डेरा सच्चा सौदा मौज मस्तपुरा धाम श्री जलालआणा साहिब
जब यहां आकर मस्त हो उठी मौज
पूजनीय परमपिता जी ने पहला टक लगाकर विधिवत रूप से सेवा कार्य शुरू करवाया। इस दौरान पूजनीय परमपिता जी के घर से गुड़ के थाल भरकर लाए गए और संगत में गुड़ का प्रसाद बांटा गया। बताते हैं कि उस दिन गांव में जितनी भी र्इंटों की भट्टियां चल रही थी, सभी ने आवे की जितनी र्इंटें थी, सबकी सब डेरा बनाने में दान कर दी।
डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में जड़ित श्री जलालआणा साहिब गांव का रुतबा बड़ा महान है। यहां की पावन धरा ने डेरा सच्चा सौदा की दूसरी पातशाही पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की जन्मस्थली होने का गौरव हासिल किया है, जो डेरा सच्चा सौदा के करोड़ों अनुयायियों के लिए वंदनीय, पूजनीय है। हालांकि इस गांव का नामकरण लगभग सवा दो सौ वर्ष पूर्व हो गया था, लेकिन इसकी सार्थकता वर्ष 1960 में तब सिद्ध हुई जब पूजनीय परमपिता जी डेरा सच्चा सौदा की गुरगद्दी पर विराजमान हुए। इस गांव का पौराणिक नाम जलालआणा है, जो खुद में एक बड़ा रहस्य छुपाए हुए है। जलालआणा यानि ‘जलाल का आणा’। जलाल अर्थात् प्रकाश या तेज का वह पुंज जिसका प्रताप पूरी दुनिया में फैला हुआ है, जिसकी हर ओर महिमा हो रही है।
सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1957 में कई बार ऐसे अलौकिक संदेश देने का प्रयास किया कि भविष्य में यह गांव तीर्थ-स्थल बन जाएगा। यहां (श्री जलालआणा साहिब) आकर मौज मस्त हो उठी। यानि खुद खुदा यहां आकर विराजमान हुए हैं। पूज्य सार्इं जी ने 18 दिन के अपने प्रवास के दौरान एक दिन डंगोरी से रास्ते के बीच गोल दायरा खींचते हुए यहां तक कह दिया था कि यह रब्ब की पैड़ है। देखने वाले बेशक इस बात को समझ नहीं पाए, लेकिन करीब 3 वर्ष बाद उसी पैड़ के धनी सरदार हरबंस सिंह जी दुनिया के सामने शाह सतनाम सिंह जी महाराज के रूप में प्रकट हुए।
श्री जलालआणा साहिब गांव की आबोहवा तब खुशियों से महक उठी जब पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने 25 जनवरी 1919 को सिद्धूवंश के जैलदार परिवार में अवतार धारण किया। बालपन की अठखेलियों की बहुत सी यादें आज भी गांव के लोगों के दिलोदिमाग में समाई हुई हैं, जिन्हें याद कर वे खुशी से उछल पड़ते हैं। परमपिता जी की जवानी का जोश भी गांववासियों ने खूब देखा है। उनके पुरुषार्थ के चर्चे आज भी चौपालों पर बुजुर्गों की जुबां पर रहते हैं। परमपिता जी नई उमंग के साथ आगे बढ़ते और लोगों को भी हमेशा यही प्रेरित करते कि जीवन आगे बढ़ने का नाम है। उनके दैनिक जीवन की डायरी में कहीं भी थकावट या आलस्य जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं था। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी कद-काठी में इतने मजबूत थे कि वे अकेले ही 5-5 लोगों के समान काम करते रहते और कभी थकावट भी महसूस नहीं करते थे।
जब डेरा सच्चा सौदा मौजमस्त पुरा धाम बनाने का सेवा कार्य चल रहा था, उन दिनों तो पूजनीय परमपिता जी पर एक अजब-सी खुमारी चढ़ी हुई थी। सेवा में दिन-रात लगे रहते। सुबह सवेरे उठना, सेवादारों को घरों से बुलाकर लाना, सारा दिन उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेवा करना। डेरा निर्माण के दौरान र्इंटें निकालने की सेवा काफी समय तक चलती रही, इस दौरान परमपिता जी स्वयं गारा बनाते और बाद में उस गारे से र्इंटें बनाने के लिए गोले भी तैयार करते। बताते हैं कि गज्जन सिंह मुनि गारे का एक गोला काटता तो उतने समय में ही परमपिता जी 5 गोले तैयार कर देते और वो भी पूरे नापतोल कर। जानकार बताते हैं कि र्इंट निकालने वाले सांचे में जो गोला डाला जाता है अमूमन उसमें गारा कम या ज्यादा होना स्वाभाविक है। लेकिन परमपिता जी गारे का जो गोला तैयार करते वह पूरा फिट बैठता था। कारीगर को उसमें कुछ भी बदलाव करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। परमपिता जी इतनी फुर्ती से कार्य करते कि देखने वाले दंग रह जाते।
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डेरा बनाने के लिए अर्ज हुई स्वीकार
