यहां दुनिया दर्शन करने आया करेगी! डेरा सच्चा सौदा दर्शनपुरा धाम गंधेली, जिला हनुमानगढ़ (राज.)
रेत के टीलों के बीच बसा गांव गंधेली नव अंकुरित फूल की मानिंद रूहानियत की खुश्बू बिखेरता प्रतीत होता है। यह गांव रंग-रंगीले राजस्थान की शान में दो बामणी के नाम से शुुमार है।

पूज्य सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज के इलाही वचनों से यहां डेरा सच्चा सौदा दर्शनपुरा धाम बनाया गया है, जो डेरा प्रेमियों की अटूट श्रद्धा, दृढ़ विश्वास और सहनशीलता का प्रतीक है। इस दरबार का इतिहास बड़ा ही रोचक है, जो डेरा प्रेमियों के अपने सतगुरु के प्रति अडोलता एवं पूर्णत: समर्पण की जीवंत कहानी बयां करता है।


सन् 1957 की बात है, एक दिन मुख्तयार सिंह, मल सिंह, जोगिंद्र सिंह, सम्पूर्ण सिंह, नत्था सिंह, टिक्का सिंह, बहन जंगीर कौर, गुरनाम कौर सहित करीब हम 15 लोग डेरा सच्चा सौदा दरबार में पहुंचे और पूजनीय शाह मस्ताना जी महाराज के चरण कमलों में अर्ज की कि शहनशाह जी हमारे गाँव गंधेली में भी डेरा बनाओ। यह सुनकर सार्इं जी एक बार चुप्पी साध गए। दोबारा अर्ज करने पर फरमाया-‘भई सोचेंगे!’ यह सुनकर सभी सत्संगियों को लगा कि उनकी दरबार की रीझ शायद पूरी नहीं होने वाली है।

जीवन के 102 बसंत देख चुके मुख्त्यार सिंह इन्सां बताते हैं कि वह समय हमारे लिए बड़ा ही कष्टदाई था, क्योंकि सभी हंसी-खुशी यह सोचकर आए थे कि गांव में दरबार बनाने की अर्ज तो अवश्य मंजूर हो जाएगी। लेकिन उम्मीदों के अनुरूप ऐसा कुछ नहीं हुआ। कुछ देर बाद गांव की संगत दरबार में ही एक साइड में जमीन पर तिरपाल बिछा कर बैठ गई। सबके चेहरों पर मायूसी इस कदर झलक रही थी जैसे प्राणों के बिना यह शरीर बेरंग हो जाता है। कई सत्संगियों की आंखों में से तो आंसू भी बह रहे थे। यह पूरा वाक्या एक सेवादार दूर बैठा देख रहा था। यह देखकर उसका मन भी पसीज उठा।

उस सेवादार ने पूज्य सार्इं जी के पास जाकर बताया- सार्इं जी, वे लोग तो रो रहे हैं! यह सुनकर सार्इं जी ने एकाएक वचन फरमाया- ‘अरे क्या मार पड़ी है उनको! बुलाओ उनको।’ हमें बुलाया गया। पूछा- ‘हां भई! क्यों रोते हो? कैसे रोते हो?’ बाबा जी हम सब गरीब आदमी हैं, आपके हुक्म पर ही उस गांव में जमीन खरीदी है, आपके लिए ही दरबार की जगह चिन्हित की है, अब रोयें ना तो और क्या करें? हमारे पास और क्या है? यह सुनकर सार्इं जी ने फरमाया- ‘अच्छा, यह बात है! आपको दर्शनपुरा धाम देंगे। दुनिया यहां दर्शन करने आया करेगी।

’ जब सार्इं जी ने यह वचन किए तो वहां मौजूद कुछ सेवादारों ने गंधेली के आस-पास के गांवों में दरबार होने की बात कहते हुए यहां दरबार न बनाने की बात कही। सार्इं जी ने फिर से वचन फरमाया-‘किकरांवाली, लालपुरा कहीं नहीं जाएंगे, सीधा गंधेली जाएंगे। जाओ भई! डेरा बनाओ।’ यह सुनते ही गांव की संगत खुशी में छलांगें मारने लगी। कोई नाचने लगा, तो कोई नतमस्तक होकर सजदा करने लगा। दरबार की मंजूरी का समाचार लेकर हम सभी हंसी-खुशी गांव आ पहुंचे।

शाही मंजूरी मिलने पर संगत ने आपसी सहमति के बाद गांव में सच्चा सौदा डेरा बनाने को लेकर तैयारियां शुरू कर दी। बताते हैं कि उन दिनों गांव में पानी की बड़ी समस्या थी। गहरे कुएं से खींचकर पानी निकाला जाता था। आस-पास के कई किलोमीटर एरिया तक पक्की इंटें नहीं मिलती थी। उस समय मुख्तयार सिंह, जोगिंद्र सिंह आदि गांव में बने कुएं से पानी निकालकर मटकों से वह पानी मौजूदा समय में स्थापित दरबार के पास गड्डे में भरते और फिर उससे खुद कच्ची इंटें तैयार करते। मुख्तयार सिंह ने ठेठ पंजाबी भाषा में अपनी हड्ड बीती सुनाते हुए बताया कि जद्द ईटां तैयार हो गइयां तां अक्क(वीरान जगहों पर उगने वाला पौधा) दीयां कड़ियां बनाइयां।

