों में चावल की खीर विशेष रूप से बनाई जाती है। बैंगन, केला, आलू, कद्दू का डालमा बनाया जाता है और भगवान से पूरे वर्ष बारिश के साथ सुख-समृद्धि की प्रार्थना की जाती है।
बंगाल में नववर्ष:-
बंगाल का नया वर्ष बैसाखी महीने के पहले दिन से प्रारंभ होता है। इस दिन यहां ‘शुभो नॉबो बॉरसो’ के नाम से जाना जाता है। बंगाल में इस दिन से ही फसल की कटाई शुरू होती है। यहां के लोग इस दिन नया काम करना शुरू करते हैं। महिलाएं इस दिन घर आई नई फसल के धान से पकवान बनाती हैं।
केरल में ‘विशु’:-
भारत के दक्षिणी प्रदेश केरल में इस दिन धान की बुआई का काम शुरू होता है। इस दिन यहां ‘मलयाली न्यू ईयर विशु’ के नाम से पुकारा जाता है। हल और बैलों को रंगोली से सजाया जाता है और बच्चों को उपहार दिए जाते हैं।
असम में बिहू व तमिलनाडू में पुथांदु:-
असम के लोग इसे नए वर्ष का दिन ‘बिहू’ के रूप में मनाते हैं। बिहू के अवसर पर यहां नृत्य के साथ सार्वजनिक रूप से खुशी मनाई जाती है। तमिलनाडु के लोग नए साल की शुरूआत करते हुए, इस दिन को पुथांदु पर्व के नाम से मनाते हैं।
कश्मीर में नवरेह:-
कश्मीर में शास्त्रों में उल्लेखित सप्तऋषियों के अनुसार यह दिन नवरेह नाम से, नववर्ष के महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। यहां इस दिन लोग एक-दूसरे को बधाई देते हैं तथा हर्ष व खुशी के साथ एक-दूसरे से मिलने जाते हैं।
उगादि तिथि:-
आंध्रप्रदेश भी कृषि क्षेत्र है। इसीलिए यहां इस दिन का किसानों के लिए विशेष महत्व हो जाता है। इसे उगादि तिथि अर्थात् युग के प्रारंभ के रूप में मनाया जाता है।
महाराष्टÑ का नववर्ष:-
महाराष्टÑ में इस दिन को सृष्टि के प्रारंभ का दिन मानकर हर्षोल्लास से मनाया जाता है। मान्यता के अनुसार इस दिन से समय ने चलना शुरू किया था। यहां नववर्ष के अवसर पर श्रीखंड और पूरी बनाकर इस पर्व को मनाया जाता है। यहां इस दिन गरीबों को भोजन व दान आदि किया जाता है और घरों में बच्चे नए वस्त्र धारन करते हैं। इस प्रकार भारत के कोने-कोने में यह पर्व किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। बैसाखी जैसे पर्व भारत की संस्कृति को अखंड बनाए रखने में सहयोग करते हैं। यह पर्व भारतीयों को एकता, भाईचारे और उन्नति के सूत्र में बांधे रखने में सहायता करता है। बैसाखी क्षेत्रीय पर्व न होकर पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। -चेतन चौहान
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