अगस्त 1956 की बात है, सार्इं जी के रूहानी प्रेम की खुमारी गांव पर पूरी तरह से चढ़ चुकी थी। उन दिनों गांव के बाबा चंद सिंह, चौधरी हाकम सिंह, नंद सिंह, बाबा मक्खन सिंह, सरदार नंद सिंह, स. गज्जन सिंह मुनी, स.जगन सिंह, मोदी भावड़ा व स. गज्जन सिंह ने परम पूजनीय परमपिता जी के साथ चोरमार दरबार में जाकर पूज्य सार्इं जी की हजूरी में अर्ज की कि सार्इं जी, हमारे गांव में भी डेरा बनाओ जी। यह सुनकर सार्इं जी बहुत खुश हुए, फरमाया-‘आपको डेरा मंजूर है। जमीन बताओ, कहां पर बनाओगे?’ हालांकि इससे पूर्व पूजनीय परमपिता जी इस विषय पर काफी मंथन कर चुके थे कि डेरा कहां बनाया जाए, इसलिए अपने साथ कुछ नक्शे भी बनाकर ले गए थे। पहले माता भगवान कौर की 5 एकड़ जमीन का नक्शा दिया गया, वह जमीन गांव से कुछ दूर पूर्व दक्षिण दिशा में थी। सार्इं जी ने फरमाया, ‘‘इसके अलावा कोई और बताओ।’’ इस पर बाबा चन्द सिंह ने जगमालवाली वाले रास्ते पर गांव के बिल्कुल नजदीक अपनी 2 एकड़ 16 मरले जमीन के बारे में बताया।
यह वो जमीन थी जहां पर अब दरबार (डेरा सच्चा सौदा मौजमस्त पुरा धाम) बना हुआ है। इस जमीन के पास से नहर भी गुजरती है। सार्इं जी बोले, ‘भाई! ये जमीन ठीक है।’ पूजनीय परमपिता जी उस जमीन का नक्शा भी बनाकर साथ लाए थे। यह देखकर सार्इं जी बहुत खुश हुए। सार्इं जी ने नक्शे पर ही सारा कुछ समझा दिया कि इस जगह डेरा बनाना है, यहां गुफा तैयार करनी है और यहां इंटें निकालनी हैं। मौजूदा समय में बनी डिग्गी की जगह को चिन्हित करते हुए हुक्म दिया- यहां से गारा बनाना, जो गढ्ढा बनेगा, उसमें बाद में कच्ची डिग्गी तैयार कर लेना। पानी की सुविधा के अनुसार यही सही था, क्योंकि पास से ही नहरी खाल गुजर रहा था। साथ ही यह भी वचन फरमाए कि- भई! र्इंटें निकालने की सेवा आप सभी सेवादारों ने स्वयं करनी है, यदि किसी दूसरे से यानि पैसे देकर यह कार्य करवाओगे तो वह आपकी सेवा का फल ले जाएगा।
जब संगत के अथाह प्रेम के वशीभूत हुए पूज्य सार्इं जी
पूजनीय परमपिता जी का व्यक्तित्व हमेशा सादगी, सदाचार और सद्भावना जैसे गुणों से परिपूर्ण रहा है। गांव में हर कार्य में ग्रामीण आपजी की सहमति लिया करते थे। पूज्य सार्इं जी का गांव में सत्संग करवाने के लिए बन्ता सिंह जी महराज का, बाबा चन्द सिंह, सरदार नन्द सिंह , सरदार गज्जन सिंह मुनि, सरदार गज्जन सिंह, सरदार हाकम सिंह, सरदार मक्खन सिंह, शेर राम, उधम सिंह, सरदार धन्ना सिंह आदि पूजनीय परमपिता जी से सलाह लेने पहुंचे। इस पर पूजनीय परमपिता जी ने उनका खूब हौंसला बढ़ाया और सत्संग के लिए सार्इं जी के पावन चरणों में अर्ज करने की बात समझाई। सभी सत्संगी उत्साह के साथ पूज्य परम पिताजी को साथ लेकर सरसा दरबार पहुंचे। यहां पता चला कि सार्इं जी तो महमदपुर रोही में हंै। प्रेम इतना उमड़ा था कि ये सत्संगी भाई वहां जा पहुंचे।
लेकिन जैसे ही गांव में दाखिल हुए तो पता चला कि सार्इं जी ने मौन धारण किया हुआ है। मौन के दौरान सार्इं जी एकांतवास में ही रहते थे। गांववालों ने सलाह दी कि आप यहीं से वापिस लौट जाओ। यह सुनकर संगत मायूस सी हो गई, परन्तु उसी समय पूजनीय परमपिता जी ने हौंसला देते हुए कहा-अपने सारी संगत गांव में से जोर-जोर से ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ के नारे बोलते चलेंगे। पूरे गांव में नारे गूंजने लगे, जब संगत महमदपुर रोही दरबार में पहुंची तो पूज्य सार्इं जी पहले ही गुफा से बाहर आकर खड़े हो गए थे। पूजनीय परमपिता जी ने गांव में सत्संग फरमाने की अर्ज की तो सार्इं जी ने तुरंत मंजूर करके 16 मार्च (सन् 1955) का दिन निश्चित कर दिया।