करीर दी छट्टियां तोड़-तोड़ के लट्टेणां तैयार करियां। इह सारा सामान इकट्ठा कर कै खिप्पां दी छत्त पाई सी। बताते हैं कि पहली बार में गुफा के रूप में एक कमरा तैयार किया गया था, जिसमें इस तरह से खिड़कियां बनाई कि संगत दूर से भी सार्इं जी के दर्शन कर सके। संगत के उत्साह के चलते र्इंटें बनाने से लेकर गुफा तैयार करने में मात्र 12 दिन ही लगे। उधर संगत बहुत खुश हुई कि अपना डेरा बनकर तैयार हो गया है।

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भई! अब तो फेर पड़ गया, दूसरी बॉडी में ही आएंगे।

डेरा बनाने के अगले दिन गांव की संगत सरसा दरबार में पहुंच गई। दोपहर ढलने ही वाली थी। सार्इं जी दरबार के दूसरी साइड में बने कच्चे रास्ते पर खड़े थे। संगत को देखते ही पूछा- ‘हां भई बोलो, क्या हुआ?’ सेवादारों ने दबी सी आवाज में अर्ज की कि बाबा जी, आपजी ने हुक्म किया था दरबार बनाने का, हमने दरबार बना दिया है जी। आप जी चरण टिकाओ जी। यह सुनते ही सार्इं जी ने सख्त आवाज में फरमाया- ‘हहहहहह! ऐसा कैसे हो सकता है! हमें साथ ले जाने के लिए ऐसा कह रहे हो! 12 दिनों में कैसे बना दिया! तुम झूठ बोल रहे हो। अरे धन्ना, ओ ढोला ढोल वाला, चल मस्तानियां, जाओ उनके पता करके आओ कि ये सच बोल रहे हैं या झूृठ!’ उस समय चार लोग दरबार से यहां आए। इन सेवादारों ने ढोल की थाप पर पूरे गांव में ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ का नारा गूंजा दिया।

ग्रामीणों को बताया गया कि यहां डेरा सच्चा सौदा का दरबार बन रहा है। बाद में ये सेवादार जैसे ही वापिस सरसा दरबार पहुंचे तो पूज्य सार्इं जी मजलिस में विराजमान थे। ‘बोलो भई! क्या हुआ?’ बाबा जी, डेरा बन गया है जी। ‘अच्छा भई! ये तो कमाल हो गया! इतने कम दिनों मे डेरा बना दिया!’ सार्इं जी बहुत प्रसन्न हुए और एक सेवादार का नाम लेते फरमाया- ‘अरे धुक्कड़, चल गाड़ी निकाल, सीधे गंधेली चलेंगे।’ सेवादार ने जीप निकाल ली, लेकिन फिर सार्इं जी ने अचानक मना कर दिया। गांव के सेवादारों ने कई बार सार्इं जी के चरणों में गांव पधारने की अर्ज की लेकिन हर बार टाल देते। बताते हैं कि जब 1960 में गांव के मौजिज लोगों ने दरबार में आकर फिर से अर्ज की तो, शहनशाह जी ने अस्वीकृति के रूप में गर्दन हिलाते हुए फरमाया- ‘भई! अब तो फेर पड़ गया, दूसरी बॉडी में ही आएंगे।’

13 वर्ष बाद गांव को मिला रूहानी स्पर्श

संगत द्वारा सर्व-सम्मति से विचार-विमर्श करके गाँव में सरकारी सांझी जगह पर डेरा बनाया गया था। यह जमीन उस समय आबादी में थी। सबसे पहले तेरा वास तैयार किया गया। रोशनदानुमा यह कमरा बहुत ही सुंदर था। बाद में दो और कमरे बनाए गए। इसके बाद करीब दो बीघा एरिया को कांटेदार झाड़ियों की बाड़ से कवर किया गया। यानि चार दीवारी के रूप में झाड़ियों का इस्तेमाल किया गया ताकि खुले में घूमने वाले खतरनाक जानवर अंदर प्रवेश ना कर सकें। शुरूआती चरण में कच्ची र्इंटों से तेरा वास का निर्माण किया गया था। डेरा बनने के करीब 13 साल के बाद सन् 1970 में पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने पहली बार गांव में चरण टिकाए। पूजनीय परमपिता जी के पावन चरणों की छौह से मानो बरसों से प्यासी गांव की फिजा खुशी में खिल उठी।

