हर बच्चा ’सम्पूर्ण’ है
हर बच्चा अपने आप में पूर्ण है। यह हमारे लिए चुनौती है कि उसकी पूर्णता को हम कैसे तलाशें और दिशा दें।
हम सामान्य लोग तथाकथित रूप से अपने बच्चों की सफलता-असफलता के कैसे कैसे मापदंड बताते रहते हैं। इसका नतीजा हर साल परीक्षा परिणामों के बाद दिखाई देता है। एक निगाह उन पर डालें, जिनको देखकर ही हम आम लोग इन्हें ईश्वर की अपूर्ण कृति कह उठते हैं।
आम माता-पिता के घर जन्मे यह विशेष बच्चे किसी तरह अपनी ज़िंदा रहने की ज़रूरते पूरी कर लें इतना ही काफी समझा जाता है। लेकिन यह सच नहीं है। स्वीकार किया गया है कि यह बच्चे विशिष्ट योग्यताओं के साथ दुनिया में आते है। यह न सिर्फ आत्मनिर्भर हो सकते हैं, बल्कि कमाई करके, आमजन की सोच को कड़ी टक्कर दे सकते हैं।
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कितनी हैरानी की बात है यहः
हम सामान्य दिखने वाले बच्चे को सफल ठहराते रहते हैं और वे जिन्हें जन्म से किसी न किसी रूप में असफल ही समझा जाता है, वे कामयाबी के रास्तों पर चढ़ रहे हैं। बस ज़रूरत है उन्हें सही मार्गदर्शक तक ले जानें की।
कमज़ोर नहीं कुछ कमियां हैंः
मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चे चाहे वे डाउन सिंड्रोम या आटिज्म से पीड़ित हों, उनके सीखने समझने के साथ बोलने सुनने की क्षमता कमज़ोर होती है। इन बच्चों को बातचीत करने में दिक्कत होती है। छोटे-मोटे काम सीखने में भी वर्षों लग सकते हैं।
ऐसे में अभिभावकों के लिए तो इनकी परवरिश चुनौती भरी होती ही है, इनके खुद के लिए ज़िंदगी ढेर सारे संघर्ष और चुनौतियां लेकर आती है। अभिभावकों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे बच्चों को सही समय पर ऐसे बच्चों के लिए काम कर रही पेशेवर संस्था के पास ले जाएँ। यह सोच कि ऐसे लोग कुछ नहीं कर सकते या जीवनभर बैठाकर इनकी सेवा करनी पड़ती है, पंगु सोच की निशानी है।
आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाकर न केवल इनके बेहतर जीवन के रास्ते खोले जा सकते हैं, बल्कि समाज में भी आर्थिक रूप से अपना योगदान दे सकते हैं। जितनी क्षमता आम बच्चे में होती है, वैसी ही क्षमताओं के साथ ये बच्चे भी दुनिया में आते हैं।
हर बच्चे के लिए अलग पाठ्यक्रमः
इन बच्चों को सीखने में ज़रूर थोड़ा समय लगता है, लेकिन गहन प्रशिक्षण और पेशवरों की मदद से इन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। रट्टा मार पढ़ाई की बजाय, कौशल विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए। कौशल विकास का यह सूत्र सामान्य बच्चों पर भी लागू होता है। हरेक बच्चे की कुछ विशेष रूचि और क्षमता होती है। इसका पता लगाने के लिए ’फेसिंग आटिज्म इन क्रिएटिंग एनवायरनमेंट फॉर चेंज’ प्रोग्राम बनाया है। इसमें मैडिटेशन, योग के अलावा बच्चों को आध्यात्मिक और भावनात्मक रूप से संतुलन बनाना सिखाया जाता है।
इस तरह की परेशानियों से जूझ रहे बच्चों के लिए एक तरह का ही पाठ्यक्रम होता था। लेकिन फेस प्रोग्राम में हर बच्चे के हिसाब से अलग पाठ्यक्रम तैयार होता है या मौजूदा पाठ्यक्रम में उसके मुताबिल सेट किया जाता है।
सहारा नहीं कौशल सिखानाः
बच्चों में कौशल का पता लगाने के लिए उनसे थोड़ा-थोड़ा काम करवाना ज़रूरी है। वह मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चों के साथ सारे बच्चों पर लागू होता है। पेशेवर प्रशिक्षक बच्चों के काम के तरीके, उसके साथ लगाव और प्रदर्शन पर निगरानी रखकर तय करते हैं कि उसकी रूचि किस क्षेत्र में है। इस आधार पर उसकी रूचि और योग्यता का पता चल जाता है। २१ साल के होते ही उनके हाथ में नौकरी हो इसके लिए क्लास रूप और व्यवसायिक प्रशिक्षण कि भी ज़रूरत है। इसमें प्रशिक्षण के बाद दो साल की इंटर्नशिप भी शामिल होती है।
परेशानियों के बाबजूद खुशहाल होते हैं ये बच्चेः
इतनी सारी परेशानियों के बाबजूद ये बच्चें जीवन जी रहे हैं तो शारीरिक-मानसिक रूप से स्वस्थ बच्चे थोड़ी-सी परेशानी या आशा के अनुरूप परिणाम नहीं आने पर हार क्यों मान जाते हैं। क्या यह माँ-बाप के लिए भी बड़ा सवाल नहीं है कि वे भी ऐसे बच्चों के अभिभावकों की परिस्थितियां और अपनी तुलना करें।
इस बहुमूल्य जीवन के लिए हौंसला और सहारे की ज़रूरत होती है। परिस्थितियों से हार मानकर कुछ भी न करने से बेहतर है सीखना।
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