संगत खुशी में झूमती हुई वापिस श्री जलालआणा साहिब लौट आई। पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने स्कूल में पहला सत्संग लगाया। उस दिन सार्इं जी का उतारा पूजनीय परमपिता जी की हवेली के चौबारे में था। सार्इं जी ने दिन और रात के दो सत्संग फरमाए और हवेली में ही नाम की इलाही दात प्रदान की। उस दिन बन्ता सिंह महराज का, सरदार शाम सिंह व श्री चंगा राम जी पुत्र स. बाबा चन्द सिंह सहित करीब 45 जीवों ने नाम की दात प्राप्त की थी। उन दिनों सार्इं जी नाम दान देने से पूर्व जामनी लिया करते थे। सार्इं जी ने पूजनीय परमपिता जी की तरफ इशारा करते हुए वचन फरमाया, ‘भाई सरदार हरबंस सिंह जी! आप इन सब जीवों के जामन हैं।’ पूजनीय परमपिता जी ने अर्ज की, सार्इं जी! आपजी ने इन्हें नाम देना है और आप जी ने स्वयं ही इन्हें संसार-सागर से पार लंघाना है फिर हम जिम्मेवार कैसे हुए जी?’ सार्इं जी ने फिर फरमाया, ‘नहीं भाई! आप ही इनके जिम्मेवार हैं। यहां के भी और अगले जहान के जिम्मेवार भी आप ही हैं।’
जब सार्इं जी के स्वागत में नंगे पांव दौड़ पडेÞ गांववासी
सन् 1957 की बात है, मौज मस्तपुरा धाम करीब-करीब बन चुका था। पूजनीय परमपिता जी ने साथी हाकम सिंह को कहा कि चलो सरसा डेरा में चलते हैं। डेरे में पहुंचकर अर्ज की गई कि सार्इं जी डेरा बनकर करीब तैयार है, आपजी पावन चरण टिकाओ जी। सार्इं जी ने फरमाया- ‘वरी! आज ही चलेंगे।’ इसके बाद परमपिता जी ने हाकम सिंह को साइड में लेकर बताया कि हम सार्इं जी के साथ जीप पर आएंगे, आप गांव में जाकर तैयारी करवाओ और वापस कैसे जाना है, यह भी समझाया। साथ ही गांव के कई लोगों के नाम भी गिनवाए कि इनको भी बता देना।
हाकम सिंह दरबार से शहर होते हुए किसी तरह ओढां तक आ गया। श्री जलालआणा साहिब की ओर आने वाला रास्ता कच्चा था, सो पैदल ही वहां से दौड़ते हुए करीब 12 बजे गांव आ पहुंचा। जैसे ही गांव में इंटर करने लगा तो पूजनीय परमपिता जी द्वारा बताए हुए पूजनीय माता आस कौर जी, माता सदा कौर, माता धनकौर, लाजवंती व चंद सिंह आदि के घरों में बताना शुरू कर दिया कि सार्इं मस्ताना जी महाराज आज गांव में बने डेरे का मुहूर्त करने पधार रहे हैं। जैसे ही यह खबर गांव में फैली तो लोगों ने आव देखा ना ताव, नंगें पांव ही उस साइट की ओर दौड़-पड़े, जिधर से सार्इं जी ने आना था। जैसे ही सायं के 4 बजे, मानो पूरा गांव ही दक्षिण दिशा में गांव के प्रवेश मार्ग पर आ खड़ा हुआ।
पूज्य सार्इं जी जब डेरे में पधारे तो बैंड-बाजों से स्वागत किया गया, रास्ते पर कपड़े बिछाए गए थे। सार्इं जी यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए, लेकिन रास्ते पर बिछे कपड़ों को साइड में करवाते हुए फरमाया-‘वरी! यह ठीक नहीं है।’ सार्इं जी ने बैंड-बाजे वाले सेवादारों को सिक्कों के रूप में 5-5 रुपये देकर खुशियों से मालामाल कर दिया।
हाकम सिंह चौधरी के 75 वर्षीय पुत्र सुखराज सिंह बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी ने उस दिन ग्रामीणों के प्रेम-भाव को देखते हुए डेरे का नाम ‘डेरा सच्चा सौदा मस्तपुरा धाम’ रखा था। उधर डेरे में उस दिन दूध बड़ी मात्रा में आया। जब सेवादारों ने पूछा कि सार्इं जी, इतना दूध इकट्ठा हो गया है कि संभाले नहीं संभल रहा, इसका क्या करें? तो सार्इं जी ने फरमाया- ‘वरी! तुम गांव में मांगने तो नहीं गए ना?’ नहीं, जी। ‘तो ऐसा करो, इस दूध में चावल डाल दो और खीर बनाकर सबको खिला दो।’ सारी संगत को खीर खिलाई गई।
सार्इं जी 18 दिन गांव में ठहरे, कई निराले चोज दिखाए
सार्इं मस्ताना जी महाराज जब दूसरी बार श्री जलालआणा साहिब में पधारे तो यहां 18 दिन तक ठहरे। इस दौरान सार्इं जी ने कई लीलाएं दिखाई, जो शायद दुनियादारी के लोग समझ नहीं पाए। इस प्रवास के दौरान ही सार्इं जी ने डेरा में कई निर्माण कार्याें को अंतिम रूप दिया। दरबार में बनी मीनाकारी भी स्वयं की देखरेख में करवाई।
बताते हैं कि उन दिनों मिस्त्री राम सिंह कोहढ़ी व नारायण सर जो दोनों भाई थे, ने गुफा बनाई और उसकी ऊपरी दीवारों पर दो शेर व काल का एक बुत भी तैयार किया। यह भी बताते हैं कि राम सिंह को कोहढ़ की बीमारी थी, जिसके चलते वह बहुत परेशान रहता था। जब वह पहली बार दर्शन करने पहुंचा तो सार्इं जी ने पूछा- ‘वरी! तेरे को ये क्या हुआ है?’ उसने बताया कि बाबा जी, मुझे कोहढ़ हो गया है। मैं बहुत दुखी हूं, मन करता है कि आत्महत्या कर लूं। सार्इं जी ने फरमाया- ‘जाओ, उस डिग्गी में नहा लो।’ उसने वैसा ही किया। तो हर किसी के हैरानी की हद ना रही। उसी क्षण वह खुद को स्वस्थ महसूस करने लगा। बताते हैं कि कुछ दिनों के बाद उसके जख्म ठीक हो गए।