अपने मुर्शिद को आंखों के सामने पाकर संगत खुशी में फूले नहीं समा रही थी। बता दें कि पूजनीय परमपिता जी सरसा दरबार से सीधा गांव में पधारे थे, सार्इं जी के वचनानुसार रास्ते में कहीं नहीं रुके, सीधा गंधेली ही आए थे। पूजनीय परमपिता जी ने इस दौरान डेरे का जीर्णोद्धार करवाते हुए तेरा वास सहित अन्य कमरों को पक्का बनाने का हुक्म दिया। और फिर से करीब 13 साल बाद यानि सन् 1983 मेंं जब पूजनीय परमपिता जी दोबारा यहां पधारे तो आश्रम की भव्यता अपने यौवन पर थी। तीसरी रूहानी ताकत के रूप में पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के मार्गदर्शन में डेरा का विस्तार बड़ी तीव्र गति से हुआ। पूज्य हजूर पिता जी अब तक चार बार गांव में पधार चुके हैं और हर बार ग्रामीणों व आस-पास की संगत को अपने असीम प्यार से नवाजते रहे हैं।

पूज्य हजूर पिता जी ने दरबार की चारदिवारी को कांटेदार झाड़ियों की बजाय पक्की इंटों से तैयार करवाकर उस पर बहुत ही खूबसूरत एवं प्रेरणादाई आकृतियों को तैयार करवाया, जो आज भी हर आगंतुक का ध्यान अपनी ओर बरबस ही खींच लेती हैं। संगत की सुविधा के लिए दर्जनों कमरों का निर्माण भी करवाया। वहीं सेवादारों को खेती के बहुमूल्य टिप्स भी सिखाए हैं, जिससे भरपूर आमदनी लेकर लोकहित के कार्य किए जाते हैं।

‘हमेशा हक-हलाल की कमाई करके खाना’

व्योवृद्ध सत्संगी मुख्तयार सिंह इन्सां बताते हैं कि देश बंटवारे के वक्त हमारा परिवार पंजाब से रामपुर थेड़ी(सरसा) में आया। उन दिनों गांव के ही एक सत्संगी ने हम से कहा कि आओ आपको पूज्य मस्ताना जी का सच्चा सौदा दिखाकर लाते हैं। मुझे याद है, उस दिन हम तीन लोग उस सत्संगी भाई के साथ सायं को डेरा सच्चा सौदा आ पहुंचे। उस रात करीब 3 बजे तक सार्इं मस्ताना जी महाराज एकांतवास में रहे। फिर तेरावास से बाहर आए और संगत को दर्शन दिए। सार्इं जी ने हमें गुरुमंत्र भी दिया और वचन फरमाया कि ‘भई जीवन में कभी मांग कर नहीं खाना है, हमेशा हक-हलाल की कमाई करके ही आगे बढ़ना है।’ इन वचनों को मैंने जीवन का ध्येय बना लिया।

इसके कुछ वर्ष बाद, सन् 1956 में ही हमारे कई परिवार गंधेली गांव में आ गए थे। उस दौरान ठाकुर बलविंद्र सिंह नामक व्यक्ति से दो हजार बीघा जमीन खरीदी थी। उन दिनों यहां के खेतों में सिंचाई तो दूर, पीने के पानी के लाले पड़े हुए थे। यह देखकर कई परिवार तो उखड़ गए कि ऐसे एरिया में रहकर क्या करेंगे? यहां तो भूखे मर जाएंगे! यह सोच कुछ परिवार वापिस चले गए। लेकिन हमें विश्वास था कि पूजनीय सार्इं जी ने यहां भेजा है तो वे अवश्य हमारी मदद भी करेंगे।

जब बिरादरी के लोगों ने उस एक हजार बीघा जमीन को आपस में बांटने से पूर्व ही पंचायत द्वारा अलॉट की गई करीब तीन बीघा जमीन को आपसी सहमति से इसलिए खाली छोड़ दिया कि यहां पर डेरा सच्चा सौदा का दरबार बनाएंगे। समय गुजरा तो गांव के पास एक नहर आ गई, और यह भी सतगुरु की रहमत रही कि हमारे खेतों में ही नहर से मोघा मंजूर हो गया। जो खेत कभी विरान पड़े थे, आज वहां हरियाली लहरा रही है। यह सब सच्चे संतों के वचनों से ही संभव हो पाया है।

‘डेरा की कोई एक र्इंट भी नहीं हिला सकता, ढहाना तो दूर की बात है।’

