True Service सेवाभाव अर्थात् दूसरों की सेवा करने का जबा कमोबेश हर व्यक्ति में होता है। प्राय: हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पेशे या व्यवसाय से जुड़ा हो, गÞरीब हो अथवा अमीर, मुक्तहस्त हो या कृपण, स्त्री हो या पुरुष, न सिर्फ स्वयं जीवन में आगे बढ़ना चाहता है, उन्नति करना चाहता है अपितु समाज के लिए भी कुछ न कुछ अवश्य करना चाहता है। आप विचार कीजिए आपने कितनी बार किसी न किसी अवसर पर किसी की मदद करने की सोची लेकिन सोचते ही रह गए और मदद नहीं कर पाए। आख़िर हम चाहते हुए भी कुछ क्यों नहीं कर पाते?
अपने आसपास चारों तरफ नार दौड़ाइये। कोई बीमार, बूढ़ा या लाचार व्यक्ति दिखलाई पड़े तो उसके कष्ट के बारे में पूछिए। किसी की देह बुख़ार से तप रही हो तो उसे बुख़ार उतारने की एक गोली दिला दीजिए। यदि आप वास्तव में कुछ करना चाहते हैं तो बड़े-बड़े अस्पताल खोलने की ारूरत नहीं, वो भी किसी अनिश्चित भविष्य में। जरूरत है तो लोगों की छोटी-छोटी तकलीफों को दूर करने की लेकिन आज और अभी।
कोई भूख से व्याकुल होकर हाथ पसारे तो उसे उपदेश देने की बजाय पेट भर भोजन करा दीजिए। उपदेश देना हो तो बाद में दीजिए। उपदेश या निरंतर भीख देने की बजाय उसे रोागार का अवसर दीजिए या उसका उचित मार्गदर्शन कीजिए। जो करना हो कीजिए लेकिन आज और अभी क्योंकि हो सकता है अनजान भविष्य में आपके बड़ा अस्पताल बनवाने या अनाथालय खोलने और लंगर लगवाने तक ये सब आपकी सेवा लेने के लिए रहें या न रहें अथवा उन्हें सेवा की जरूरत ही न पड़े।कुछ लोग ऐसे भी हैं जो व्यापार या नौकरी करते हैं तथा खाली समय में समाजसेवा का शौक भी फर्माते हैं। दान-दक्षिणा में भी विश्वास रखते हैं।
True Service लेकिन अपने व्यवसाय या नौकरी में सेवा की बात तो दूर अपने कर्तव्य का पालन भी भली-भाँति नहीं करते। आप एक अध्यापक हैं तथा गÞरीबों के लिए स्कूल खोलना चाहते हैं लेकिन अपनी नौकरी में अपने कर्तव्य का ठीक से निर्वाह नहीं करते। क्या अपनी नौकरी के दौरान अपने कर्तव्य का सही पालन करना अनिवार्य नहीं? क्या यह सेवा से कम है?आप एक डॉक्टर हैं तथा गरीबों के लिए अस्पताल खोलना चाहते हैं। इसके लिए पैसा एकत्र करते हैं। आप अपने मरीजों से मोटी फीस वसूलते हैं। सभी व्यक्ति फीस या मोटी फीस देने में असमर्थ होते हैं। तो क्या इस समय एक व्यक्ति को कम पैसों में या बिना पैसे सेवा देना अपेक्षित नहीं? एक तरफ शोषण दूसरी तरफ भलाई।
एक तरफ भ्रष्टाचार की कमाई, दूसरी तरफ मंदिर-मस्जिदों तथा अनाथालयों का निर्माण। ये दोहरे मानदण्ड वास्तव में स्वयं को धोखा देना है। अपने पेशे के प्रति कर्तव्यनिष्ठा तथा ईमानदारी भी सेवा ही तो है। नौकरी को भी सेवा ही कहा गया है।किसी की सहायता करना, निस्वार्थ सेवा करना अच्छी बात है। जो दूसरों की सेवा करता है उसे अत्यंत संतुष्टि और आनंद की प्राप्ति होती है। आनंद की अवस्था में व्यक्ति तनावमुक्त होकर स्वस्थ हो जाता है। ऐसी अवस्था मनुष्य के अच्छे स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयोगी है।
एक उपचार प्रक्रि या के रूप में भी रोगी को दूसरों की सेवा करने का परामर्श दिया जाता है। मंदिर-मस्जिद अथवा गुरुद्वारों में कारसेवा इसका एक उदाहरण है।सेवा के लिए स्वयं को हर समय हर स्थान पर प्रस्तुत करने का प्रयास कीजिए। इसे व्यापक आयाम प्रदान कीजिए। जो करना है आज ही कीजिए, सीमित साधनों में ही कीजिए अन्यथा अपने अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति से वंचित रह जाएँगे। सेवा तो आपके स्वयं के लाभ का सौदा है बशर्ते कि आप सेवा का मर्म समझ कर उचित रीति से सेवा करना सीख जाएँ। जो आपको अपनी सेवा का अवसर प्रदान करता है उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें क्योंकि उसने आपको आपके स्वयं के विकास का अवसर दिया है। -सीताराम गुप्ता