उसके बाद वह दरबार में रहकर सेवा करने लगा था। वहीं नारायण सर भजन मंडली में सेवा करता था। उनके बाप नेकी राम ने भी सार्इं जी से नामदान लिया हुआ था। बताते हैं कि राम सिंह की खुराक बहुत ज्यादा थी। डेरा बनाने की सेवा के दौरान एक दिन वह 13 लोगों के हिस्से का भोजन अकेला खा गया। सेवादारों ने यह बात सार्इं जी को यह सोचते हुए बताई कि उसे डांट पड़ेगी। सार्इं जी ने सभी सेवादारों को पास बुलाया और राम सिंह को खड़ा करके कहने लगे- ‘देखो वरी! ऐसे हैं हमारे सेवादार, जो इतनी भूख को रोक कर 18-18 घंटे सेवा करते हैं, सिर्फ सतगुर को पाने के लिए।’ सार्इं जी की यह दयालुता देखकर वहां मौजूद सेवादार बड़े खुश हुए और शुक्राना अदा करने लगे।
‘देखो भई! मुलक माही दा वस्से। कोई रोवे ते कोई हस्से।।
एक दिन सार्इं जी शीशम के पेड़ के नीचे कुर्सी पर विराजमान थे। एकाएक वचन फरमाया, ‘देखो भई! मुलक माही दा वस्से। कोई रोवे ते कोई हस्से।। आनन्दपुर रोवे ते मस्तपुरा हस्से।।’ सार्इं जी ने पूजनीय परमपिता जी को पास बुलाकर हुक्म फरमाया, ‘सरदार हरबंस सिंह जी! आप गदराना डेरे को ढहा कर उसका सारा सामान र्इंट, रोडा, काठ-कड़ी आदि सब यहां डेरे (मस्तपुरा धाम) में उठा लाओ।’ पूजनीय परमपिता जी अपने साथ करीब 7 सेवादारों को लेकर वहां पहुंचे और स्वयं अपने हाथों से सबलों के द्वारा मकान ढहाकर सारा सामान यहां श्री जलालआणा में भेजने लगे।
सेवादार ऊंटों से वह सामान यहां लाकर ढेर लगाए जा रहे थे। उन दिनों चोरमार का डेरा भी ढहा दिया गया था, जिसका सामान भी यहां पहुंच रहा था। सार्इं जी ने सेवादारों को पास बुलाकर फरमाया- ‘वरी! ऐसा करो, यह सारा सामान घूकांवाली डेरा में पहुंचा दो।’ इस दौरान गज्जन सिंह मुनी, चंद सिंह, बंता सिंह सहित बड़ी संख्या में सेवादारों ने वह सामान लादकर घूकांवाली की ओर भेजना शुरू कर दिया। जब यह बात परमपिता जी तक पहुंची तो परमपिता जी उसी दरमियान यहां डेरे में पहुंचे और गांव के सेवादारों से बड़ा नाराज हुए कि आपने ये क्या किया? इतनी मुश्किल से सामान उखाड़ कर लाए हैं और तुुम उसकी संभाल भी नहीं कर पाए?
सेवादारों ने बेबसी जताते हुए बताया कि यह तो पूजनीय सार्इं जी का हुक्म है, इसमें हम क्या कर सकते हैं? परमपिता जी ने कहा- ‘ओये गुरमुखो! बच्चा माँ दे कोल रो तां सकदा है! रोन दा तां फर्ज बनदा है! अर्ज तां करदे।’ जब यह बात सार्इं जी तक पहुंची कि सरदार जी सेवादारों को डांट रहे हैं तो वहां आकर फरमाया- ‘यह सब हुक्म में हो रहा है।’ इस पर परमपिता जी ने सत्वचन मानते हुए हुक्म-ए-हजूर को सजदा किया। बता दें कि गदराना गांव में बने डेरे को ढहाने से पूर्व पूज्य सार्इं जी ने उसका नाम डेरा सच्चा सौदा आनंदपुर धाम रखा था।
‘मक्खियां सब टल गई हैं, आओ भई!
सार्इं मस्ताना जी महाराज ने अपने दो सप्ताह के प्रवास के दौरान श्री जलालआणा साहिब गांव को बेशुमार प्यार लुटाया। सार्इं जी गांव के सेवा एवं समर्पण भाव को देखकर बहुत खुश हुए। शहनशाह जी ने एक दिन सायं हुक्म फरमाया, ‘भाई! असीं मौन में रहेंगे। बाहर नहीं आएंगे। आगे दरवाजे में तैयार रहना।’ उस दौरान कई प्रेमी वहां मौजूद थे, परन्तु उनमें से कई यह कहते हुए घर को निकल लिए कि बाबा जी तो आज बाहर नहीं आएंगे। रात्रि के बारह बजे होंगे, धीरे-धीरे गुफा का दरवाजा खुला। ड्यूटी वाले सेवादारों ने मूढा सजा दिया और पास ही तसले में आग डाल कर रख दी।
सार्इं जी ने फरमाया, ‘मक्खियां सब टल गई हैं। आओ बई! आज तुम्हारे नाम रखेंगे। यहां के नहीं, सतलोक के रखेंगे।’ पूज्य शहनशाह जी ने बाबा चन्द सिंह जी का नाम ‘मैनेजर’, बन्ता सिंह जी का नाम ‘लाट साहिब’, हाकम सिंह का ‘चौधरी’, हाकम सिंह माली का ‘थानेदार’, बिशन भावड़ा का ‘मोदी’, गज्जन सिंह का ‘वायसराय’, सज्जन सिंह जी का ‘माल अफसर’, बाबा मक्खण सिंह का ‘शेर राम’, राजा राम का ‘मुख्तायार’, नन्द सिंह का ‘एस.डी.ओ.’, शाम सिंह जी का ‘डिप्टी कुलैक्टर’, जगन सिंह का ‘डी.सी.’ और सरदार मल्ल सिंह का नाम ‘प्लैटीकल’ रखते हुए सभी को इलाही खिताबों से नवाजा।
‘असीं मौन में हैं! मौन तां असीं वी रखना है!!’