कहते हैं कि सोना आग में तपकर और निखरता है, ऐसा ही इतिहास यहां के डेरा प्रेमियों का रहा है। ग्रामीण नसीब सिंह बताते हैं कि सन् 1986-87 का एक भयावह दौर भी आया, जब काल के नुमाइंदों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी किंतु डेरा प्रेमियों की आस्था और विश्वास में लेशमात्र भी फर्क नहीं आया। बताते हैं कि डेरे का विस्तार कार्य चल रहा था। क्षेत्र में एक ही सरकारी र्इंट भट्टा था, जहां से 50 रुपये प्रति हजार के हिसाब से दस हजार पक्की र्इंटें लाई गई थी। लेकिन कुछ समय बाद वह भट्टा भी बंद हो गया। इसके बाद गांव के लोगों ने यहां पर ही छोटी-छोटी भट्टियां लगाकर र्इंटें पकाने का कार्य शुरू कर दिया।

उन्हीं दिनों कुछ सेवादारों ने मनमते होकर डेरे का निर्माण कार्य यह कहते हुए रुकवा दिया कि अब इस डेरे को ढहाकर सारा सामान सरसा दरबार में लेकर जाना है। संगत यह सुनकर बड़ी मायूस हो उठी। जिम्मेवारों ने उन सेवादारों से चार पहर का समय मांगा। उसके अगले दिन सुबह ही देवेंद्र सिंह को साथ लेकर मुख्तयार सिंह सरसा दरबार में आ पहुंचा। पूजनीय परमपिता जी दरबार में विराजमान थे, पूछा- ‘आओ भई, किवें आए?’ दर्द भरी आवाज में मुख्तयार सिंह ने अपनी बात रखी कि पूज्य पिता जी, आपजी ने हुक्म दिया है जी गंधेली का डेरा ढहाने का! एक सेवादार भाई वहां जाकर हमें डेरा ढहाकर सारा सामान यहां लाने की बात कह रहा है।

गांव की संगत बड़ी मायूस हो रही है। यह सुनकर पूजनीय परमपिता जी ने कड़क आवाज में फरमाया- ‘केहड़ा है भई जिसने ऐसा हुक्म दिया है। बुलाओ उसको। जब हमने कहा है कि सार्इं मस्ताना जी के बनाए हुए डेरे में किसी को पैर तक नहीं पुटने देंगे तो यह बात किसने कही है?’ यह सुनकर वह सेवादार वहां से रफुचक्कर हो गया जिसने गंधेली में अपने लोगों को भेजा था। पूजनीय परमपिता जी ने हमें आशीर्वाद देकर वापिस भेजा कि ‘जाओ डेरा की कोई र्इंट भी नहीं हिला सकता, ढहाना तो दूर की बात है।’ उस दौरान गांव की संगत ने छोटी भट्टियों से करीब दो लाख र्इंट तैयार की हुई थी, जिसे बाद में ट्रेक्टर-ट्रालियों के द्वारा सरसा दरबार में पहुंचाया गया।

जो अज्ज दुश्मन हैं, कल नूं सज्जन बन जांगे

60 वर्षीय गुरमीत्ता सिंह अपने मुर्शिद का शुक्राना करते हुए बताते हैं कि इन्सान कभी भी संत-महात्माओं के परोपकारों का ऋण नहीं उतार सकता। उन्होंने अपने जीवन के उस अनमोल पल को सांझा करते हुए बताया कि बात उन दिनों की है जब पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज यहां गांव में सत्संग करने पधारे थे। उन दिनों एक विवाद के चलते मेरे, बिंद्र सिंह व सुक्खा सिंह पर एक केस चल रहा था। मामला कोर्ट-कचहरी तक पहुंचा हुआ था। तीन साल से तारीखें भुगत रहे थे। उस दिन पूजनीय परमपिता जी सत्संग करने के बाद दरबार में पधारे। तेरा वास के चौबारे में जाने के लिए जैसे ही पौड़ी चढ़ने लगे तो इधर-उधर देख कर मेरी ओर अपनी डंगोरी से इशारा करते हुए फरमाया- ‘पुत्तर तुम्हारा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।

हुण जो तेरे दुश्मन बने होये हण, ओहो कदी तेरे सज्जन बणनगे।’ यह बात परमपिता जी ने तीन बार दोहराई। मैंने सतगुरु जी को उसी समय सजदा किया, लेकिन मन ने ख्याल दिया कि ऐसा कैसे हो सकता है? रोज तो तारीखें भुगत रहे हैं, इतनी दौड़-धूप करनी पड़ रही है और पूजनीय परमपिता जी कह रहे हैं कि दुश्मन सज्जन बन जाणगे। पूजनीय परमपिता जी ने एक वकील का नाम बताते हुए भाई मोहन लाल जी को हुक्म फरमाया- भई इसको उस वकील के पास ले जाओ। थोड़ा समय गुजरा, सारा मामला भाईचारे में राजीनामे के रूप में निपट गया।

सतगुरु जी की रहमत हुई जो लोग कल तक दुश्मन बने हुए थे, अब वे रिश्तेदार बनने के लिए हाथ बढ़ाने लगे थे। वह परिवार हमारे घर अपनी बेटी का रिश्ता लेकर आ गया। और हमने भी वह रिश्ता स्वीकार कर लिया। यह सब पूजनीय परमपिता जी की दया-मेहर व वचनों का ही कमाल था जो उन लोगों के दिमाग में ऐसी बात आई। अब दुश्मन भी सज्जन बनकर एक-दूसरे से गले मिल रहे हैं।