रूहानी ताकत का कभी बंटाधार नहीं होता, क्योंकि वह धुरधाम से जुड़ी होती है। पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज का श्री जलालआणा साहिब में आकर सत्संग लगाने का विशेष मनोरथ था। यहां प्रवास के दौरान सार्इं जी ने बहुत से ऐसे विचित्र खेल रचे जिससे यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि पूज्य सार्इं जी खुद को हमेशा पूजनीय परमपिता जी में महसूस करते थे और बातों-बातों में बहुत कुछ समझा भी जाते।
एक दिन सार्इं जी ने फरमाया, ‘भई! असीं मौन में हैं।’ इसके कुछ दिन बाद सार्इं जी डेरे के अन्दर आंगन में कुर्सी पर विराजमान थे। सेवादार मक्खन सिंह ने विनती की कि बाबा जी! सरदार हरबंस सिंह जी कहते हैं कि मौन तां असीं वी रखना है ते गुफा ’च बैठ के भजन-सुमिरन करांगे। इस पर सार्इं जी ने कड़क आवाज में फरमाया, ‘इनको पूछो, मौन क्या होता है? इश्क समझीं मखौल ना, सौदा न समझीं बाजार दा। सीस देना पड़ेगा। मगर कोई इकरार नहीं दर्शन होवे या ना होवे। अगर सतगुरु मालिक के दर्शन करने हैं तो आओ मैदान में। पुत्र, धीयां, जायदाद, माल डंगर का मान छड्डो’। अपनी बाडी की तरफ इशारा करते हुए फिर फरमाया- ‘अभी अन्दर से दर्शन कराएंगे। अगर दर्शन न हुए तो शीश कट लेना।’
संगत इतनी हो जाएगी कि संभाले नहीं संभलेगी
सार्इं जी ने डेरा सच्चा सौदा मस्तपुरा धाम में संगत को रहमतें लुटाते हुए फरमाया कि आपके गांव में इतनी संगत हो जाएगी कि संभाले नहीं संभलेगी। लेकिन मान-बढ़ाई से बचकर रहना। यहां की संगत को संगत ही संभालेगी। सब काम मौके पर ही कर लिया करेगी। संगत के लिए जब लंगर बना करेगा तो उसमें सवा मन नमक डला करेगा। दूर-दूर से संगत आकर इस गांव को सजदा करेगी।
यह गांव तीर्थ स्थल बन जाएगा। बता दें कि यह वचन 1957 के आस-पास हुए थे, लेकिन 1960 के बाद जब परमपिता जी दूसरी पातशाही के रूप में विराजमान हुए तो यह गांव डेरा सच्चा सौदा के इतिहास में अति वंदनीय हो गया। जब पूजनीय परमपिता जी रहबर बनकर इस गांव में पधारे तो बड़ी संख्या में संगत दर्शनों को उमड़ पड़ी। तीसरी पातशाही के रूप में पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने जब यहां पहली बार सत्संग लगाया तो संगत का समुद्र उमड़ पड़ा था। दर्जनों बड़े-बड़े कड़ाहों में दाला बनाया गया था यानि सवा मन नमक डलने वाली बात सच हो गई।
कहते हैं कि सार्इं जी ने एक दिन दोपहर को हुक्म फरमाया कि ‘भई, आज मेसू (मिठाई) बनाना है।’ उन्हीं दिनों सत्संगी भाई चंद सिंह जी की बेटी की शादी हुई थी। शादी वाले घर में मिठाई बनाने का काफी सामान बचा हुआ था, तो जैसे ही हुक्म हुआ सेवादार वह सामान दरबार में ले आए। उन दिनों मोहन लाल हलवाई हुआ करता था जो सार्इं जी का मुरीद भी था। उसने वह मिठाई तैयार कर दिया। शाम को जब सार्इं जी की हजूरी में वह मैसू संगत में बांटी गई तो बेपरवाह जी ने खुश होते हुए फरमाया- ‘भई, ऐथों दी संगत बड़ी मस्त है।
मौके पर ही सब काम कर लिया करेगी।’ सेवादारों का कहना था कि यहां दरबार में हर कार्य अचानक ही हो जाता है, उसकी पूर्व में कोई तैयारी नहीं की जाती। यह सब सार्इं जी के वचनों का ही कमाल है। इसी तरह ही सार्इं जी ने एक दिन गुफा के सामने एक टाहली (शीशम) का पौधा लगवाते हुए वचन फरमाया- ‘वरी! यहां पहरेदार बैठा करेंगे।’ वह पेड़ आज भी दरबार में वहीं खड़ा है, जिसकी छांव में अकसर पहरे वाले सेवादार बैठते हैं।
वरी! दूध से तेरे निंदक भाई का ख्याल आ रहा है
सार्इं जी ने एक दिन चौबारे के द्वार में खड़े होकर सेवादार को आवाज लगाई कि वरी! गाय का दूध लेकर आओ, दूध पीने की इच्छा हो रही है। वह सेवादार अपने घर गया, सायं को ही दूध लेकर आ गया। सुबह फिर दूध ले आया। जब तीसरे पहर दूध लेकर आया तो सार्इं जी ने फरमाया- ‘वरी! यह दूध नहीं पीयेंगे, तेरा भाई निंदक है, इसमें उसका ख्याल आ रहा है।’ दरअसल उस गाय के लिए हरे-चारे की व्यवस्था करने के लिए उसका भाई ऊंट पर घूमते हुए खेतों से बेल खोदकर लाता था। जब सार्इं जी के लिए दूध लेकर आते तो उसके मन में ख्याल आया कि सारा दिन तो मैं घूमता रहता हूं और दूध ये (भाई) लेकर चलता बनता है। अंतर्यामी दातार जी ने उसकी नकारात्मक सोच को दूर बैठे-बैठे ही महसूस कर लिया और वह दूध लौटा दिया।
जब सार्इं जी ने लगाया कंकरीट का सिरहाना
सार्इं जी के चोज बड़े निराले थे, अकसर वे ऐसे खेल करते कि लोगों के लिए वह हैरत का विषय बन जाता। बताते हैं कि जब सार्इं जी गांव में पधारे हुए थे तो उन दिनों दरबार के पास से गुजरती नहर पर पुल बन रहा था। वहां र्इंटों को तोड़कर रोड़ी (छोटे टुकड़े) बनाई गई थी, सार्इं जी ने वह रोड़ी मंगवाकर उसे सीमेंट के खाली गट्टे में भरवाकर अपने विश्राम स्थल पर रखवा दिया। बाद में सार्इं जी उस गट्टे (थैले) को सिरहाने के तौर पर प्रयोग करने लगे। मौजूदा समय में भी वह गट्टा धाम में सेवादारों ने बतौर शाही निशानी के रूप में संभाल कर रखा हुआ है। बताते हैं कि एक बार कोई सत्संगी भाई उन कंकरीटनुमा रोड़ी में से कुछ कंकर उठाकर अपने घर ले गया था, लेकिन एक साल बाद वापिस लौटा गया कि जब से वह यह रोड़ी लेकर गया है, घर में सबको बैचेनी सी महसूस हो रही है।
जब मौज में आकर दरबार का नाम रखा मौज मस्तपुरा धाम
धाम का निर्माण कार्य उस दिन पूरा हो चुका था। पूज्य सार्इं जी ने वापस जाने से पूर्व पूजनीय परमपिता जी को पास बुलाकर फरमाया- ‘भई! आपके गांव से जिस किसी ने भी यहां दरबार बनाने में सेवा की है, उन सबको यहां बुला लो, उन सभी को हम प्रेम निशानियां देना चाहते हैं।’ उस समय परमपिता जी गांव के मुख्य सेवादार थे, इसलिए उनकी इच्छा थी कि कोई भी सेवादार रह ना जाए। गांव के हर उस व्यक्ति तक संदेश पहुंचाया गया, जो सेवा में रहा। यहां तक कि स्कूल के उन बच्चों को भी बुलावा लिया, जिन्होंने सार्इं जी के संदेश (धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा) को गली-गली में पहुंचाया था। पूजनीय परमपिता जी ने संगत को समझा दिया कि सबने सार्इं जी से उनका प्रेम ही मांगना है।
सायं करीब 4 बजे सार्इं जी गुफा से बाहर आए तो सारी संगत ने हाथ जोड़कर अर्ज की कि सार्इं जी, हमें तो आपका प्रेम चाहिए, और कुछ लेने की इच्छा नहीं है। इस पर सार्इं जी बोले- ‘यहां से हम चोरमार जा रहे हैं, वहां सेवादारों को दातें देंगे, फिर आपका मन मरोड़ा खाएगा कि हमें क्यों नहीं मिला। ’ संगत ने फिर से वही बात दोहराई कि नहीं सार्इं जी, हमें तो बस आपका प्रेम चाहिए। सार्इं जी यह देखकर बहुत खुश हुए, फरमाया- वाह भई! इस गांव का प्रेम वास्तव में बड़ा ही जबरदस्त है। यह मौज मस्त हो उठी। सेवादार बंता सिंह के 60 वर्षीय भतीजे नछत्र सिंह बताते हैं कि उस दिन सार्इं जी बहुत ही प्रसन्न हुए और उसी समय डेरे का नाम बदलते हुए डेरा सच्चा सौदा मस्तपुरा धाम से ‘मौज मस्तपुरा धाम’ रख दिया। वे बताते हैं कि इस दौरान सार्इं जी ने और भी बहुत से वचन फरमाये कि यह डेरा के रूप में आपके लिए एक थाना बनाकर जा रहे हैं, यहां मन को नकेल डलेगी। यहां जब भी आओगे तुम्हें सतगुरु की याद आएगी। यदि तुम यहां डेरे में आकर बैठोगे, लेटोगे या आकर सो भी गए तो भी तुम्हारा सुमिरन बनेगा।
जब सार्इं जी ने मंगवाई थी लाल रंग की बही
सार्इं जी अकसर अपनी बातों में पूजनीय परमपिता जी का जिक्र करते रहते। एक दिन सार्इं जी ने पूजनीय परमपिता जी को स्पेशल कहकर उनकी लाल रंग की बही मंगवाई और दरबार में पूर्व दिशा की ओर दोनों एकांत में जाकर काफी लंबे समय तक मंत्रणा करते रहे। वापिस आकर सार्इं जी ने फरमाया- ‘सरदास हरबंस सिंह, हमने आपका इम्तिहान लिया, लेकिन आपको पता भी नहीं चलने दिया।’ अगली सुबह फिर सार्इं जी नहर के साथ पश्चिम दिशा की ओर काफी दूर तक पूजनीय परमपिता जी को साथ लेकर चलते रहे और गंभीरता से काफी कुछ समझाते भी रहे। बूटा सिंह मुनि बताते हैं कि यह दृश्य बहुत से सेवादारों ने देखा था, लेकिन दोनों रूहानी बॉडियों में क्या वार्तालाप हुआ यह कोई नहीं जानता। दरअसल यह रूहानी मिलन ही था जो इतनी शिद्दत से चर्चा हो रही थी।
सतगुरु के हाथ बहुत लम्बे हैं!