‘पानी तां पुलां हेठ दी ही लंघदा है…’

गांव में डेरा बनने के करीब 13 वर्ष बाद पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज सन् 1970 में पहली बार पधारे तो ग्रामीण आंचल की फिजा रूहानियत की खुश्बू से महक उठी। बताते हैं कि उस दौरान पूजनीय परमपिता जी जीप में सवार होकर आए थे। उन दिनों गांव में नहर भी आ चुकी थी और नहर के साथ-साथ कच्चा रास्ता गांव तक आता था। सेवादारों ने उस रास्ते पर पानी छिड़काव कर उसे पक्का बना दिया था। पूजनीय परमपिता जी ने सेवादारों की अथक मेहनत की वाहावाही करते हुए फरमाया- ‘भई इह राह तां सड़क वांग बना दित्ता, वाह भई।’ पूजनीय परमपिता जी ने ज्यों ही गांव में प्रवेश किया, मानो पूरा गांव ही खुशी में झूम उठा था।

गांव के बुजुर्गवार बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी जब पहली बार गांव में आए तो यहां रात्रि ठहराव भी किया था। हालांकि उस दिन सत्संग नहीं हुआ, लेकिन पूजनीय परमपिता जी ने मौजूदा दर्शनपुरा धाम के सामने खाली पड़े ताल में तंबू लगाकर लोगों को नामदान दिया था। इसके ठीक करीब 13 साल बाद पूजनीय परमपिता जी फिर सन् 1983 में गांव में दोबारा पधारे। उस दिन स्कूल के ग्राउंड में बड़ा सत्संग किया। पूजनीय परम पिताजी ने सत्संग से पूर्व कुछ सेवादारों को हुक्म फरमाया, ‘भाई! बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के समय के पुराने सत्संगियों को बुला कर ले आओ।’ सेवादारोें ने शहनशाह जी के वचनों पर फूल चढ़ाए। उन्होंने गांव में जाकर सभी पुराने सत्संगियों को पिताजी के वचन सुनाए और डेरे में आने का निमन्त्रण दिया लेकिन कोई भी पुराना सत्संगी नहीं आया।

इस पर शहनशाह जी ने वचन फरमाये, ‘भाई! पानी तां पुलां हेठ दी ही लंघदा है। इस लई सब नूं बेपरवाह जी दी शरण विच औणा ही पवेगा।’ गाँव के स्कूल में सत्संग होना शुरू हो गया। धीरे-धीरे गांव की सारी साध-संगत सत्संग में आने लग गई। देखते ही देखते साध-संगत से पंडाल भर गया और पिताजी के फरमाए हुए वचन पूरे हो गए। सार्इं जी के समय के सभी पुराने सत्संगी भी सत्संग में आ पहुंचे थे। अर्थात पानी पुलां हेठ दी लंघ गया।

उन दिनों खेतों में चने की खेती पककर तैयार हो चुकी थी। पूजनीय परमपिता जी ने संगत को फरमाया कि ‘भई अज्ज तुहानूं पंजाब दी मशहूर सब्जी खिलावांगे।’ संगत को चने के कच्चे दाने निकालने का हुक्म हुआ और बाद में उसका दाला तैयार किया गया। उस दिन सत्संग में 600 लोगों ने नाम शब्द ग्रहण किया था। बताते हैं कि पूजनीय परमपिताजी ने इस सत्संग से कुछ दिन पूर्व रावतसर में भी सत्संग किया था, जिसमें 700 लोगों ने गुरुमंत्र लिया था। उस समय में इतनी बड़ी संख्या में लोगों का एक साथ नाम लेना भी बहुत बड़ी बात थी।

रास्ता तो दूसरी ओर है और आप गेट इधर बनवा रहे हो!

संत तो युगदृष्टा होते हैं, उनको आने वाले समय की हर बारिकी का अहसास होता है। उनके हर वचन, कर्म में आने वाले भविष्य की तस्वीर छुपी होती है। बात उन दिनों की है, जब शाह मस्ताना जी धाम बनाने की सेवा चल रही थी। मुख्त्यार सिंह बताते हैं कि जब सार्इं बेपरवाह जी ने ब्यास डेरा से आकर एक माह तक कठोर तपस्या के बाद वचन फरमाया कि अपना डेरा बनाएंगे। इस पर शहर के सेठ-साहुकारों ने मुफ्त जमीन देने की बात कही। लेकिन सार्इं जी ने फरमाया- ‘वरी नहीं! जमीन मुल्ल (खरीदेंगे) लेंगे, फिर डेरा बनाएंगे।