सार्इं जी, एक बार मजाकिया लहेजे में परमपिता जी के लंगोटिया यार मक्खन सिंह (शेर सिंह) से पूछने लगे कि सुना है कि सरदार जी (पूजनीय परमपिता जी को प्यार से लंबू या सरदार जैसे नामों से पुकारते थे) के पास बहुत पैसे हैं। बताओ कितने पैसे हैं? तो उसने बताया कि इनके पास 40 हजार रुपये नकद हैं जी। सार्इं जी ने फिर फरमाया- ‘ये पैसा तो लेंगे इनसे!’ सेवादार बोला- सार्इं जी, ये बहुत सूम (कंजूस) हैं, लगता नहीं कि ये कुछ दे देंगे। ‘भाई! सतगुरु के हाथ बहुत लम्बे हैं, ले लेंगे। फिक्र ना कर, तू खुद देखेगा!’ समय गुजरा, सार्इं जी ने चोज खेला। एक समय ऐसा भी आया जब पूजनीय परमपिता जी को हुक्म हुआ कि अपने घर की सूई से लेकर बडेÞ से बड़ा सामान यहां दरबार (सरसा) में लेकर आओ। परमपिता जी ने झट से शाही वचनों को पूरा किया और सामान का ढेर लगा दिया।
सार्इं जी ने पूछा- ‘यह सामान किसका है भई!’ परमपिता जी कहने लगे- ‘साईं जी, यह सब आप ही का तो है।’ कहते हैं कि उस दौरान सार्इं जी ने सेवादार मक्खन सिंह को बुला लिया और कहने लगे- ‘हां भई! तू तो कह रहा था कि ये सूम हैं, अब बता?’ इस पर सेवादार मक्खन सिंह ने कान पकड़ लिये और माफी मांगने लगा।
पूजनीय परमपिता जी ने लगाया पहला टक, गुड़ से करवाया था मुंह मीठा
डेरा बनाने की बख्शिश पाकर सेवादार खुशी-खुशी गांव लौटे और संगत तक यह बात पहुंचाई, जिससे गांव में बड़ा उत्साह पैदा हो गया। सेवादार भाइयों ने तैयारी शुरू कर दी, सामान इकट्ठा किया जाने लगा। तत्कालीन सेवादार स. गज्जन सिंह मुनि के 73 वर्षीय पुत्र बूटा सिंह बताते हैं कि उस दिन डेरा बनाने की शुरूआत को लेकर तैयारी पूरी हो चुकी थी, अब बात आई कि नींव के लिए पहला टक किससे लगवाया जाए? गांववासियों ने एकसुर में कहा कि यह नेक कार्य स. हरबंस सिंह (पूजनीय परमपिता जी) से ही करवाया जाए।
पूजनीय परमपिता जी ने पहला टक लगाकर विधिवत रूप से सेवा कार्य शुरू करवाया। इस दौरान पूजनीय परमपिता जी के घर से गुड़ के थाल भरकर लाए गए और संगत में गुड़ बांटा गया। बताते हैं कि उस दिन गांव में जितनी भी र्इंटों की भट्टियां चल रही थी, सभी ने आवे की जितनी इंटें थी, सबकी सब डेरे के लिए दे दी। उधर सेवादारों ने र्इंटें निकालने के लिए गारा भी बना लिया, लेकिन एक समस्या आन खड़ी हुई थी कि र्इंटें कैसे निकालनी हैं यह कोई नहीं जानता था। काफी प्रयास भी किया गया, लेकिन र्इंटें निकालने की विधि न आने के कारण र्इंटें सही नहीं बन पा रही थी।
अगली सुबह सेवादार फिर चोरमार जा पहुंचे और अर्ज की कि सार्इं जी, हमें तो र्इंटें निकालना ही नहीं आता। अगर आप आज्ञा दें तो एक मिस्त्री भाई को साथ लगा लें। इस पर सार्इं जी ने काफी विचार करते हुए फरमाया- चलो भई एक मिस्त्री (र्इंट बनाने वाले सांचे की जानकारी रखने वाला) साथ ले लेना। लेकिन बाकि सारा काम खुद करना है। बूटा सिंह बताते हैं कि जितने दिन सेवा चलती रही, पूजनीय परमपिता जी ने कभी संगत का हौसला कम नहीं होने दिया।
सुबह जल्दी उठते और नहा-धोकर पहले सेवादारों को घर-घर जाकर उन्हें उठाते और फिर उन्हें एकत्रित करने के लिए जोर से आवाज लगाते कि ‘आजो…आजो…आजो।’ उस समय लाऊड स्पीकर की सुविधाएं नहीं होती थी, ऊंची आवाज से घरों तक संदेश पहुंचाया जाता था। पूजनीय परमपिता जी स्वयं सिर पर साफा (पटका) बांधकर गारे में उतर जाते और इस गति से कस्सी चलाते कि देखने वाले दंग रह जाते। दिन के समय ईटें निकाली जाती और रात को सारी संगत नीवों की खुदाई और कुटाई करती। बूटा सिंह बताते हैं कि इस सेवा में माता-बहनों की भी बड़ी भूमिका रही।
पूजनीय परमपिता जी के पूजनीय माता आस कौर जी, बाबा चंद सिंह जी के माता सतनाम कौर जी, माता धन्नो व माता निहाल कौर ने लिपाई के समय भरपूर सेवा की थी। खुदाई कर जमीन में शहनशाही गुफा तैयार की गई। बाद में उसके आगे एक बरामदा, ऊपर एक छोटा सा चौबारा और ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बनाई गई। छोटी-छोटी 6 कोठरियां अन्दर की तरफ से कच्ची तथा बाहर से पक्की ईंटों की चिनाई करके (गलेफीदार) तैयार कर दी गई। जिक्रयोग्य बात यह भी है कि कच्ची पौड़ियां, गलेफीदार गुफा आज भी ज्यों की त्यों खड़ी है।
जब सार्इं जी ने फरमाया- ‘‘वरी! ये जलालआणा का डेरा ढहाना है!!’’
जब श्री जलालआणा साहिब का डेरा तकरीबन बनकर तैयार हो गया तो सार्इं जी ने अचानक सेवादारों को अपने पास बुलाया। सार्इं जी फरमाने लगे- वरी! ये डेरा ढहाना है। यह सुनकर पूजनीय परमपिता जी का वैराग्य छलक आया। अर्ज की कि- सार्इं जी, यह डेरा मत ढहाओ जी। उधर से सेवादार मक्खन सिंह झट से बोल पड़ा कि सार्इं जी ढहा देते हैं। यह देखकर सार्इं जी एक साखी सुनाने लगे कि एक बार एक राजा के दरबार में दो महिलाओं में एक बच्चे को लेकर विवाद हो गया कि यह बच्चा किसका है? दोनों अपने-अपने दावे जता रही थी कि यह बच्चा उसका है।
राजा ने वजीर को बुलाया और कहा कि इस विवाद का क्या हल निकाला जाए? वजीर बोला- महाराज, बड़ा आसान तरीका है। उसने महिलाओं को कहा कि सच-सच बताओ कि यह बच्चा किसका है? लेकिन वे फिर भी अपनी बात पर अड़ी रहीं। आखिर वजीर ने कहा कि ऐसा करते हैं इस बच्चे को आधा-आधा कर दोनों में बांट देते हैं। इस पर एक महिला बोली- नहीं महाराज, ऐसा मत करना, यह बच्चा दूसरी औरत को दे दो।
यानि उसकी ममता जाग उठी। वह अपने जिगर के टुकड़े को टुकड़ों में बंटते हुए नहीं देख सकती थी। सार्इं जी ने फरमाया-वरी! ऐसे तरहां ही सरदार हरबंस सिंह को दर्द हो रहा है डेरा ढहाने वाली बात से। इनकी मेहनत व पैसा लगा हुआ है। लेकिन मक्खन सिंह का इसमें आना खर्च नहीं हुआ तभी उसने झट से हां कर दी। चलो, फिर इस डेरे को नहीं ढहाते।
पाकिस्तान से बिछड़ी थी रूह, सार्इं जी ने स्पेशल बुलाकर दिया ‘नाम’
संत-सतगुरु जिसकी बांह पकड़ लेते हैं, उसे कभी भवसागर में भटकने नहीं देते। ऐसे ही नजारे के साक्षी रहे पूर्व सरपंच जमनादास इन्सां बताते हैं कि उनकी दादी लक्ष्मी रानी ने सन् 1942 में पूजनीय बाबा सावण शाह जी महाराज से पाकिस्तान के शहर मिंटगुमरी में नामदान लिया था। उस दौरान मेरे पिता मोहन सिंह की उम्र छोटी थी।
शायद पूजनीय बाबा जी की उन पर दया दृष्टि रही, जो पूजनीय सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1957 में श्री जलालआणा साहिब में स्पेशल बुलाकर नामदान देकर उद्धार किया। वे बताते हैं कि उनका परिवार पिल्ला गुलाबी श्यों वाला गांव में रहता था, लेकिन बंटवारे के बाद जलालाबाद में आ गया। वहां से श्री जलालआणा साहिब आ पहुंचे। जब सार्इं जी गांव में दूसरी बार सत्संग करने पधारे तो एक रात सेवादारों को हुक्म फरमाया, ‘लाओ भई! अभी जाकर गांव से एक रूह को लेकर आओ, उसे जरूर नाम देना है।’ रात्रि का करीब एक बजा था।
प्रेमी बन्ता सिंह तथा गज्जन सिंह गांव में गए और मोहनलाल अरोड़ा को घर से लेकर आए। पूज्य सार्इं जी ने मोहन लाल को रात्रि में ही तम्बू में बैठाकर नाम की इलाही दात प्रदान की और वचन फरमाया, ‘भाई! यह एक स्पैशल नाम है। मालिक का जो हुक्म था, वह पूरा हो गया है।’
शेष अगले अंक में।