’ उसके बाद यह जमीन खरीदी गई, जहां आज शाह मस्ताना जी धाम बना हुआ है। वे बताते हैं कि डेरा बनाने की सेवा बड़ी जोरों पर चल रही थी। दरबार का मुख्य दरवाजा बनाने की बात आई तो सार्इं जी ने हुक्म फरमाया कि ‘भई डेरे का मुख्य दरवाजा पश्चिम दिशा की ओर बनाओ।’ तो सेठ साहुकार व सेवादार यह सुनकर हैरान हुए कि रास्ता तो पूर्व दिशा में है और मुख्य गेट पश्चिम दिशा की ओर बनाने की बात हो रही है। उन दिनों दरबार के पूर्व दिशा से कच्चा रास्ता गुजरता था। उस समय सड़क इत्यादि कोई अन्य मार्ग नहीं था। लोग इस रास्ते से आवाजाही करते थे।

जब सेवादारों एवं सेठ साहुकारों ने अर्ज की कि बाबा जी, रास्ता दूसरी साइड में है और आप गेट इधर बनवा रहे हो! सार्इं जी ने फरमाया- ‘भई तुम्हारे को क्या पता!’ बाद में शाही हुक्म के अनुसार, गेट तैयार हो गया। कुछ समय ही गुजरा, एक टीम सर्वे के लिए आ गई। बताते हैं कि 7 दिनों तक सर्वे होता रहा और फिर तय हुआ कि सड़क डेरे की पश्चिम दिशा से बनाई जाएगी, और मुख्य द्वार के सामने से गुजरेगी। पूज्य सार्इं जी ने तो पहले ही यह निश्चित कर दिया था कि सड़क यहीं से बनेगी, लेकिन इन्सान की बुद्धि-विवेक में यह बात बाद में आई।

…फेर तुसीं सारे रोटियां खान आलै ही सी

बताते हैं कि जब गंधेली दरबार को पक्का करने किया जा रहा था तो उस समय सेवादार जग्गर सिंह दरबार में रहा करता था। उसने पक्की उसारी (चिनाई)के दौरान बड़ी उत्सुकता से कार्य किया। वह हमेशा सेवादारों में आगे रहता था। पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज जब आश्रम में पधारे तो सेवादारों से हर एक चीज व मकानों के बारे में बारिकी से पूछने लगे कि ‘आह किहने बनाया बई!’ जी, जग्गर सिंह ने।

‘तै आह किहने बनाया’ जी, जग्गर सिंह ने। जब पूजनीय परमपिता जी ने करीब आठ-दस चीजों के बारे में बारी-बारी पूछा तो सेवादारों ने हर बार जग्गर सिंह का ही नाम लिया। इस पर पूजनीय परमपिता जी ने मजाकिया लहेजे में फरमाया- ‘सारा कुछ जग्गर सिंह ने ही बनाया है तां फेर तुसीं सारे रोटियां खाण आलै ही सी?’ यह सुनकर वहां मौजूद संगत खूब हंसी।

आहा है साडे सच्चे पिता जी तां!

पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी महाराज जब गांव में सत्संग करने पधारे थे तो गांव की संगत सेवा में लगी हुई थी। मैं भी अपनी 5 बहनों के साथ लंगर की सेवा में थी। आटा छानने का कार्य चल रहा था। उधर दूसरी ओर भाइयों की साइड में सेवादार प्रसाद बना रहे थे। प्रसाद वाले कडाहे के पास मेरे पति जोगिंद्र सिंह की सेवा थी। 85 वर्षीय गुरनाम कौर बताती हैं कि जब प्रसाद बनकर तैयार हो गया तो सेवादार टिक्का सिंह ने यह कहते हुए प्रसाद ले लिया कि बच्चे रो रहे हैं उनको देना है। यह देखकर मैंने भी सोचा कि क्यों ना अपने भी प्रसाद ले लें? जब मैं प्रसाद लेने गई तो मेरे पति ने मजाकिया लहेजे में कहा कि ‘तैनूं प्रसाद नीं देणा, होर सारे पिंड नूं प्रसाद पा दूं।

’ इस पर मैंने कहा- ‘चल कोई ना, सानूं शाह मस्ताना जी देऊ।’ यह कहकर मैं वापिस आकर आटा छानने की सेवा में लग गई। आटे से निकले सूड़ को डालने के लिए खाली थालियां लाने गई। जब मैंने ढेर से ऊपर से दो थालियां उठाई तो मेरी आंखें खुशी के मारे छलक आई। मैंने देखा कि उनके नीचे वाली थाली प्रसाद से भरी हुई है। यह देखकर मेरी आत्मा सतगुरु की रहमत से तृष्त हो उठी। हैरानी भी थी, क्योंकि ये थालियां तो रात भर से यहीं रखी हुई थी, लेकिन उस थाली में प्रसाद इस तरह से सजाया हुआ था जैसे किसी ने अभी उसमें प्रसाद भरा हो। मैं वह थाल लेकर अपने पति के पास पहुंची और गर्व से कहा कि ‘आह है साडे सच्चे पिता जी तां! तूं तां ऐवें ही जवाकां दा पिता बनेया फिरदा हैं!!’

सपने में आकर काट दी सत्संगी की बीमारी

सतगुरु के प्रति आपकी तड़प गर सच्ची है तो वह आपके जीवन में आने वाले कष्टों को सपनों में ही खत्म कर देता है। ऐसी ही एक विचित्र बात सुनाते हुए मुख्तयार सिंह बताते हैं कि उन दिनों पूजनीय परमपिता जी रावतसर में सत्संग करने पधारे हुए थे। मैंने भी उसी सड़क के किनारे थोड़ी सी जमीन खरीद कर एक मकान बनाया हुआ था, जहां अकसर रहता भी था। मैंने पूजनीय परमपिता जी से अर्ज की कि बेपरवाह जी कुल्ली पाई बैठां हां तेरे राह ते, आंदा जांदा तक्कदा रहर्इं। यह सुनकर बेपरवाह जी बहुत खुश हुए और फरमाया- ‘भई जरूर, कभी देखेंगे।’ उन दिनों मेरे एक टांग में इतना दर्द रहता था कि उसे सहन करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

कई बार तो मैं अचानक खड़ा-खड़ा जमीन पर गिर जाता था। कई डाक्टरों को भी दिखाया लेकिन मेरी टांग दिन-ब-दिन सूखती जा रही थी और चलने-फिरने में भी बहुत परेशानी आने लगी थी। एक रात मुझे सपना आया कि जैसे पूजनीय परमपिता जी अचानक मेरी कुल्ली(मकान) के सामने खड़े हैं और फरमा रहे हैं कि ‘भई मुख्तयार सिंह, तूं रोज आख दिंदा हैं। आजा, अज्ज तेरी चाय पीने हां।; साथ में संगत भी आई हुई थी। मैंने सपने में ही जल्दी-जल्दी में चाय बनाई और एक कप चाय लेकर आ गया। जब वह चाय पूजनीय परमपिता जी को देने लगा तो चाय से भरा कप पूजनीय परमपिता जी के एक पैर पर गिर गया। हड़बड़ाहट में मैं कपड़ा लेकर चाय को साफ करने लगा।

तभी पास खड़े पूज्य हजूर पिता जी ने फरमाया- ‘भई मुख्तयार, इह तां तेरा कोई कर्म ही कटना सी।’ सपने की यह बात नींद खुलते ही सच्चाई में तबदील हो गई। जब मैं सुबह उठा तो मेरी वह टांग पूरी तरह से ठीक हो चुकी थी और दर्द भी गायब था। धन्य है मेरे सतगुरु, जिन्होंने सपने में ही मेरी असाध्य बीमारी को चुटकियों में खत्म कर दिया।

भई! तेरी चाबी तां उत्थे पई है

एक बार पूज्य हजूर पिता जी यहां दरबार में पधारे हुए थे। संगत भी बड़ी संख्या में दर्शनों के लिए पहुंची हुई थी। 82 वर्षीय भाग सिंह बताते हैं कि उस दिन सेवा कार्य भी चल रहा था। सेवादार मुख्तयार सिंह माखोवाला मेरे पास आया और बोला कि, यार मेरी गाड़ी की चाबी कहीं गुम हो गई, शायद सेवा के दौरान कहीं गिर गई है! उसके चेहरे पर थोड़ी मायूसी सी दिख रही थी। थोड़े समय बाद ही सेवादारों ने हमें आवाज दी कि पूज्य हजूर पिता जी सभी को ऊपर चौबारे पर बुला रहे हैं। हम दौड़ते हुए वहां जा पहुंचे। पूज्य पिता जी ने हाल-चाल पूछा और सेवादारों को फरमाया- ‘भई इन्हां सेवादारां नूं चाय पिलाओ, ते प्रसाद भी देयो।’ तभी एकाएक पिता जी ने मुख्तयार सिंह की ओर मुखातिब होते हुए फरमाया- ‘भई तेरी चाबी तां उत्थे(एक निर्धारित जगह) पई है, चक्क लीं।’ यह सुनकर हम खुशी से खिल उठे। जैसे ही हम वहां पहुंचे तो सच में ही चाबी वहां पर रखी हुई थी। यह देखकर खुशी के साथ-साथ हैरानी भी हो रही थी कि पूज्य पिता जी तो ऊपर चौबारे में विराजमान हैं, उनको कैसे पता चला कि चाबी गुम हो गई है और चाबी कहां गिरी है। वाह मेरे सतगुर! तूं तो घट-घट की जानता है।

जट्ट ने सवागा जोड़ लेया

वर्ष 2009-10 के आस-पास की बात है, पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां राजस्थान को अपनी रहमतों से निहाल कर रहे थे। पूज्य हजूर पिता जी ने उन दिनों संगरिया, टिब्बी, लालपुरा व रामपुरा सहित आधा दर्जन सत्संगें एक साथ मंजूर कर दी। क्षेत्र की संगत भी खुशी से गद्गद् हो उठी। सत्संगी बताते हैं कि टिब्बी में सत्संग दौरान पूज्य हजूर पिता जी ने अपने मुखारबिंद से फरमाया- ‘जट्ट ने सवागा जोड़ लेया।’ यानि अपनी रूहों को काल के चंगुल से छुड़ाने के लिए पूज्य हजूर पिता जी ने सत्संग रूपी सुहागा चलाते हुए काल को धराशाई कर दिया और हजारों लोगों को गुरुमंत्र की दात बख्शते हुए उनके जीवन को राम नाम के रस से भर दिया।

प्रकृति की अनूठी छटा बिखेरती है तेरा वास की मीनाकारी

जैसे ही गांव के पूर्वी छोर पर पहुंचते हैं तो दूर से ही डेरा सच्चा सौदा दर्शनपुर धाम के दर्शन होने लगते हैं। हरियाली की छटा के बीच पिसता रंग में रंगा तेरा वास की भव्यता देखते ही बनती है। खास बात यह भी है कि पक्की इंटों से बनी इस इमारत का अंदरूनी हिस्सा कच्चा है, जिसे गलेफीनुमा भी कहते हैं।

पूजनीय परमपिता जी ने अपने पावन सान्निध्य में इसका निर्माण शुरू करवाया था, जिसे सेवादारों ने इस कदर डिजाइन किया है कि वह प्रकृति का गजब नमूना पेश कर रही है। इसकी दीवारों पर पक्षियों के चित्र इस तरह से लगाए गए हैं जैसे वे अपने मुंह से मीठी-मीठी आवाजें निकालते हुए प्रतीत हो रहे हों। तेरा वास के चौबारे के मुख्य गेट पर राष्टÑीय पक्षी मोर मानो स्वागत करने को आतुर है। अंदर की लॉबी भी इसी तरह से प्रकृति के बचाव का संदेश देती नजर आती है।

सेवा भाव को और घनिष्ठ बनाती है यहां के किन्नू की मिठास

सेवादार भजन सिंह बताते हैं कि यहां दरबार के पास मौजूदा समय में 28 बीघा जमीन है, जिस पर बागबानी के अलावा खेती कार्य भी किया जाता है। उन्होंने बताया कि मुख्यत: गेहूं व सरसों की खेती की जाती है। किन्नू का बाग बेशक थोड़े एरिया में लगाया गया है, लेकिन इसकी मांग आस-पास के गांवों में भी रहती है। खास बात यह भी है कि पूज्य हजूर पिता जी द्वारा लगाई गई डयूटी के अनुसार टिब्बी के सेवादार यहां हर सेवाकार्य में अपनी महत्ती भूमिका निभाते हैं। वर्तमान में गंधेली गांव रावतसर ब्लॉक के अंतर्गत आता है।

हर दुख-सुख में भागीदार बनते हैं सभी धर्मों के लोग

मुस्लिम बाहुलय गांव गंधेली सभी धर्मों का अद्भुत संयोग है। गांव में जहां डेरा सच्चा सौदा दर्शनपुरा धाम स्थापित है, उसके एक साइड में गुरुद्वारा साहिब है, वहीं सामने विद्या का मंदिर है, जो गांव के उज्जवल भविष्य का निर्माण करता हुआ प्रतीत होता है। गांव के पास एक लाख 4 हजार बीघा का रकबा है, इसलिए गांव दो बावनी के नाम से मशहूर है।

यह राजस्थान प्रदेश के सबसे बड़े गांवों में शुमार है। सरपंच भूप सिंह सिहाग का कहना है कि गांव में सभी धर्म, सम्प्रदाय के लोग प्रेम-प्यार से रहते हैं, वहीं एक दूसरे के दु:ख-सुख में भी भागीदार बनते हैं। डेरा सच्चा सौदा के सत्संगी तो गांव का गौरव हैं, जो हमेशा मानवता भलाई के कार्याें में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। – भूप सिंह सिहाग, सरपंच

ऐसे पहुंचें दरबार में

रेल सुविधा:

श्रीगंगानगर से बाया नोहर राजगढ़ ट्रेन की सुविधा उपलब्ध है। नोहर रेलवे स्टेशन पर पहुंचकर वहां से बस या टैक्सी के द्वारा गंधेली दरबार (करीब 25 किलोमीटर) पहुंचा जा सकता है।

बस सुविधा:

यहां दरबार में पहुंचने के लिए नोहर व रावतसर दोनों शहरों से सड़क मार्ग भी सुगम है। दोनों शहरों से समय-समय पर बस सुविधा उपलब्ध रहती है।

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